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कहानी- आख़िरी सलाम (Short Story- Aakhiri Salam)

पापा को चुप देख उसका धैर्य समाप्त होता जा रहा था. वह भर्राये स्वर में बोला, ‘‘पापा, उठिए मुझसे बातें करिए. मैं वादा करता हूं कि अब मैं राजा बेटा बन जाऊंगा. मम्मी को कभी तंग नहीं करूंगा. समय से दूध पी लिया करूंगा और ख़ूब मन लगाकर पढूंगा. प्लीज़ आप बस एक बार मुझसे बात कर लीजिए.’’
सभी कर्तव्यविमूढ़ से हो गए. किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि इस नन्हें बच्चे को कैसे समझाएं.

पांच वर्षीय मोहित आज काफ़ी देर से सो कर उठा था. किसी ने उसे जगाया ही नहीं था. घर का माहौल भी आज कुछ बदला हुआ सा था. चारों ओर अजीब-सी ख़ामोशी भरी चहल-पहल छाई हुई थी.
चाचा-चाची, मामा-मामी, बुआ-फूफा और जाने कितने रिश्तेदार घर में मौजूद थे. सबको देख कर मोहित का चेहरा खिल उठा, किन्तु आज किसी ने भी उसे गोद में उठा कर प्यार नहीं किया. वह हेमन्त चाचा, विकास मामा या रीता मौसी जिसके पास भी गया उसने सिर्फ़ उसके बालों को सहला दिया और आगे बढ़ गए. किसी ने उससे बात नहीं की. ऐसा लग रहा था जैसे सभी बहुत व्यस्त हैं.
सभी का बदला व्यवहार और चेहरों पर छाई ख़ामोशी मोहित को अजीब-सी लग रही थी. वह टहलता हुआ बाहर आया. वहां का भी माहौल बदला हुआ था. घर के बाहर सड़क पर जहां तक दृष्टि जाती थी उंचे-उंचे तोरणद्वार बने हुए थे. आस-पास के मकानों को भी झंडियों से सजा दिया गया था.
मोहित को याद आया कि इससे मिलती-जुलती सजावट पिछले वर्ष हेमन्त चाचा की शादी में हुई थी, किन्तु आज तो किसी की शादी थी नहीं फिर इतनी सजावट क्यूं? वो चाहकर भी अपने प्रश्न का उत्तर नहीं खोज पाया.
तभी उसे अपना 10 वर्षीय बड़ा भाई रोहित आता दिखाई पड़ा. भैया को ज़रूर सब मालूम होगा. मोहित ने सोचा और उनका हाथ पकड़ते हुए बोला, ‘‘भैया-भैया, ये सब सजावट किसलिए की गई है?’’
"आठ बजे की फ्लाइट से हमारे पापा आ रहे हैं.’’ रोहित ने गंभीर स्वर में बताया.
‘‘कालगिल से?’’ मोहित की आंखे ख़ुशी से चमक उठीं. पापा के आने की ख़बर थी ही इतनी बड़ी.
‘‘कालगिल से नहीं, कारगिल से.’’ रोहित ने संशोधन किया.
‘‘भैया, आज किसी की शादी है क्या?’’ मोहित ने रोहित के संशोधन पर ध्यान दिए बिना दूसरा प्रश्न किया.
‘‘नहीं.’’
‘‘तो फिर इतनी सजावट क्यों की गई है?’’ मोहित की जिज्ञासा उसकी ख़ुशी के ऊपर हावी होने लगी थी.
यह सुन रोहित के चेहरे पर विचलित होने के चिह्न दिखाई पड़ने लगे. उसने आंख बंद करके कुछ सोचा फिर बोला, ‘‘किसी बड़े आदमी के आने पर भी ऐसी सजावट की जाती है.’’
‘‘तो क्या हमारे पापा बड़े आदमी हो गए हैं?’’ मोहित ने तत्काल प्रति-प्रश्न किया.
‘‘हां.’’
‘‘सच?’’ मोहित का चेहरा ख़ुशी और गर्व से चमक उठा.
‘‘हां भाई, हमारे पापा बहुत बड़े आदमी हो गए है. इतने बड़े कि कोई उन्हें छू भी नहीं सकता." न चाहते हुए भी रोहित की आवाज़ भर्रा गई.
‘‘लेकिन मैं तो उन्हें छुउूंगा भी और उनकी गोद में बैठ कर खेलूंगा भी.’’ मोहित मचल उठा. फिर रोहित का हाथ पकड़ मासूमियत से पलकें झपकाते हुए बोला, ‘‘भैया, पापा को घोड़ा बनाकर उन पर सवारी करेंगे. बहुत मज़ा आएगा. मम्मी डांटेंगी फिर भी नहीं उतरेगें."
रोहित ने कोई उत्तर नहीं दिया, तो मोहित ने उसका हाथ झिंझोड़ते हुए पूछा, ‘‘भैया, बताओ न, पापा के साथ खेलोगे या नहीं?’’
‘‘मोहित, अब हम पापा के साथ कभी नहीं खेल पाएंगे.’’ रोहित ने अपने स्वर को भरसक नियंत्रति करते हुए कहा.
‘‘क्या तुम उनसे नाराज़ हो?’’ मोहित ने एक बार फिर मासूमियत से पलकें झपकाईं.
यह सुन रोहित अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रख सका. उसका धैर्य समाप्त हो गया और वो मोहित को लिपटा कर फफक पडा, ‘‘मेरे भाई, हमारे पापा से तो कोई नाराज़ हो ही नहीं सकता. उनसे तो पूरा देश प्यार करता है.’’
मोहित की समझ में ही नहीं आया कि भैया रो क्यूं रहे है. वो कुछ कहने जा रहा था कि तभी दादाजी उधर से निकले. रोहित को रोता देख वे ठिठककर रूक गए. अपनी कांपती आवाज़ को भरसक कड़ा कर उन्होंने रोहित के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘तुम तो समझदार हो बेटा. ऐसे मौक़े पर रोया नहीं जाता है. मुझे अपने बेटे पर गर्व है. तुम्हें भी अपने पापा पर गर्व होना चाहिए.
‘‘दादाजी, मैं रो नहीं रहा था, बल्कि मोहित को समझा रहा था.’’ रोहित ने कमीज की आस्तीन से अपनी आंखें पोंछी. फिर बोला, ‘‘मुझे भी अपने पापा पर गर्व है. देखिएगा उनका स्वागत सबसे पहले मैं ही करूंगा.’’
‘‘शाबाश बेटा!’’ दादाजी ने रोहित की पीठ थपथपाई. फिर चश्मा उतारकर अपनी आंख पोंछने लगे. वे ऐसा प्रर्दर्शित कर रहे थे जैसे उनकी आंख में कुछ पड़ गया है, लेकिन रोहित जानता था कि उसको समझानेवाले दादाजी ख़ुद अपने आसुंओ को रोक नहीं पा रहे थे.
रोहित और दादाजी का वार्तालाप मोहित की समझ से परे था. चलो मम्मी से पूछा जाए. वे ज़रूर सब समझा देंगी. मोहित ने सोचा और फिर चुपचाप वहां से हट गया.
मम्मी को ढूंढ़ता-ढूंढ़ता वो बैठक कक्ष में पहुंचा. वहां का माहौल भी बदला हुआ था. सारा फर्नीचर हटा कर ज़मीन पर सफेद चादर बिछा दी गई थी. मम्मी अनेक औरतों से घिरी गुमसुम-सी बैठी थीं. उनकी आंखें शून्य में निहार रही थीं. मम्मी को इस तरह ज़मीन पर बैठा देख मोहित को बहुत आश्चर्य हुआ. उसने नाराज़गी भरे स्वर में कहा, ‘‘मम्मी, आप यहां बैठी हैं. पापा आनेवाले हैं. चलिए उनके लिए अच्छी-अच्छी चीज़ें बनाइए, वरना वे नाराज़ हो जाएंगे.’’
यह सुन मम्मी को चेहरा कांप उठा. उनके होंठ थरथरा कर रह गए. ऐसा लग रहा था कि वे कुछ कहना चाह रही हैं, किन्तु भावनाओं को स्वर दे पाने में असमर्थ थीं.
‘‘मोहित, चलो तुम्हें दूध पिला दें.’’ तभी रीता मौसी ने स्थित संभालने की कोशिश की.
‘‘मैं तो अब पापा के हाथ से ही दूध पीऊंगा.’’ मोहित ने अपना फ़ैसला सुना दिया.
‘‘बेटा…’’ मम्मी का स्वर कांप उठा. उन्होने मोहित को खींचकर अपने सीने से लिपटा लिया.
मोहित को बड़ा अजीब-सा लगा. पहले भैया ने उसे अपने गले से लिपटा लिया था. अब मम्मी भी ऐसा ही कर रही थीं. पता नहीं क्या बात है.
वह कुछ कहने जा रहा था कि तभी बाहर नारे सुनाई पड़ने लगे. ‘मेजर भवानी सिंह अमर रहें’, ‘देश का बेटा कैसा हो- मेजर भवानी सिंह जैसा हो’, ‘शेरे हिन्द भवानी सिंह की जय’…


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शोर सुन मोहित मम्मी की गोद से निकल बाहर की ओर दौड़ा. भैया के स्कूल के बच्चे जुलूस की शक्ल में नारे लगाते हुए उसके घर की ओर ही आ रहे थे. सभी ने अपने हाथों में तिरंगी झंडिया थाम रखी थीं. मोहित की समझ में ही नहीं आया कि सभी लोग उसके घर की तरफ़ क्यूं आ रहे हैं और वे उसके पापा के ज़िंदाबाद के नारे क्यूं लगा रहे है. इससे पहले उसने सिर्फ़ नेताओं के ज़िंदाबाद के नारे सुने थे.
आज मोहित के आश्चर्य का अंत न था. स्कूली बच्चों के जुलूस के पीछे शहर के लोगों की भीड़ उमड़ी चली आ रही थी. देखते ही देखते ‘मेजर भवानी सिंह- ज़िंदाबाद’ के नारों से आसमान गूंजने लगा. पूरी सड़क खचाखच भर गई. कहीं तिल रखने की जगह नहीं बची थी.
मोहित आश्चर्यचकित-सा सब देख रहा था. थोड़ी ही देर बाद मिलेट्री बैंड की धुन सुनाई पड़ने लगी. उपस्थित जनसमुदाय का उत्साह चरमोत्कर्ष पर पहुंचने लगा था. अमर सेनानी का स्वागत करने के लिए लोग बावले हुए जा रहे थे.
‘‘मोहित, तुम्हारे पापा आ रहे हैं. चलो मैं तुम्हें छत से सब दिखाता हूं.’’ तभी रतन मौसा ने क़रीब आ मोहित को गोद में उठा लिया.
‘‘नहीं मैं यहीं रहूंगा. पापा मुझे देखते ही गोद में उठा लेगें.’’ मोहित उनकी गोद में मचल उठा.
‘‘तुम यहा भीड़ में दब जाओगे. मेरे साथ छत पर चलो.’’ रतन मौसा ने शांत स्वर में समझाया और उसे लेकर छत की ओर चल पड़े.
‘‘मौसाजी, पापा दिखलाई क्यूं नहीं पड़ रहे हैं?’’ उसने छत पर पहुंचकर दूर-दूर तक दिख रहे विशाल जन समुदाय पर दृष्टि दौड़ाते हुए पूछा.
‘‘वो देखो उस ट्रक में तुम्हारे पापा आ रहे हैं.’’ मौसा ने उंगली उठाते हुए इशारा किया.
फूलों से लदे ट्रक में पापा को खोज पाने में मोहित की आंखें असमर्थ थीं. ट्रक के आगे सेना की सशस्त्र टुकड़ी और मिलेट्री का बैंड चल रहा था. सड़क के किनारे बने घरों से लोग ट्रक पर फूलों की बरसात कर रहे थे. किन्तु उस भीड़ में उसके पापा कहां थे? रतन मौसा के बार-बार के आश्वासन के बाद भी उसे दिखाई क्यूं नहीं पड़ रहे? लाख कोशिश करने पर भी मोहित समझ न पाया.
शायद ट्रक क़रीब आने पर वो पापा को देख सके. मोहित ने स्वयं को सांत्वना दी. किन्तु यह ट्रक भी तो आज चींटी की चाल चल रहा था. वह झल्लाकर रह गया.
प्रतीक्षा की घड़ियां कितनी ही लम्बी क्यूं न हों कभी न कभी ख़त्म अवश्य होती हैं. गगनभेदी नारों और फूलों की बरसात के बीच धीरे-धीरे चलता हुआ ट्रक आख़िर मोहित के बंगले के सामने आकर रूक गया. किन्तु मोहित को पापा अभी भी दिखलाई नहीं पड़े थे.
तभी औरतों की भीड़ में घिरी मम्मी और दादी दिखलाई पड़ीं. रोहित भैया भी वहीं खड़े थे. मम्मी अपने हाथों में पूजा की थाली लिए हुए थीं. दादी ने अपने कांपते हाथों से माचिस की तीली जलाकर थाली में रखे दीपक को जला दिया. मम्मी ने अपनी हथेली की ओट देकर दीपक की कांपती लौ को अच्छी तरह प्रज्जवलित हो जाने दिया फिर थाली रोहित भैया को पकड़ा दी.
रोहित भैया का हाथ कांप उठा. वो थाली को ठीक से संभाल नहीं पा रहे थे. इससे पहले की थाली उनके हाथों से छूट जाती दादी ने आगे बढ़कर उसे संभाल लिया. मम्मी ने रोहित भैया की पीठ थपथपाई, तो उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आंखों को उठाकर मम्मी की तरफ़ देखा. उनके होंठ थरथरा रहे थे. शायद वे कुछ कहना चाह रहे थे, परन्तु कह नहीं पा रहे थे, किन्तु उनकी आंखें बहुत कुछ कह रही थीं. मम्मी ने स्नेह से उनके सिर पर हाथ फेरा, तो उन्होंने अपनी आंखें बंद कर लीं. फिर तेजी से पलट कर ट्रक के पीछे पहुंच गए. सेना के अधिकारियों ने उन्हें ट्रक पर चढ़ा दिया.
ट्रक के भीतर रोहित भैया किसी की आरती उतारने लगे, किन्तु वे किसकी आरती उतार रहे हैं मोहित को ठीक से दिखायी नहीं पड़ा. सिर्फ़ तिरंगे झंडे की एक झलक-सी उसे दिखलाई पड़ रही थी. ज़रूर तिरंगे के भीतर भगवान होंगे, क्योंकि आरती तो भगवान की ही उतारी जाती है.
‘‘मौसाजी, क्या ट्रक के भीतर भगवान हैं?’’ उसने पूछा. ‘‘हां बेटा, ट्रक के भीतर भगवान ही हैं.’’ रतन मौसा ने शांत स्वर में बताया.
‘‘आप जानते हैं कि भगवान कौन होता है?’‘ मोहित ने अपनी बड़ी-बड़ी पलकों को झपकाते हुए दूसरा प्रश्न पूछा.
‘‘हां बेटा, भगवान वो होता है, जो हमारी रक्षा करता है. इस ट्रक के भीतर जो है, उसने हमारी और हमारे देश की रक्षा की है, इसलिए वो भगवान ही हुआ.’’ बताते-बताते रतन मौसा फफक पड़े. उनका धैर्य समाप्त हो गया था और वे अपने को संभाल नहीं पाए.
‘‘मौसाजी, क्या आप हमसे ग़ुस्सा हो गए है?’’
‘‘नहीं तो.’’
‘‘तो फिर आप रो क्यूं रहे हैं? क्या मैंने कोई ग़लत बात कह दी.’’ मोहित सहम उठा.
‘‘नहीं बेटा, ग़लत तुम नहीं, बल्कि ये बेदर्द आंसू हैं, जो ख़ुशी हो या ग़म हर जगह बिन बुलाए मेहमान की तरह चले आते हैं.’’ रतन मौसा ने अपनी आंखें पोंछते हुए बताया.
इस बीच रोहित भैया ट्रक से नीचे उतर आए थे और सेना के अधिकारी ऊपर चढ़ गए थे. चार अधिकारियों ने अपने कंधों पर चारपाई जैसी कोई चीज़ उठा ली थी. उस पर तिरंगे झंडे में लिपटा हुआ कोई लेटा था. शायद भगवान की मूर्ति होगी. मोहित ने सोचा, क्योंकि रोहित भैया उन्हीं की तो आरती उतार रहे थे.
सेना के अधिकारियों के ट्रक से नीचे उतरते ही जयघोष काफ़ी तेज हो गया था. तिरंगे झंडे में लिपटे भगवान के दर्शन करने के लिए लोग बावले हुए जा रहे थे, किन्तु सेना की सशस्त्र टुकड़ी ने उनके चारों ओर घेरा डाल दिया था.
सधे कदमों से सेना के अधिकारी बंगले के भीतर आए. विशाल लाॅन में सफ़ेद चादर से ढंके छोटे से मंच पर उन्होंने तिरंगे झंडे में लिपटे भगवान को सावधानी से लिटा दिया.
‘अरे ये तो मेरे पापा हैं’ मोहित आश्चर्य से चौंक पड़ा. तिरंगे झंडे से पापा का गौरवमयी चेहरा बाहर झांक रहा था, लेकिन पापा सो क्यूं रहे हैं? उन्होंने तिरंगा क्यों ओढ़ रखा है? रतन मौसा तो बता रहे थे कि ट्रक के भीतर भगवान हैं. तो क्या पापा भगवान हो गए हैं?.. तमाम प्रश्न उसके दिमाग़ को मथने लगे.
उससे रहा नहीं गया, वह रतन मौसा की गोद से उतर तीर की तरह नीचे भागा. आंगन में काफ़ी भीड़ थी. भीड़ को चीर वह बहुत मुश्किल से लॉन तक पहुंच पाया. वहां अब तक लम्बी पंक्ति बन चुकी थी. लोग बारी-बारी से उसके पापा के पैरों तक जाते और अपने हाथों में पकड़ी माला उन्हें अर्पित करते. उनके पैरों पर शीश नवाते, फिर फौजी ढंग से सलाम करके आगे बढ़ जाते. सफ़ेद खादी पहने नेता, वर्दीधारी सेना के अधिकारी, सूट-बूट पहने बड़े आदमी और साधारण नागरिक सभी उस पंक्ति में खडे हुए थे.


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मोहित कुछ पलों तक कौतहूलपूर्वक वहां खड़ा इंतज़ार करता रहा कि शायद पापा उठकर उसे अपनी गोद में बिठा लें. किन्तु जब पापा नहीं उठे, तो उससे रहा नहीं गया. वह दौड़कर उनके क़रीब पहुंचा और अपने नन्हें-नन्हें हाथों से उनके चेहरे को पकड़ते हुए बोला, ‘‘पापा, उठिए! मेरे साथ खेलिए!’’
पापा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की, तो वो उनके चेहरे को झिंझोड़ते हुए बोला, ‘‘पापा, मैं मोहित हूं. आपका मोहित. आप मुझसे बोलते क्यूं नहीं? क्या आप मुझसे नाराज़ हैं?’’
पापा को चुप देख उसका धैर्य समाप्त होता जा रहा था. वह भर्राये स्वर में बोला, ‘‘पापा, उठिए मुझसे बातें करिए. मैं वादा करता हूं कि अब मैं राजा बेटा बन जाऊंगा. मम्मी को कभी तंग नहीं करूंगा. समय से दूध पी लिया करूंगा और ख़ूब मन लगाकर पढूंगा. प्लीज़ आप बस एक बार मुझसे बात कर लीजिए.’’
सभी कर्तव्यविमूढ़ से हो गए. किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि इस नन्हें बच्चे को कैसे समझाएं. तभी हेमन्त चाचा को कर्तव्य बोध हुआ. उन्होंने आगे बढ़कर मोहित को गोद में उठा लिया, ‘‘बेटा, तुम्हारे पापा हम सब से बहुत दूर चले गए हैं. वे अब हम लोगों से कभी बात नहीं कर पाएंगे.’’
‘‘झूठ बोल रहें हैं आप.’’ मोहित चीख पड़ा, ‘‘मेरे पापा कालगिल गए थे. मुझसे फोन पर कहा था कि वे अपनी गन से ढेर सारे दुश्मनों को मार गिराएंगे और मेरे लिए ढेर सारे मेडल जीतकर लाएंगे. मेरे पापा कभी झूठ नहीं बोलते. वे मेरे लिए ढेर सारे मेडल ज़रूर जीत कर लाए होंगे. वे सो रहे हैं उठाइए उन्हें.’’
‘‘बेटा, तुम्हारे पापा ने झूठ नहीं कहा था. उन्होंने अकेले ही 20 दुश्मनों को मार गिराया था. उनकी वीरता की वजह से ही हमारे देश को एक महत्वपूर्ण विजय प्राप्त हुई है. पूरे देश को उनके ऊपर गर्व है. उन्हें ढेर सारे मेडल भी मिलेंगे, लेकिन…’’ हेमन्त चाचा का स्वर भर्रा उठा. वे चाह कर भी अपनी बात पूरी नहीं कर पाए.
‘‘लेकिन क्या?’’ मोहित का स्वर गंभीर हो गया. वो अब कुछ सतर्क भी हो गया था.
‘‘लेकिन भागते हुए दुश्मनों ने उनके सीने में गोली मार दी." हेमन्त चाचा फफक पड़े.
बात काफ़ी हद तक मोहित की समझ में आने लगी थी. हेमन्त चाचा की गोद से उतर कर उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई. सभी की आंखों से अश्रुधार बह रही थी. सिर्फ़ दादा-दादी, मम्मी और रोहित भैया अविचल खड़े थे. उन्होंने अपने होंठों को सी रखा था. उनकी आंखों में एक ज्योति चमक रही थी.
सधे कदमों से वह रोहित भैया के पास पहुंचा और उनका हाथ थाम कांपते स्वर में बोला, ‘‘भैया, क्या हमारे पापा मर गए?’’
रोहित के होंठ एक बार फिर थरथरा कर रह गए. वह स्वीकृति की मुद्रा में सिर हिलाने जा ही रहा था कि मम्मी ने आगे बढ़ मोहित को अपने कलेजे से लिपटा लिया, ‘‘न बेटा, न. शहीद कभी नहीं मरते. मातृभूमि के लिए प्राण न्योछावर कर वे हमेशा के लिए अमर हो जाते हैं. उनकी आत्मा देश के कण-कण में बस जाती है. तुम्हारे पापा हमेशा हमारे पास रहेंगे. वे कभी हमसे दूर नहीं जा सकते. हमें उन पर गर्व है.’’
‘‘लेकिन फिर सभी लोग रो क्यूं रहे है?’’ मोहित ने सहमते हुए पूछा.
‘‘ये रो नहीं रहे हैं,बल्कि अश्रुगंगा से तुम्हारे पापा के चरण कमलों को धो रहे हैं.’’ दादाजी ने समझाया.
बड़ों का दर्शन भला उस मासूम की समझ में क्या आता. किन्तु वह अपने छोटे से अनुभव से काफ़ी कुछ समझ गया था. अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उसके पास शब्द रूपी यंत्र न थे. अतः मौक़ा देख कर चुपचाप वहां से खिसक लिया.
भीड़ को चाीरता हुआ वह अपने कमरे में पहुंचा. उसकी आंखों में वह दृश्य घूम रहा था, जब पिछले महीने उसके जन्मदिन पर पापा उसके लिए मिलेट्रीवाली ड्रेस लाए थे. उसे पहनकर जब वह उनके सामने आया था, तो पापा ने ज़ोरदार सैल्यूट मारते हुए कहा था, ‘’अरे वाह, मेरा बेटा, तो अपने पापा की ही तरह फौजी बन गया. बड़ा होकर वो भी दुश्मनों को मार भगाएगा.’‘
घड़ी की सूइयां धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थीं. बारह बज चुके थे. दो बजे पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ मेजर भवानी सिंह का अंतिम संस्कार किया जाना था. परिवार के सदस्य एक-एक करके उनके अंतिम दर्शन कर रहे थे. रोहित, उसकी मम्मी, दादाजी और दादीजी ने ग़ज़ब की दृढ़ता का परिचय दिया था. उनकी आंखों से आंसू का एक भी कतरा बाहर नहीं निकला था. वे कायरों की तरह रो कर शहीद की शहादत का अपमान नहीं करना चाहते थे.
‘‘अरे, मोहित कहा हैं? बुलाओ उसे. वह भी अपने पापा के अंतिम दर्शन कर ले.’’ तभी किसी शुभचिन्तक ने कहा.
सभी की आंखें मोहित को खोजने लगी, किन्तु वो वहां नहीं था. अचानक कुछ हलचल-सी हुई. सभी ने देखा वीर का बेटा वीरों की तरह मिलेट्री की वर्दी पहने सधे कदमों से बाहर आ रहा था. उसकी चाल में ग़ज़ब की दृढ़ता थी और चेहरे पर भरपूर आत्मविश्वास झलक रहा था. उसे देखते ही भीड़ काई की तरह फटने लगी.
खुले ट्रक के पिछले हिस्से की ओर पहुंचकर जब उसने अपने नन्हें हाथों से पापा को सैल्यूट मार कर ‘जयहिंद’ कहा, तो अनेक सिसकारियां एक साथ गूंज उठीं.
‘‘मेजर भवानी सिंह अमर रहें’ के जयघोष से एक बार फिर आसमान गूंजने लगा. फूलों से सजा ट्रक अमर शहीद के पार्थिव शरीर को लेकर अंतिम यात्रा की ओर चल पड़ा.
दृष्टि से ओझल हो जाने तक मोहित अमर सेनानी को आख़िरी सलाम देने की मुद्रा में खड़ा रहा. उसके बाद मम्मी ने उसे उठा कर अपने कलेजे से लिपटा लिया. मोहित भी पूरी शक्ति से उनसे लिपट गया. दोनों एक-दूसरे को सहारा देने की कोशिश कर रहे थे.
अमर शहीद के जयघोष से आसमान अभी भी गूंज रहा था.

Sanjeev Jaiswal ‘Sanjay’
संजीव जायसवाल ‘संजय‘

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