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कहानी- अलसाई धूप के साए (Short Story- Alsai Dhoop Ke Saaye)

उन्होंने अपने दर्द को बांटना बंद ही कर दिया था. दर्द किससे बांटें… किसे अपना कहें… किस घर को अपना घर समझें… किस आंगन को अपना आंगन और किस गली को अपनी गली… सात फेरों के साथ यहां का सब कुछ पराया ही तो हो गया था. परायों को अपना बनाने की परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के भार तले दीदी अपना 'स्व' गुमा बैठी थीं.

भोर की बेला… ठंडी हवा… मधुर स्पर्श… सुंदर सपनों की सेज अभी-अभी छोड़कर ही वह बाहर निकली थी. आज पता नहीं क्यों, ऐसा लगा कि कहीं कोई परेशानी नहीं है. कितना सौम्य व शांत वातावरण है, गुलाबी रंगत लिए, किसी सुखद भविष्य का संदेश देता-सा… दूर-दूर तक खुली पक्की, चौड़ी, चिकनी सड़क आगे जाकर दो भागों में बंट गई है. किसी भी दिशा की ओर बढ़ चलो, दोनों ओर हरियाली ही हरियाली, छोटी-छोटी पहाड़ियों पर पसरी, किसी नवोढ़ा के स्वप्न-रचित संसार सी…
शायद प्रकृति की इस अदम्य थाती ने ही बांध रखा है इसकी सांसों की डोर को, जीवन जीने के लिए है, मिटा देने के लिए नहीं, का संदेश देती सी…
जो जीवन उसने स्वयं ही चुना था अपने लिए, अब भला वही रास न आया तो किससे शिकायत करें? जब तक जीवन है तब तक ज़िम्मेदारियों का निर्वाह तो करना ही है. ये बात और है कि अब चावरें बदलते वक़्त, कुशन झाड़ते समय उसके होंठ गुनगुनाते नहीं,
सिले होंठ और बोझ सामान लिए मात्र कर्तव्यों का निर्वाह करना भारी बोझ सा लगता है, लेकिन कोई और रास्ता भी तो नहीं है. कितने दिनों से उसका टेबल धूल की तहों से आच्छादित पड़ा है, फूलदानी का पानी या तो सूख गया होगा या किंचित बचा हो, वह झांकने नहीं गई उसके पास. कुछ करने का मन ही नहीं करता, फिर भी करना तो है ही. उसका जीवन मानो मजबूरी का पर्याय बनता जा रहा है…
अनायास ही आज अमन से सामना हो गया. मालूम नहीं क्यों, अमन के सामने पढ़ते ही वह छुई-मुई सी हो जाती है. कहीं ऐसा तो नहीं कि लम्बे और दुरूह रास्ते पर चलते-चलते पथिक थक गया है. ऐसी हालत में जहां भी उसे राहत देने वाला ठौर दिखाई देता है, यह वहीं बस जाता है, तो कहीं अमन… अरे! मन भटकने लगा है या किसी गहरी सोच में क़ैद होता जा रहा है? ओह! अंबर! शायद सुमि तुमसे दूर होती जा रही है.
वितृष्णा! हां, शायद अब उसे अंबर से वितृष्णा हो गई है और वितृष्णा प्रत्येक से विमुख कर देती है. इन दिनों संयुक्ता से मिलने को भी जी नहीं चाहता. संयुक्ता, आज सोचती हूं, मैं क्यों नहीं तुम्हारी तरह बन सकी? काश! अभी, इसी पल तुम मेरे पास होती, बिल्कुल पास… दिन गुज़रे… तारीख़ें बदलीं, लेकिन‌ अंबर न बदला.
शायद सच तो यह है कि वह बदलना चाहता ही नहीं. "आज नहीं तो कल सब कुछ सामान्य हो जाएगा, परिस्थितियां बदलेंगी," अब ये सांत्वना के शब्द भी भावों पर फाहा नहीं बन सकते थे. वह जज़्बाती थी, लेकिन अंबर को जज़्बातों से कोई सरोकार न था.

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निष्ठुर… उसके तन-मन को छिन्न-भिन्न करता हुआ ज़िंदगी को वीरान… और भी वीरान बनाता चला गया.
तीक्ष्ण हथियार से पड़ गए छालों की तरह अंबर के नुकीले शब्दों की पीर अब उसे जार-जार रुलाने लगी थी, भला आंसुओं को कभी बांध कर सीमाओं में क़ैद किया जा सकता है. भूतकाल एक बार नहीं, अनेक बार वर्तमान को क्षणिक सुख की गर्मी व नमी देने आ जाता. जीवन पीछे लौट जाने को चाहता, लेकिन हज़ारों मील का फ़ासला वापस तय करने के लिए उसके छालों से भरे पैरों में ताक़त ही कहां शेष रह गई थी?
नीचे नीला समन्दर ऊपर नीला आसमान… धरातल कहीं नहीं… न चाहते हुए भी डूबना ही उसकी नियति थी. उड़ना भला कहां संभव है… जानती है कि आसमान बांहें पसारे खड़ा है उसे अपने आगोश में समेटने के लिए, लेकिन वह लाचार है, पंख विहीन… उड़े भी तो भला कैसे? तमन्नाओं, अभिलाषाओं का जीवन भी शायद क्षणभंगुर जुगनुओं की तरह तिल-तिल जलकर मौत की ख़ामोशी में गुम हो जाने के लिए ही होता है. चाहत यदि प्राप्य हो सकती तो शायद यह शब्द अपने वजूद की गरिमा ही गंवा बैठता.
आज कविता रचने की चाहत ने अंगड़ाई ली… कभी काव्य की आत्मीय पंक्तियां ही उसकी प्रिय सखी हुआ करती थीं. दुख में, सुख में, हास्य में, पीड़ा में हर हाल में उसे कविता ही नज़र आती थी. फिर अपने एहसास को शब्दों का जामा पहना वह कविता रच देती. अपनी उन्हीं पंक्तियों को गुनगुनाती हुई तितली की तरह उड़ती… अनचाही महक के आगोश में समाती चली जाती… तब सोचती, काश! कोई ऐसा साथी मिले, जो इन्हें सुने भी, समझे भी, दोहराए भी और उसके साथ गुनगुनाए भी… लेकिन अफ़सोस, अंबर ऐसा नहीं था.
भावनाओं के आवेग शायद हर एक को अपने बहाव में खींच ले जाने के लिए उतावले होते हैं. तिनके की तरह ही बहती चली गई थी वह… आज भी थमी हुई किसी धारा में अपना प्रतिबिम्ब देखती तो उसका आज नहीं, कल ही दिखाई देता… बीता हुआ कल… क्षण-क्षण की जीवंतिका सामने होती और वह वर्तमान में भूतकाल को जीने लगती…
उस बड़ी-सी अटारी का दृश्य यदाकदा आंखों के समक्ष उपस्थित हो जाता, जहां से वादी की तुलसी, अम्मा का पीपल और रजनी दीदी दिखाई देतीं.
रजनी दीदी और उसमें ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ था. रजनी दीदी ख़ामोश… ठहरी हुई सी थीं, लेकिन सुंदरता की पर्याय सी. पढ़ाई में भी तेज अव्वल ही आर्ती. हर बार दादी को पोता न पा सकने का अफ़सोस सारी उम्र सालता रहा था और अम्मा शायद इसे ही अपना घोर अपराध मान कर सारी ज़िंदगी सिर झुकाए रहीं.
जब कभी रजनी दीदी अटारी पर साथ होती, आकाश की ओर ऐसे ताकती रहतीं, मानो या तो उसे अपने में समेट लेना चाहती हों या स्वयं उसमें सिमट जाना चाहती हो…. उनकी आंखों में बड़े गहरे भेद छुपे रहते…
बड़ी-बड़ी किताबें रखी रहती उनके सिरहाने… कभी-कभी मैं ठिठोली करती, "दीदी! क्या ये सभी एक रात में पढ़ लोगी?" तब वह कहती, "नहीं री! पढ़ते-पढ़ते आंख मूंद जाती है, फिर ये खुले पन्ने सपने में आते हैं. कोई पलटता है इन्हें बड़े जतन से… और मैं पढ़ती ही चली जाती हूं इन्हें…!!!
खिलखिलाकर हंस पड़ती थी मैं दीदी की बातों पर. लेकिन जब 'कामायनी' की वे पंक्तियां, जो मुझे रात-दिन एक करके भी याद न होती थीं, वे बगैर अटके बोल जातीं तब लगता था कि रजनी दीदी सच ही कहती हैं शायद… सरस्वती अपनी सम्पूर्ण सम्पदा के साथ न्यौछावर हुई थी. उन पर, तभी तो इतना पढ़ और याद रख सकती थीं और उतना ही सुंदर गाती भी तो थीं… कोकिल कंठ… पतझड़ में भी बहारों की छटा फैलाती सी… ऐसा क्या था, जो नहीं था दीदी के पास… फिर भी निर्विकार, अनजान सी दीदी जैसे जानती ही न थीं कि कितनी नैसर्गिक सम्पदा की स्वामिनी हैं वे… ऐसी गरिमा युक्त जैसे किसी कलाकार की सुंदर कलाकृति… दीदी की विशालता और अनंतता को तिल भर भी छू सकने की क्षमता भला सुमि में कहां थी!


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प्रत्येक अनंता को क्षितिज की तलाश तो होती ही है, रजनी दीदी के नैन भी अपनी पलकों में किसी क्षितिज को पाने की चाहत लिए बड़ी सी बिंदी से माथा सजाए, हाथों में मेहंदी रचाए डोले की राह चल पड़े. तब ऐसा लगा था, मानो दीदी का रोम-रोम जीवन को जीवंत बना देने के लिए आतुर, व्याकुल है. अटारी से आसमान को एकटक निहारने वाली रजनी शायद अपने लिए इसी एक प्रभात के इंतज़ार में कितने ही पहर बगैर पलकें ढाले गुज़ार देती थीं. दीदी बहुत याद आती थीं. लेकिन जब कभी पीहर आतीं तब दालान, अटारी, कुएं की रजत सब उनकी झांझर की खनक से मानो सुध-बुध भुलाए पंख लगाकर उड़ते दिनों की तरह कब भूतकाल का मधुर स्वप्न बन जाते, पता ही न चल पाता था.
समाज के दस्तूर जो कभी दादी ने और फिर अम्मा ने निभाए थे, वही सिलसिला दीदी भी निभाती चली गई. लेकिन इस बात का बोझ हमेशा वहन करती रहीं कि उनकी पढ़ाई अधूरी ही रह गई. हिंदी में एम.ए. करना चाहती थीं. दादी ने यह कहकर सभी की बात काट दी थी कि, "जब हम तुम्हारी उम्र के थे, तब तक हमारे बाल-बच्चे गोद से उतर आंगन में खेलने लगे थे."
विडम्बनाओं के दौर ही क्यों लम्बे होते हैं? सामाजिक मान्यताओं की बेड़ियां इनसे छूटने भी तो नहीं देतीं. मैं तो दीदी की छोटी-सी चुनिया ही रह जाती अगर उन्हें उस हाल में क़रीब से न देखा होता. अम्मा की इच्छा थी कि होली पर दीदी कुछ दिन पीहर आ जाएं. बहुत कहलवाने पर प्रभातजी राजी हुए थे और ख़ुद व्यस्तता का बहाना कर अकेली दीदी को भेज दिया था.
यदि उगते सूरज के पास आभा न रहे, चांद के पास धवल रोशनी न रहे, नदी स्वच्छ धारा न रहे, तो सब कुछ अकल्पनीय, अनैसर्गिक सा लगता है. बस वैसा ही कुछ दीदी के साथ हुआ था. मानो हिरणी किसी शिकारी की भेदी नज़रों को देख कुलांचे मारना भूल गई हो. एकबारगी तो मैं सहम ही गई थी. कितनी रिक्तता, कितना खालीपन और कितनी लुटी-लुटी-सी काम कर रही थीं दीदी, मानो अपने उस अप्रतिम व्यक्तित्व का चोला कहीं भूल आई हों… क्या बाबुल का घर छोड़कर लड़कियां ऐसी हो जाया करती हैं? अब पंछी भी कम नज़र आते थे अटारी पर या शायद यह मेरा भ्रम था.
रजनी दीदी बिफरी भी न थीं कभी, बिसुरी भी न थीं. सिर्फ़ मुझसे बोली थीं, "सुमि! कोई अपने मन में कितनी आकांक्षाओं, अभिलाषाओं को छिपा कर जीता रहता है. निहायत पास रहते हुए भी किसी को मालूम नहीं हो पाता या कोई जानना ही नहीं चाहता… और जब मन में अंकित शब्दावलियों को ही पढ़नेवाला न तो कैसी संतुष्टि! शुष्क मन पर भी क्या कभी प्रेम के बीज अंकुरित होते हैं?"
स्नेह-हवा, पानी की तरह निहायत ज़रूरी तो है, लेकिन उतना सुलभ नहीं. स्नेह-रश्मि बार-बार दीदी की कोख में आती और बार-बार उसके निशान इसलिए मिटा दिए जाते, क्योंकि वह प्रभातजी का प्रतिबिम्ब नहीं, वरन्, दीदी की प्रतिकृति होती थी.
कितनी उमंगों के साथ जीवन शुरू किया था. नए-नए रिश्तों के नामों से सजी जब अपने आपको धन्यता के शिखर पर पाया, तब रोम-रोम भरा था ख़ुशियों से… उमंगों से… और जब वे ही रिश्ते दंश देने लगे, वे उपनाम रेत की लकीरों की तरह मिटने लगे, तब मानो रोम-रोम दर्द व पीड़ा से कराह उठा. शायद यही सच है कि वे अनुभूतियां ही सुखद होती हैं, जो अनछुई होती हैं..!
रजनी दीदी जब तक साथ रहीं, तब तक हर पल किसी और सोच में डूबी हुई निहायत अकेली रहीं… ख़ामोश चट्टान सी, जिस पर फिर कभी अनुभूतियों के एहसास रेखाचित्र न बना सके. उनका मौन इतना अधिक गहराता चला गया कि हर किसी को दहला जाता..!
प्रभातजी कितने ही उपालंभों के साथ कुछ इस तरह दीदी को लेने आए थे, मानो हम सब पर बहुत बड़ा एहसान कर रहे हों. उनके व्यक्तित्व की अपूर्णता ने ही शायद दीदी को मातृत्व की पूर्णता का सुख आंचल में समेटने न दिया था. आदमी मानव ही रहे तो ठीक है. जब वह महामानव बन जाता है, तब उसे समझना दूभर हो जाता है. दीदी के साथ भी कुछ ऐसा ही था. उन्होंने अपने दर्द को बांटना बंद ही कर दिया था. दर्द किससे बांटें… किसे अपना कहें… किस घर को अपना घर समझें… किस आंगन को अपना आंगन और किस गली को अपनी गली… सात फेरों के साथ यहां का सब कुछ पराया ही तो हो गया था. परायों को अपना बनाने की परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के भार तले दीदी अपना 'स्व' गुमा बैठी थीं.
जब उन्होंने पहले-पहल सुना था कि उनकी ससुराल के रास्ते पर बहुत से टेसू के फूलों से भरे दरख्त हैं तो कपोल रक्तिम हो गए थे, लेकिन समय ने सभी मान्यताओं को झुठला दिया, शायद अब वही दरख्त आग बरसाते प्रतीत होते थे.

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जीवन समय के वेग में बहती एक नैया है. समय के इसी प्रवाह ने उसे अंबर से तब मिलाया था, जब वह स्वयं की ही पहचान से अनभिज्ञ थी. वह समझने लगी थी कि वह अंबर को अपना अमूल्य प्रेम देकर कोई पुण्य कर्म ही कर रही है. जब अपने ग़लत निर्णय का एहसास हुआ, तब दूसरा कोई विकल्प न रहा था. रजनी दीदी को ख़ुद घरवालों ने पराया बना दिया था और सुमि ख़ुद अपने आपको पराया बना बैठी थी. मानव… मानव की वेदना! मनुष्य होने का प्रतिदान! किंचित् शिलालेखों पर जड़ी
मानव आकृतियां याद हो आतीं. काश! यह भी उनमें से एक होतीं, पत्थरों से ही बनाई और तराशी हुई किसी एक मानवीय संवेदना की प्रतीक.
सुमि को अब ज़िंदगी में कुछ भी पसंद नहीं था. अंबर की गूंज, बिजली का बेमौसम ही कड़कना, बरसना, ये सब उसके लिए ज़िंदगी की तमाम परिभाषाएं बेमानी करते चले जा रहे थे.
साथी का साथ न होते हुए बोझ सा जीवन ढोते रहने के एहसास तो वह भी अच्छी तरह बता सकती थी संयुक्ता को… फ़र्क़ केवल इतना था कि संयुक्ता के हस्ताक्षर उसकी अपनी पहचान थे और वह थी श्रीमती सुमन अंबर भटनागर..! लेकिन क्या इस एक पहचान को पाने में वह स्वयं नहीं खो गई थी.
मंदिर का प्रांगण… कितना पवित्र और कितना निष्कलंक..! संगमरमरी चबूतरे पर वह संयुक्ता के साथ बैठी थी. आज भी उसे अच्छी तरह याद है, जब मायूस संयुक्ता ने अपने म्यूजियम से सजे घर को मकान की संज्ञा देते हुए कहा था, "सुमि, जब तक एक बच्चे की किलकारियों से दीवारें नहीं गूंजने लगतीं, तब तक एक मकान केवल मकान ही रहता है, उसे हम घर नहीं कह सकते." लेकिन संयुक्ता क्या जाने कि केवल बच्चे की किलकारियां ही जीवन को रंगीन नहीं बना पातीं. शिकस्त खाई मां से क्या बच्चा कभी सम्पूर्ण ममत्व पा सकता है? उसने साकार से क्या उसका बचपन असमय ही नहीं छीन लिया था?
एक ही नैया में सवार थीं तीनों, फिर भी दिशाएं अलग, मंज़िल भी जुदा… लेकिन कोई एक बात ऐसी थी, जिसने तीनों को मन के किसी एक कोने से जोड़ रखा था. मन के आबद्ध तार एक साथ ही झंकृत होते, एक ही साथ चुप भी हो जाते….
लोग मानो वेदना बांटना नहीं, बदल लेना चाहते हों, फिर भी वेदना तो वेदना ही रहेगी, स्वरूप चाहे जो भी हो… सुमि ने दूर होते हुए भी अपने आपको संयुक्ता और रजनी दीदी के बिल्कुल क़रीब महसूस किया… बिल्कुल ही क़रीब…!!

- श्रीमती निकुंज शरद जानी

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