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कहानी- मां-बेटी (Short Stor- Maa-Beti)

संगीता माथुर

मैं हतप्रभ सी मां को निहार रही थी. शांत, सौम्य चेहरे की एक-एक झुर्री मां-बेटी के रिश्ते का सूक्ष्म, गहन और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करती प्रतीत हो रही थी. मानो कह रही हो- बहुत कुछ सिखाया ज़िंदगी के सफ़र ने अनजाने में.. वो किताबों में दर्ज़ था ही नहीं, जो पढ़ाया सबक ज़माने ने…

“ओह, बातों बातों में ग्यारह बज गए. मैं नहाकर आती हूं, अभी दीपा का फोन आ जाएगा…” मैं हड़बड़ाती हुई बाथरूम की ओर भागी. मां के संग नौ बजे नाश्ता करने बैठी थी, पर नाश्ते से ज़्यादा हम मां-बेटी ने बातों से पेट भरा था. मां-पापा इस बार लंबे समय बाद आए थे. पापा तो हमेशा की तरह आते ही कैंपस घूमने, किताबें पढ़ने और टीवी देखने में व्यस्त हो गए थे. कहीं भी चले जाओ उन्हें हमेशा से अपनी यही दिनचर्या पसंद रही है. पर इससे हम मां-बेटी को शॉपिंग करने और गप्पे लगाने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है. नहाकर तैयार ही हो रही थी कि दीपा का फोन आ गया. मैं चहलकदमी करते देर तक उससे बातें करती रही. मां को ऊंघते देखा, तो मैं जल्दी-जल्दी बात ख़त्म कर उनके पास लौट आई.
“क्या वार्तालाप चल रहा था मां-बेटी के बीच? दीपा को कुछ परेशानी है? ऐसा तुम लोगों की बातों से लगा.”
“परेशानी किस घर में नहीं होती मां? अभी तो खैर उसके ऑफिस की समस्या थी. अपने ईर्ष्यालु सहकर्मियों से परेशान है वह. काम पड़ने पर मदद भी दीपा से लेंगे और पीठ पीछे उसके ख़िलाफ़ बॉस के कान भी भरेंगे. मैंने तो सुझाया था कि कंपनी चेंज कर ले, पर फ़िलहाल ऐसा हो नहीं पा रहा है.”
“फिर?”
“फिर क्या! समझा रही थी कि ऐसा तो हर जगह चलता है. हमारे छोटे से स्कूल में भी यही हाल है. टीचर ज़रूरी काम का बहाना बनाकर अपनी कक्षाएं मुझे सौंप जाती हैं और वैसे प्रिंसिपल को मेरे ख़िलाफ़ भड़काती रहती हैं. मैंने तो उसे समझाया है अपने काम से काम रख. किसी के कहने-सुनने की ज़्यादा परवाह न करें. सच्चाई सामने आती ही है.”
“हूं, सही है. वैसे ससुराल में सब ठीक चल रहा है उसके?”

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“अब नई-नई शादी में थोड़ा-बहुत एडजस्टमेंट तो सभी को करना ही पड़ता है मां. शॉर्ट्स में यहां-वहां बैठकर कुछ भी टूंगते रहना वहां कैसे संभव है? मैंने उसे बताया हमें तो शुरू में साड़ी पहनकर, सिर ढंककर रहना होता था.”
“अरे, हमें तो हाथ भर का घूंघट काढ़कर चूल्हा-चौका करना होता था. खैर गए वो ज़माने! अब यह सब कौन करता और करवाता है?”
“हां नहीं करता, पर थोड़ा-बहुत लिहाज़ रख लेने में कोई हर्ज नहीं है.”
“मान गई?”
“हां समझाने पर मान जाती है. यह उसमें बहुत अच्छी बात है मां. अब एक आंगन में बोया, पनपा पौधा उखाड़ कर दूसरे आंगन में रोप दिया जाए, तो एकबारगी तो मुरझाएगा ही. वहां के वातावरण के अनुकूल ढलकर फिर से पनपना मुश्किल तो है ही.”
“दामादजी से तो सामंजस्य बैठ गया ना?”
“शुरू में तो उसमें भी दिक़्क़त आई थी मां. बताती थी हम दोनों के स्वभाव में ज़मीन आसमान का अंतर है. एक नॉर्थ पोल है, तो दूसरा साउथ पोल. आप में और पापा में तो कोई टकराहट होती ही नहीं है. हम तो बात-बात पर लड़ते हैं. मैंने समझाया था हमारी तीस वर्षों की गृहस्थी है. तुम्हें तो अभी तीस दिन हुए हैं. रही नॉर्थ पोल साउथ पोल की बात, तो चुंबक के विपरीत ध्रुव ही परस्पर एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं. समान ध्रुव तो परस्पर विकर्षित होते हैं.”
“हमारे ज़माने में तो जिस खूंटे से बांध दिया जाता था, वहीं गुज़ारा करना होता था. मन मिले चाहे ना मिले.” मां ने ठंडी सांस भरकर वार्तालाप को विराम लगा दिया था.
जीवन के उतार-चढ़ाव के साथ कालचक्र का पहिया इसी तरह सरकता रहा. लंबी बीमारी के बाद पापा के निधन ने हम सभी को तोड़ दिया था. इसी बीच दीपा के पांव भारी होने की ख़बर आई, तो मन थोड़ा उत्साहित हो उठा. मुझसे अपनी छोटी से छोटी समस्या शेयर करने का उसका सिलसिला जारी था.
“बहुत उल्टियां होती है ममा! कुछ खाने को मन नहीं करता.”
“डॉक्टर की बताई दवाइयां लेती रह और जो अच्छा लगे थोड़ा-थोड़ा खाती रह. अभी तो लंबे समय तक ऑफिस भी जाना होगा. शारीरिक व मानसिक सब तरह की थकान होगी, तो आराम भी करना और तनावमुक्त रहना. सब अच्छा ही होगा.”

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मैं बड़े उत्साह से दीपा की डिलीवरी की तैयारियां करने लगी थी. लेकिन इधर मेरी अपनी तबियत गड़बड़ाने लगी थी. थकान, बदन दर्द, अनियमित रक्तस्त्राव ने हाल बेहाल कर दिया था. डॉक्टर ने मेनोपॉज़ फेज़् बताया जो मुझे लग भी रहा था.
दीपा डिलीवरी के लिए आई, तो मेरा उतरा चेहरा देख हैरान रह गई. मैंने उसे आश्वस्त करना चाहा.
“मेनोपॉज़ के दौरान थोड़ा बदन दर्द, थकान, मूड स्विंग्स आदि हो ही जाते हैं. यह भी ज़िंदगी का एक दौर है, जो गुज़र जाएगा.”
“वो मुझे मालूम है ममा! पर आपने कभी ज़िक्र ही नहीं किया कि आप इतनी तकलीफ़ से गुज़र रही हैं. लगभग रोज़ ही तो हम बात करते हैं. अच्छा, नानी को पता है आपकी तबीयत के बारे में?”
“अरे नहीं! उन्हें क्यों परेशान करूं? तेरे नाना के जाने के बाद वे वैसे ही बहुत उदास और परेशान रहती है. और तू भी परेशान मत हो. बच्चे पर ग़लत असर पड़ेगा.” मैंने प्यार से उसके गाल थपथपा दिए, तो वह जबरन मुस्कुरा दी.
एक दिन मुझे देर रात रक्तस्राव शुरू हुआ, तो सवेरे उठ नहीं पाई. पूरा शरीर टूट रहा था. दीपा मेरे और दीपक के लिए चाय बना लाई. पहला घूंट पीते ही दीपक ने बुरा सा मुंह बनाया, “मीठी है.” दीपा हैरानी से देखने लगी, तो मैंने उसे बताया हम दोनों फीकी चाय पीते हैं.
“कब से?”
“जब से तेरे पापा को डायबिटीज़ हुई है.”
“कब से?” उसने फिर दोहराया.
“यही तीन-चार महीनों से.”
उसे हैरान-परेशान देख मैं दीपक से मुखातिब हुई.
“अब पी लीजिए. ग़लती मेरी है, मुझे ही ध्यान नहीं रहा इसे फीकी चाय का कहना. वैसे चाय अच्छी बनी है.” मैंने तारीफ़ करके दीपा का उखड़ा मूड ठीक करना चाहा, पर वह गंभीर बनी रही.

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“और यह बात मुझसे क्यों छुपाई गई?”
“अरे ध्यान नहीं रहा. कौन सी कोई बड़ी बीमारी है! आजकल तो हर दूसरा व्यक्ति डायबिटिक हैं. लोग तो इसे एलीट क्लास की पहचान बताते हैं.” मैने हंसी-मज़ाक में किसी तरह बात संभाल ली थी.
सप्ताह भर में ही चुस्त-दुरुस्त होकर मैं फिर से तैयारियों में लग गई थी. फिर नियत समय पर जब नन्हा सा नाती गोद में आया, तो परिवार भर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई थी. बधाइयों के फोन पर फोन आ रहे थे. वीडियो कॉल पर बच्चे को देखने-दिखाने की होड़ सी लग गई थी. मां प्यारे से नाती को देखकर फूली नहीं समा रही थीं.
“पड़नानी बन गई हूं मैं! मन तो कर रहा है उड़कर वहां पहुंच जाऊं. और छुटकू को गोद में लेकर भींच लूं. पर शरीर अब साथ नहीं देता. मेरी ओर से सब मिठाई खा लेना. दीपा, तू तो अभी खा नहीं सकती. दामादजी के मुंह में लड्डू रख. हूं यह हुई न बात! अब बड़े दामादजी यानी नए बने नानाजी के मुंह में लड्डू रख! अरे इतना सा नहीं, पूरा ठूंस दे.”
“पर नानी, पापा…”
मैंने इशारे से उसे रोका. बाद में दीपा ने पूछा, “क्या नानी को भी पता नहीं कि पापा को डायबिटीज़ है?”
“कभी मिलेंगे तब बता देंगे. व्यर्थ क्यों उनकी चिंता बढ़ाएं? फिर शुगर कंट्रोल में ही तो है.” मैंने फिर बात रफा-दफा कर दी थी.
दीपा और नन्हे पार्थ की देखरेख में हम दोनों ही अपनी सारी तकली़फें और परेशानियां भूल गए थे. यहां तक कि दीपा तीन माह बाद उसे लेकर ससुराल भी चली गई. फिर भी मैं अभी तक उसी की ज़िंदगी जी रही थी. हर थोड़ी-थोड़ी देर में वीडियो कॉल, मैसेज करती रहती… “मालिश हो गई? पार्थ दूध पी रहा है बराबर? नैनी आ रही है? वैक्सीन लगवा लिया?..”
सवेरे आंख खुलते ही दिमाग़ में पहली बात यही आती कि यदि नैनी नहीं आई होगी, तो बेचारी कैसे संभालेगी बच्चे को? अभी तो ख़ुद ही निरी बच्ची है.
दीपक ने ही समझाया था कि वहां है उसे ढेरों संभालने वाले. फिर मैटरनिटी लीव समाप्त होने पर उसे ऑफिस भी जाना पड़ेगा, तो अभी से आदत हो जाने दो. बात मेरे समझ आ गई थी. मैंने फोन, मैसेज भेजने कम कर दिए. पर चिंता तो बनी ही रहती थी.
पार्थ के बड़े होने के साथ-साथ दीपा की व्यस्तता बढ़ी, तो मुझसे संवाद भी कमतर होता चला गया. उसकी व्यस्तता और ज़िम्मेदारियां समझते हुए मैंने भी इसे सामान्य तौर पर ही लिया.
इधर मां की तबीयत नासाज रहने लगी, तो मेरा उनके पास जाना-आना बढ़ गया. इन दिनों भी मैं मां के पास ही आई हुई हूं. दुनिया जहान की बातें करती हम मां-बेटी की बातों में लगभग रोज़ ही पार्थ का ज़िक्र छिड़ जाता था.
“अब तो काफ़ी बड़ा हो गया है! फोटोज़, वीडियो में ख़ूब शरारतें करता नज़र आता है!” मां ने कहा.
“अब तो लंबे समय से मैं भी उसे मोबाइल पर ही देख रही हूं. दीपा और दामादजी दोनों का ही ऑफिस वर्क बहुत बढ़ गया है, तो आने का हो ही नहीं पा रहा है.” मैंने ठंडी निःश्वास भरी.


“दिल छोटा मत कर. नई टेक्नोलॉजी का लाभ उठा. चल वीडियो कॉल लगा उसे! आज तो संडे है. सब घर पर ही होंगे. फोन पर ही उसकी अठखेलियां देख लेते हैं.” मां ने कहा तो मैंने तुरंत दीपा को वीडियो कॉल लगा दिया. वह मेरी और मां की कुशलक्षेम पूछ ही रही थी कि पास ही लेटा पार्थ भी मोबाइल में झांकने लगा. दीपा ने उसे गोद में उठाया, तो मेरी नज़र उसके पैर पर पड़ी.
“अरे यह पार्थ के पैर में क्या हुआ? पट्टी कैसे बंधी है?”
“खेलते वक़्त गिर गया था. मोच आ गई थी, तो डॉक्टर ने क्रेप बैंडेज बांध दी थी.”
“कब की बात है?” मैंने व्यग्रता से पूछा.
“दो-तीन दिन हो गए हैं.”
“और तू अब बता रही है? वो भी मेरे पूछने पर.” मेरे स्वर में अनायास ही रोष का पुट आ गया था.
“अब ठीक है ममा! कोई चिंता की बात नहीं है. एक-दो दिन में पट्टी खुल जाएगी.”
“फिर भी बताना तो चाहिए था ना!” मैं नाराज़ हुई, तो दीपा मां से बातें करने लगी.
“आपके घुटनों का दर्द कैसा है नानी? फिजियोथेरेपी चल रही है या बंद कर दी?” मेरा मुंह फूला हुआ ही देख उसने कुछ देर मां से बात कर फोन रख दिया.
“क्या हुआ? क्यों इतनी नाराज़ है उससे?” मां ने बात समाप्त होने के बाद मुझसे पूछा.
“देखा नहीं आपने? कैसे आजकल बातें छुपाने लगी है! मां, घर बदल जाए, समय बदल जाए, कोई बात नहीं. दुख होता है जब अपने बदल जाएं. कुछ समय पूर्व छंटनी में दामादजी की नौकरी चली गई थी. हमें भनक तक नहीं लगने दी उसने. हालांकि दो-तीन महीनों में ही उन्हें पहले से बेहतर नौकरी मिल गई थी. तब बातों बातों में एक दिन बताया उसने. हम क्या इतने पराए हो गए हैं उसके लिए मां? पहले कैसे छोटी-छोटी बात शेयर करती थी. ऐसा लगता था शादी करके स़िर्फ भौतिक रूप से विदा हुई है. दिल से तो अभी भी यही है, पर अब तो सचमुच पराई हो गई है.” दुख और आवेश में मेरा स्वर भीग उठा था.
“पराई नहीं, परिपक्व हो गई है. शेयर नहीं, केयर करना सीख गई है हमारी लाड़ली! बढ़ती उम्र और अनुभव के साथ-साथ जैसे तू मेरी मां बनती जा रही है वैसे ही वह तेरी मां बनती जा रही है.”
मैं हतप्रभ सी मां को निहार रही थी. शांत, सौम्य चेहरे की एक-एक झुर्री मां-बेटी के रिश्ते का सूक्ष्म, गहन और मनोवैज्ञानिक विश्‍लेषण करती प्रतीत हो रही थी. मानो कह रही हो- बहुत कुछ सिखाया ज़िंदगी के सफ़र ने अनजाने में.. वो किताबों में दर्ज़ था ही नहीं, जो पढ़ाया सबक ज़माने ने…

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