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काव्य- सब प्रतीक्षारत हैं… (Kavay- Sab Pratiksharat hain…)

लॉकडाउन पर विशेष...

सब प्रतीक्षारत हैं
बैठे हैं
वक़्त की नब्ज़ थामे
कि कब समय सामान्य हो
और रुके हुए लम्हे चल पड़ें

राहों को प्रतीक्षा है
पदचापों की, घंटियों की, होर्न्स की
एक अनवरत चलते आवागमन की
जो उनकी धड़कन हैं
उनके होने का प्रमाण
उन्हें प्रतीक्षा है यात्रियों की
जिन्हें वो मंज़िल तक पहुंचा सकें
अपने होने को सार्थक बना सकें

घरों को प्रतीक्षा है
हलचल की
हंसी, ठिठोली, कहकहों की
दहलीज़ की
लक्ष्मण-रेखा लांघ कर
कोई भीतर आ सके
बाहर जा सके
उन्हें प्रतीक्षा है अपनों की
ख़ुशियों के उस सन्दूक के खुलने की
जिसकी चाभी अपनों के
पास है
ख़ुशियों का वो सन्दूक
अब न जाने कब खुले

रसोईघरों को प्रतीक्षा है
उनमें पसरी हुई ख़ामोशी के टूटने की
चाय का पानी उबले
कप खनकें
बर्तन सजें
पकवान बनें
अतिथि आएं
अतिथि देवो भव:
अब ये देवता न जाने कब आ पाएं
सब प्रतीक्षारत हैं

प्रार्थनाघरों, स्कूलों, दफ़्तरों
क्रीडांगनों को प्रतीक्षा है
कि उनके प्रांगण और दर-ओ-दीवार
फिर से एक बार ज़िंदगी से भर जाएं
हर आंख लगी है
उस तरफ़
जिधर से आएगा
एक झोंका
हवा का
सकारात्मकता का
ईश कृपा का
और बदल जाएगी पूरी की पूरी दुनिया...

Archana jauhari
अर्चना जौहरी

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