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कविता- कहां नहीं हो तुम… (Poetry- Kahan Nahi Ho Tum…)

आलमारी खोलता हूं तो
करीने से तहाए हुए कपड़ों के बीच
तुम्हे पाता हूं
आईने में देखता हूं तो
बेदाग़ दर्पण की चमक में
तुम्हारा प्रतिबिंब झलकता है
रसोई के एक-एक बर्तन में दिखाई देती है
तुम्हारे हाथों की सुघड़ता
खिड़कियों के पर्दों से
कहीं तुम्हारी ख़ुशबू
लहराती रहती है घर में
बिस्तर की कसी हुई चादर
तुम्हारे सुथरेपन की तरह
बिछी रहती हैं बिना सिलवटें
वैसे ही जैसे
कभी तुम्हारे माथे पर
बल नहीं पड़ते
मेरे बेतरतीब फैले कपड़े उठाते हुए
सुबह की धूप सी तुम
फैली रहती हो घर भर में
रात में चांदनी सी
छिटक जाती हो
बगीचे के पेड़ों में
दिखता है तुम्हारा ही ताज़ापन
तो मुख्यद्वार की तरह तुम
घेरे रहती हो अपने घर को
एक सुरक्षा कवच सी
मैं तो बस नाम बनकर
जड़ा रहता हूं एक फ्रेम में
सबसे बाहरी दीवार या
‘मेन गेट’ पर
लेकिन उसके भीतर
घर तो बस तुमसे ही है…
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Photo Courtesy: Freepik