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काव्य- हे प्रभु… (Kavya- Hey Prabhu…)

Kavya

हे प्रभु
यदि तुम्हारे साथ भी मुझे
कुछ कहने से पहले
सोचना पड़े
अर्थात अच्छे-बुरे
सही-ग़लत का विचार करना पड़े
तो फिर तुम
परमात्मा कहां हुए?
सीमाओं में बंधे अपने जैसे ही
एक और कुछ अधिक
शक्ति व स्वतंत्रता से सम्पन्न
मनुष्य की कल्पना
परमात्मा को
कहां जन्म देती है
जिसकी शक्ति क्षमता और
सीमाओं का निर्धारण कर
हम किसी क्षण में अपने भीतर
जन्म देने का प्रयास करते हैं
वह हमारी ही कल्पना का निर्माण है
जबकि हम तुम्हारे अस्तित्व से
अस्तिव पाते हैं
तुम हमारे
अस्तित्व से बंधे नहीं हो
तुम किसी भी अस्तित्व से
बंधन से घटना, बातचीत और
चिंतन से मुक्त
बुद्धि से परे शुद्ध चेतना स्वरूप परिभाषित हो
जबकि तुम परिभाषा से भी
मुक्त हो और इसीलिए अनेक
परिभाषाओं से युक्त हो कर भी
अभी तक परिभाषित नहीं हो
और तुम से कुछ कहना पड़े
कहने से पहले सोचना पड़े
तो यह शब्द व भाषा की सीमितता है
हमारे मानव जन्म का
किन्हीं प्रयोजन के अर्थों में
सीमित हो जाना है
भाषा, संवेदन, बुद्धि
सब का किसी बिंदु पर
कह पाने की क्षमता से
असमर्थ हो जाना है
मौन भी भाषा है
मौन भी शब्द है,
मौन भी कथ्य है
तुमसे कुछ कहने में
मौन भी असमर्थ है
क्योंकि अभिव्यक्ति शक्ति भी
तुमसे ही जन्मती है
करुणा भाव नेत्र
सब अभिव्यक्ति के माध्यम हैं
मैं तुमसे कुछ कहने चला हूं
बोलो कैसे कह सकता हूं
कहीं ऐसा हुआ है क्या?
कि जो कहा गया हो
वही कह दिया गया हो
कह दिया गया तो वह है
जो समझ लिया जाता है
समझ लिया
कह दिया गया तो नहीं है
वरना कहे हुए को अनेक माध्यम से
बार-बार समझाने की
आवश्यकता ही क्यों होती?
हे प्रभु तुम समझ लो
जो कहने के लिए मैं
बार-बार उद्धरित हो रहा हूं
क्योंकि तुम्हारे साथ
कुछ कहने से पहले
मैं सोच नहीं सकता
तुम समझ सकते हो
क्योंकि तुम परमात्मा हो
और मैं जितनी बार कहने की कोशिश करूंगा
उतनी बार मुझे उसे
समझाने का प्रयास करना होगा
ॐ…

Murali Manohar Srivastava
मुरली मनोहर श्रीवास्तव
Kavya

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