राज्य के बड़े बड़े गणितज्ञ आए, विद्वान आए और सूत्र देखकर लौट गए. किसी को कुछ समझ नहीं आया. पास पड़ोस के राज्यों से भी बड़े-बड़े गणितज्ञ आए, जो अपने साथ बहुत सारी पुराने गणित के सूत्रों की पुस्तकें भी साथ ले कर आए.

प्राचीन समय की बात है. एक राजा ने बहुत ही सुन्दर महल बनवाया एवं मुख्य द्वार पर गणित का एक सूत्र लिखवाया. दरअसल, उसकी अपनी कोई संतान नहीं थी और वह किसी समझदार व्यक्ति की तलाश में था. अत: उसने घोषणा करवाई कि इस सूत्र से द्वार खुलता है और जो भी इसे खोलने में सफल होगा उसे मैं अपना उत्तराधिकारी बनाऊंगा.
राज्य के बड़े बड़े गणितज्ञ आए, विद्वान आए और सूत्र देखकर लौट गए.
किसी को कुछ समझ नहीं आया.
पास पड़ोस के राज्यों से भी बड़े-बड़े गणितज्ञ आए, जो अपने साथ बहुत सारी पुराने गणित के सूत्रों की पुस्तकें भी साथ ले कर आए.
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लेकिन एक व्यक्ति जो साधक की तरह नज़र आ रहा था. उसके पास गणित के सूत्रों की कोई पुस्तक नहीं थी. बातचीत में भी चतुर चालाक नहीं लग रहा था.
वह बस चुपचाप आंख मूंदे बैठा रहा.
सब को इस कार्य हेतु एक नित समय दिया जा रहा था. उस समय में यदि वह किवाड़ नहीं खोल पाते तो उसे हटा कर दूसरे को अवसर दिया जाता.
बारी-बारी सब ने प्रयत्न करके देख लिया, परन्तु वह किवाड़ खोलने में असफल रहे और अपनी हार स्वीकार कर बैठ जाते.
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अंत में उस अति सामान्य दिखने वाले साधक के पास जाकर कहा गया कि आपका सूत्र हल करने का समय शुरू हो चुका है. साधक ने आंख खोली और सहज मुस्कान के साथ द्वार की ओर बढ़ चला.
उसने धीरे से द्वार को धकेला और यह क्या? द्वार खुल गया. राजा ने साधक से पूछा, “आपने ऐसा क्या किया?"
साधक ने बताया, "जब मैं ध्यान में बैठा तो सबसे पहले अंतर्मन से आवाज़ आई कि पहले ये जांच तो कर लो कि कोई सूत्र है भी या नहीं? इसके बाद उसे हल करने की सोचना और मैंने वही किया.”
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सारांश में तात्पर्य यह है कि कई बार हमारे जीवन में कोई 'समस्या' होती ही नहीं और हम 'विचारो' में उसे गड़ कर बड़ा बना लेते है और स्वयं को परेशान होते रहते हैं.

उषा वधवा
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