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काव्य- एक चुप होती हुई स्त्...
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काव्य- एक चुप होती हुई स्त्री… (Kavya- Ek Chup Hoti Hui Stri…)

By Usha Gupta in Shayeri , Geet / Gazal , Short Stories
एक चुप होती हुई स्त्री कहती है बहुत कुछ…
तुलसी जताती है नाराज़गी
नहीं बिखेरती वो मंजरी
सारी फुलवारियां गुमसुम हो जाती हैं
घर की
कनेर.. सूरजमुखी..
सबके चेहरे नहीं दिखते
पहले जैसे
छौंका-तड़का हो जाता है और भी तीखा
रसोईघर में
नहीं मोहती ज़्यादा
भीने पकवानों की ख़ुशबू
और..
दूध उफन बाहर आता है रोज़
एक चुप होती हुई स्त्री..
मानो पृथ्वी का रुके रह जाना
अपनी धुरी पर
एक चुप होती हुई स्त्री..
लांघती है मन ही मन
खोखले रिश्तों की दीवारें
और प्रस्थान कर जाती देहरी के बाहर
बिना कोई आवाज़ किए हुए ही
एक चुप होती हुई स्त्री..
और भी बहुत कुछ सोचती है
वह ‘आती’ तो है
हां, उसे आना ही पड़ता है
पर, वह फिर कभी नहीं लौटती
पहले की तरह…
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