भावनाओं के कशमकश में तनी दूर्वा सोच रही थी कि काल्पनिक पात्रों के कारण सजीव की उपेक्षा कर दे. फिर किसी रचना के पात्र क्या कोरे काल्पनिक ही होते हैं? अगर ऐसा है तो उनका दुख-सुख मन को क्यों मथ देता है?
दूर्वा ने कमरे में प्रवेश करते ही थैले को सेन्टर टेबल पर पटका, पंखे का स्विच ऑन किया और सोफे में धंस गई. उफ्! अप्रैल का मध्य और इतनी तीखी धूप! वैसे धूप की इस चुभन का कारण दूर्वा की इच्छा के विरुद्ध किया जाने वाला काम भी कहा जा सकता है. उसका मूड नहीं था कुछ करने, कहीं जाने का. आज वह कुछ लिखना चाहती थी, लेकिन वह कोई ऐसी लेखक नहीं कि मूड बनते ही कलम काग़ज़ उठाए और चली जाए अपनी दुनिया में. यहां तो नींद का चक्र पूरा होने से पहले ही दिनचर्या की उल्टी गिनती शुरू हो जाती है और मन है कि कभी भी अड़ियल घोड़े सा अड़ जाता है 'उठाओ कलम, बजाओ मेरी चाकरी.'
सुबह की ही बात है. जैसे ही दूर्वा की आंखें खुलीं भोर का उजास फैल रहा था. रोशनदान में चुनमुनाती गौरैया फुर्र से खिड़की के पार हो गई. न जाने किस आकर्षण से बंधी दूर्वा भी आकर खिड़की के पास खड़ी हो गई. पत्तियों से टपकती पानी की बूंदें, खिली धुली प्रकृति से लग रहा था जैसे कुछ देर पहले बारिश हुई हो. शीतल हवा का रेशमी स्पर्श दूर्वा को सिहरा गया. पलट कर देखा, सौरभ की कमीज टंगी थी. उसे ही उठाकर कंधे पर डाला और खिड़की से टिक कर बाहर देखने लगी.
ज़िंदगी धीरे-धीरे नींद की चादर उतार कर अंगड़ाई ले रही थी. ऊपर झुंड के झुंड पखेरू दाने-तिनकों के जुगाड़ में भागे जा रहे थे. सामने झोपड़ी से निकलता धुआं छप्पर पर फैले बेलों को सहलाता क्षितिज में घुला जा रहा था, नीचे फटी चीथड़ी बोरियां सम्भालते नन्हें-नन्हें हाथ-पांव कचरों के ढेर पर अपने हिस्से की तृति ढूंढ़ रहे थे. टखने तक साड़ी खोंसे डंड झाडू लिए गुलबदनी सड़क बुहारती दुकानदारों से हंसी-ठट्ठा कर रही थी. सैर को जाते प्रौढ़-वृद्ध, जॉगिंग करते युवक और सामने नल पर बाल्टियों का जमावड़ा लिए हंसती-झगड़ती महिलाएं-लड़कियां, कुल मिलाकर ज़िंदगी पूरी तरह हरकत में आ गई थी. वातावरण सिंदूरी हो रहा था. एक किरण तिरछी होकर दूर्वा की खिड़की पर भी ठहर गई.
"अरे वाह, क्या बात है." कंधे पर सौरभ के हाथ का स्पर्श पाकर दूर्वा चौंक गई थी.
"... हां... कुछ नहीं."
"हूं, शॉल बढ़िया है." दूर्वा हंसी.
"मैंने कई बार पुकारा... क्या रात नींद नहीं आई?"
"अभी-अभी तो जागी हूं, गौरैया के संग."
दूर्वा के संकेत पर रोशनदान की तरफ़ देखते हुए सौरभ ने ठहाका लगाया, "तो दाने-तिनके चुगोगी या..."
फिदायवान सती हुई दूर्वा किचन की तरफ़ बढ़ गई.
दूर्वा ने आनन-फानन में सुबह के काम निबटाने शुरू किए. हाथ-पांव जितनी तेजी से काम निबटाते जाते, दिमाग़ उतनी ही तेजी से कुछ बुनता उधेड़ता. वह जल्द से जल्द निश्चिंत होकर इस उधेड़बुन को आकार देना चाहती थी.
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सौरभ बाथरूम से निकला ही था कि दूर्वा ने खाना लगा दिया और स्वयं गुसलखाने की ओर बढ़ गई, सौरभ ने पूछा भी था, "कहीं जाना है?"
"नहीं तो."
"फिर यह जम्बो जेट वाली स्पीड?"
"ऐसे ही." टाल गई थी दूर्वा.
घर से निकलते-निकलते सीढ़ियों पर रुक गया था सौरभ, "दूर्वा, आज शाम को मेरे कुछ दोस्त खाने पर आएंगे."
"क्या?"
"कब से कह रहे हैं सब."
दूर्वा के गले में कुछ अटक सा गया. कुछ सांसों को निगलती हुई आवाज़ बाहर आना ही चाहती थी कि सुना, "चलता हूं. जो इच्छा हो बना लेना. लेकिन दही-बड़े ज़रूर." हंसता हुआ सौरभ सीढ़ियां उतर गया. बौखलाई दूर्वा मूर्तिवत खड़ी रह गई. क्या इसी के लिए तबसे इतनी अफरा-तफरी मचा रखी थी? क्यों नहीं स्पष्ट शब्दों में आज के लिए इंकार कर दिया? यह तो कल-परसों भी हो सकता था. उफ़, हर बार का यही क़िस्सा है. अन्दर ही अन्दर उबलेगी मगर ज़ुबान नहीं खोलेगी. रुआंसी हो आई. उफनते उत्साह पर जैसे पाला पड़ गया. कुछ देर यों ही किंकर्तव्यविमूढ़ सी दरवाज़े से लगी खड़ी रही, फिर लौट आई. उस दुनिया में जहां शाम के दावत की एकमात्र वही संयोजिका थी.
फोन की घंटी सुनकर हड़बड़ा कर उठी दूर्वा. नींद और थकान को एक छोटे से शब्द में उड़ेलते हुए दूर्वा ने रिसीवर थामा, "सो रही थी क्या?" सौरभ के स्वर में मिठास थी.
"बाज़ार से लौटी थी सो आंख लग गई."
"सच! मैंने तुम्हें बहुत प्रेशर में डाल दिया."
"....!" चुप्पी की तल्खी को महसूस करते हुए सौरभ का स्वर मनुहार कर उठा, "सॉरी यार क्या कहूं? तुम खाना ही इतना अच्छा बनाती हो कि अकेले बैठकर खाया ही नहीं जाता."
"फोन रखती हूं."
"ओके बाबा. हम लोग साढ़े छह तक पहुंच जाएंगे." हंसने लगा था सौरभ.
ताज़ा ज़ख़्म फिर से खुरच गया. बिफर उठी दूर्वा. जब मन आया फ़रमान सुना दिया. किसी की भावना से क्या लेना-देना. भला मुफ़्त की चाकरी किसे नहीं अच्छी लगती. इसकी ज़िम्मेदार भी तो वही है. स्पष्ट कहने में क्या था? आख़िर सारा इंतज़ाम तो उसे ही करना है. तभी दीवार घड़ी की आवाज़ ने ध्यान भंग किया, "हे भगवान ढाई बज गए?"
झटपट कपड़े बदलकर दूर्वा ने एक कप चाय बनाई और सामान इकट्ठा करने लगी. लेकिन अस्थिरता ज्यों की त्यों बनी हुई थी. जितना ही मन दबाती वह दूने वेग से विरोध में उठ खड़ा होता. साइड टेबल पर पड़ी डायरी को देखती और विचलित होती. अंततः एक निर्णय के साथ उठी और ऑफिस का नंबर घुमाया, लेकिन इस बार भी मात खा गई. सौरभ कहीं निकल गया था. भावनाओं के कशमकश में तनी दूर्वा सोच रही थी कि काल्पनिक पात्रों के कारण सजीव की उपेक्षा कर दे. फिर किसी रचना के पात्र क्या कोरे काल्पनिक ही होते हैं? अगर ऐसा है तो उनका दुख-सुख मन को क्यों मथ देता है? वह डायरी के पन्ने पलटना ही चाहती थी कि सौरभ का फोन आया. दूर्वा के कुछ कहने से पहले ही सौरभ का हंसी में लिपटा यह संवाद सुना, "लो पहले प्रभात से मिलो."
"भाभी जी! मेरे लिए मीठा रायता अवश्य ही बनाइएगा." इससे आगे दूर्वा को किसी का कोई संवाद याद नहीं रहा. कुछ देर पस्त सी बैठी रही. हारे को हरिनाम और चल दी अपने कर्मक्षेत्र में.
स्मृतियां उसके चेहरे पर खीझ, विवशता और मुस्कुराहट की रंगत में उभरती. आज के इस मानसिक द्वंद्र का कारण भी तो सौरभ ही है. कोई दो-ढाई साल हुए जब वह सौरभ के साथ यहां पहली बार आई थी. कुछ ही दिनों में मन उखड़ने लगा था. कहां मैके और ससुराल का भरा-पूरा परिवार और कहां यह एकाकीपन, सौरभ दिनभर दफ़्तर रहता और दूर्वा... पत्र-पत्रिकाएं और टी.वी. चैनल भी उसके खालीपन को नहीं भर पाते, नतीजा-खीझ, तनाव और चिड़चिड़ापन बढ़ता गया. अकारण ही दूर्वा सौरभ से उलझ जाती. हालांकि बाद में अपनी ग़लती का एहसास कर आइंदा के लिए स्वयं को सचेत करती, लेकिन बात बनती नहीं. सौरभ भी उखड़ने लगा था. एक दिन दूर्वा किचन में थी. सौरभ दनदनाता हुआ पहुंचा. उसके हाथ में काग़ज़ का एक छोटा-सा टुकड़ा था.
"इसे कहां से नोट किया है?"
"किसी बुक से नहीं."
"तो..?"
"मैंने लिखा है."
"तुमने लिखा है?" और दूर्वा को बांहों में भरते हुए चिल्लाया, "मिल गया."
"क्या?"
"तुम्हारी बीमारी का इलाज."
"क्या कह रहे हो?"
"हां दूर्वा... बड़ी अच्छी पंक्ति है... तुम लिखो."
"पहले तो जान निकाल ली... अब बातें बनाने लगे."
"नहीं दूर्वा, मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूं, अच्छा लिखोगी."
"हांऽऽऽ.. तुमने कह दिया और मैं लेखिका बन गई."
कहने को तो दूर्वा कह गई, किंतु ये बातें तब तक उसके पीछे पड़ी रहीं जब तक कि उसने काग़ज़-कलम उठा नहीं लिया.
एक रात खाने के बाद झिझकते हुए दूर्वा ने सौरभ को अपनी पहली कहानी सुनाई. कहानी सुनने के पश्चात् बधाई देते हुए सौरभ ने कहा, "कहानीकार, यों ही अपनी भावनाओं को आकार देती रहो." फिर एकाध प्वाइंट्स की ओर हल्का टच देने की अपनी इच्छा भी ज़ाहिर की थी. दूर्वा अपनी दबी क्षमता के सहसा अंकुरण पर फूले नहीं समा रही थी. फिर तो देखते ही देखते एक के बाद एक क़रीब दस कहानियां तैयार हो गईं. डायरी के कुछ ही पन्ने कोरे थे. लेकिन इसी बीच कुछ ऐसी व्यस्तता हुई कि लेखन-कार्य एकदम से ठप्प हो गया. कुछेक दोस्त रिश्तेदार आए-गए भी थे.
फिर एक दिन दूर्वा ने घर का कोना-कोना छान मारा. आख़िर डायरी गई कहां?
हां, एक दिन रद्दी भी बेचा था, तो क्या..? इसके आगे दूर्वा की सोच शून्य और अंधकार में बदल जाती. उफ़ तड़प उठी थी दूर्वा. सब्ज़ी काटती दूर्वा के बायें हाथ की तर्जनी थोड़ी कट गई. लेकिन उसके सामने यह दर्द क्या है? कैसी मानसिक पीड़ा में घुलती रही थी दूर्वा? न तो कहानियों के पुनर्लेखन का हौसला जुटा पाती और न ही उनके दुख से स्वयं को किनारे रख पाती.
एक शाम सौरभ ने एक नई डायरी लाकर दी, "दूर्वा चुल्लू भर जल निकल जाने से नदी रेत नहीं हो जाती. एक तारा टूटने से आकाश खाली नहीं हो जाता, उन्हें भूल जाओ... और आगे बढ़ो." धुप्प अंधेरे में शब्दों के चिराग़ झिलमिला उठे.
दूर्वा फिर लिखने लगी.
कॉलबेल की घंटी सुनकर दूर्वा ने नज़रें उठाईं तो सांझ ढल चुकी थी, समय का पता ही नहीं चला. घड़ी देखा तो मन कुछ खीझ सा गया. कुछ घबराई भी वह. साढ़े छह कहा था और आ गए छह बजे ही.
दरवाज़ा खोला. उसके मुंह खोलने के पूर्व ही सौरभ ने अन्दर आते हुए पूछा, "क्या हाल है?"
"क़रीब-क़रीब हो गया है, बस थोड़ा..."
"बाकी मैं संभालता हूं. तुम तब तक तैयार हो लो."
"....?"
"इसीलिए तो मैं पहले आया हूं, वे साढ़े छह तक आएंगे."
ख़ूब चटखारे ले लेकर व्यंजन खाए गए. कुछ आइटम्स सराहे गए. कुछ की विधियां पूछी गईं. साज-सज्जा की भी प्रशंसा हुई. मेज की सजावट पर तो दूर्वां भी अचंभित थी. मन-ही-मन सौरभ की कल्पनाशक्ति को सराह रही थी.
डायनिंग टेबल पर सफ़ेद मेजपोश बिछाया गया था, जिस पर गुलाबी रेशम की कढ़ाई थी. मेज के बीचों बीच पीतल वाले स्टैंड में मोटी बड़ी सी एक लाल मोमबत्ती जल रही थी. दोनों तरफ़ सफ़ेद गुलदाउदी के गुच्छे सजे थे. मोमबत्ती की रोशनी में ही दावत सम्पन्न हुई थी.
अंततः कॉफी पीते-पीते मनीष ने पूछ ही लिया, "भई यह तो बताया ही नहीं कि अचानक हमें आमंत्रित क्यों किया?" इस जिज्ञासा में कई और स्वर सम्मिलित हो गए.
"क्या कोई ख़ास दिन है?"
औरों के साथ-साथ दूर्वा की नज़रें भी सौरभ के चेहरे से चिपक गईं. सौरभ की सहजता में उत्साह घुल गया. "हां, ख़ास दिन है. बहुत ही ख़ास."
जिज्ञासाएं परवान चढ़ीं. सौरभ ने दूर्वा की ओर लक्ष्य करते हुए कहा, "आज इनका जन्मदिन है."
दूर्वा अचकचाई, "मेरा? मेरा तो..."
लेकिन दूर्वा का दुर्बल स्वर अतिथियों के उस सम्मिलित कथ्य और ठहाके में डूब गया, जो मोमबत्ती दिखाकर कह रहे थे, "तो क्या... भाभी जी का यह..."
सौरभ के इस बेतुके परिहास पर दूर्वा ग़ुस्से और शर्म से तिलमिलाई ही थी कि सौरभ ने एक पैकेट खोलकर एक सुन्दर सी पुस्तक टेबल पर रख दी. यह एक कहानी संग्रह था जिसकी लेखिका का नाम था दूर्वा.
कई जोड़ी विस्मित आंखों के सामने से झपटती हुई दूर्वा ने पुस्तक उठाकर पन्ने पलटे. देखा उसकी दसों गुम कहानियां मुस्कुरा रही थीं. दूर्वा की आंखें सौरभ की आंखों से मिलीं. ख़ुशी के इस अचानक और अबाध वेग को दूर्वा का हृदय संभाल न सका. सागर उमड़ा और पलकों पर हर्ष के मोती झिलमिला उठे.
"हां! लेखिका के रूप में दूर्वा का आज पहला जन्मदिन है." किसी अलौकिक संगीत की तरह सौरभ के इस कथ्य, बधाई और तालियों की थाप में न जाने कब तक दूर्वा तैरती रही.
- डॉ. वीणा सिंह
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