"देख, तू अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. है. जानती है ना, इंग्लिश के शब्द 'रेज़िलियंस' का क्या अर्थ होता है? अपने व्यवहार की लचक से ही तू उसे संभाल सकेगी. दूसरे से जैसे व्यवहार की उम्मीद हो, उसे वैसा बनकर भी तो दिखाना पड़ता है बेटी."
गौरव शीशे में बाल संवार कर मेरी तरफ़ पलटे और आंखों में ढेर सारा प्यार समेट कर बोले, "बोलो निधि, फिर शिमला चलना तय रहा?" लाज से मेरा चेहरा लाल हो उठा और मैं दूसरी तरफ़ मुंह फेर कर सकुचाई सी चुप बनी रही. अभी चार दिन पहले जिस अजनबी पुरुष के साथ मेरे माता-पिता ने मेरे भाग्य की डोर बांधी है, उसके बारे में तो मैं अभी कुछ भी नहीं जानती. न मुझे गौरव के स्वभाव का पता है, न आदत का, न उसके खाने-पीने की पसंद मुझे मालूम है, न उसकी नापसंद. फिर पहले कभी पहाड़ भी नहीं देखा. सब कुछ अनजाना, ऐसी अनजानी जगह चलने को कैसे एकदम से 'हां' कह दूं?
"देखो निधि, इस तरह गूंगे बने रहने से तो नहीं चलेगा. तुम्हें शिमला पसंद न हो तो मसूरी चलते हैं. बोलो, कहां चलना चाहोगी?"
इस बार पहाड़ के दो ख़ूबसूरत शहरों में से किसी एक का निर्णय करने के मोड़ पर जब गौरव ने मुझे ला खड़ा किया, तो मेरा कंठ सूख गया. भला इन दिनों मेरे लिए शिमला और मसूरी में क्या फ़र्क़ है? दोनों शहरों के लिए मेरी घबराहट तो एक जैसी है. इससे पहले कि मैं कुछ कह पाती, मेरी बड़ी ननद ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा, "अभी तक जाने का फ़ैसला नहीं हुआ क्या?"
"नहीं दीदी." गौरव ने दोनों अंगूठे हिलाते हुए कहा.
"मेरी मानो तो शिमला ही जाओ, आजकल बर्फ़ का नज़ारा भी देखने को मिलेगा." दीदी ने आंखों में चमक भर कर कहा.
"मैं भी यही कह रहा था दीदी. फिर बड़े भैया और भाभी भी तो शिमला ही गए थे." गौरव ने भी चहक कर कहा.
"अपने बड़े भैया के पदचिह्नों पर ही चलना देवर जी।" बड़ी भाभी ने हंसकर कहा तो लगा, आज न जाने कितने दिनों बाद ठिठोली की होगी उन्होंने. मानसिक संत्रास में चुप्पी ओढ़े जीती बड़ी भाभी इस तरह घर में डोलती थीं, मानो उनका शरीर यहां और आत्मा पति के संग हो. कई बार उनका ध्यान इतना आत्मकेन्द्रित होता था कि पुकारे जाने पर भी वे सुनती नहीं थीं. सबको उम्मीद थी कि छोटे भाई के विवाह पर मेजर भैया ज़रूर आएंगे, पर वे तमिल उग्रवादियों के मुक़ाबले पर श्रीलंका में ऐसी जगह तैनात थे कि विवाह में नहीं आ पाए.
मेजर भैया घर के बड़े लड़के और मेरे ससुर के बड़े भाई के पुत्र हैं. दोनों भाइयों का आपसी स्नेह उन्हें अभी तक एक ही घर में बनाए हुए है. बड़ों के साथ बच्चों का प्यार भी कम नहीं है. बड़ी भाभी ने जिस प्यार और अपनेपन से मुझे घर में अपनाया था, उस स्नेह ने मुझे अपनी सास की कमी नहीं महसूस होने दी थी. दहेज को लेकर या बारात की मेहमानदारी को लेकर नववधू अक्सर जो कटु वाक्य सुना करती है, वे मैंने नहीं सुने.
बड़ी भाभी ने मेहमानों के विदा हो जाने पर घर की ज़िम्मेदारियों से मुझे धीरे-धीरे अवगत करा दिया था. रसोई दिखाकर बड़ी भाभी ने मुझे घर के सभी सदस्यों की रुचि-अरुचि, मिर्च-मसाले की पसंद आदि से परिचित करा दिया था. बड़ी भाभी के रहते मुझे किसी बात की चिन्ता न थी और अभी बड़ी दीदी भी दो हफ़्ते रुकने वाली थीं और गौरव पर पहाड़ चलने की धुन सवार थी.
जिस शाम शिमला चलने का फ़ैसला हुआ उस शाम घर पर वज्रपात हुआ. सेना से टेलिग्राम था, जिसमें बड़े भैया के वीरगति को प्राप्त हो जाने का समाचार था. इस ख़बर के साथ ही घर में दुखों का अंबार टूट पड़ा. भाभी के रुदन में पूरा घर डूब गया. बड़े भैया के दो नन्हें मासूम लड़कों को देखकर सबका कलेजा मुंह को आता था. उस दुख के सैलाब में हमारे विवाह की ख़ुशी आकंठ डूब गई.
सेना से संलग्न होने के कारण इस प्रकार की घटनाएं चाहे कितनी भी संभावित क्यों न हों, हर फौजी परिवार को यह आशा रहती है कि हर अमंगल-अनिष्ट किसी दूसरे का ही होगा. उनका फौजी सकुशल वापस आ जाएगा, हर व्यक्ति की अपने प्रति यह पक्षधरता क्यों है? पता नहीं.
दुख के अम्बार में डुबे हम सभी अनिश्चित भविष्य के भंवर में डूबते-उतराते रहे. संवेदना प्रगट करने वालों का घर में तांता लगा रहा. दुख भरे माहौल की भी अपनी व्यस्तता थी. कभी किसी का सन्देश सुनना पड़ता तो कभी तार रिसिव करने पड़ते, कभी बड़ी भाभी के आंसू पोंछने पड़ते, तो कभी रिश्तेदारों के साथ स्वयं भी कातर होना पड़ता.

इस दुख के सैलाब में मैं अपने विवाह की मधुरिमा तो भूल ही गई. याद भी नहीं रहा कि शिमला जाना था. एक बार भी गौरव का ध्यान नहीं आया. इन पिछले दस दिनों में वे डबल बेड पर अकेले कैसे सो रहे हैं, बड़ी भाभी के साथ ज़मीन पर सोते मुझे ज़रा भी ध्यान नहीं आया. मुझे तो याद रहती थी कल की व्यस्तता, अपने ससुर और उनके बड़े भाई की पनीली आंखें और मेजर भैया के दोनों बच्चों का भविष्य.
दुख की अंतिम कड़ी तेरहवीं के बाद सब चले गए. बड़ी ननद भी. बड़ी भाभी को उनके पिता लिवा ले गए और घर में पीछे रह गया एक गहरा सन्नाटा. उस सन्नाटे की केन्द्र बिन्दु बड़ी भाभी चाहे वहां नहीं थीं, पर मैं न रेडियो सुनती थी, न कैसेट. गौरव घूमने चलने को कहते तो मैं बहाना बनाकर टाल जाती. वे फिल्म देखने का आग्रह करते तो मैं घर के वीसीआर पर फिल्म लगाने की मनुहार करती.
एक दिन गौरव का दूध बनाकर मैं कमरे में पहुंची तो वे तिरछी निगाह से मुझे देखते हुए बोले, "तुम्हें हुआ क्या है निधि?"
"मुझे, क्यों, मुझे क्या हुआ?" मैं हैरान हो कर अपने शरीर पर दृष्टिपात करते हुए बोली.
"तुम बीमार हो." गौरव ने जैसे मुझ से मेरा परिचय करवाते हुए कहा, "तुम्हें ऐसे ही लगा होगा, मैं तो ठीक हूं." मैंने गौरव को छू कर कहा.
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"आदमी मन से भी बीमार हो जाता है निधि, चलो, अब शिमला चलते है." गौरव ने मेरे कन्धे थपथपा कर कहा. "बड़ी भामी को बुरा लगा तो?" न जाने कैसे कह पाई मैं. "क्या तुम कभी पूरे संसार की ज़िम्मेदारियों से निकलकर मेरी तरफ़ भी देखना पसंद करोगी?" गौरव ने कमरे का दरवाज़ा बंद कर मुझे सख्त आवाज़ में घूरते हुए कहा तो लगा, शायद मैं कुछ ग़लती कर रही हूं, पर कहां? मैंने तो अपनी तरफ़ से किसी का दिल नहीं दुखाया मुझे कुछ न सूझा तो मैं चुप रही. गौरव कुछ क्षण मेरे जवाब की प्रतीक्षा करते रहे. फिर बोले, "तुम सारे दिन भाभी के दुखड़े को इस तरह सुनाती हो कि मुझे अपनी शादी के नएपन पर गिल्ट होने लगता है, जानती हो तुम?"
गौरव ने अपने शब्द संयम की कमान से पूरी सतर्कता के साथ छोड़े थे, पर उस दिन मैं जैसे ज़मीन पर आ गिरी थी. कुछ देर गौरव को देखती रह गई थी. फिर पास आ कर पति का हाथ अपने हाथ में लेकर बोली थी, "आई एम सॉरी डियर."
उस दिन से मेरे दो भाग हो गए थे. एक सिर्फ़ गौरव के लिए था. ये जैसा चाहते थे, मैं वैसा करने को तैयार रहती, दूसरी तरफ़ था मेरा संवदेनशील मन.
एक शाम गौरव लौटे तो बहुत ख़ुश थे. बाहर से ही बच्चों में चॉकलेट द्वारा अपनी ख़ुशी बांटते हुए वे घर के भीतर आए थे. उस दिन बड़ी भाभी भी हंसी थीं उनकी हरकतों पर, घर जैसे अपने पुराने ढरें पर लौट रहा था. रात को रसोई का काम निबटाते-निबटाते जब तक मैं अपने कमरे में पहुंची, गौरव करवट बदलकर लेट चुके थे. मैंने उनके क़रीब बैठ कर अपनी उपस्थिति ज़ाहिर की, पर वे कुछ नहीं बोले, मैंने मुस्कुरा कर उनके बालों में उंगलियां फेरी, "नाराज़ हो?"
"नहीं तो." दो टूक जवाब.
"हो तो." मैंने उन्हें मनाया.
"नहीं , नाराज़ क्यों होने लगा?" वे पलटे.
"यही तो मैं कह रही हूं. न जाने तुम यह कैसे मान लेते हो कि मैं तुम्हारे साथ नहीं हूं." मैंने उन्हें मनाया.
"हो सकता है, अगर मैं यह मान लेता हूं तो तुम ज़रूर मेरे साथ नहीं होती." वे सीधे मेरी आंखों में देखकर बोले.
"मुझे बड़ी भाभी का ख़्याल रहता है गौरव, वे दुखी हैं." मैंने जैसे हथियार डालते हुए कहा.
"तुमने यह कैसे जाना कि मैं भाभी के विरुद्ध हूं? कभी अपनी तरफ़ भी देखो निधि. ये बाल इतनी बेरुखी से क्यों अस्त-व्यस्त कर रखे हैं? कहां है तुम्हारी बिंदिया? कहां है..?"
इससे पहले कि गौरव और कुछ कहते, मैं उनके सीने में छुप फफक-फफक कर रो उठी.
"देखो, इस इतवार को बड़ी भाभी, बच्चे दीदी के साथ घूमने जाएंगे और हम-तुम शिमला चलेंगे, ठीक?" उन्होंने मुझे अपने अंक में समेट लिया तो जैसे सब सहज हो गया.
पहली बार पत्नी को बाहर घूमाने ले जाता पति जितना प्रसन्न होता है, गौरव उतने ही प्रसन्न थे. मेरे मन पर जो दुख का कोहरा छाया था, वह ज्यों का त्यों था. चलते हुए घर के दोनों बुज़ुर्गों को प्रणाम करते वक़्त जो मेरी आंखें गीली हुईं, तो वे गौरव के ग़ुस्से की आंच से सूखी.
रास्ते भर मनोरम प्राकृतिक छटा निहारते हम दोनों जब सर्पिली सड़कों को पार कर शिमला पहुंचे तो मन आनन्द से भर उठा. गौरव के साथ कमर पर सामान लादे कुली के पीछे-पीछे चलते हुए मेरा मन कभी हरी-भरी घाटियों में उतर जाता तो कभी चीड़ के जंगल में खो जाता. ठिठक कर गौरव से कुछ कहना चाहती तो न जाने क्यों घर याद आ जाता, बड़ी भाभी और बच्चे याद आ जाते और मैं चुप रह जाती.
देर होटल के कमरे में सामान रख हम दोनों कुछ लेटे रहे. मैदान की उमस से भागे आए सैलानियों को जो पहाड़ की हवा मोहती है, उसमें थकान नहीं रहती, हम दोनों भी चाय पी कर टहलने निकल पड़े. एक-दूसरे की बांहों का सहारा लिए, एक-दूसरे के स्पर्श की भाषा सुनते-समझते हम बहुत दूर निकल आए थे. एक पहाड़ी ढलान पर खड़े हो कर हम दोनों ख़ामोशी से दूर तक का नज़ारा देखते रहे थे. जब सामने की पहाड़ी का पिछला आसमान डूबते सूरज की लालिमा से रंगने लगा तो हम वापस मुड़ चले.
वापस लौटते समय हम चीड़ के घने पेड़ों की छाया वाली उन्हीं सड़क पर चल दिए, जो बर्फ़ से भीगी थी और जगह-जगह से टूटी हुई थी. सड़क के दोनों किनारों पर सफ़ेद बर्फ़ जमी हुई थी हम दोनों ठण्डी हवा समेटते जब होटल पहुंचे तो गौरव बिस्तर में पसरते हुए बोले, "कैसा लग रहा है निधि?"
"कल्पना से परे. इतना सुंदर कि सोचा भी न था." मैंने गौरव के पास सरकते हुए कहा.
गौरव उस दिन बहुत रोमांटिक मूड में थे. वह रात हमारे विवाह के बाद की सबसे ख़ूबसूरत रात थी. होटल के अजनबी कमरे में भी मुझे अपनेपन की ख़ुशबू आ रही थी. उस रात मैं कितनी देर तक खिड़की के पास खड़ी हो कर घनी वादियों में चांद का धीरे-धीरे सरकना देखती रही थी, चीड़ के घने वृक्षों का मधुर संगीत सुनती रही थी और गौरव हीटर की गर्म सेंक में गहरी नींद सोते रहे थे. उस दिन ये ख़ूब सोए और देर से उठे.
अगली सुबह हम जल्दी तैयार हो गए, कमरे का दरवाज़ा बंद करते हुए गौरव मुस्कुराकर बोले, "आज का दिन तुम्हारे लिए, बताओ कहां चलोगी?"
"मैं... मैं काली बाड़ी मंदिर जाऊंगी. फिर जाखू मंदिर देखूंगी." मैंने शॉल लपेटते हुए कहा.
"ओ.के., फिर?" धार्मिकता से हटता गौरव का स्वर बदला.
"फिर मैं वायसराय हाउस देखूंगी." मैंने हंसकर कहा तो गौरव चाबी उंगली में घुमाते सीढ़ियां उतरने लगे.
गौरव और मैं माल रोड घूमते हुए रिज मैदान तक आए, फिर लायब्रेरी और चर्च के बीच से जाखू मंदिर जाती हुई सड़क पर चढ़ने लगे. वह एकदम ठंडी और सीधी चढ़ाई वाली सड़क थी, पर फिर भी हम मंदिर पहुंचे.
उस दिन हम दोनों ख़ूब घूमे. बर्फ़ में कई बार फिसले, गिरे और उठे. जब हम काली बाड़ी मंदिर देख कर वायसराय हाउस की ठण्डी सड़क पर चल रहे थे तो गौरव ठिठक कर जंगली फूल और पेड़ों से लिपटी लताएं निहारने लगे. इतना सुन्दर था वह दृश्य कि कुछ कहने को शब्द नहीं थे.
हम दोनों जब होटल वापस पहुंचे तो बहुत थक चुके थे. रात का खाना खा कर गर्म बिस्तर की आगोश में हम दोनों सोए तो सुबह ही आंख खुली. पहाड़ की सुबह किसी चित्रकार की तूलिका के समान होती है, जो ख़ूबसूरत रंग बिखेर कर मन मोह लेती है. गौरव उस दिन जल्दी उठ गए थे. होटल के कमरे की खिड़की से पूरब की पहाड़ियों के पीछे से उदय होते सूरज को तन्मयता से निहारते हुए मुझे देख कर बोले थे, "इतने ध्यान से क्या देख रही हो?"
"सूरज का जन्म." मैंने उसी तरह बिना पलटे जवाब दिया तो वे ख़ूब हंसे थे. तौलिया कंधे पर डाल बाथरूम जाते-जाते बोले थे, "तुम दार्शनिक भी हो, यह आज जाना."
हर रोज़ की तरह उस दिन भी हम जल्दी ही घूमने चल दिए थे. गौरव उस दिन शेर-ए-पंजाब में लंच लेना चाहते थे. पूरी माल रोड सैलानियों के रंग-बिरंगे लिबासों से सज रही थी. नवविवाहित जोड़ों की हंसी जगह-जगह गूंज रही थी.
अचानक एक जगह पोस्टर पढ़ कर गौरव ने अपना प्रोग्राम बदल डाला. बोले, "निधि, आज रात होटल सेसिल में डिनर लेंगे और कैबरे देखेंगे."
"कैबरे!" न जाने क्यों निर्वस्त्र होती नर्तकी के उघड़े बदन की जुगुस्सा से घबरा कर मैंने गौरव की तरफ़ देखा.
"क्यों? कैबरे नहीं देखोगी?" गौरव ने मेरे पीले पड़ते चेहरे को पढ़ कर कहा.
"क्या करोगे वहां कपड़े उतारती नर्तकी को देख कर? कैबरे देख कर मुझे तो ऐसा लगेगा, जैसे सभी स्त्रियां निर्वस्त्र हुई जा रही हैं." मैंने धीरे से कहा था, पर गौरव एकदम बिफर पड़े थे.
"तुम्हारा तो दिमाग़ ख़राब हो गया है निधि. मैंने शादी करके ग़लती की है. बहुत बड़ी भूल की है. अब समझा हूं, तुम्हें तो सोशल वर्कर होना चाहिए था." गौरव ग़ुस्से में वापस लौटे तो सीधे होटल के कमरे में पहुंच कर ही रुके.

गौरव का क्रूर व्यवहार देख कर मैं घबरा उठी थी. वे करवट बदलकर पलंग पर लेटे थे. कुछ समझ न आया तो मैंने कहा, "आज खाना नहीं खाना है क्या?" गौरव कुछ नहीं बोले.
"सुनो, मुझे भूख लगी है." मैंने उन्हें अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास करवाने की गर्ज से कहा.
"वेटर को बुलाकर खाना मंगा लो." गौरव उसी तरह बोले.
दिल किया कि ख़ूब रोऊं, पर अपनी धड़कनों पर काबू पा कर मैं बोली, "तुम तो कैबरे देखना चाहते थे, फिर यहां होटल में क्यों आ गए."
"तुम... तुम्हारी जैसी स्त्री के साथ कोई नाच-रंग देख सकता है?" गौरव ने लगभग फुफकार कर कहा. वे जैसे मेरी हर सुलह को ठोकर से उड़ा देना चाहते थे.
भीतर की रुलाई जैसे बाहर आना चाहती थी. क्या मैंने ऐसे ही 'हनीमून' की कल्पना की थी? मेरा थोड़ा सा भी आत्मकेन्द्रित व्यवहार झगड़े का रूप ले सकता था, इसलिए मैंने तटस्थ हो कर नर्मी से कहा, "अच्छा चलो, अब देर मत करो. उठो, वह नीला सूट पहन लो. तुम्हारे ऊपर वह खिलता भी ख़ूब है."
गौरव कुछ नहीं बोले. पति को यूं लेटा देख मेरा भी मन हुआ, पैर पटक कर बिस्तर पर पसर जाऊं, पर मेरी एक भूल मेरे दाम्पत्य जीवन को बिगाड़ सकती थी. यही सोच मैं उठी और तैयार होने लगी. लाल-हरी बनारसी साड़ी का पल्लू सिर पर रखकर जब मैंने परफ्यूम लगाया तो गौरव पलटे, बोले, "इस तरह लज्जावती बन कर कैबरे देखने जाओगी?"
"तो तुम्हीं कहो ना!" मैंने लगभग मनुहार भरे स्वर में कहा. मेरा वाक्य सुन वे कुछ पिघले, मेरे कपड़ों में से मेरा गर्म सलवार सूट, स्कार्फ, गर्म कोट और दस्ताने मुझे पकड़ाते हुए बोले, "अच्छा चलो, चलते हैं."
होटल में कैबरे देखते हुए अन्य दर्शकों की भांति गौरव भी बहुत प्रसन्न थे. हर जोड़ा उस नृत्यांगना को देख रहा था. न जाने कितने जोड़ी आंखें उसके बदन को निहार रही थीं, पर मैं शर्मसार हुई जा रही थी. कैसा शेमफुल था वह! डिस्गस्टिंग!
मेरे साथ गौरव ने अगर बेमन से धार्मिक मंदिर देखे हैं, तो मैं उसकी पसंद से क्यों पीछे हुई? यही सोच में बैठी रही.
इसी तरह घूमते, झगड़ते, हम दो दिन और शिमला रुके. कई बार हमारी तकरार हुई. हर बार ग़ुस्से से मुंह फुलाए पति को मैंने ही मनाया. तब लगता था, अपना सम्मान, अपनी प्रतिष्ठा, सब कुछ खोए जा रही हूं मैं.
शिमला में बिताए दिनों की खट्टी-मीठी यादें लिए जब हम घर पहुंचे तो बाबूजी हमें इन्तज़ार करते मिले. अकेले हरिया के साथ दोनों बुज़ुगों ने दस दिन बिताए थे. बड़ी भाभी, बच्चे अभी नहीं लौटे थे.
बाबूजी मुझे बहुत थके से लगे, कमज़ोर से. मम्मी होती तो शायद बाबूजी की रूपरेखा ही कुछ और होती. मैंने पांव छू कर आशीर्वाद लिया तो वे बोले, "खूब घूमे शिमला."

"जी!" मैंने भीतर जाते हुए कहा. घर की दिनचर्या चल पड़ी. अब बड़ी भाभी के बिना मैंने जाना, घर के हर सदस्य की अपनी अलग दिशा थी. बाबूजी का दिन अख़बार से शुरू होता था तो गौरव का वेस्टर्न-म्यूज़िक पर की जाने वाली कसरत से. हरिया की सुबह रसोई में होती थी तो मुझे नहा-धोकर पूजा के बाद ही कुछ भाता था.
मैं घर के सदस्यों को एक डोरी में पिरोने की पूरी कोशिश करती, पर माला जैसे बिखर-बिखर जाती.
एक दिन गौरव अपना मनपसंद लंच न बना होने के कारण जब टिफिन छोड़ गए तो मेरा मन रो पड़ा. अब वे बच्चे तो नहीं रहे, ज़िम्मेदार गृहस्थ हैं. कब सीखेंगे अपनी गृहस्थी का बोझ उठाना?
उस दिन मैंने भी कुछ नहीं खाया. उदास मन ऊन-सलाइयां लेकर बैठी तो बाबूजी ने आकर पूछा, "निधि, खाना खाया बेटे?"
बाबूजी का मृदुल हस्त-स्पर्श अपने सिर पर महसूस करते ही आंखें छलछला आई. रुका हुआ बांध जैसे टूट गया. बाबूजी सब जानते-समझते हुए से बोले, "मैं जानता हूं बेटी. उसने मां का प्यार-दुलार, फटकार, कुछ नहीं देखा ना, इसीलिए ऐसा हो गया है वह. ही इज ए वैरी-वैरी ऑबस्टीनेट बॉय..."
सिसकी में डूबा मेरा स्वर उस दिन न जाने कैसे उभरा, "आपको पता नहीं है बाबूजी, कैसी छोटी-छोटी बातों पर वे मुझे प्रताड़ित करते हैं. कितनी जल्दी ग़ुस्सा हो जाते हैं."
"जानता हूं बेटी. मर्द का स्वभाव ही ऐसा होता है, हठी... ज़िद्दी. अब मैं यह भी जान गया हूं कि तुम गौरव को आसानी से संभाल सकोगी. वही स्त्री गृहस्थी को संभाल सकती है, जो सागर सी सहनशील हो." बाबूजी बोले.
"पर... पर बाबूजी." मैं कुछ कहना चाहती थी, पर बोल घुट कर रह गए.
"मैं जानता हूं निधि, तू यही कहना चाहती है न कि इस तरह कैसे चलेगा?" बाबूजी ने मेरी तरफ़ देखकर कहा तो मैंने निगाहें झुका लीं.
"देख, तू अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. है. जानती है ना, इंग्लिश के शब्द रेज़िलियंस का क्या अर्थ होता है? अपने व्यवहार की लचक से ही तू उसे संभाल सकेगी, दूसरे से जैसे व्यवहार की उम्मीद हो, उसे वैसा बनकर भी तो दिखाना पड़ता है बेटी."
मैंने साड़ी के पल्लू से अपनी आंखें साफ़ की तो बाबूजी बोले, "चल उठ, अब खाना लगा. हम लोगों ने भी हरिया के हाथ का खाना नहीं खाया है. स्त्री ही तो अन्नपूर्णा होती है बेटी, घर की धुरी."
मैं जो अब तक किसी रूठी-हठी माननी प्रिया की तरह ग़ुस्से में बैठी थी, उस गुबार को बाबूजी ने घड़ी भर में उड़ा दिया. इस घर में मैं जो अपनी जगह अब तक सिर्फ़ गौरव की पत्नी होने के नाते जान रही थी, उसे बाबूजी ने 'अन्नपूर्णा' और 'घर की धुरी' बताकर मुझे आत्मसम्मान से भर दिया था. उस दिन एक दृढ़ सुरक्षा का आभास हुआ. ऐसी सुरक्षा, जिसमें घर की स्त्रियां पूर्ण रूप से सुरक्षित थीं. वह चाहे बड़ी भाभी हों या मैं.
उस दिन मैंने महसूस किया कि गौरव को मनाने, उनका अपमान सहने, उनका कामकाज करने, उनके ग़ुस्से का उबाल सहने और बेमन से उनकी मर्ज़ी के अनुसार चल कर भी मेरी हार नहीं, जीत ही हुई है.
- डॉ. दीपा त्यागी

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