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कविता- वह स्त्री… (Kavita- Vah Stree…)

वह स्त्री..
बचाए रखती है कुछ 'सिक्के'
पुरानी गुल्लक में
पता नहीं कब से
कभी खोलती भी नहीं
कभी-कभार देखकर हो जाती है संतुष्ट

वह स्त्री..
बचाए रखती है कुछ 'पल'
फ़ुर्सत के
सहेजती ही रहती है
पर, फ़ुर्सत कहां मिलती है
उन्हें एक बार भी जीने की

वह स्त्री..
बचाए रखती है कुछ 'स्पर्श'
अनछुए से
महसूस करती रहती है
कभी छू ही नहीं पाती
अंत तक

वह स्त्री..
झाड़ती-बुहारती है सब जगह
सजाती है करीने से
एक-एक कोना
सहजे रखती है कुछ 'जगहें'
आगंतुकों के लिए
पर, तलाशती रहती है 'एक कोना'
अपने लिए
अपने ही घर में
अंत तक…

Kavita

Namita Gupta 'Mansi'
नमिता गुप्ता 'मनसी'

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