चश्मे में कसा वर्माजी का काला चेहरा दरवाज़े के बीच नज़र आया. इन्होंने मुझे ऐसे देखा, गोया मेरा फेस मास्क ही फर्जी हो, "इकत्तीस तारीख़ तक लॉकडाउन है…"
उन्हें धकेल कर अंदर रखी कुर्सी पर बैठते हुए मैंने कहा, "मैं तब तक इंतज़ार नहीं कर सकता."
''क्यों? क्या जांच में तुम्हारे अंदर ब्लैक फंगस पाया गया है? ऐसी स्थिति में तुम्हें मेरे पास नहीं आना था."
"ज़्यादा ख़ुश होने की ज़रूरत नहीं है, मैं बिल्कुल ठीक हूं और काफ़ी गुड फील कर रहा हूं."
वह फ़ौरन बैड फील करने लगे, "यहां किस लिए आए हो?"
"मुझे आज ही पता चला कि मैं मशहूर हो चुका हूं, अब मैं महान होना चाहता हूं…"
आज पानीपत से आए एक फोन ने मुझे बेमौसम सरसों के पेड़ पर बिठा दिया. हुआ यूं कि सुबह नौ बजे एक पाठक ने पानीपत से फोन करके पूछा, "क्या आप मशहूर व्यंग्यकार सुलतान भारती बोल रहे हैं?" मेरे कानों में जैसे मलाई बह रही थी. (अब तक मुझे भी अपने मशहूर होने का पता नहीं था!) तब से मुझे एकदम से ब्लैक फंगस दयनीय और कोरोना बड़ा क्षुद्र जीव लगने लगा है. हो सकता है अप्रैल में उसे पता ना रहा हो कि जिसके नाक में घुस रहा है वो मशहूर हो चुका है और अब महान होने की सोच रहा है.
यूपी वाले तो जेठ की भरी दुपहरी में भी शीतनिद्रा में चले जाते हैं. हमें तो दिल्लीवालों पर क्रोध आता है, इन्हें भी ख़बर नहीं हुई और हरियानावालों को मेरे मशहूर होने की ख़बर मिल गई.
जब से मुझे अपने मशहूर होने का पता चला है, मैंने फ़ैसला किया है कि कैसे भी सही अब मुझे महान
होना है (हालांकि इसके पहले कभी हुआ नही था.) मेरे जान-पहचान के अनंत लेखक हैं, जिसमें जितनी कम प्रतिभा है, वो उतना ज़्यादा ग़लतफ़हमी का
शिकार है. कई लेखक तो ख़ुद को विदेशों में लोकप्रिय बताते हैं. शायद देश मे लोकप्रिय होने में रिस्क ज़्यादा था (रुकावट के लिए खेद है) यहां अपने ही साहित्यिक मित्र मशहूर या महान होने के रास्ते में कोरोना बन कर खड़े हो जाते हैं.
जो जितना विश्वत कुटुम्बकम का राग अलापता है, उतना संकुचित सोच का लेखक है. साहित्यकारों ने अपने-अपने गैंग बना लिए हैं, जो आपस में ही एक-दूसरे को मशहूर और महान बना देते हैं. (अगले मुहल्ले का फेसबुक गैंग स्पेलिंग की ग़लती ढूंढ़ कर उनकी महानता को ख़ारिज कर देता है) अब ऐसे में कोई दूसरे प्रदेश का प्राणी आपको मशहूर घोषित कर दे, तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने ऑक्सीजन सिलेंडर ऑफर किया हो.
मशहूर तो मैं हो ही चुका था अब महान होने की कसर थी. काश अगला फोन यूपी से आ जाए. यूपी में महान होना आसान है. वहां ऐसे-ऐसे लोग महान हो गए, जो ठीक से मानव भी नहीं हो पाए थे. लेकिन जैसे ही महान होने का माॅनसून आया, वो छाता फेंक कर खड़े हो गए (इस दौर में मानव होने के मुक़ाबले महान होना ज़्यादा आसान है). अगली सीढ़ी भगवान होने की है. ऐसे कई महान लोग हैं, जो ठीक से इंसान हुए बगैर सीधे भगवान हो गए. लेकिन मेरी ऐसी कोई योजना नहीं है. मैं महान होकर रुक जाऊंगा, आगे कुछ और नहीं होना (कुछ भगवानों की दुर्दशा देख कर ऐसा निर्णय लिया है) मैं अपने ईर्ष्यालु मित्रों की फ़ितरत से वाकिफ़ हूं. जैसे ही उन्हें मेरे मशहूर होने की ख़बर मिलेगी, उनका ऑक्सीजन लेवल नीचे आ जाएगा.
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मैं जानता हूं कि महान होने के लिए अगर मैंने अपने साहित्यिक मित्रों से सलाह ली, तो मेरा क्या हश्र होगा, इसलिए मैंने मुहल्ले की ही दो हस्तियों से सलाह लेने की ठानी. सबसे पहले मैंने फेस मास्क लगा कर वर्माजी का दरवाज़ा खटखटाया. चश्में में कसा वर्माजी का काला चेहरा दरवाज़े के बीच नज़र आया. इन्होंने मुझे ऐसे देखा, गोया मेरा फेस मास्क ही फर्जी हो, "इकत्तीस तारीख़ तक लॉकडाउन है…"
उन्हें धकेल कर अंदर रखी कुर्सी पर बैठते हुए मैंने कहा, "मैं तब तक इंतज़ार नहीं कर सकता."
''क्यों? क्या जांच में तुम्हारे अंदर ब्लैक फंगस पाया गया है? ऐसी स्थिति में तुम्हें मेरे पास नहीं आना था."
"ज़्यादा ख़ुश होने की ज़रूरत नहीं है, मैं बिल्कुल ठीक हूं और काफ़ी गुड फील कर रहा हूं."
वह फ़ौरन बैड फील करने लगे, "यहां किस लिए आए हो?"
"मुझे आज ही पता चला कि मैं मशहूर हो चुका हूं, अब मैं महान होना चाहता हूं…"
"किसी ने फर्स्ट अप्रैल समझ कर फोन कर दिया होगा, ऐसी अफ़वाह मत सुना करो…"
"अब समझा, तुम्हें मुझसे जलन हो रही है."
मैं जानता था कि वर्माजी को मुझसे कितना गहरा लगाव है. मैंने तो सिर्फ़ उनका वज़न कम करने के लिए सूचना दी थी. वहां से निकल कर मैंने चौधरी को ख़ुशख़बरी दी, "मुबारक हो!"
चौधरी ने संदिग्ध नज़रों से मुझे देखा, ''सारी उधारी आज दे देगो के?"
"जब तक उधारी है, तब तक आपसदारी है. मैं नहीं चाहता कि आपसदारी ख़त्म हो. ख़ैर तुम्हें ये जान कर बहुत ख़ुशी होगी कि मैं मशहूर हो चुका हूं."
"कितै गया था चेक कराने?"
''कहीं नहीं, मुझे बताना नहीं पड़ा, लोगों ने ख़ुद ही मुझे फोन करके बताया."
"इब तू के करेगो?"
''मैं महान होना चाहता हूं."
चौधरी ने मुझे ऊपर से नीचे तक टटोलते हुए कहा, "घणा अंट संट बोल रहो. नू लगे अक कोई नई बीमारी आ गी काड़ोनी में. तू इब तक घर ते बाहर हांड रहो या बीमारी में मरीज़ कू ब्लैक फंगस जैसे ख़्याल आवें सूं."
यहां कोई किसी को महान होते नहीं देता और चुपचाप रातोंरात महान होने को लोग मान्यता नहीं देते. जिएं तो जिएं कैसे. चतुर सुजान प्राणी बाढ़, सूखा, स्वाइन फ्लू और कोरोना के मौसम में भी महान हो लेते हैं. जिन्हें महान होने की आदत है, वो विपक्ष में बैठ कर भी महानता को मेनटेन रखते हैं. बहुत से लोग तो कोरोना और ऑक्सीजन सिलेंडर की आड़ में भी महान हो गए हैं. इस कलिकाल में भी नेता और पुलिस आए दिन महान हो रही हैं.
और… एक मैं हूं जिसे महान होने के लिए रास्ता बतानेवाला कोई महापुरुष नहीं मिल रहा है, जाऊं तो जाऊं कहां!
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