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कहानी- अस्थाई (Short Story- Asthayi)

मैंने उसका चेहरा उठाकर आंखों में झांका, "आज नहीं तो कल, वो भी जाएगा. ये सब कुछ अस्थाई है. उसकी पत्नी, उसके बच्चे, सब छोड़कर आएगा तुम्हारे पास? चलो वो भी छोड़ो, तुम जब चाहती हो, तब वो तुमसे बात तक नहीं कर पाता है! जब वो फ्री होता है, उसको बात करने का मन करता है, तब बात करता है. तुम उसकी ज़रूरत नहीं, सहूलियत हो! उसको अपनी ज़रुरत मत बनाओ."
आख़िरी लाइन उस पर शायद गाज बनकर गिरी थी.

फ्रेंड की बहन‌ है,‌ मुझसे भी बहुत जुड़ी हुई है. पुणे में ही शिफ्ट हो गई है. मिलती हूं तो चेहरे पर फैली उदासी मुझे अच्छी नहीं लगती.
"हंसकर एहसान कर दो मेरे ऊपर." मेरे छेड़ने पर,‌ "क्या दीदी." कहकर टाल जाती है. एक दिन टालने की बजाय पति के बारे में बता गई थी, "अजीब आदमी हैं ये! मुंह ही बना रहता है. बस घर-परिवार के लिए जब तक करते रहो, ख़ुश रहते हैं. शुरू में झेल लिया, अब नहीं हो पाता. अब मरने का मन करता है. इसको देखकर रुक जाती हूं…" थोड़ी दूरी पर खेलती हुई बेटी की ओर इशारा करते हुए बता गई थी. क्या कहा जाए उसको. जो झेलता है, वही समझ भी सकता है. उसका दर्द मैं कैसे नापूं और ज्ञान दूं?
पिछले कुछ महीनों से हंसी वापस लौट आई थी. चहकते हुए मिलती थी. आते ही गले लगकर, "कुछ अच्छा खिलाओ दीदी." की मनुहार और हर समय गुनगुनाते रहने की उसकी पुरानी आदत लौटते देख, मुझे बहुत अच्छा लग रहा था.
"क्या हुआ भाई, बड़ी खिली हुई हो…"
"कोई खिला रहा है…" बिना छुपाए बता गई थी. पुराने दोस्त से बात शुरू हो गई थी. दोनों ने एक-दूसरे को फेसबुक पर ढूंढ़ लिया था.
"मैं चौंक गई थी दीदी. उसको अब तक मेरी पसंद-नापसंद याद थी."


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बताते हुए गाल गुलाबी हुए, ये मैं साफ़-साफ़ देख पाई.
"उससे पूछना, अपनी बीवी की पसंद-नापसंद जानता है क्या?"
"आप एकदम अम्मा जैसी बात करने लगती हैं, दोस्त है मेरा बस."
मेरा चेहरा देखकर वो भांप गई थी कि ये दोस्ती मुझे हजम नहीं हो रही थी.
कैसे करूं हजम? वो तीन दिन मेरे पास रुकी, मैं नोटिस करती रही. सिर्फ़ दोस्ती में इतनी बातें? दिनभर मैसेज का आना-जाना? ऊपर से जब मैसेज का जवाब न आए, फोन न आए तो 'जल बिन मछली ' टाइप बेचैनी!
एक दिन मैंने हाथ पकड़कर पास बैठा ही लिया, "ये सब सही नहीं है."
"क्यों दी? जो मेरे साथ हुआ, वो सही था? ऐसा आदमी बंधा…"
"पति की बात नहीं उठाओ. मुझे तुम्हारी चिंता है. कल को वो सहारा न रहे, जिस पर टिकी हो तो? सोचा है कितनी तेज गिरोगी?"
वो चुप रही, फिर बोली…
"फिर से ज़िंदा रहने का मन होने लगा है दीदी. सब अच्छा लगता है अब."
बताते हुए नज़रें नीची होने लगी थी.
मैंने उसका चेहरा उठाकर आंखों में झांका, "आज नहीं तो कल, वो भी जाएगा. ये सब कुछ अस्थाई है. उसकी पत्नी, उसके बच्चे, सब छोड़कर आएगा तुम्हारे पास? चलो वो भी छोड़ो, तुम जब चाहती हो, तब वो तुमसे बात तक नहीं कर पाता है! जब वो फ्री होता है, उसको बात करने का मन करता है, तब बात करता है. तुम उसकी ज़रूरत नहीं, सहूलियत हो! उसको अपनी ज़रुरत मत बनाओ."
आख़िरी लाइन उस पर शायद गाज बनकर गिरी थी.
मेरे घर से तुरंत चली गई. कुछ दिन बात भी नहीं की.
कल आई थी. ख़ुश थी. आगे पढ़ाई करने के लिए सोच रही है या कोई हॉबी कोर्स, जिसमे मन लगा रहे.


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"नहीं बात करती हूं अब. आप सही थीं. सब कुछ अस्थाई होता है दीदी."
आवाज़ में दुख था, लेकिन वो जल्दी ठीक हो जाएगी. मुझे ऐसा लगा, जैसे एक पिंजरे से निकलकर एक चिड़िया दूसरे पिंजरे में क़ैद हो गई थी. मैंने उसका दरवाज़ा खोल दिया था!

Lucky Rajiv
लकी राजीव


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Photo Courtesy: Freepik

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