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कहानी- अन्नपूर्णा (Short Story- Annapurna)

"लड़की अब लड़के वालों के लिए एक खिलौना और विवाह खेल बन कर रह गया है. मैं इस लड़ाई में हार गया हूं. अन्नपूर्णा, तुम कल ही जा कर विनोद से बात करना कि वह क्या चाहता है? लड़का अगर अच्छे संस्कारों का हो तो क्या बुराई है?"

बचपन से मुझे घर में वे सभी सुविधाएं सुलभ थीं, जो एक सम्पन्न परिवार की किसी पुत्री को मिलनी चाहिए. एक आलीशान मकान, जिसके साथ लगा था हमारा अपना छोटा सा बगीचा, दो नौकर हमारी छोटी-बड़ी आवश्यकताओं के प्रति पूरी तरह सजग थे. घर में रंगीन टीवी था, फ्रिज था, एक नई फिएट कार थी, जो मुझे प्रतिदिन कॉलेज छोड़ने व लेने आया करती.

छत पर पहुंच कर मैं चुपचाप बिस्तर पर लेट गयी. रात घिर आई थी. आकाश पर असंख्य तारों का साम्राज्य था, जिनका झिलमिल प्रकाश किरणों के रूप में सीधे मेरी आंखों में प्रतिबिम्बित होने लगा. दिनभर की तपन के बाद ठंडी पवन के तीव्र झोंकें मन को गुदगदाने लगे. मैंने पलभर के लिए आंखे मूंद लीं. शीघ्र ही आंसुओं की दो बूंदें गालों पर से लुढ़कती हुई तकिये पर उतर आई. तुरंत मैंने करवट बदली और एकाएक पुरानी यादों में खो गई.

पिताजी अपने कारोबार के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित थे. अधिकांशः वे अपने व्यवसाय में ही व्यस्त रहते, शायद इसीलिए मैं उनके बहुत क़रीब न रह पाई. जो मैंने सीखा, अपनी मां से ही सीखा. मुझसे वे अपार स्नेह करती थीं. अहंकार से शून्य वे प्रियंवदा तथा सहनशीलता की प्रतिमूर्ति थीं. दुर्भाग्यवश मां मेरा साथ मुझे जन्म देने के बाद सत्रह वर्ष तक ही निभा सकीं. उनके असामयिक निधन ने घर के प्रत्येक सदस्य को प्रभावित किया. सही अर्थों में उनकी मृत्यु घर भर की ख़ुशियों को धो गयी.

पिताजी ने एक बार खाट पकड़ी तो फिर दोबारा अपने व्यवसाय में मन नहीं लगा पाए, फलतः उनका फलता-फूलता कारोबार ठप्प-सा हो गया. घर की आर्थिक स्थिति लड़खड़ा गई. मुख्यतः उनका ध्यान अब मुझ पर तथा मेरे छोटे भाई-बहन पर ही केन्द्रित हो गया.

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मानसिक पीड़ा की इस दुखद स्थिति से मुझे कुछ हद तक उबारा मेरे सहपाठी विनोद ने. विनोद की कक्षा में एक अलग पहचान थी. कक्षा के बाद अक्सर पुस्तकालय में ही खोया रहता. न तो उसने वासनायुक्त आंखों से कभी किसी दूर जाती लड़की का पीछा किया, न वह कॉलेज गेट के बाहर छात्रों के समूहों में निरर्थक गपशप करता मिलता और न ही वह भीड़ भरे कॉलेज कैफे में गरम समोसे का लुत्फ़ लेता देखा गया. शायद उसकी यही विशेषता मेरे मन को भा गयी. विनोद की उन्मुक्त हंसी फुलझड़ियों सी मेरे मन में रच-बस गयी.

विनोद से मेरी घनिष्ठता और भी बढ़ी, किन्तु तभी एक अनहोनी घटना घटी. एम. ए. के पश्चात एक दिन जाने क्या सूझी कि तन्हाई के उन क्षणों में काग़ज़ पर हुबहू विनोद का एक सुन्दर रेखाचित्र बनाकर उसके नीचे लिखा, 'विनोद मेरे प्रिय' और अगले दिन उसे विनोद को दिखाने की मंशा से अपनी पुस्तक के पृष्ठों में रख छोड़ा.

अगली सुबह वह चित्र पुस्तक में न पा कर हैरानी हुई थी. किसी अज्ञात भय की आशंका से मैंने उसे इधर-उधर टटोला, किन्तु तभी उसे पिताजी के हाथों में देख कर उनसे निगाह मिला पाना भी मेरे लिए अत्यन्त दुष्कर हो गया.

मजबूरन पिताजी के समक्ष सब कुछ उगलना पड़ा मुझे. पिताजी ने कड़ी प्रतिक्रिया की बजाय नरम रूख अपनाकर मुझे आश्चर्य में डाल दिया. किन्तु इतना मैं अवश्य जान गयी थी कि पिताजी को सुनकर ठेस पहुंची थी. एक साधारण डिग्रीधारी भला उन्हें कैसे स्वीकार्य होता. वे संभवतः विनोद के भविष्य के प्रति अधिक आशावान नहीं थे. हालांकि महाविद्यालय में उसने प्रथम स्थान पाया था. पिताजी मेरी भावनाओं की परवाह किए बगैर एकाएक मेरे लिए किसी सुयोग्य वर की तलाश में जुट गए. अधिकांश भारतीय लड़कियों की भांति मुझे भी अनसुना कर दिया गया. चाहते हुए भी मैं अधिक प्रतिकार न कर सकी.

मानसिक कुंठाओं में डूबी देख पिताजी ने मुझे समझाया, "प्यार, वायदे, समर्पण सब बकवास है. जीवन के अपने अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि लड़की का अनर्थ होते कभी देर नहीं लगती. कौन जाने, लड़का कब लड़‌की को कलंकित कर उससे मुख मोड़ ले. वस्तुतः लड़की के जीवन की नैया ऐसे गहरे समन्दर पर चलती है, जिसके भंवर में फंस कर वह कभी बाहर नहीं निकल सकती. ऐसे में लड़की को बदनामी के अतिरिक्त मिलती है दर-दर की ठोकरें, जो उसका जीना दूभर तो करती ही है, साथ ही आरम्भ होती है उसकी अंतहीन दुखद कष्टमय करुण गाथा, जिसकी व्यथा में उसे जीवनभर पछताना पड़ता है." पिताजी की इच्छा को सर्वोपरि मान कर मैंने शादी के लिए हां कर दी.

सर्वप्रथम मुझे देखने आए एक डॉक्टर ने पूछा, "स्नातक की डिग्री पाने के लिए आपने कला-विषय ही क्यों चुना?"

"जी..." सकुचाते हुए मैं बोली, "क्योंकि कला मेरा प्रिय विषय रहा है. विज्ञान में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं."

"कोई दिलचस्पी नहीं?" सुनकर शायद आगन्तुक को हैरानी हुई. व्यंग्यपूर्ण लहजे में उसने कहा, "तो फिर मुझे, विज्ञान के स्नातक को चुनने की भूल क्यों कर रही हो?' मैं सन्नाहे में आयी. मुंह से कुछ बोलते ही न बना. हालांकि इच्छा हुई थी कि कह दूं, जीवन में हर मनोवांछित वस्तु हासिल नहीं हो पाती, किन्तु यह बात मैं केवल मन ही में दोहरा पाई.

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मुझे मौन एवं गुमसुम देख पिताजी ने टोका, "जाओ बेटी, मेहमानों के लिए चाय-नाश्ते का प्रबन्ध करो." और इस तरह मुझे उन दुविधापूर्ण क्षणों से साफ़ बचा लिया.

उन लोगों के जाने के पश्चात् ‌बिना मेरी अभिलाषा जाने पिताजी ने लड़के की प्रशंसा की और कहा, "अगर यह लड़का हां कर‌ दे तो अपनी अन्नपूर्णा बिटिया का जीवन सफल जानू और स्वयं को धन्य कर सकूं."

कई दिनों तक लड़के वालों की ओर से प्रत्युत्तर न मिलने पर पिताजी ने लड़के की स्वीकृति जानने की इच्छा से उन्हें पत्र लिख कर पूछा, "प्रतिदिन आपके पत्र की राह देख रहा हूं. आज्ञा हो तो स्वयं मैं आपकी सेवा में हाज़िर हो जाऊं, ताकि बात को आगे बढ़ा कर कृतार्थ हो सकूं."

पिताजी की लिखी उक्त पंक्तियां पढ़ कर मन भर आया. पढ़ी-लिखी बेटी के यौवन की दहलीज़ पर कदम रखते ही पिताजी का व्यक्तित्व एकदम बौना नज़र आने लगा.

उधर से जवाब आया, "आपकी लड़की सुन्दर अवश्य है, किन्तु मात्र ग्रेजुएट होने से हम मजबूर है. इधर हमारे पास अनेक पी.एच.डी. पास लड़कियों के रिश्ते आ रहे हैं. अगर वह पी.एच.डी. डिग्रीधारी होती तो बेहतर होता." पढ़कर पिताजी को निराशा हुई थी.

पिताजी के कहने पर मैंने स्वयंपाठी छात्रा के रूप में पी.एच.डी. करने का निश्चय किया, पर इस बीच पिताजी की दौड़धूप जारी रही, एक दिन पिताजी ने आ कर कहा, "आज एक बैंक अधिकारी को, घर आकर तुम्हें देख भर लेने का अनुरोध कर आया हूँ, अतः तुम तैयार रहना."

बैंक अधिकारी के साथ उसके अन्य मित्रों को आया देख मैं घबरा उठी थी. यह घबराहट और भी बढ़ गयी, जब आगन्तुकों ने पिताजी से मेरी उनसे अकेले में बातचीत होने का आग्रह किया. पिताजी की अनुपस्थिति में साहस कर उन लोगों के बीच बैठी तो मुझे अनेक प्रश्नों की बौछार का सामना करना पड़ा.

"क्या नाम है? रुचियों क्या-क्या है? फिल्में देखती हो या नहीं?" जैसे महत्वहीन प्रश्नों का जवाब मिलने पर किसी ने बेतुका प्रश्न किया, "आप गौरवर्ण और सुन्दर हैं. आपकी सुंदरता का राज़ क्या है?"

एक अन्य व्यक्ति प्रश्नकर्ता के कानों में फुसफुसाया, "तू चुप कर, मैं पूछता हूं." और मेरी और मुखातिब हो कर बोला, "आपके ये लंबे-घने बाल असली है या नकली?" मैं और अधिक घबरा गई. इच्छा हुई कि उठकर दौड़ जाऊं, किन्तु तभी पिताजी को बैठक में प्रवेश करते देख मेरी जान में जान आई.

उन लोगों के जाने के बाद पिताजी ने टिप्पणी की, "लड़का बुरा नहीं है. आख़िर लड़की को लड़के से बात करने की औपचारिकता तो निभानी ही पड़ेगी."

पिताजी के अनेक प्रयत्नों के बाद भी जब बात न बनी तो उन्होंने बैंक अधिकारी के घर के चक्कर लगाने छोड़ कर हार मान ली.

एक दिन एक व्यवसायी लड़के के अपनी मां के साथ घर आने पर पिताजी ने मेरा उनसे परिचय कराते हुए कहा, "आप ही की बच्ची है. हाल ही में पी.एच.डी. किया है. मैं तो यही कहता हूं कि आपको कभी शिकायत का अवसर नहीं देगी." लड़के की चतुर मां ने पिताजी की बात काटकर कहा, "व्यवसायी लोगों को पढ़ाई से क्या लेना-देना? अधिक पढ़ी-लिखी लड़कियां हमारे घर में सिरदर्द ही साबित होंगी."

.... और बात वहीं ख़त्म हो गयी. समय फिर बीता, किन्तु बापू ने अपनी ओर से कोई अवसर न गंवाया. एक दिन उन्हें पता चला कि पी.एच.डी. की चाह करने वाला डॉक्टर लड़‌का अभी अविवाहित है. पिताजी ने तत्काल पत्र-व्यवहार किया, "अगर मेरी पी.एच.डी. पुत्री के विवाह के सम्बन्ध में पुनर्विचार करें तो बड़ी मेहरबानी होगी." जब कोई प्रत्युत्तर न मिला तो पिताजी ने लड़के के घर जाने का निश्चय किया. मेरे मना करने पर बोले, "तुम नहीं समझोगी, हम लड़की वाले हैं. लड़की वालों के दुख लड़के वाले नहीं जान सकते. कुछ भी हो मैं इस लड़के को खोना नहीं चाहता."

"लड़की अब लड़के वालों के लिए एक खिलौना और विवाह खेल बन कर रह गया है. मैं इस लड़ाई में हार गया हूं. अन्नपूर्णा, तुम कल ही जा कर विनोद से बात करना कि..."

पिताजी लौट कर घर आए तो उनके चेहरे पर घोर निराशा के भावों ने सारी पोल खोल दी. लड़के के पिता का उत्तर था, "हमें दुख है कि समय पर आपको पत्रोत्तर न दे सके. घर पर सब की राय है कि संबंधों में स्थान की निकटता बहुत आवश्यक है. अगर हम दूरी की वजह से एक दूसरे के काम न आ सकें तो संबंध किस काम का? अच्छा होता, अगर आप इतनी दूर आने से पूर्व कुछ दिन और हमारे पत्र की प्रतीक्षा करते."

कुछ दिनों बाद एक सहायक अभियंता से रिश्ते क़रीब-क़रीब तय होने के बाद, बात लेने-देने पर अटक गई. मजबूरन पिताजी ने उनकी कई मांगों को स्वीकारा भी, किन्तु लड़के वालों की अन्तहीन मांगों का सिलसिला जब समाप्त होते दिखाई न दिया तो पिताजी ने उनको स्पष्ट मना कर दिया. उनका तर्क था, "दहेज के लोभियों से रिश्ते जोड़ कर मैं अपनी बिटिया को आंखों के समक्ष कुएं में कैसे धकेल दूं?"

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एक वकील लड़के द्वारा मुझे पसंद कर लिए जाने के बावजूद उसकी मां ने आपत्ति उठाई, "बिना मां की लड़की के प्रति हमारी सहानुभूति है, किन्तु लड़‌की की मां के बगैर लड़की के ससुराल पक्ष का आदर-सत्कार कौन करेगा?" सुनकर संवेदनशील पिताजी रो पड़े. मैं भी एकाएक स्वयं पर नियंत्रण खो कर पलंग पर गिर कर घंटों रोई.

मेरी यादों का दुखद घटनाक्रम पिताजी की आवाज़ के साथ ही टूटा, उन्होंने हौले से मुझे पुकारा, "अन्नपूर्णा, नींद नहीं आई?"

करवट बदलते हुए वे पुनः बोले, "लड़की अब लड़के वालों के लिए एक खिलौना और विवाह खेल बन कर रह गया है. मैं इस लड़ाई में हार गया हूं. अन्नपूर्णा, तुम कल ही जा कर विनोद से बात करना कि वह क्या चाहता है? लड़का अगर अच्छे संस्कारों का हो तो क्या बुराई है?"

पिताजी के कथन से मन में एकाएक भावनाओं का अनियंत्रित तीव्रतम ज्वार उमड़ आया, किन्तु वातावरण में चहुं ओर एक अजीब सी ख़ामोशी व्याप्त हो गई.

पिछले पांच वर्षों के इतिहास की कड़वाहट विनोद के समक्ष वर्णित करते हुए मेरी रूलाई फूट पड़ी.

"मत रोओ अन्नपूर्णा," विनोद ने मुझे रोका.

"तुम से बिछड़ कर मैं भी इस बोझिल राह पर अत्यधिक थक चुका था. एम.ए., पी.एच डी. के बाद व्याख्याता पद पा कर भी वो संतुष्टि नहीं मिली थी, जो आज तुम्हें देख कर मिली है." मैंने उलाहना दिया, "फिर आज तक हमारी सुध क्यों न ली?"

"तुम्हें किसी और की जानकर..." विनोद ने कहा तो मैंने तुरन्त उसके होंठों पर उंगली रख दी और अपना सिर उसके कंधे पर टिका मुस्कुरा उठी.

- आनंद गहलोत

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