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कहानी- अनोखा अनुभव (Short Story- Anokha Anubhav)

"हां हेम, यह जो उपयोगिता है ना यह इंसान को टिका कर रखती है. ख़ासकर आज के समय में यह बात याद रखनी चाहिए कि अपनी उपयोगिता बना कर रखो, नहीं तो कौन पूछता है.
वो फक्कड़ थे, पर सबके काम के थे. शायद जानते थे कि यह ज़माना ऐसा ही है, इसलिए उपयोगी बनो, योगी बनो. मैं देखा करता था कि जिस ढाबे में बैठ जाते, वहां चाय बोलते, तो चाय आ जाती. खाना आ जाता. पूरा गांव ही उनका घर था.

आज हेम और हरि दोनों के बीच जबरदस्त विचार-विमर्श चल रहा था. मंहगाई, सरकारी सेवा करते चैनल से होकर बातचीत सच्चे संस्मरण तक आ पहुंची थी.
"भाग्य' क्या होता है? क्यों होता है? किसलिए होता है? मैं नहीं जानता, क्योंकि मैं भाग्य के तिलिस्म में कभी पड़ा ही नहीं. मैं वर्तमान में जीना पसंद करता हूं.
भाग्य और भविष्य की चिंता में वे लोग डूबे रहते हैं, जिनके पास डूबने का और कोई साधन नहीं होता, पर एक पूरा जीवन कैसे बेपरवाही और लापरवाही से गुज़र जाता है यह तो मैंने साक्षात देखा है." हरि ने कहा तो हेम बोला, "बता ना किसको देखा था."
"था एक युवक. जब मैंने उसे पहली बार देखा, तब मै आठ साल का था और मुझे खेलते समय दौड़ते हुए घुटने पर चोट लग गई थी. मैं सिसक ही रहा था कि एक युवक आया और बकरियों को चारा देते हुए बोला, "खरोंच आ गई है."
फिर पीठ पर हाथ रख कर बोला, "अभी ठीक हो जाएगी." मैं उसे देखता रह गया."


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"क्यों देखता रह गया?"
"अरे, इसलिए कि उसके हाथ में न जाने क्या था कि दर्द कम हो गया."
"फिर क्या हुआ?"
"फिर, वो आया. हां, वो मैदान से कुछ पत्ते लाया. उसका रस मेरी चोटिल और दुखती त्वचा पर लगाया. उसी समय आराम आ गया."
"वो तो पीठ पर हाथ रखते ही आ गया था ना."
"हां, पर वो पत्ते का रस ऐसा था कि अगले दिन खरोंच भर गई थी." "अच्छा! सच?" हेम ने आश्चर्य से पूछा.
"हां, फिर मुझे बहुत मन हुआ कि जानने का कि वो कौन है. तब पता लगा कि वो अपने सात भाइयों के साथ इसी गांव में खेत-खलिहान,
मवेशियों के साथ रहते हैं."
"अच्छा! हाँ, फिर मेरे मन में उनसे बार-बार मिलने की इच्छा होती रही."
"तो हुई मुलाक़ात?"
"हां, कई बार हुई. मैं रामलीला और नौटंकी देखने जाता, तो वहां पर वो सेवा करते हुए ज़रूर दिखाई दे जाते. जब उस दिन चोट लगी, तो एक सप्ताह बाद गांव में एक नाटक खेला गया. वो नज़र आ गए, तो मैं भागकर गया और उनसे मिला. बताया कि आपने तो मेरी चोट एक दिन में ही सही कर दी. वो हंस दिए, बोले, "मैं तो भूल गया."
पर हौले-हौले मैंने पता लगाया कि वो एक कमरे की कोठरी में रहते थे और कुछ बकरियां पाल रखी थी, जबकि उनके सारे भाई ख़ूब बडे़ और हवादार मकानों में मज़े से रहते थे. उनकी काफ़ी ज़मीन-जायदाद थी."
"अच्छा!" हेम मज़े लेकर सुन रहा था.
"हां, एक दिन पता लगा कि उनकी पत्नी भी.थी, जो उनके लापरवाह स्वभाव से परेशान होकर अपने माता-पिता के घर चली गई. अब न तो ये उनको लिवाने जाते है और ना वो यहां आना चाहती है.
एक दिन मैंने देखा कि वो एक संस्थान में सेवा देने लगे हैं और वहां उनको रहना, खाना व पहनना सब मुफ़्त में मिल रहा है."
"वाह! क्या बात है."
"हां, वो उस संस्था के प्रमुख ने इनको पत्ती के रस से चोट सही करते देखा, तो यह मान लिया था कि यह कोई पावन मन के ख़ास इंसान है."
"फिर…"
"पर एक साल बाद पता लगा कि त्रिलोचनजी ने वो सब भी छोड़ दिया है और फिर से अपनी एक कमरे की कोठरी मे आ गए हैं. क्योकि मेहनत का जलवा दिखा चुके हैं, इसलिए कोई भी उनको आलसी या निकम्मा नहीं कह सकता था.
हरि ने आगे बताया कि फिर मैं आगे की पढ़ाई तथा नौकरी में लखनऊ रहा. जब गांव लौटा, तो वो वही पर थे और अब उन्होंने कुआं-तालाब खोदने का काम हाथ मे़ लिया था. अजीब बात है कि इतनी ज़मीन-जायदाद थी. भाई-भाभी सब थे, पर वो बिल्कुल अलग ही ढंग के इंसान थे. हां, वो पचास की उम्र में भी सात-आठ घंटे शारीरिक श्रम करने के बाद भी चुस्त-दुरुस्त थे."
"बहुत ख़ूब."
"हां हेम, यह जो उपयोगिता है ना यह इंसान को टिका कर रखती है. ख़ासकर आज के समय में यह बात याद रखनी चाहिए कि अपनी उपयोगिता बना कर रखो, नहीं तो कौन पूछता है.
वो फक्कड़ थे, पर सबके काम के थे. शायद जानते थे कि यह ज़माना ऐसा ही है, इसलिए उपयोगी बनो, योगी बनो. मैं देखा करता था कि जिस ढाबे में बैठ जाते, वहां चाय बोलते, तो चाय आ जाती. खाना आ जाता. पूरा गांव ही उनका घर था.
जब भी कोई शादी-ब्याह या किसी का जन्मदिन-मुंडन होता, तो उसी घर में उनका ठिकाना रहता. पर वो पचपन साल के थे, तब उनके पैर में अचानक चोट लग गई. घाव भरा ही नहीं, जबकि वो सबके घाव भर देते थे."
"ओह!" हेम को सुनकर अजीब-सा लगा.
"हां हेम, हमेशा सत्कर्म करने का मतलब यह नहीं कि आपका कभी बुरा नहीं होगा. कुछ तो होगा ही पर उस बुरे वक़्त में आप कभी अकेले नहीं रहेंगे. कोई न कोई आपके मदद के लिए खड़ा मिलेगा." कहकर हरि कुछ पल ख़ामोश हो गया और फिर बोला, "बस सात-आठ दिन बाद वो चल बसे. जब उनकी अंतिम यात्रा हुई, तब पता लगा गांव के हर दूसरे युवक को उन्होंने आर्थिक मदद की थी. ख़ुद रोज़ काम करते और भरपूर जीवन जीते वो चले गए."

- हरीश चंद्र पांडे


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