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कविता- अधिकार के साथ (Poetry- Adhikar Ke Sath)

थक गया हूं

मुझे अपनी गोद में

सिर रखने दो

समझदार हो गया हूं

इसलिए संकोच

पैदा हो गया है

वरना

गोद में सिर रखने की

इजाज़त न मांगता

अधिकार के साथ रख देता..

तुम्हारे साथ

चलते हुए

स्वतः इस अधिकार को

नैसर्गिक रूप में पा लेता

बंधन मुक्त होते मेरे हाथ

तुमसे बालों में

हाथ फेरने को नहीं कहता

तुम स्वतः झुक जाते

मेरे चेहरे पर

कुछ इस तरह कि

तुम्हें भी

अपने बालों के

ख़ुद के कंधे से उतर कर

मेरे सीने पर फैल जाने का

गुमां न होता

मैं जानता हूं

मिट जाती दूरियां

होंठों की

मेरे हाथ मुक्त थे

खींच लेते तुम्हारे चेहरे को

गले में हाथ डाल

अपने होंठों तक

स्वीकृति नहीं होती तुम्हारी

लेकिन विरोध भी ऊपरी होता

कोई आ जाएगा..

मैं जानता हूं कि

इसके बाद तुम्हारी

कमर पर लिपट जाते मेरे हाथ

उन क्षणों में

स्वीकृति बेमानी होती है

ढेर सारी ख़ामोशी के साथ

तुम्हारी उंगलियां

मेरे बालों में

घूम रही होतीं

और मेरे हाथ

मुक्त होते

कहीं भी गुज़र जाने को

नहीं छोड़तीं

तमन्नाएं

कुछ भी कर गुज़रने का

अवसर

मैं सोचता हूं

उन लम्हों में

क्या हम शरीर होते?

शरीर होते तो

आज इस मोड़ पर

उन लम्हों को

किसी भी शरीर से

जी कर पा लेता

वो लम्हे आत्मा हैं

और इसीलिए

शरीर से परे

अमर

आज भी

जस के तस जीवित

तभी कहता हूं

मुझे अपनी गोद में

सिर रखने की इजाज़त दे दो

मैं शरीर से चल कर

उम्र की थकान को

मिटाना चाहता हूं

याद रखना

मेरे हाथ मुक्त हैं

कुछ भी कर गुज़रने को

इसमें वे तुमसे इजाज़त नहीं मांगेंगे

तुम्हें जी लेंगे अधिकार के साथ…

- शिखर प्रयाग

Kavita

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