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कहानी- बसेरा (Short Story- Basera)

"ऋषि-मुनियों ने औरत की देह को नरक का द्वार कहा है ना, क्यों? औरत की देह नरक का द्वार तभी तो बनती है जब उसे पुरुष की गंदी निगाहें छू देती हैं. लक्ष्मी की देह भी तो तभी नारकीय बनी, जब उस पर श्यामसुंदर की कुदृष्टि पड़ी. श्यामसुंदर का हुक्का-पानी तो किसी ने बंद नहीं किया. नामी लठैत था वो गांव का, भला उससे टकराने की हिम्मत किसमें थी? रह गई बेचारी निर्बल निरीह लक्ष्मी, उसे कुलटा की संज्ञा देकर समाज से बहिष्कृत कर देना बड़ा आसान काम था इसलिए कर दिया लोगों ने.”

बरकोट की सुबह अपनी पूरी ताज़गी के साथ कमरे में मौजूद थी. उस छोटे से घर की खिड़की से ओस से भीगे लाल खपरैल के ढलवां मकान खिलौनों की तरह लग रहे थे. आसपास हरियाली से लदे लंबे पेड़ थे.
कालिन्दीजी ने खिड़कियां खोल दीं और आरामकुर्सी खींचकर खिड़की पर सिर रख कर बैठ गईं. कमरे में एक चिड़िया, अपनी चोंच में तिनका दबाकर आई और रोशनदान के पास बैठकर घोंसला बनाने लगी. कालिन्दीजी को दया आई. मन ही मन निश्‍चय किया, दिनभर पंखा नहीं चलाएंगी, क्योंकि पंखा चलाने से तिनका-तिनका उठाकर आशियाना बनानेवाली चिड़िया का जुनून कम हो जाएगा.
पर कानाराम अगर चिड़िया को देख लेगा तो कभी ठहरने नहीं देगा, तुरंत भगा देगा. कहेगा, “आप नहीं समझती मांजी, ये ही गंदगी की जड़ है. अब ये तिनका पे तिनका लाएगी और हम बुहारते-बुहारते थक जाएंगे.”
लेकिन वो कानाराम को कमरे में भी नहीं घुसने देंगी. अगर कानाराम आ गया, तो खिड़की भी खोलने नहीं देगा. कहेगा, “मांजी, आप किसी दिन चोर घुसाएंगी ज़रूर.”
“इस उजड़े बसेरे में कौन आएगा काना? यहां तो घर के ही नहीं आते.” वो एक बार फिर कहीं अतीत में खो जाती हैं.
सुशांत, संज्ञा, उनके अपने बच्चे और अपने बच्चों से भी बढ़कर सुशांत व संज्ञा के बच्चे, बहू डॉली और दामाद संभव. लेकिन सभी महानगरों की दौड़ में गुम हो गए हैं. इस छोटे से कस्बे में कोई नहीं आना चाहता. बच्चों के लिए यहां वीडियो गेम नहीं है, न ही केबल टीवी, बहू-बेटियों के लिए न ही कोई शॉपिंग कॉम्प्लैक्स, न कोई क्लब या हाई सोसायटी. संज्ञा की मजबूरी तो उन्हें समझ में आती है. इतनी दूर कैलिफोर्निया से बरकोट तक आना-जाना इतना आसान भी नहीं. लेकिन सुशांत, वो तो आ सकता है. बस, ले-देकर उन्हें ही अपने साथ ले जाने की ज़िद रहती है, पर कालिन्दीजी जानती हैं, वहां जाकर वो भी वैसी ही हो जाएंगी. सुशांत के ड्रॉइंगरूम में रखे सजावट के सामान की तरह. किसी चीज़ को हाथ लगाते ही दोनों चिल्ला उठते हैं.
“ममा प्लीज़! आप वहां से दूर ही रहना” या फिर “अरे! आप क्यों सब्ज़ी काट रही हैं? कमला है ना, वो कर देगी. फिर अभी कौन आनेवाला है?”
दोनों पति-पत्नी उन्हें इतना ज़्यादा तिरस्कार देते हैं कि नौकर भी अगल-बगल मुस्कुराने लगते हैं या फिर बेकार का लाड़, “आपने गोली ली?”
“आज गई थीं आप घूमने?”
“दामोदर, ममा को लेकर गए थे?”
“क्यों..? अगर वो नहीं समझतीं तो तुम जानते थे कि उनके लिए घूमना कितना ज़रूरी है?”
गोया मरा दामोदर, मां से ज़्यादा समझदार है? उसके भरोसे रहा जा सकता है, पर मां बेवकूफ़ है, जो समझती ही नहीं. और फिर वो क्यों जाए नौकर के साथ घूमने? क्या बहू या बेटे में से कोई नहीं चल सकता उनके साथ? पर क्यों चले? व्यस्तताएं ही ढेरों हैं. आज क्लाइंट मीटिंग, कल सेमिनार या फिर किसी के साथ अपॉइंमेंट… इन सबसे समय निकाल भी लें तो डिनर, लंच और मूवी जैसे प्रोग्राम में ही समय निकल जाता है. फिर डिग्निटी का भी तो सवाल है. अगर किसी ने पूछ लिया, “ओह आपकी मदर हैं, घुमाने ले जा रहे हैं?” तो अपना आपा ही छोटा हो जाएगा साहबजादे का.

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कालिन्दीजी समझ नहीं पाईं कभी. उन्होंने तो बच्चों को हमेशा अच्छे संस्कार ही दिए थे. कभी ऊपरी तड़क-भड़क और बनावट पर ज़ोर नहीं दिया. तो क्या सब कुछ ज़माने की हवा का असर है? और असर भी ऐसा कि उनका बताया-सिखाया सब हवा? आज उन्हें ही डांटते हैं, “ममा! आपने जीवनभर बेवकूफ़ियां ही की हैं. औरों को देखिए, कितना बैंक बैलेंस, कितनी प्रॉपर्टी… और हमें सब कुछ ख़ुद करना पड़ता है. हम से तो अच्छे मार्क और वो मनोहर ही रहे. कितना पैसा है दोनों के पास और रुआब भी कितना? लोग ज़ुबान तक नहीं खोल पाते उनके सामने.”
अपनी स्मृतियों में वो अनजाने ही घिरने लगी थीं. अपने इलाके के प्रख्यात ज़मींदार द्वारकादास की इकलौती पुत्री. नाना कलकत्ता हाइकोर्ट के नामी बैरिस्टर. घर में पूरा अंग्रेज़ी ठाठ-बाट था. जब तीन साल की थीं, तब मां का देहांत हुआ, लेकिन, नानी ने घर आने नहीं दिया था. इस भय से कि कहीं दामाद ने दूसरी शादी कर ली तो? सौतेली मां, उनकी फूल-सी बच्ची को जीवित नहीं रहने देंगी. लेकिन जब पूरे पांच वर्षों तक अकेले रहकर द्वारकादास ने दूसरा विवाह न करने का आश्‍वासन दिया, तो उनकी इस अग्निपरीक्षा ने नानी का मन पिघला दिया और उन्होंने कालिन्दीजी को भेज दिया था द्वारकाप्रसाद के साथ.
दादी ने हुलसकर समेट लिया था उन्हें अपनी गोद में.
“अरे हमार सुग्गी, हमार मैना, तोहर बिना त हमार घर-आंगन सूना रहा. अब तो चहुं ओर बहार आ गईल हो जैसे.”
दादी के साम्राज्य की अकेली राजकुमारी, नानी का स्नेह तो इसके सामने कुछ नहीं था. वहां मामा के दर्जनभर बच्चों के बीच उनकी हस्ती नगण्य ही थी. दादी मां हर समय मुंह जोहती रहतीं.
“देख बिटिया, तेरे लिए मैंने हाथरस से रबड़ी मंगाई है. ज़रा चखकर तो देख.”
पर कालिन्दीजी को उस रबड़ी से कहीं ज़्यादा स्वाद मिलता कच्चे-पक्के अमरुदों में, कच्ची अमिया में, हरे चने की फलियों में… दादी की नज़रें बचाकर जब-तब सरक लेती बगीचे में. अपने महाभोज में गली के सब बच्चों को भी भागीदार बना लेतीं.
पढ़ाने के लिए घर पर ही एक मिशनरी शिक्षक आते थे. उनकी पत्नी मरिया उन्हें अंग्रेज़ी बोलचाल और तहज़ीब सिखाने आती थीं. रविवार का दिन गिटार और प्यानो सीखने के लिए तय था. उनका हंसना-बोलना, वनपीस गाउन पहने खुले सिर सबके सामने घूमना दादी मां को फूटी आंख नहीं सुहाता था.
एक दिन कालिन्दीजी बाहर से आंगन में आईं और उन्होंने सुग्गे का पिंजरा खोल दिया.
दादी मां हाय-हाय कर उठीं.
“ये क्या किया बचिया? सुग्गा भला उड़ न जाएगा?”
“उसे उड़ने दो दादी, इसीलिए तो खोला है पिंजरा. किसी को यूं क़ैद करके रखना गुनाह है. क्या हक़ है हमें किसी की आज़ादी छीनने का?”
वो वहीं बैठकर सुग्गों को पुचकारने लगीं.
“उड़ जा पंछी प्यारे, उड़ जा…”
सुग्गा फुफकता हुआ रसोई के छप्पर पर जा बैठा, तो वो ख़ुशी से ताली बजाकर नाच उठीं.
दादी एकटक देखती रह गईं.
“यह सब उस फिरंगिन मेम की ही सोहबत का असर है.” दादी मन ही मन बुदबुदाईं. फिर दादी इस निष्कर्ष पर पहुंचीं कि कालिन्दीजी का तुरंत विवाह करवा दिया जाए.
द्वारकादास ने सुना तो हंसने लगे, “यह क्या कह रही हो मां? अभी कालिन्दी की उम्र ही क्या है? कम से कम दसवीं तो पास कर ले.”
“अब ये सब तो तुम ही जानो. इस साल पंद्रहवा लग गया है. लड़का कहीं बाज़ार में बैठा तो मिलता नहीं है, जो रुपया दिया और उठा कर ले आए. अभी से खोजना शुरू करोगे तो साल दो साल लग ही जाएंगे. तब तक परीक्षा भी दे देगी. फ़िलहाल उस मेम का आना बंद कर दो. उसकी सोहबत ठीक नहीं. बिटिया को बिगाड़ रही है. देखो, इसे तो एक न एक दिन ससुराल जाना ही है. फिर ऐसा स्वभाव रहा, तो दबना या झुकना तो सीखेगी ही नहीं. फिर सास और ननद से कैसे निभेगी इसकी?”
दादी की आशंका सही निकली. कालिन्दीजी की आज़ाद प्रवृत्ति ससुराल की परंपरागत सामंतवादी व्यवस्था के साथ समझौता नहीं कर सकी. ऐसे न बोलो, वहां न जाओ, उधर न झांको… जैसी तमाम वर्जनाएं किसी अदृश्य तलवार की तरह सिर पर लटकी रहती थीं. दोनों बड़ी जेठानियां सास के सामने बेज़ुबान गाय की तरह खूंटे से बंधी जुगाली करती रहतीं. पर नियम-क़ानून से बंधा जीवन कालिन्दीजी को रास नहीं आया.
पति कृष्णमुरारीजी ने यूं तो लॉ में एडमिशन ले रखा था, पर इतना साहस नहीं था कि माता-पिता द्वारा बनाई गई दंड संहिता में रत्तीभर भी संशोधन कर सकें. उन्हीं दिनों सुशांत और संज्ञा का जन्म हुआ. फिर यहां की पढ़ाई पूरी करके कृष्णमुरारीजी मास्टर्स करने के लिए इंग्लैंड चले गए. कुछ तो बच्चों का मुंह देखकर और कुछ इस आशा में कि कृष्णमुरारीजी वापस आएंगे तो सब कुछ ठीक हो जाएगा, कालिन्दीजी पिंजरे में बंद पंछी की तरह दिन गुज़ारती रहीं.
आख़िर प्रतीक्षा की घड़ियां समाप्त हुईं. कृष्णमुरारीजी पूरे पांच वर्षों के बाद वापस आए. चवन्नी भर बिंदिया और सोने-चांदी के गहनों से झमाझम लदी कालिन्दीजी पूरा दिन सजती रहतीं, पर जिनके लिए सजतीं, वे उनके कहां थे? वे तो एक पराई फिरंगिन महिला की अमानत हो गए थे. सुहागिन होने का दर्द जितना चूर-चूर होता, उनका पागलपन बढ़ता चला जाता. दिन प्रतिदिन उनकी हालत दुखद होती चली गई. मेरी पायल कहां है? चलूंगी तो उन्हें पता कैसे चलेगा कि मैं आ रही हूं. जीजी, देखो तो कहीं दरवाज़े से चुपचाप न निकल जाएं. जेठजी से कहना, उन्हें जाने न दें. मैं देवी मां को सात मनौतियां चढ़ाऊंगी… बड़बड़ाहट का ये क्रम पूरे चार दिन जारी रहा और जब थमा तो इस प्रतिज्ञा के साथ कि अब कभी इनका चेहरा नहीं देखूंगी. अब यहां रहूंगी भी नहीं.
तारिणी देवी ने सामान ठीक करते देखा, तो पूछ बैठी, “सामान क्यों ठीक कर रीह हो बहू?”
“मैं बाबा के पास जा रही हूं,” उनका सीधा सपाट-सा उत्तर था.
“क्यों भला..? मुरारी दस दिन पहले ही आया है. उससे पूछ तो लिया होता.”
“जिनके साथ सात भांवरें लेकर इस चौखट पर कदम रखा, जब वो ही पराए हो गए, तो उनकी हां या ना का मतलब ही कहां रह गया है मेरे लिए?”
“इसमें नया क्या है? हमारे परिवार में ऐसा होता ही आया है. शुक्र मना तेरे या तेरे बच्चों के लिए सुविधाएं जुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी मुरारी ने.”
“तो क्या उन सुविधाओं के पीछे गिरवी पड़ी रहूंगी मैं? सौतन के तलवे चाटूंगी?”
“इतनी हिम्मत..? ठीक है, जाना चाहती है तो जा, लेकिन अपने बच्चों को यहीं छोड़कर जा.” तारिणी देवी को पूरा विश्‍वास था कि पिता ब्याहता बेटी को कितने दिन रखेंगे? और साथ में दो-दो जुड़वां बच्चे. कुछ ही दिनों में वापस लौट आएगी.

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लेकिन कालिन्दीजी को तो विधाता ने किसी और ही मिट्टी का गढ़ा था. एक छोटे-से सूटकेस में अपना कुछ मामूली सामान भरा और अकेली ही चल दीं स्टेशन की ओर. रास्तेभर सोचती रहीं. बाबा मेरे लिए ही तो ज़िंदगीभर अकेले रहे. अब उन्हें कभी नहीं छोड़ूंगी. हमेशा उनके साथ ही रहूंगी.
लेकिन बाबा अकेले कहां थे अब? वहां तो फुलझड़ी पहले से ही विद्यमान थी. बाबा की गोद भी खाली नहीं थी. तीन महीने का गोल गुथना-सा मनोहर उनकी गोद में बैठा किलकारियां मार रहा था.
बेटी को देखकर द्वारकादास ने अपराधियों की तरह सिर झुका लिया था. बड़ी मुश्किल से उनके मुंह से आवाज़ निकली थी.
“मुझसे बड़ी भूल हो गई बेटी, लेकिन यहां का अब भी सब कुछ तुम्हारा है.”
कालिन्दीजी मानो कटे हुए पेड़ की तरह गिर पड़ीं.
“बाबा…”
इतने दिनों से रोकी व्यथा सहसा बांध तोड़कर बह चली. पिता के घुटनों में सिर छिपाकर घंटों हिचक-हिचक कर रोती रहीं. न तो द्वारकादास कुछ पूछ सके कि एकाएक कैसे आईं, पाहुन कैसे हैं, वो साथ क्यों नहीं आए… और न ही कालिन्दीजी ही कुछ बता पाईं. क्या बतातीं, किसे बतातीं? बेटी की उम्र की पत्नी के प्रेमपाश में गले तक डूबे पिता क्या उनकी व्यथा समझ पाते?
सही कहती थीं नानी, पुरुष कभी बूढ़ा नहीं होता. बड़े यतन से संजोयी पिता की छवि धूमिल पड़ने लगी थी.
कालिन्दीजी आंखें पोंछकर उठ खड़ी हुईं. क्षणभर को गौर से देखा पालने में लेटे मनोहर को. बिल्कुल पिता की अनुकृति, वैसा ही चौड़ा माथा, वैसी ही आंखें… एकाएक उसे गोद में उठाकर सीने से लगाया, तो आंखें फिर उमड़ चली थीं. पिता ने बहुत रोकना चाहा, पर रुकी नहीं थी कालिन्दीजी. सुशांत और संज्ञा को गोद में उठाया और निकल पड़ीं विस्तृत व्योम तले एक अनजाने गंतव्य की ओर. हाथ में न पैसा था, न ही कोई सर्टिफिकेट. बेरंग ज़िंदगी कटु सत्य का प्याला लिए सामने खड़ी थी. न जाने कितनी रातें यही सोचते और छटपटाते काटीं कि दिन वर्षों की जर्जर नाव खेने के लिए मज़बूत पतवारें कहां से लाएंगी?
कितने दिन, महीने और वर्ष बीत गए.
छोटे-छोटे गांव, नगर, भीड़ भरे शहर… और अब दस वर्षों से यहां उन्हीं मिशनरी दंपति के साथ इन सर्पाकार घाटियों के बीच स्कूल शिक्षिका और वार्डन की हैसियत से रह रही थीं, जिन्होंने बचपन में कालिन्दीजी को उसूलों पर जीवन जीना सिखाया था, अन्याय न सहने का पाठ पढ़ाया था.
समय के साथ-साथ सुशांत और संज्ञा ने बारहवीं पास कर ली. इससे आगे का सफ़र और भी कठिन था. बच्चों को प्रोफेशनल कोर्स करवाने के लिए न कोई साधन थे, न ही कोई स्रोत. अतिरिक्त कमाई के चक्रवात में पिसते समय वो कई बार छटपटाईं, फिर मूक समझौतों की गिरहों से ख़ुद को बांधती चली गईं.
आज संज्ञा सॉफ्टवेयर इंजीनियर है और अपने पति के साथ कैलीफोर्निया में सुखद जीवन जी रही है.
सुशांत सी.ए. है और उसकी पत्नी भी सी.ए. है. दोनों की प्रैक्टिस सोना उगल रही है, फिर भी उसे मां से शिकायत है, क्योंकि उसकी मां ने हमेशा बेवकूफ़ियां ही की हैं.
“मां, क्या करें आकर वहां? न कोई सोशल सर्कल है, न ही मनोरंजन के साधन. मैं और संज्ञा तो आपकी संतान हैं. वहीं पले-बढ़े हैं, किसी तरह एडजस्ट कर लेते हैं, पर हमारे बच्चे? उन्होंने तो शुरू से ही समृद्ध जीवन जिया है. वो अलग माहौल में पल रहे हैं. आप समझने की कोशिश क्यों नहीं करतीं?” सुनकर कालिन्दीजी हैरान रह गईं. कल तक जो बच्चे मां-मां कह कर उनके आगे-पीछे घूमा करते थे, जिनका कोई काम उनके बिना पूरा नहीं होता था, नई ज़िंदगी शुरू होते ही उन्हें तानों-उलाहनों से बींधने लगे हैं.
पिछली बार सुशांत ने तो उनकी व्यथा को मथ डाला था. संज्ञा भी भाई की हां में हां मिला रही थी. “पति का घर छोड़ा, पर अधिकार क्यों छोड़ा?”
अधिकार यानी पैसा?
संज्ञा तो यहां तक सुना गई थी, “विधवा औरतें भी तो अपने ससुराल में रहती ही हैं. कम से कम अपना हक़ तो मिलता है उन्हें. आपके जैसा दानवीर तो कोई विरला ही होगा, पिता की पूरी संपत्ति भी बांट दी मनोहर को और यहां चली आईं इस छोटे से पहाड़ी इलाके में.”
एक अरसे से जतन से संजोया बांध भावों के ज्वार के तीव्र प्रवाह से स्वतः ही टूट गया था.
“पैसा-पैसा-पैसा… क्या जीवन में पैसा ही सब कुछ है?”
ऐसा महसूस हुआ जैसे दिल में चुभी फांस और गहरे धंसती जा रही है. गले में रुलाई अटक कर रह गई और आंखों में उतर आई अजीब-सी नमी, जो न सूख पा रही और न आंसुओं में बह पा रही थी.

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एक सर्द आह-सी भरी उन्होंने. सारी उम्र रिश्तों का सही हिसाब-किताब रखनेवाली कालिन्दीजी संबंधों के समीकरण समझ ही नहीं पाईं. सारे नाते उनके कुछ मांगने से पहले ही साथ छोड़ गए. पहले पिता, फिर पति और अब अपने ही रक्त मांस से सींची अपनी संतान.
घड़ी ने आठ बजा दिए थे. रात की स्याही चारों ओर फैल चुकी थी. कालिन्दीजी ने पास पड़ा शॉल उठाकर अपने चारों ओर लपेटा और सोने चल दी. अभी बिस्तर पर लेटी भी न थी कि कानाराम ने दरवाज़ा खटखटा दिया. उन्होंने चौंककर चिड़िया को देखा. जैसे कह रही हों, बस भई! अब मैं तुम्हें नहीं बचा सकती.
धीरे से दरवाज़ा खोलकर बाहर झांका, तो सामने कानाराम खड़ा था. पीछे शायद कोई और भी था.
आते ही उसकी बड़बड़ाहट शुरू हो गई.
“मांजी, यूं तो बारह बजे तक जागती रहेंगी, आज इतनी जल्दी काहे सो गईं? तबीयत तो ठीक है ना?”
“कानू, कौन है रे?”
“मांजी, हम नहीं जानते. कहते हैं, आपके रिश्तेदार हैं.”
“मेरी मां आपके यहां नौकरानी थीं लक्ष्मी. याद है, एक बार पौधों की गुड़ाई करते समय खुरपी लग गई थी मेरे पांव में. खून की धारा बह निकली थी. तब आपने मरहम-पट्टी करके मेरी जान बचाई थी, वरना मैं तो वहीं पड़ा रहता. मालकिन कितनी नाराज़ हुई थीं आपसे.”
“तो तुम लक्ष्मी के बेटे हो कमलजीत.”
लक्ष्मी… कालिन्दीजी फिर शून्य में भटक गईं. हवेली के आंगन में जिसका प्रवेश निषिद्ध था. बाहर से ही आती और कूड़ा-करकट लेकर चली जाती. दोनों जेठानियों ने तो कभी पूछने की हिम्मत नहीं जुटायी थी. कालिन्दीजी ने पूछ लिया था. तारिणी देवी सुनते ही आग बबूला हो गई थीं. बुरी तरह फटकार दिया था उन्हें.
"सारा गांव जानता है लक्ष्मी के साथ श्यामसुंदर के संबंध को. वो बदनाम औरत…" कालिन्दीजी की पुतलियों में जैसे कोई आग दहक उठी थी.
"ऋषि-मुनियों ने औरत की देह को नरक का द्वार कहा है ना, क्यों? औरत की देह नरक का द्वार तभी तो बनती है जब उसे पुरुष की गंदी निगाहें छू देती हैं. लक्ष्मी की देह भी तो तभी नारकीय बनी, जब उस पर श्यामसुंदर की कुदृष्टि पड़ी. श्यामसुंदर का हुक्का-पानी तो किसी ने बंद नहीं किया. नामी लठैत था वो गांव का, भला उससे टकराने की हिम्मत किसमें थी? रह गई बेचारी निर्बल निरीह लक्ष्मी, उसे कुलटा की संज्ञा देकर समाज से बहिष्कृत कर देना बड़ा आसान काम था इसलिए कर दिया लोगों ने.”
“आप कहां खो गईं बड़ी मां? देखिए, मेरे माथे पर चोट का निशान अभी भी है.”
“तू यहां कैसे आया कमलजीत?”
"मां ने मरने से पहले आपका ही नाम लिया था. यह भी बताया कि हवेलीवालों से छिपकर आप मेरे स्कूल की फीस, किताबें, यूनिफॉर्म का ख़र्चा दिया करती थीं. सच, बड़ी मां, अगर आपने वो सब न किया होता, तो मैं भी मां की तरह कूड़ा उठा रहा होता.” कमलजीत का गला भर आया.
“कलक्टर हूं आजकल, यहां ट्रांसफर कराकर आपका कर्ज़ा उतारने आया हूं. लेकिन इस बार कलक्टर बंगले में नहीं रहूंगा, यहीं रहूंगा आपके साथ. मैं जानता हूं, आप अकेली रहती हैं. इस बुढ़ापे में सुशांत भैया को आपकी देखभाल करनी चाहिए, लेकिन आप मुझे रोकना मता. जब तक यहां रहूंगा आपके साथ रहकर आपकी देखभाल करूंगा. अपने बेटे को अपने साथ रहने देंगी ना मां?”
कालिन्दीजी ने हथेली से उसके गाल थपथपाए, तो हथेली में नमी तैर गई. उन्होंने छोटे बच्चे की तरह उसे अपने आंचल में समेट लिया. उसके माथे की चोट सहलाई और कहा, “तू मेरे पास ही रहना. हम मां-बेटे एक साथ रहेंगे.”
कानाराम देहरी पर ही खड़ा था. उसकी भीगी पलकों में अनगिनत सवाल तैर रहे थे.
आदमी, पंछी की तरह तिनका-तिनका बटोरकर नीड़ बनाता है और बच्चे पंख निकलते ही उड़ना सीखते हैं. आकाश की ऊंचाई दामन में समेट लेना चाहते हैं. रह जाती हैं कुछ यादों की धुंधली स्मृतियां और अंत के लिए प्रतीक्षारत वृद्ध आंखें. इस उजड़े बसेरे में जाने कहां से यह पंछी भटक कर आ गया है कौन जाने, पर वो जो सचमुच अपने हैं, समय और परिस्थितियों की किन काली कंदराओं में गुम हो गए नहीं मालूम. क्या प्रेम, विश्‍वास और अपनत्व की छांह तले यह पंछी इस उजड़े बसेरे में टिक पाएगा? अगर टिका भी तो कब तक?

- पुष्पा भाटिया

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