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कहानी- बहूरानी (Short Story- Bahurani)

अगली सुबह, जी हां, वही हवा, वही भीगी महक, वही चहचहाहट सुनता हुआ मैं रिया के इंतज़ार में था कि अचानक कृष्णा हाउसकोट में अस्त-व्यस्त-सी प्रकट हुई. उसे इतनी सुबह जगा देखकर मेरा माथा ठनका.
“क्या हुआ, तबियत तो ठीक है न?” मेरे पूछते ही उसने एक मुड़ा-तुड़ा पर्चा मेरी ओर बढ़ाया और मुझे सिसकियों से दहला दिया. बेहद सुंदर कॉन्वेंटी लिखावट में, अंग्रेज़ी में लिखा ख़त था.

… ॐ नमः शिवाय! अहा! शाम की ताज़ा हवा, बरसाती मिट्टी की सोंधी-सोंधी महक, घर लौटते परिंदों की चहचहाहट… कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलतीं… ख़ासकर वे, जो मनुष्य को प्रकृति से जोड़ती हैं.’ यही सब सोचते-सोचते मैं घर की ओर लौट रहा था. मैं यानी रिटायर्ड ब्रिगेडियर अर्जुन अहलावत. क़रीब 36 साल भारतीय सेना की सेवा करने के पश्‍चात्, तीन साल पहले ही रिटायर हुआ हूं. हालात कुछ ऐसे बने कि रिटायरमेंट के बाद दिल्ली में अपना मकान होते हुए भी सब बेच-बाचकर देहरादून श़िफ़्ट होना पड़ा. क्यों? यह मैं आपको बाद में बताऊंगा. फ़िलहाल तो आप इतना ही जान लीजिए कि सेना में उम्रभर नौकरी करने के बावजूद मैं एक बेहद ख़ुशमिज़ाज, सरल व उदार व्यक्ति हूं.
परिवार में कृष्णा है. जी हां, मेरी धर्मपत्नी- कृष्णा अहलावत. नाम रखने में मां-बाप ने अवश्य जल्दबाज़ी की होगी, क्योंकि कृष्णा कहीं से भी कृष्णवर्ण की नहीं है. दूध-धुला रंग, सामान्य क़द-काठी और हल्का भूरापन लिए हुए घुंघराले बाल. एक स्वस्थ जाट परिवार की स्वस्थ पुत्री व बहू, मेरे दोनों बच्चों- प्रणव व प्रज्ञा की ममतामयी मां व मेरे लिए एक धर्मभीरु, गृहकार्य दक्ष पत्नी. उसके व मेरे बाहरी व्यक्तित्व की समानताएं छोड़ दें, तो हमारे विचारों में ज़मीन-आसमान का अंतर मिलेगा. यह दीगर बात है कि ़ज़्यादातर हिंदुस्तानी विवाह इस अंतर के बावजूद सफलता की सिल्वर व गोल्डन जुबली मनाते आ रहे हैं. उसे देहरादून लाने में मुझे कितनी दिमाग़ी मश़क़्क़त करनी पड़ी, यह मैं ही जानता हूं.
अब आपसे क्या छिपाना? ज़िंदगीभर की कमाई लगाकर दिल्ली के शालीमार बाग में अपना दोमंज़िला मकान खड़ा किया था. कुछ दिन उसमें रहे भी, पर भाग्य को कुछ और ही मंज़ूर था. बेटी उन दिनों मेडिकल करके यू. एस. जाने की तैयारी में थी व प्रणव आर्किटेक्चर के प्रथम वर्ष में. अचानक हम पर प्रकट हुआ कि प्रज्ञा अपने विजातीय सहपाठी से प्रेमविवाह करना चाहती है. सुनकर मैं तो संयत रहा, पर कृष्णा तो आपा ही खो बैठी. उसकी नज़रों में बेटी की इस साज़िश के पीछे मेरा हाथ था. अब मैं उसे क्या कहता कि मेरी बला से एक करियरशुदा, परिपक्व लड़की करियप्पा से विवाह करे या कुमावत से, मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. लेकिन कृष्णा की हाय-तौबा से घबराकर प्रज्ञा ने कोर्ट मैरिज कर ली और मैं यह अपराध कर बैठा कि नवविवाहित दंपति को एयरपोर्ट तक सी-ऑफ करने चला गया. इसकी सज़ा यह मिली कि एक महीने तक कृष्णा न मुझसे बोली, न ही उसने ढंग से कुछ खाया-पिया. कुछ रोज़ तो मैंने बर्दाश्त कर लिया, पर जब उसके स्वास्थ्य पर असर पड़ने लगा तो मुझे बड़ी चिंता हुई. डॉक्टर ने कुछ टेस्ट वगैरह करके यह नतीज़ा निकाला कि श्रीमतीजी घोर डिप्रेशन यानी अवसाद की स्थिति में हैं. यदि उन्हें शीघ्र ही इससे न निकाला गया तो मुश्किल आ सकती है, सुनकर मेरे तो जैसे हाथ-पैर ही फूल गए. किंतु प्रणव ने सही राय दी कि मैं उसे लेकर आबोहवा बदलने किसी नैसर्गिक जगह पर निकल जाऊं. जाने की सोच ही रहा था कि मुझे अपने पुराने दोस्त कर्नल उपप्रेती का ख़याल आया. रिटायरमेंट के बाद वह अपने घर देहरादून चला गया था. कई बार उसने हमें बुलाया, पर किसी न किसी वजह से हम जा न सके थे. आज इस मुसीबत की घड़ी में मुझे वहीं जाना उचित जान पड़ा.

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मैं पत्नी सहित बोरिया-बिस्तर बांध देहरादून चला आया. यहां आकर कृष्णा की हालत में आश्‍चर्यजनक गति से सुधार हुआ. एक तो उपप्रेती का खुला हवादार बंगला, दूजे उसकी हंसमुख गढ़वाली पत्नी का साथ, दोनों मिलकर कृष्णा के लिए जैसे रामबाण सिद्ध हुए. कर्नल मुझे किचन गार्डन में उलझाए रखता और उसकी पत्नी कृष्णा को दवाइयां कम और बातों की खुराक अधिक देती. लिहाज़ा हुआ यह कि तीन-चार ह़फ़्तों में ही कृष्णा कुर्सी छोड़ बैडमिंटन खेलने लगी, रसोई में पकौड़े तलने लगी और जब एक दिन उसने अचानक बगीचे से गुलाब तोड़कर जूड़े में खोंसा तो मैं चालीस साल पहले की कृष्णा को याद कर बैठा, जो हमेशा अपने जूड़े में फूल लगाए रहती थी.
जाने का समय निकट जान मैंने उपप्रेती से दिल्ली की टिकटें रिज़र्व कराने को कहा. किंतु आशा के विपरीत, उसे मेेरे निर्णय से कोई ख़ास ख़ुशी नहीं हुई, बल्कि जो कुछ उसने कहा, वह शब्दशः मुझे आज तक याद है. “जाना है तो चले जाओ अर्जुन, पर दिल्ली में तुम अपने बंगले के कैदी होकर रह जाओगे. बच्चे आजकल अपनी ज़िंदगियां संभाल लें, यही बहुत है. हमारी किसे पड़ी है? मेरी मानो तो इसी लेन में एक प्रॉपर्टी हाथोंहाथ बिक रही है. ज़्यादा नहीं तो 12 से 15 लाख में सौदा तय है. मेरे पास यहीं बस जाओ. बुढ़ापे में साथ देंगे एक-दूसरे का, साथ-साथ सुख-दुख बांटेंगे.” मैं आश्‍चर्यचकित था कि उसने इतनी दूर की सोच डाली, पर कृष्णा की मनः स्थिति ने मुझे भी सहमा रखा था. अब यदि दूसरी दफ़ा कुछ गफ़लत हुई तो मैं क्या करूंगा?
कृष्णा को मनाना सहज नहीं था, पर मेरी ज़िद के आगे उसे भी झुकना ही पड़ा. प्रणव हॉस्टल में था ही, उसे हमारे निर्णय से कोई ऐतराज़ नहीं हुआ और हम उपप्रेती के सहारे देहरादून बस ही गए. दिल्ली से उत्तरांचल का स्थानांतरण हमें महंगा नहीं, बल्कि सुविधाजनक ही पड़ा था. घर तुरत-फुरत व्यवस्थित कर डाला उपप्रेती के पहाड़ी नौकर ने, उसी ने एक नौकर हमारे लिए भी जुटा दिया था.
कृष्णा का अधिकांश समय बागवानी में बीतता या मिसेज़ उपप्रेती के साथ… और मैं?
मुझे तो कर्नल ने वापस पुराने दिनों में खींच लिया था, जहां था फौजी बिरादरी के रिटायर्ड मेम्बर्स का साथ, क्लब की फुर्सत भरी शामें, लॉन के ताज़े फल, सब्ज़ियों की ल़ज़्ज़त और शिवालिक की ठंडी मस्त बयार. मैं हर चिट्ठी में प्रणव को लिखता कि कैसे देहरादून उसकी मां व पिता को रास आया है व कैसे हमें उसका बड़ी शिद्दत से इंतज़ार है. लीचियों की सौग़ात भेजता रहता और प्रणव से भी सुनता कि कैसे उस तक पहुंचने से पहले ही पार्सल गायब हो जाता है.
कुल मिलाकर हम मियां-बीवी हर तरह से सुखी व संतुष्ट थे, पर कहते हैं न कि अपनी नज़र ख़ुद को ही लग जाती है. कुछ-कुछ वैसा ही हमारे साथ भी हुआ. प्रणव… नहीं-नहीं, उसकी आज्ञाकारिता की क्या तारीफ़ करूं? कोर्स पूरा होते ही हमारे पास देहरादून में ही सेटल होने की कोशिश करने लगा. हमने कहा भी कि दिल्ली उसे ़ज़्यादा सूट करेगा, पर उसने हमें अकेले छोड़ने से साफ़ मना कर दिया. प्रणव के आते ही हमारे शांत, घरौंदे में जैसे बहार आ गई. युवा लड़के-लड़कियों का जमावड़ा हर पल हमारे आशियाने को गुलज़ार किए रहता. मैं तो ख़ुश था, पर कृष्णा को कुछ ही दिनों में खीझ होने लगी, क्योंकि उसका अनुशासित स्वभाव उसे आवश्यकता से अधिक किसी से घुलने-मिलने नहीं देता था.
प्रणव की इस बेपरवाह-सी जीवनशैली को देखकर मेरे मन में एक ख़याल आया और मैंने कृष्णा को भी मन की बात कह डाली, “सुनो कृष्णा, तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें अब एक बहू की ज़रूरत है?” कृष्णा मेरी बात सुनकर फीकी हंसी हंस दी, “मुझे या तुम्हें? थक गए हो मेरी सेवा करते-करते?”
“अरे नहीं यार.” मैं हंस दिया था.
“आजकल बहुएं पति सेवा के लिए लाई जाती हैं, सास-ससुर के लिए नहीं. वह आकर प्रणव को संभाल ले, यही बहुत है.”
कृष्णा की सहमति ले हमने प्रणव से बात की तो पाया कि अनेक महिला मित्रों के बावजूद शादी के मामले में वह पैरेंट्स पर ही निर्भर है. इस बात की हमें ख़ुशी ही हुई थी, किंतु शीघ्र ही हमें पता चल गया कि हमने बिन बुलाई आफत मोल ले ली है.
प्रणव की नौकरी बेहद आकर्षक न सही, किंतु उसकी क़द-काठी और चेहरा अनदेखा करना असंभव था. हमारे जान-पहचानवाले यह जानकर कि हम बहू की तलाश में हैं,  बिन बादल बरसात की तरह टपक पड़े थे और मैं व कृष्णा असहाय से, समझ ही नहीं पा रहे थे कि किसे हां करें और किसे ना. किसी की लड़की उच्च शिक्षित, गृहकार्य दक्ष, संगीत-विशारद  थी, तो कोई केवल इस बूते पर अकड़ता था कि प्रणव को सोने में तोल देगा. मेरी अपनी अपेक्षाएं न के बराबर थीं, पर कृष्णा का कहना था कि और कुछ हो, न हो लेकिन बहू सुंदर तो होनी ही चाहिए. प्रणव ने सब कुछ हम पर छोड़ दिया था, इसलिए हमारी ज़िम्मेदारी और बढ़ गई थी.

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सबसे पहले मुझे पसंद आई मेजर शर्मा की बड़ी बेटी, जो लखनऊ से बी.एड. कर इसी साल लौटी थी. बेहद सुशील व घरेलू क़िस्म की, किंतु कृष्णा का कहना था कि वह प्रणव के सामने बहुत मैच्योर लगेगी. अब मैं इस मैच्योरिटी को क्या नाम देता, समझ नहीं पाया, पर जान गया कि मेरी पत्नी मुझे इस समस्या से जल्दी उबरने नहीं देगी. ऐसा नहीं कि उसे कोई न भाया हो, पर उसकी पसंद की हुई चंपा सिन्हा जैसी चतुर, आकर्षक, स्टेट लेवल की वॉलीबॉल खिलाड़ी को देखते ही मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ने लगता था. यूं जान पड़ता था जैसे किसी भी पल वह हमें भी वॉलीबॉल की भांति उछाल देगी और प्रणव को ले उड़ेगी.
और तभी एक दिन प्रणव ‘उसे’ लेकर घर आया. ‘उसे’ यानी इस एपिसोड की प्रधान नायिका को. अब रहस्य बढ़ाने से क्या फ़ायदा? लड़की हर तरह से अच्छी दिख रही थी- प्रणव के कंधों को छूता क़द, गेहुंआ रंग, बड़ी-बड़ी आंखें और रेशमी लहराते खुले बाल. देखते ही मेरी और कृष्णा की बांछें खिल उठीं. कृष्णा तो शायद उसकी नज़र भी उतार बैठती, वह तो प्रणव ने उसे रोक दिया.
“आप ग़लत समझ रही हैं मम्मी. रिया इज़ जस्ट ए फ्रेंड. हम थोड़े दिनों पहले ही मिले हैं. असल में इसके पापा भी आर्मी में हैं- पूना पोस्टेड हैं. इसे पढ़ाई पूरी करते ही देहरादून में जॉब मिल गया, पर रहने की समस्या है. मैंने कहा कि हमारे घर के ऊपर का पोर्शन खाली पड़ा है, वहां पेइंग गेस्ट की तरह रह लो. आप लोगों की परमिशन हो तो…” कहकर उसने बात अधूरी छोड़ दी.
मुझे ‘हां’ कहते ज़्यादा देर नहीं लगती और कृष्णा को ‘ना’ कहते. पर इस बार उस लड़की का आर्मी का ठप्पा काम कर गया. आख़िर अपनी बिरादरीवाली की मदद तो हमें करनी ही थी. इस तरह रिया दत्त हमारे आशियाने में पेइंग गेस्ट बनकर आ गई. पेइंग गेस्ट मेरे हिसाब से एक अजीब विरोधाभास है, क्योंकि जो ‘पे’ करे, वह ‘गेस्ट’ कैसे हुआ और जो गेस्ट नहीं, वह तो घरवाला ही माना जाएगा. रिया ने हमें डिनर की पेमेंट भी की थी, पर महीना बीतते-बीतते कृष्णा ने वह ‘क्लॉज़’ स्वयं ही उड़ा डाला.
कारण भी कुछ सहज ही थे. एक तो रिया चूज़े जितना खाती, उसमें भी चार दिन नागा रहता. फिर जिस दिन उसका मन होता, ज़िद करके सारा दिन रसोई में डिनर की तैयारी करती रहती. क्या कहूं, कढ़ी और पालक पनीर तो वह इतना लज़ीज़ बनाती थी कि मैं कृष्णा के हाथ का स्वाद ही भूल गया. और भी कई बातें थीं, जो उसे गेस्ट से गृह सदस्य में तब्दील कर गईं. अब सुबह का अख़बार बहादुर नहीं, रिया ही मुझे लाकर देती और साथ रहता हरी चाय का सेहत से लबलबाता प्याला. ठीक आठ बजे वह नहा-धोकर गेट पर ऑफ़िस जाने को तैयार खड़ी मिलती और मेरा फौजी हृदय उसकी नियमबद्धता को मन ही मन सराहने लगता. कृष्णा के लिए उसके पास सदा ऑफ़िस की चटखारों भरी गॉसिप का ख़ज़ाना रहता, सो छह बजते ही वह उसे नीचे उतरने के लिए आवाज़ें देना शुरू कर देती. इन सबके बीच उसे प्रणव से मेलजोल का कितना समय मिलता होगा, आप ख़ुद ही सोच लीजिए. पर इतना बता दूं कि जब-जब रिया रात का खाना हमारे साथ खाती, कोशिश करके वह भी समय पर डाइनिंग टेबल तक पहुंच ही जाता था.
मेरी अनुभवी आंखें लगातार दोनों का पीछा करतीं, पर कहीं कुछ भी ऐसा न मिलता, जो शक की डोर को पुख्ता कर सके. माना एकाध बार प्रणव उसे ऑफ़िस छोड़ने गया और कुछेक बार उसने प्रणव की पसंद की कुछ ख़ास चीज़ें बनाईं, पर इसके आगे कुछ और नोटिस करने का मेरा धैर्य जाता रहा.  कृष्णा अक्सर मुझे उसके पिता से बात करने को उकसाती रहती. जब मैं उसे रिया के पंजाबी होने का हवाला देता तो वह हरियाणा और पंजाब की सम्मिलित संस्कृति की दुहाई देने लगती. मैं जान गया कि वह इस नैया को पार लगाकर ही मानेगी. पर इंसान के चाहने से क्या होता है. ऊपरवाले की तरकीबें इतनी अजीबोगरीब हैं कि हम केवल उन पर आश्‍चर्य कर सकते हैं, शिकायत नहीं.
प्रणव की सहमति की हमने ख़ास आवश्यकता नहीं समझी थी और उसने वैसे भी यह भार हमें ही सौंप रखा था. रिया से उसके पिता का टेलीफ़ोन नंबर तो हमने ले ही रखा था, पर रिश्ते जैसी गंभीर बात एक अजनबी से छेड़ते हुए बेहद झिझक हो रही थी. उस पर अभी हमने अपनी मंशा रिया से भी ज़ाहिर नहीं की थी. कृष्णा बेहद एहतियात से चलने की सोच रही थी, क्योंकि उसे किसी भी क़ीमत पर यह रिश्ता चाहिए था. अब तो रात-दिन उसकी आंखों में बारात और डोली के सपने डोलते रहते. बात करते-करते अक्सर वह रिया के बाल सहलाने लगती, तो कभी उसके ठीक से न खाने पर सौ हिदायतें दे डालती.
इसी बीच मेजर मिश्रा की बेटी की शादी का कार्ड आया. हमारे अच्छे परिचित थे, सपरिवार आमंत्रण था. ‘परिवार’ में अब कृष्णा रिया को भी गिनने लगी थी, सो उसने उसे भी साथ चलने को मना लिया था. मुझे आज भी याद है, कृष्णा की गुलाबी रंग की सिल्क साड़ी पहने जब वह सीढ़ियों से उतरी तो कोई राजकुमारी ही जान पड़ रही थी. गले में कृष्णा की ही दी हुई सच्चे मोतियों की माला, कानों में बूंदे और गालों पर स्वस्थ गुलाबी आभा. सादे सिंगार में भी वह किसी परी से कम नहीं लग रही थी. प्रणव की आंखों में उतरे प्रशंसा के भाव मुझसे छुपे न रहे और मन ही मन मैंने भी फैसला कर ही लिया. ‘सुबह होते ही पूना फ़ोन मिलाना है, बस…’

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कहना न होगा, शादी में सबकी नज़रें उसी पर जमी रहीं. साथ ही लोगों के स्पष्ट इशारे थे कि हमने उसे बहू के रूप में चुन लिया है. हम ख़ुद भी इसी खुमार में डूबते-उतराते घर पहुंचे और ख़्वाबों को हक़ीक़त में बदलने का तसव्वुर लिए सो गए.
अगली सुबह, जी हां, वही हवा, वही भीगी महक, वही चहचहाहट सुनता हुआ मैं रिया के इंतज़ार में था कि अचानक कृष्णा हाउसकोट में अस्त-व्यस्त-सी प्रकट हुई. उसे इतनी सुबह जगा देखकर मेरा माथा ठनका.
“क्या हुआ, तबियत तो ठीक है न?” मेरे पूछते ही उसने एक मुड़ा-तुड़ा पर्चा मेरी ओर बढ़ाया और मुझे सिसकियों से दहला दिया. बेहद सुंदर कॉन्वेंटी लिखावट में, अंग्रेज़ी में लिखा ख़त था. अनुवाद ही पेश कर रहा हूं-
‘डियर अर्जुन अंकल व आंटी, आपके साथ जो व़क़्त मैंने गुज़ारा, वह मुझे हमेशा याद रहेगा. आज लेकिन इस सुहाने सफ़र का आख़िरी पड़ाव है. मैं आपके घर से कुछ नक़द व आंटीजी के गहने लेकर जा रही हूं. कुछ मजबूरियां हैं, वरना यहीं रहकर आजीवन आपकी सेवा करती. मैं जानती हूं, आप प्रणव से मेरा विवाह करना चाहते थे, पर यही समझिएगा कि अपनी मुंह दिखाई मैं स्वयं ले गई. कहा-सुना माफ करना.’
नोट- पूना फ़ोन करना व्यर्थ होगा, नंबर ठीक है, पर मेरे पिता नहीं, पुराने लैंडलॉर्ड मिलेंगे, वे भी नहीं जानते कि मैं कहां हूं.
पढ़ते-पढ़ते मेरी स्वयं यह हालत थी कि कहां खड़ा होऊं, कहां बैठूं? समझना मुश्किल था. कृष्णा का रुदन कब थमा, याद नहीं, पर वह इस बार डिप्रेशन में नहीं गई. कारण यही है कि मैंने तुरंत प्रणव की सगाई एक परिचित परिवार में कर डाली और एक परी की तरह सुंदर न सही, पर ठीक-ठाक बहू घर ले आया. आज भी जल्दी घर पहुंचना है, मेरे बेटे की पहली मैरिज ऐनीवर्सरी जो है. और हां, पेइंग गेस्ट रखने की हमें फिर कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी. ऊपर का कमरा अब हमारी बहूरानी का जो है.

Kahaniya

Sonali Garg
सोनाली गर्ग

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