मैं लंबा हो रहा था
वो ठिगनी ही रह गई
मैं ज़हीन बन रहा था
वो झल्ली ही रह गई
मैं आगे बढ़ रहा था
वो पीछे ही छूट गई
मैं किताबों और डिग्रियों के पीछे भागा
वो व्रतों और मंदिरों के पीछे भागी
मैं खाने से बचने लगा
वो दवाइयों से बचने लगी
मैं घर देर से आने लगा
वो देर तक जागती रही
मैं दुनियादारी और राजनीति में लगा रहा
वो पूजापाठ और तीमारदारी में लगी रही
मैं भागने लगा था उसके आंचल की छांव से
वो मेरी छाया की भी बलैयां लेती रही
मैं ग़लतियां करता रहा
वो जवाबदेही लेते रही
मैं काजल का टीका लगाने नहीं देता
वो दुआओं से नज़र उतार देती
मैं कसमसाने लगा उसकी छोटी सी चारदीवारी में
वो गोद में ब्रह्माण्ड बसाए बैठी रही
मैं आसमान की ऊंचाइयों तक पहुंच गया
वो बेसन के हलवे में उलझी रही
मैं उसकी हथेलियों के धागों से उधड़ रहा था
वो फिर भी ममता की सिलाई किए गई
मैं बेटे से पति-पिता बन चुका था
पर वो हमेशा मां ही बनी रही…
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