डरावनी फिल्मों का एक ख़ास वर्ग रहा है, जिन्हें एक्शन, ड्रामा से भरपूर हॉरर मूवी ख़ूब रोमांचित करती हैं. उन्हें काजोल अभिनीत ‘मां’ फिल्म यक़ीनन पसंद आएगी. पहली बार काजोल ने भी इस तरह की मूवी में काम किया है और उनका यह प्रयोग सफल भी रहा.

काली मां की शक्ति व चमत्कार को बख़ूबी भुनाया है निर्देशक विशाल फूरिया ने. पश्चिम बंगाल का एक ऐसा गांव चंद्रपुर जो शापित है. यहां पर बेटियों के बलिदान से लेकर उनका अस्तित्व तक ख़तरे में है.
एक धनी परिवार में जुडवां बच्चों का जन्म होना, जहां बेटे होने की ख़ुशी होती है, तो वहीं बेटी होने पर भ्रम कहें या राक्षस से ख़ुद को बचाने का डर मासूम-निर्दोष बच्ची की बलि दे दी जाती है.
फिल्म की शुरुआत ही चालीस साल पहले के चंद्रपुर गांव के इन दृश्यों से रू-ब-रू होती है. जहां मां काली की पूजा-अर्चना हो रही है और प्रसव से पीड़ित महिला को जुडवां बच्चे, जिसमें बेटी मार दी जाती है.
सीन बदलता है, चालीस साल बाद कोलकाता में शुभांकर, इंद्रनील सेनगुप्ता वही बेटा जिसकी बहन को बेटी होने की सज़ा के तौर पर मार दिया गया था, अपनी पत्नी अंबिका, काजोल और बेटी श्वेता, खेरनी शर्मा के के साथ सुखी व आनंदित जीवन जी रहा है. उसने दैत्य के कोप व डर से प्रभावित परिवार व गांववालों से दूरी बना रखी है. इसी कारण वह उन्हें बेटी नहीं, बल्कि बेटे का पिता है कहकर, बेटी के जन्म की बात भी छिपाता है. शुंभाकर अपनी टीचर पत्नी अंबिका और बारह साल की भोली मासूम बिटियां श्वेता से बेइंतहा प्यार करता है. वो नहीं चाहता कि उसके परिवार और गांव की नकारात्मकता उसके परिवार पर पड़े. इसलिए वह शादी के बाद कभी अपने गांव भी नहीं गया. बस एक बार उसके बेटी के जन्म पर उसके पिता मिलने हॉस्पिटल आते हैं, पर वहां पर भी बच्चा बदलकर वो पिता को बेटा हुआ है आश्वस्त करता है. लेकिन कहते हैं ना क़िस्मत का लिखा बदल नहीं सकता. आख़िरकार पिता के देहांत पर शुभांकर को अंतिम क्रिया के लिए अकेले चंद्रपुर आना ही पड़ता है, लेकिन उसके बाद जो स्थितियां-परिस्थितियां बनती है, दर्शकों में उत्सुकता के साथ रोमांच भी पैदा करती हैं.

‘मां’ ने शुरू से ही पकड़ बनाई रखी. पौराणिक काली मां व रक्तबीज की कहानी से लेकर, दैत्य का आतंक, बेचैनी-डर के साथ जीते लोग, एक ख़ुशहाल परिवार पर ग़म का पहाड़ टूट पड़ना, बेटी की रक्षा को लेकर एक मां का रौद्र रूप, राक्षस की हैवानियत, देवी मां का चमत्कार... फिल्म में हर तरह का मसाला है. रही कसर अंत में शैतान के रूप में आर. माधवान आकर एक संदेश देते हुए पूरा कर देते हैं.
अब होने को कुछ भी हो सकता है, जैसे- अजय देवगन, आर. माधवान, ज्योतिका स्टारर ‘शैतान’ फिल्म के दूसरे पार्ट में ‘मा’ं के कलाकार काजोल, रोनित रॉय की घुसपैठ हो सकती है. दूसरा ऐंगल यह भी हो सकता है कि मां का ही दूसरा पार्ट बनें, जिसमें शैतान के क़िरदारों की दख़लअंदाज़ी हो. अब यह तो फिल्ममेकर के कुराफ़ाती दिमाग़ पर निर्भर करता है कि वे क्या करना चाहते हैं.

शैतान में पति अजय देवगन का जलवा देखने मिला था, तो मां में पत्नी काजोल ने अपने दमदार अभिनय का क़ायल बनाया.
मां की कहानी अजित जगताप, साइवन क्वॉद्रस और आमिल खान ने मिलकर लिखी है. देवगन फिल्मस के बैनर तले अजय देवगन, कुमार मंगत पाठक और ज्योति देशपांडे निर्मित मां के सभी कलाकारों ने अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है, फिर चाहे वो काजोल, रोनित रॉय, खेरिन शर्मा, इंद्रनील सेनगुप्ता हो या विभा रानी, सुर्ज्याशिक्षा दास, जितिन गुलाटी, गोपाल सिंह.
तक़रीबन सवा दो घंटे की मां कभी भावुक कर देती है, तो कभी डराती-रोमांचित करती है. आर. पी. यादव का एक्शन ज़बर्दस्त है. हर्ष उपाध्याय के संगीत व प्रणव वत्स के गीत ठीक-ठाक है. कई बार तो बैकग्राउंड म्यूज़िक ‘शैतान’ फिल्म से उधार लिए लगते हैं. हो सकता है शैतान यूनिवर्स की फ्रेंचाइजी होने की वजह से भी ऐसा हो.
संदीप फ्रांसिस को फिल्म को थोड़ी और एडिट करके कसी हुई करने की आवश्यकता थी. खैर इसकी कमी को डीओपी पुष्कर सिंह ने पूरी कर दी. यदि आपको माइथोलॉजी से जुड़ी कहानियां व फिल्में पसंद आती है तो मां आपको यक़ीनन अच्छी लगेगी. हां, काजोल के फैंस को यह फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए. मां के रूप में अभिनय का एक अलग लेवल प्रस्तुत करती हैं वो.
- ऊषा गुप्ता

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