अब भी आती होगी गौरैया
चोंच में तिनके दबाए
बरामदे की जाली से अंदर
तार पर सूख रहे कपड़ों पर बैठ
ढूंढ़ती होगी जगह
घोंसला बनाने के लिए
कमरे के टांड़ पर
बिजली के बोर्ड के पीछे…
अब भी पिछले दरवाज़े पर
आ खड़ी होती होगी
गैया अपने बछड़े के साथ
एक रोटी की आस में
या पीने को पानी चाहती
खा लेती होगी ख़ुशी से
निचली सीढ़ी पर रखे
रात के बचे चावल या खिचड़ी…
कोई कुत्ता भी
घरों के पिछवाड़े पड़े
कूड़े के ढेरों में ढूंढ़ता फिरता होगा
रोटी का टुकड़ा
कौआ बैठा रहता होगा
गैया को तकते पेड़ की ऊंची डाल से
चावल के दाने जो छूट जाते गैया से
आकर उन्हें चुग जाता…
आती होंगी बकरियां, भैंसे
नालियों से बहते पानी की नमी में
उगी थोड़ी सी हरी घास
और जंगली पेड़ों की पत्तियां चरने
अब भी घरों के आसपास
उगती रहती होंगी
अनगिनत तरह की झाड़ियां
और जंगली पौधे अपने
प्राकृतिक आकर में
बिना किसी रोकटोक के
चलती रहती होंगी जीवन की
सभी गतिविधियां अपने
स्वाभाविक रूप में…
मॉडर्न कॉलोनी की
जालीदार खिड़की से
देख रही हूं मैं पुराने मुहल्ले की
उस खुली खिड़की से झांकती
अपनी सी दुनिया को…
विनीता राहुरीकर
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