सुमन चौंकी! सचिन ‘साहेब’ अभी-अभी इसी पुरस्कार की तो बात कर रहे थे और उन्होंने मुझे यही कहा था ‘किसी को बताना नहीं.’ ये हर कोई इस प्रतियोगिता की जानकारी गुप्त क्यों रखना चाह रहा है?
“पारुल एक बात पूछूं? तुमको यह जानकारी कहां से मिली?”
“दी! वह नहीं बता सकती, जिन्होंने मुझे बताया है उन्होंने किसी और को बताने को मना किया था. फिर मैंने सोचा आप तो मेरी अपनी हैं, मेरी कितनी मदद करती हैं, इसलिए आपको बताए बिना मुझसे रहा नहीं गया. ”
सुमन को कुछ खटका और वह तुरंत बोल पड़ी, “कहीं सचिन 'साहेब' ने तो नहीं बताया?” यह नाम सुनकर पारुल हड़बड़ा गई.
“अरे कब से फोन बज रहा है उठाओ ना? डिस्टर्ब हो रहा है भई!” सुमन चाय पीते हुए ग़लती से फोन उस कमरे में छोड़ आई थी, जहां पर उसके पति निखिल वर्क फ्रॉम होम कर रहे थे.
“आ रही हूं… किसका फोन है?” सुमन रसोई से ही चिल्लाई.
“तुम्हारे साहेब का!” निखिल ने भी उसी कोफ़्त से चिल्लाकर जवाब दिया. जब तक सुमन ने कमरे में आकर फोन उठाया, तब तक कॉल डिस्कनेक्ट हो चुकी थी.
“तुम्हारे साहेब को कोई काम-धंधा नहीं है क्या? सुबह-सुबह फोन मिला देते हैं. कॉल बैक कर लो, कहीं तुम लेखन जगत की किसी ज़रूरी बात से महरूम ना रह जाओ…” निखिल ने हंसते हुए व्यंग्य बाण चलाया. सुमन ने उसकी तरफ़ बुरा-सा मुंह बनाया और फोन लेकर चलती बनी. बाहर आकर भी उसने वापस ‘साहेब’ को फोन नहीं मिलाया. निखिल को क्या बोलती, वो ख़ुद ही त्रस्त हो चुकी थी उनसे.
माफ़ कीजिए, आपसे इन तीनों का पूरा परिचय नहीं कराया. दिल्ली निवासी सुमन एक जानी-मानी कहानीकार थी, जो प्रिंट और डिजिटल पत्र-पत्रिकाओं में काफ़ु समय से सुमन 'पुष्प' नाम से कहानियां लिखा करती थी. उम्र 45 पार हो गई थी. बेटी मानसी मेडिकल की तैयारी कर रही थी. पति निखिल सॉफ्टवेयर इंजीनियर थे, जो पहले लॉकडाउन के बाद से ही वर्क फ्रॉम होम कर रहे थे. 3 बीएचके फ्लैट में तीनों प्राणियों को अपने लिए एक-एक कमरा मिल जाता था, इसलिए तीनों का काम सुकून से चल रहा था.
अपने-अपने कमरों में लैपटॉप खोले निखिल ऑफिस का काम करता, मानसी पढ़ाई करती और सुमन दैनिक घरेलू दायित्वों से निपट कहानियां लिख लिया करती. साथ ही कुछ कहानीकार दोस्तों से गप्पे मार लिया करती, जिससे कहानी जगत की गतिविधियों के बारे में पता चलता रहता. उसकी लेखक मित्र मंडली में 4-5 लोग ही थे, मगर पिछले सालभर से इस मंडली में एक नए रोचक पात्र जुड़े थे सचिन ‘साहेब’.
ये इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्राध्यापक थे और शौकिया कहानियां लिखते थे. इनकी कहानियां सामान्य ही होती, फिर भी ख़ुद को बड़ा साहित्यकार समझने में कोई कसर न छोड़ते. सुमन से इनकी जान-पहचान सोशल मीडिया पर बने एक साहित्यिक ग्रुप पर हुई थी. उन्होंने सुमन की कहानियों की तारीफ़ों में कसीदे पढ़ते हुए उसे मैसेंजर में संदेश भेजने आरंभ कर दिए. तारीफों में किसी भी तरह की असभ्यता, अशिष्टता न होती इसलिए सुमन भी धन्यवाद लिख दिया करती.
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एक दिन एक कहानी प्रतियोगिता की आवश्यक सूचना देने हेतु सचिन ‘साहेब’ ने सुमन का फोन नंबर मांगा. उसने भी दे दिया और तब से वे उसे आए दिन फोन करने लगे. ऊपरी तौर पर देखा जाए, तो उनकी बातों में कुछ भी ऐसा ना होता जिस पर ऐतराज़ किया जा सके या तो लेखन की तारीफ़ होती या किसी ना किसी तरह की जानकारी होती. पर कुछ तो था जो सुमन को अखर जाता. उसकी छठी इंद्री उसको आभास दिलाती, कहीं कुछ तो गड़बड़ है, इनसे ज़्यादा फार्मल नहीं होना चाहिए, मगर किसी प्रत्यक्ष प्रमाण के अभाव में सुमन उनकी बजाय अपनी सोच पर ही संशय कर लिया करती. सचिन 'साहेब' के साथ एक समस्या और थी, वो ये कि उनका फोन एक बार ले लिया जाता, तो फिर जल्दी पीछा ना छूटता. पता नहीं कहां-कहां की हांकते.
सुमन ने अपने फोन पर उनका नाम सचिन 'साहेब' सेव किया हुआ था, जिसे देखकर निखिल बड़ा मज़ाक उड़ाते.
“ये ‘साहेब’ से क्या मतलब है?”
सुमन समझाती 'साहेब' उनका तखल्लुस है यानी उपनाम. लगभग सभी लेखक अपना कोई उपनाम रखते हैं जैसे साहिर ‘लुधियानवी’, जिगर ‘मुरादाबादी’ मैंने भी तो रखा सुमन ‘पुष्प’.”
“वह तो ठीक है मगर ‘साहेब’ ही क्यों? कुछ और भी हो सकता था… ‘दास’ ही रख लेते?”
“उनका तखल्लुस उनकी मर्जी, तुम्हें क्या?” सुमन निखिल को झिड़क देती. तब से उनका फोन आते ही निखिल "साहेब, का फोन आ गया, साहेब याद कर रहे हैं…" कहकर सुमन को चिढ़ाना शुरू कर देते.
हुआ यूं कि साल भर में सुमन का सचिन ‘साहेब’ से दो-तीन बार कभी पुस्तक मेले में तो कभी साहित्यिक सम्मेलन में सपत्निक मिलना भी हो गया. सुमन को उनकी पत्नी सरला नाम के अनुरूप बड़ी विनम्र और मिलनसार महिला लगी. दोनों में अच्छी बातचीत हुई थी. व्यक्तिगत् रूप से भी सुमन को सचिन ‘साहेब’ बड़े भद्र और हंसमुख आदमी लगे. इन कारणों से भी वह उनको बड़े सम्मान की दृष्टि से देखने लगी थी.
आज वह जल्दी से काम निपटा कर एक नई कहानी शुरू करना चाहती थी इसलिए ‘साहेब’ को कॉल बैक कर समय बर्बाद करना उचित नहीं समाझा. लैपटॉप खोला ही था कि वापस उनका फोन आ गया. सुमन ने अनमने ही सही, मगर उठा लिया. हर बार की तरह फिर वही पिछली प्रकाशित कहानी की तारीफ़ों के पुल बंधे, लेखनी की खू़्ब तारीफें की. इसके अलावा एक महत्वपूर्ण जानकारी शेयर की।
“साहित्य कला निकेतन में कहानी प्रतियोगिता आयोजित होने जा रही है. वहां पर अपना नव प्रकाशित कहानी संग्रह ज़रूर भेजिएगा. अच्छा पुरस्कार है. मेरी चयनकर्ताओं से अच्छी जान-पहचान है. वे आप जैसी लेखनी को ही ढूंढ़ रहे हैं. मैं लिख कर दे सकता हूं, वहां आपकी किताब ही जीतेगी…”
“मेरी कहानियों में इस भरोसे के लिए आपका धन्यवाद.” सुमन ने अतिरेक प्रशंसा से झेंपते हुए कहा.
“एक बात और कहनी है, देखिए यह बात मैं सिर्फ़ आपको बता रहा हूं, क्योंकि समकालीन रचनाकारों में बस एक आप ही हैं, जो इस पुरस्कार के योग्य हैं, बाकी सब तो साहित्य का नाम डुबोने में लगे हैं. इसलिए ये बात कहीं शेयर मत कीजिएगा.”
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“जी ज़रूर, आप मुझे पता दीजिएगा.”
सुमन फोन पर बात कर ही रही थी कि पीछे से लगातार पारूल शर्मा के फोन आए जा रहे थे. सचिन ‘साहेब’ का फोन रख उसने पारूल का फोन उठाया. वह नवांकुर लेखिका थी. सुमन को बड़ी दीदी की तरह मानती थी. उससे हर तरह का सलाह-मशवरा कर लिया करती थी. साथ ही पारूल सुमन के लिए सोर्स ऑफ इंफोर्मेशन थी. लेखन जगत में क्या चल रहा है, एक-एक बात की जानकारी पारूल जुटा लिया करती थी और ब्रॉडकास्ट किया करती थी.
“दी! आपको एक ज़रूरी बात बतानी है.”
“हां, कहो ना.”
“मगर प्रॉमिस कीजिए किसी और को नहीं बताएंगी.”
“हां बाबा नहीं बताऊंगी.”
“तो सुनिए, साहित्य कला निकेतन में एक प्रतियोगिता आयोजित होने जा रही है. अच्छा पुरस्कार है वहां पर अपनी पुस्तक ज़रूर भेजिएगा. मैं एड्रेस मिलते ही आपको फॉरवर्ड कर दूंगी.”
सुमन चौंकी! सचिन ‘साहेब’ अभी-अभी इसी पुरस्कार की तो बात कर रहे थे और उन्होंने मुझे यही कहा था ‘किसी को बताना नहीं.’ ये हर कोई इस प्रतियोगिता की जानकारी गुप्त क्यों रखना चाह रहा है?
“पारुल एक बात पूछूं? तुमको यह जानकारी कहां से मिली?”
“दी! वह नहीं बता सकती, जिन्होंने मुझे बताया है उन्होंने किसी और को बताने को मना किया था. फिर मैंने सोचा आप तो मेरी अपनी हैं, मेरी कितनी मदद करती हैं, इसलिए आपको बताए बिना मुझसे रहा नहीं गया. ”
सुमन को कुछ खटका और वह तुरंत बोल पड़ी, “कहीं सचिन 'साहेब' ने तो नहीं बताया?” यह नाम सुनकर पारुल हड़बड़ा गई.
“अरे बोल ना…” सुमन ने ज़ोर देकर पूछा.
“दी आपको कैसे पता चला? देखिए उन्हें पता ना चले कि मैंने आपको बता दिया. उन्होंने मुझे किसी को भी बताने को मना किया था.”
यह सुनकर सुमन को बड़ा ग़ुस्सा आया. “अरे! जब तुम्हारा फोन आ रहा था, तब मैं उन्हीं से बात कर रही थी. वे मुझे भी इसी पुरस्कार के बारे में बता रहे थे. साथ ही यह भी कह रहे थे कि किसी को मत बताना.”
“क्या?” सुनकर पारुल के कान खड़े हो गए.
“अरे ऐसा कैसे? मेरे से इतने प्रामिस लिए कि ये बात वे सिर्फ़ मुझे बता रहे हैं, मैं और किसी को ना बताऊं.”
“मुझसे भी यही कहा था. कह रहे थे समकालीन लेखिकाओं में मैं स्रर्वश्रेष्ठ हूं, इसलिए वे चाहते हैं ये पुरस्कार मुझे ही मिले.”
“अरे दी, सेम टू सेम! मुझे भी कहा था! हे भगवान! कितना दोगला आदमी निकला ये!” पारूल की आवाज़ में कड़वाहट घुल गई.
दोनों तरफ़ घोर अंधकार छा गया. ये क्या माज़रा था! एक प्रशंसा के एक तीर से दो निशाने साधे जा रहे थे… निंदा का मारा तो आत्मरक्षा के जुगाड़ भी कर ले, मगर प्रशंसा के मारे को तो भनक भी ना लगे कि उसका कैसे बेवकूफ़ बनाया जा रहा है.
इसके बाद धीरे-धीरे दोनों ने उनके बारे में जो भी बातें एक-दूसरे को बताई, वे कॉमन थी. यानी दोनों की भरपूर सराहना करना, नियमित फोन करना, फ्रेंड, फिलॉसफर, गाइड की भूमिका निभाते हुए तारीफ़ें बटोरना… और ये जताना कि ये कृपा सिर्फ़ अकेले उन्हीं पर हो रही है, क्योंकि सिर्फ़ वे ही हैं जो इस कृपा की पात्र हैं.
सुमन तो नाक की सीध में चलनेवाली, सीधी-सादी लेखिका थी, मगर तेज़तर्रार पारूल कहां सचिन 'साहेब' को सस्ते में छोड़नेवाली थी. उससे तो वह भोला प्राणी लगभग रोज़ ही बहाने से बतियाया करता था. पारूल ये सोचकर ही सिहर गई कि जिसे वो अपना शुभचिंतक, समर्पित पाठक समझ रही थी, वह अधेड़ उम्र का आदमी अपनी बेटी की उम्र की लड़की को बातों के जाल में फंसाकर उससे निकटता का रस ले रहा था, उससे फ्लर्ट कर अपनी मानसिक कुंठा शांत कर रहा था.
माथे पर ग़ुस्से की लकीरें खींचे पारूल पूरा दिन फुल फॉर्म में रही. दस जगह फोन कर डाले और शाम तक तीन-चार और लेखिकाओं से बातचीत कर जानकारी जुटा ली कि ऐसा वे सभी के साथ किया करते हैं. सचिन ‘साहेब’ के शहर इलाहाबाद की ही एक लेखिका कौमुदी श्रीवास्तव ने तो यह तक बताया, "मैंने उनके बारे एक बात बार-बार नोटिस की है कि वे अपनी पत्नी की उपस्थिति में लेखिकाओं को जरा भी भाव नहीं देते. बड़ी सज्जनता से एक संयमित दूरी बनाए रखते हैं. संक्षिप्त-सा वार्तालाप करते हैं. लेकिन जब पत्नी सामने ना हो, तब उनके भीतर लेखिकाओं के प्रति भरा प्रेम, मंगलभावना प्रबल होकर छलक-छलक कर बाहर आती है.” पारूल से यह बात सुनकर सुमन को भी बहुत कुछ याद आने लगा. कितनी बार ऐसा हुआ कि सचिन 'साहेब' का फोन आता था, वे लंबी-लंबी हांकते थे. सुमन बीच में कहा भी करती थी, ज़रा भाभीजी से बात कराइए, उन्हें भी नमस्ते कह लें. तो वे कुछ ना कुछ बहाना बना दिया करते थेः यानी वे पत्नी की अनुपस्थिति में ही महिलाओं को फोन करते हैं?
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सुमन सन्न थी. सचिन 'साहेब' की जो सज्जन छवि उसने मन में बनाई हुई थी, वो आज भरभरा कर गिर गई थी. वह जान गई थी कि उनकी ये विशेष कृपाएं सिर्फ़ लेखिकाओं पर ही बरसती थी. पुरूष कलमकार उनकी इस कृपा दृष्टि से पूरी तरह अछूते थे. सुमन ने एक लेखक साथी से इस संबंध में बात की, तो वह हंसते हुए बोले थे. “अच्छा है आप समझ गई, हम तो उनका ये रूप कब से देख रहे है. अपनी इसी रंगीले स्वभाव के कारण लेखको में उनका नाम सचिन ‘छबीला’ प्रसिद्ध है.”
अब तो सुमन को कांटों तो खून नहीं था. निखिल उसकी हालत देख कर हंस-हंस कर दुहरे हुए जा रहे थे.
“और सुनो झूठी तारीफ़ें… अरे माना मैं तुम्हारी कहानियों की कम तारीफ़ करता हूं, मगर जो करता हूं सच्ची करता हूं, मगर तुम्हारा खून तो साहेब की झूठी तारीफ़ों से ही बढ़ता था ना… वैसे तो तुम राइटर अपने आपको बड़े बुद्धिजीवी बनते हो और इतनी-सी बात नहीं समझ पाए कि कौन, कब, क्यूं, ज़रूरत से ज़्यादा चेप रहा है?”
सुमन बुरी तरह चिढ़ी हुई थी. नहीं! इस बंदे को ऐसे तो नहीं छोड़नेवाले, कुछ ना कुछ सबक तो सिखाना ही पड़ेगा.
सारी जानकारियां जुटाकर और तैयारियां कर एक शाम पारूल और सुमन ने अपनी ही जैसी तीन लेखिकाओं की एक कॉन्फ्रेंस कॉल रखी. मुद्दा था सचिन ‘साहेब’ जैसे झूठे, फ्लर्ट को कैसे सबक सिखाया जाए. वो जो अपनी पत्नी की आंखों में देवता समान बना बैठा है और गाइड, फिलॉसफर बनकर अपने हिडन ऐजेंडा पूरा कर रहा है, उसे यूं सस्ते में नहीं छोड़ना चाहिए.
सुमन ने सबसे पहले उनकी पत्नी का फोन नंबर अरेंज करने को कहा, जिसकी ज़िम्मेदारी उन्हीं के शहर की कौमुदी ने ले ली. कौमुदी की एक सहेली सचिन 'साहेब' की सोसायटी में रहती थी. उस सोसायटी की महिलाओं ने एक वॉट्सअप ग्रुप बनाया हुआ था, जिसमें उनकी पत्नी सरला भी शामिल थी, इसलिए कौमुदी को उनका नंबर खोजने में परेशानी नहीं हुई.
उस मीटिंग में सबने मिलकर पहले तो सचिन 'साहेब' को जी भरके कोसा, फिर सबने अपने-अपने अनुभव शेयर किए कि सिर्फ़ वे एक अकेले ऐसे रंगीले छुपे रूस्तम नहीं हैं और भी कुछ हैं, जो महिला साथियों की शराफ़त का फ़ायदा उठाते हुए भी शरीफ़ बने हुए हैं. वे सोशल मीडिया में पब्लिकली तो सज्जन और शांत बने रहते हैं, लेकिन पर्सनल मैसेज में ख़ूब फूल, गुलदस्ते, सुप्रभात, शुभरात्रि के संदेश भेजते हैं, वो भी रूमानी शेरो-शायरी, कविताओं के साथ..! इन सबको कुछ ना कुछ सबक सिखाना तो बनता ही था, मगर सबसे पहले सचिन 'साहेब' से निपटना था. उनके लिए बहुत सोच-विचार कर कुछ तय किया गया, जिसे सही समय पर सही तरीक़े से अंजाम देना था .
दो दिन बाद सचिन ‘साहेब’ के दिल में फिर मनचली हिलोंरे उठीं और आज उन्होंने फोन मिलाया पारूल को. पारूल तो दो दिनों से इसी घड़ी के इंतज़ार में चौकस थी. जैसे ही उनकी कॉल देखी, तुरंत ईयर फोन लगाकर उनकी कॉल रिसीव की और ख़ूब बातें बनाने लगी. बीच में उसने उनकी पत्नी के बारे में पूछा, तो वे हमेशा की तरह ये कह कर टाल गए, "पत्नी ज़रा पड़ोस में गई हैं. आती हैं तो बात कराता हूं…’ बात करते-करते पारूल ने सुमन को मैसेज कर दिया कि मेरी ‘साहेब’ से बात चल रही है, वे कह रहे हैं पत्नी पड़ोस में गई हुई हैं. बस ठीक उसी समय सुमन ने सचिन ‘साहेब’ की पत्नी सरला को फोन मिला दिया और बातचीत शुरू कर दी.
“नमस्ते सरलाजी, कैसी हैं आप? जब से हम साहित्य सम्मेलन में मिले थे, तब से बड़ी इच्छा थी आपसे बात करने की. सचिनजी के तो हर दूसरे, तीसरे दिन फोन आते रहते हैं. ख़ूब बात करते हैं. उनकी बातें इतनी रोचक होती हैं कि कब घंटा बीत जाता है, पता ही नहीं चलता… मैं उनको बार-बार बोलती भी हूं कि ज़रा आपसे भी बात कराएं, मगर आप हमेशा कहीं बाहर गई हुई होती हैं या सो रही होती हैं…”
“अरे, ये क्या कह रही हैं आप! जब से ये मुआ कोरोना आया है मैं तो कहीं आती-जाती ही नहीं, घर में ही रहती हूं और दोपहर में तो मैं बिल्कुल नहीं सोती…”
“ओह! अच्छा! फिर वो हर बार ऐसा क्यो कहते हैं? बड़े आश्चर्य की बात है ये तो… मेरा तो बड़ा मन करता है आपसे बात करने का… चलिए छोड़िए, अभी तो आप पड़ोस में आई हुई हैं, व्यस्त होंगी, घर पहुंचकर बताइएगा तब आराम से बात करेंगे.”
“अरे! किसने कहां पड़ोस में गई हूं, मैं तो घर पर ही हूं.”
“ओह, मगर सचिनजी जो अभी घंटेभर से लेखिका पारूल शर्मा से फोन पर बात कर रहे हैं, उन्होंने ही पारूल को बताया कि आप तो पड़ोस में गई हैं, अतः आपसे बात नहीं हो पाएगी… दरअसल, हुआ यूं कि हम एक ऑनलाइन महिला सम्मेलन में आपको आमत्रिंत करना चाहते थे, उसी सिलसिले में आपसे बात करना चाहते थे. इसीलिए पारूल ने मुझे मैसेज कर दिया था कि मैं आपके फोन पर आपसे सीधे बात कर लूं, क्योंकि सचिनजी को तो आप जानती ही हैं, एक बार हमें फोन मिला लें, तो घंटे भर से पहले रखते ही नहीं. कितनी तारीफ़ें करते हैं, कितना मार्गर्शन देते हैं, वो भी किसी एक को नहीं, सभी लेखिकाओं को…” सुमन बड़ी चालाकी से पासे फेंक रही थी. सरला के भीतर जो आग लग चुकी थी, उसने जो जो जलाया था उसकी गंध सुमन तक भी पहुंच रही थी.
“घंटे भर से बात कर रहे हैं? मैंने उनसे कहा था बाज़ार से ज़रा सब्ज़ी वगैरह ले आओ, तो बोलने लगे, अभी बहुत ज़रूरी लेखन कार्य में व्यस्त हूं, इसलिए अपने कमरे में जा रहा हूं, बिल्कुल डिस्टर्ब नहीं करना…”
“बस ऐसे ही मूडी हैं वे… ‘पति के मन का ऊंट कब किस करवट बैठ जाए, ख़ुद पति भी नहीं जान पाता, पत्नी भला कैसे जान पाएगी… उन्हीं की एक कहानी की पंक्ति है, मुझे बड़ी पसंद है…” सुमन ने हंसते हुए कहा. “वैसे भी व्यक्तिगत हित से ज़्यादा परहित ज़्यादा भाता है उन्हें… संत आदमी जो ठहरे… दे रहें होंगे कुछ ज्ञान पारूल को.”
“आए बड़े संत…” सरला बुदबुदाई. "अच्छा अभी फोन रखती हूं फिर बात करते हैं." सरला ने जिस ताव में फोन काटा सुमन समझ चुकी थी अब ये बम जाकर सीधा ‘साहेब’ पर फटेगा. उसके मुंह से हंसते हुए बरबस निकल पड़ा, "ऐ साहेब तेरी साहिबी आज लुटी बेभाव…"
उस दिन के बाद से सुमन के मोबाइल पर निखिल ने कभी सचिन ‘साहेब’ नाम से फोन घनघनाता नहीं सुना.
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