उपकार को लगा जीवन के सारे भाव वाष्प बन कर उड़ जाएंगे. बस एक शब्द बचेगा- इम्यूनिटी. उसकी निराशा और निष्क्रियता को कोई नहीं समझेगा. वह किस दुख और दीनता से गुज़र रहा है जानने की किसी को फ़ुर्सत नहीं है. लोचना को देख लो. उसे प्याला पकड़ाकर चली गई. जी चाहा उसे रोके मुझसे दो बात करो. तर्क दो.. कारण बताओ.. बोलो… लोचना को रोकने का उपक्रम नहीं कर सका.
चीन के वुहान शहर से होता हुआ कोरोना वायरस विश्वव्यापी होने का अपयश प्राप्त कर उपकार के देश, शहर, जीवन में असर डालने आ पहुंचा है. स्टैटिस्टिक्स का यह प्राध्यापक अपने साथ की अंग्रेज़ी विषय की प्राध्यापिका युक्ता की संगत में जिस रविवार को शहर से पैंतीस किलोमीटर दूर दर्शनीय साथ ही धार्मिक स्थल बसामन मामा जाने के लिए हुलहुला रहा था. ठीक उसी रविवार को प्रधानमंत्री ने आकस्मिक देशव्यापी लॉकडाउन की डुगडुगी पीट दी. उपकार के लिए यह सदमा था. घड़ी की सुइयां नियमित भाव में आगे बढ़ रही थीं, फिर भी इतवार बिताए न बीत रहा था. प्रधानमंत्री को उसके सदमे से मतलब नहीं. चौबीस मार्च को टीवी पर प्रकट हो दूसरा सदमा दे गए- कोरोना की श्रृंखला को तोड़ने के लिए पच्चीस मार्च से पूरे देश में इक्कीस दिन का सम्पूर्ण लॉकडाउन रहेगा. पत्नी लोचना से उपकार का संवाद नगण्य होता है, लेकिन पूछा, "यह क्या है?’’
लोचना इत्मीनान में दिखी, ‘’स्वास्थ और सुरक्षा के लिए ज़रूरी है.‘’
उपकार ने दिनों बाद लोचना को उड़ती नज़र से नहीं सधी नज़र से निहारा. यह प्रत्येक स्थिति को ज़रूरी ज़िम्मेदारी मानते हुए तादात्म्य बना लेती है या ऐसी असम्पृक्त हो गई है कि स्थिति से फ़र्क नहीं पड़ता?
नौवीं में पढ़ रहे छोटे बेटे आकार ने कहा, "लॉकडाउन. नया शब्द सुन रहा हूं."
उपकार जब से घर में गुमशुदा की तरह रहने लगा है, तब से बारहवीं अच्छे अंक से उत्तीर्ण कर कोटा में आईआईटी की कोचिंग कर रहा साकार और आकार अपनी पढ़ाई और प्रश्न लोचना से पूछते हैं.
लोचना इत्मीनान में दिखी, ‘’लॉकडाउन मतलब ताला बंदी. फैक्टरी में तालाबंदी होती है. कोरोना ज़रूर पहली बार सुन रही हूं."
लॉकडाउन का पहला सप्ताह.
उपकार को साफ़तौर पर लग रहा है शरारती तत्वों ने उसे घर में नज़रबंद कर दिया है. जब से युक्ता का क़रीबी बना है, इस घर से उसका प्रयोजन भूख और नींद भर का रह गया है. खाना खाकर ग्यारह बजे महाविद्यालय चला जाता है. गहराती शाम को लौटता है. टीवी देखता है या उत्तर पुस्तिकाएं जांचता है. अब करने को कुछ नहीं है, जबकि इक्कीस दिन बिताने हैं. सुबह से टीवी पर ख़बर देखने लगा. कोरोना और कोरोना. युक्ता के मोबाइल पर कॉल किया, ‘’क्या कर रही हो?’’
‘’लॉकडाउन का सामना कर रही हूं.‘’
‘’और क्या कर रही हो?’’
‘’कॉलेज जाना नहीं है, इसलिए देर तक सोती रही. सम्भव के कॉल ने जगा दिया. बोले ऐसी सन्नाटेवाली सड़कें नहीं देखी होंगी. छत पर जाकर देखो.‘’
युक्ता अन्यत्र पदस्थ अपने डेप्युटी एसपी पति सम्भव और विदेश में अध्ययनरत इकलौती पुत्री वासवदत्ता का ज़िक्र अक्सर नहीं करती है.
सम्भव का ज़िक्र उपकार को अनोखा लगा, ‘’देखा?’’
‘’हां, कर्फ्यू जैसा महौल है. इस शहर में आज तक कर्फ्यू नहीं लगा.‘’
‘’छोटे शहरों में आमतौर पर नहीं लगता. धारा 144 लगती है, जिसे लोग गम्भीरता से नहीं लेते.‘’
‘’सचमुच.‘’
‘’दिनभर क्या करोगी?’’
‘’लॉकडाउन में मेड नहीं आएगी. घरेलू काम में बुद्धि लड़ाऊंगी. चाय बनाने जा रही हूं."
चाय ने तलब जगा दी.
उपकार रसोई में आया. खाना बना रही लोचना से आकार को कहते पाया, "’मां, पापा का घर में होना तुम्हें अजीब नहीं लग रहा है?’’
‘’तुम्हें?’’
‘’लगता है जैसे कुछ ग़लत हो रहा…" कहते हुए आकार की दृष्टि उपकार पर पड़ गई.
"मां, पापा…‘’
लोचना ने मुड़ कर उपकार को देखा, ‘’कुछ चाहिए?’’
‘’चाय."
उपकार ने दिनों बाद मांग रखी है. वैसे लोचना, जो कुछ सहजता से उपलब्ध कराती है, गुमशुदा की तरह ग्रहण कर कॉलेज सटक जाता है.
‘’बनाती हूं. दूध कल तक ख़त्म हो जाएगा. कामता (ग्वाला) गांव से बस में आता है. लॉकडॉउन में नहीं आ सकेगा.‘’
‘’दूध के बिना कैसे होगा l?’’
‘’पीछेवाली गली में छोटी डेयरी है."
‘’कैसे मालूम?’’
‘’जिस दिन कामता नहीं आता डेयरी से लाती हूं.‘’
‘’कल ले आऊंगा."
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उपकार सुबह डेयरी गया. दीवानगी हुई बाइक युक्ता के घर की जानिब मोड़ ले, पर मुख्य पथ और चौराहों पर पुलिस की मौजूदगी होगी. डेयरीवाले युवक ने उपकार का अभिवादन किया, ‘’लोचना बहिनजी ने भेजा है?’’
‘’हां.‘’
‘’अभी उन्होंने मेरे मोबाइल फोन पर बताया आप आ रहे हैं. यहीं सामने सब्ज़ीवाला बैठता है. बहिनजी, सब्ज़ी लेने आती रहती हैं. उधर सांई कृपा स्टोर दिख रहा है. बहिनजी वहां से किराना लेती हैं. आप कहेंगे, तो मैं होम डिलीवरी करा दूंगा.‘’
‘’ज़रूरत होगी तो बताऊंगा.‘’
लोचना गृहस्थी का प्रबन्धन किस तरह करती है जैसे घरेलू मसलों पर उपकार विचार नहीं करता. आज लगा वह डेयरी की जानकारी न रखती, तो दो जून की चाय नसीब न हो पाती. लौटकर उपकार टीवी देखने लगा. कुछ देर युक्ता से बात की. लंच के बाद सो गया.
दिन की लंबी नींद के कारण रात में देर तक नींद नहीं आई. लोचना आमतौर पर दस बजे सो जाती है. पहले वह भी दस बजे बिस्तर पर आ जाता था. लोचना को दिनभर के मामले बताते हुए जान न पाता था कब सो गया. कहता, ‘’जानना चाहता हूं नींद आने के ठीक पहले का क्षण कैसा होता होगा. आज तक नहीं जान पाया."
लोचना कहती, ‘’बड़ी अजीब कल्पना है. इस क्षण को नहीं जाना जा सकता. न ही प्रमाणित किया जा सकता है ठीक पहला क्षण यह था.‘’
लोचना को जब से उपकार और युक्ता के मोह का संज्ञान हुआ घर के नियम टूटते चले गए.
उसने उपकार से स्पष्ट कहा, ‘’तुम मेरे और युक्ता दो स्त्रियों के सम्पर्क में हो. मैं किसी प्रकार का संक्रमण नहीं चाहती. यह मेरा बेड, वह तुम्हारा. आज से हम उल्लंघन नहीं करेंगे.‘’
उपकार समझ गया लोचना का संकेत एड्स की ओर है. लोचना के स्पष्ट व्यवहार पर वह उस तरह नहीं चौंका जिस तरह चौंकना चाहिए था. समझ रहा था सच अपनी ताक़त से सतह पर आ जाता है. दूसरे वह युक्ता को लेकर इतना सोचने लगा था कि कुछ और नहीं सोचता था.
"क्या कह रही हो?’’
‘’ऐसी बातें छिपी नहीं रहतीं. तुम ईमानदारी से मेरे बन कर नहीं रहना चाहते, तो दबाव बनाकर तुम्हें ख़ुद से जोड़कर नहीं रखना चाहती.‘’
‘’अरे, क्या कह रही हो?’’
‘’मेरा अच्छा जीवन स्तर तुम्हारे कारण है, इसलिए तुम्हारे स्वास्थ्य और स्वाद का ख़्याल रखूंगी.‘’
उपकार ने लोचना की प्रतिक्रिया को सामयिक उबाल माना था, जो उफान लेकर बैठ जाता है. लेकिन जोड़कर रखे गए पलंग में आज भी कबर्ड की ओर वाला पलंग लोचना, खिड़की की ओर वाला पलंग उपकार के नामजद है.
उपकार सुबह देर से उठा.
आकार से पूछने लगा, "दिनभर क्या करोगे?’’
‘’पढ़ाई. एनुअल एग्जाम्स क़रीब हैं. मॉं से बातें करुंगा. कहेंगी तो बगीचा सींच दूंगा.‘’
लोचना से पूछने लगा, ‘’लॉकडाउन कैसा लग रहा है?’’
‘’दिलचस्प. लम्बी फ़ुर्सत मिल गई है. तुम्हारे कॉलेज, बच्चों के स्कूल के कारण छह बजे उठना पड़ता है. अब कोई जल्दी नहीं."
चाहने लगा लोचना लॉकडाउन पर उसके विचार पूछे. कहेगा कि घर में फिट नहीं हो पा रहा हूं. पूरी तरह गतिहीन हो गया हूं… लोचना ने नहीं पूछा. अब वह उससे कुछ नहीं पूछती है. वह चाय का प्याला लेकर टीवी रूम में आ गया. युक्ता को कॉल किया, "क्या कर रही हो?’’
‘’दिनों बाद आज एक्सरसाइज़ की. सम्भ्व कहते हैं इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए एक्सरसाइज़ करो. तुम करते हो?’’
‘’कहीं मन नहीं लग रहा है. लॉकडाउन का अनुमान होता, तो एक दिन पहले शहर से बाहर जाने का बहाना कर तुम्हारे घर आ जाता. लॉकडाउन का फ़ायदा उठाता. लग रहा है मानसिक रोगी हो जाऊंगा."
‘’इसीलिए कहती हूं इम्यूनिटी बढ़ाओ."
लॉक डाउन का दूसरा सप्ताह…
उपकार यह करे कि क्या करे? टीवी और मोबाइल का अत्यधिक प्रयोग दिमाग़ पर असर डाल रहा है. असहायता और निराशा कनपटियों में सनसनाहट भर रही है. भयावह ख़बरें बता रही हैं दुनिया अंत की ओर जा रही है. नींद बाधित हो रही है. स्मृति मंद पड़ रही है. बीपी बढ़ या घट रहा है. एकाएक स्ट्रोक आ जाए, तो अचम्भा न होगा. उससे कोई बात करे. अनुकूल बात करे. युक्ता के साथ नित्य रात को वीडियो कॉलिंग करता है, पर वह तृप्ति नहीं मिलती, जो प्रत्यक्ष बात-मुलाक़ात से मिलती है. उसने युक्ता को कॉल किया, ‘’क्या कर रही हो?’’
‘’वह सब जिसे करने का ख़्याल अब तक न आया."
‘’समझा नहीं."
‘’छत पर गई. बगीचे में टहली. मेड के लगाए लौकी, कुम्हड़ें फल रहे हैं.
’’और क्या करती हो?’’
‘’दिनभर कॉल अटैण्ड करती हूं."
‘’किसके?’’
"सम्भव और वासवदत्ता के. वासवदत्ता इमोशनल हो रही है. मैं तुरंत कॉल रिसीव न करुं, तो घबरा जाती है. पॉसिबल होता, तो उसे अपने पास बुला लेती. सम्भव पूरे तीस मिनट मुझे यही समझाते रहे. चूंकि मैं अकेले रहती हूं. मुझे कितनी सावधानी से अपनी देखभाल करनी है. उपकार आज खाना बनाने की इच्छा नहीं हो रही है. सम्भव और वासवदत्ता ने पता नहीं क्या खाया होगा. फूड सेंटर बंद हैं. सम्भव कठिन ड्यूटी कर रहे हैं. न खाने का तय वक़्त न घर लौटने का.‘’
सम्भव का ज़िक्र उपकार को अनोखा लगा, लेकिन बोला, ‘’अकेलेपन से घबरा न जाना. मैं तुम्हारे साथ हूं.‘’
’’तुम्हारे लिए यह अच्छा है कि तुम परिवार के बीच हो. मुझे इस तरह अकेलापन पहले कभी नहीं लगा.‘’
युक्ता से बात कर उपकार की अधीरता बढ़ गई. लगा युक्ता की सोच में उसका परिवार आ गया है. वह अपदस्थ कर दिया गया है. आंखें मूंदकर दो तकियों पर सिर टिका लिया. लोचना तुलसी, अदरक, काली मिर्च, हल्दी और दालचीनी मिलाकर काढ़ा बना लाई.
‘’कहते हैं, वायरस से लड़ना है, तो इम्यूनिटी स्ट्रांग रखो. भारतीय मसाले स्वाद और स्वास्थ दोनों के लिए अच्छे हैं."
उपकार को लगा जीवन के सारे भाव वाष्प बन कर उड़ जाएंगे. बस एक शब्द बचेगा- इम्यूनिटी. उसकी निराशा और निष्क्रियता को कोई नहीं समझेगा. वह किस दुख और दीनता से गुज़र रहा है जानने की किसी को फ़ुर्सत नहीं है. लोचना को देख लो. उसे प्याला पकड़ाकर चली गई. जी चाहा उसे रोके मुझसे दो बात करो. तर्क दो.. कारण बताओ.. बोलो… लोचना को रोकने का उपक्रम नहीं कर सका. अरसा हुआ इसका सुख-दुख नहीं पूछा. साथ बैठकर चाय नहीं पी. युक्ता को लेकर इतना सोचने लगा है कि और कुछ सोचता नहीं है. लोचना साथ में चाय पीती थी. बात करती थी. इसे लगता व्यतिक्रम डाल रही है. उसे उपेक्षित करने के लिए यह अख़बार पढ़ने लगता था. इधर-उधर कॉल करने लगता. जैसे इस शहर की गति-प्रगति का सम्पूर्ण भार इस पर है. लोचना ने संकेत समझ लिया. साथ बैठना छोड़ दिया. बात करना छोड़ दिया. बहुत कुछ छोड़ दिया. उधर युक्ता एकाएक सम्भव और वासवदत्ता की जुदाई में दुबलाने लगी है. छत और बगीचे में जीवन जीने के तरीक़े ढूंढ़ रही है.
शाम को वह बगीचे में आया. देखा, आकार क्रिकेट बॉल को दीवार पर मारकर वापस आती बॉल को पकड़ कर कैच लेने का अभ्यास कर रहा है. दिन हुए जब वह आकार और साकार के साथ क्रिकेट खेलता था. बॉल पकड़ रहे आकार से बोला, ‘’क्रिकेट खेलें?’’
आकार ने अरूचि प्रदर्शित की, ‘’दो लोगों में क्रिकेट नहीं होगा पापा. कैच पकड़ कर एक्सरसाइज़ कर रहा हूं.‘’
उसने गुड़हल के पौधे की गुड़ाई कर रही लोचना के सम्मुख संधि प्रस्ताव रखा, ‘’मदद करूं?’’
‘’कर लूंगी. अखबार में पढ़ा वाहन न चलने से वायु प्रदूषण कम हो गया है. हमारे बगीचे में तो ऑक्सीजन का स्तर हमेशा सही रहता है.‘’
‘’मैं फेस मास्क लगा कर जब डेयरी जाता हूँ, लगता है ऑक्सीजन से नाता टूट गया है. यह बगीचा नियामत है.‘’
लोचना अपने काम में व्यस्त रही. उपकार लॉन में लगे चौड़े पटरेवाले झूले में बैठ गया. चारों ओर दृष्टिपात किया. छतों में चढ़े लड़के पतंग उड़ा रहे हैं. लगा कब से पतंग नहीं देखी. गगन में अस्ताचलगामी भास्कर की लालिमा फैली है. कब से सूर्यास्त नहीं देखा. चारों तरफ़ उड़ रहे तितलियों, काले भंवरों, मधुमक्खियों, ड्रैगन फ्लाई को कब से नहीं देखा. गिरगिट, गिलहरी को दौड़ते नहीं देखा. आज मालूम हुआ यहां इतने जीव बसते हैं. तुलसी, पुदीना, करीपत्ता, एलोवीरा, गिलोय कितना कुछ लगा है. बगीचे की सफ़ाई और तरतीब के लिए लोचना को वाहवाही मिलनी चाहिए, पर वह कार स्टार्ट कर सर्र से कॉलेज चला जाता है. अपने आस-पास की वास्तविकताओं को देखने का ख़्याल नहीं आता. ख़्याल नहीं आता प्रकृति के सानिध्य में थोड़ा वक्त बिताना चाहिए.
लोचना को रात का खाना बनाना है. भीतर जाते हुए उससे बोली, "अंधेरा होने से पहले भीतर आ जाना. घास में जीव-जंतु होते हैं. दो महीने पहले लम्बा सांप निकला था."
सांप का मिलना नियमित या मामूली बात नहीं है, लेकिन लोचना ने पहले नहीं बताया. क्या मालूम क्या-क्या नहीं बताती. शायद कुछ भी नहीं बताती. एक समय था यह उसकी प्रत्येक बात को ध्यान से सुनती थी. अपनी बात न सुने जाने पर मुठभेड़ करती थी, "अपना ताज कॉलेज में छोड़ आया करो. यह घर है."
वह झूले से उठ गया, ‘’अंदर चलता हूं. मच्छर हैं."
उपकार को देर तक नींद नहीं आई. सुबह युक्ता को तीन बार कॉल किया. उसने रिसीव नहीं किया. देर बाद कॉल बैक किया. उपकार का मस्तक गरमा गया,
‘’क्या कर रही थी?’’
‘’छत पर थी. सम्भव कहते हैं इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए बीस-तीस मिनट सुबह की धूप में रहो. फिर यूवी किरणें बढ़ने लगती है.‘’
‘’इम्यूनिटी के अलावा कोई बात नहीं करोगी?’’
‘’यदि स्वस्थ रहूंगी, तब कोई बात करूंगी. इस समय हमें हेल्थ की केयर ऐसेट की तरह करनी होगी. तुम सुबह की धूप में आधा घंटे रहा करो.‘’
दूसरे दिन सुबह वह छत पर गया. कब से छत पर नहीं आया. कब से कहां-कहां नहीं गया. कब से आकार के कमरे में नहीं गया. कभी-कभी चारों सदस्य एक साथ छत पर आते थे. वह दरी में लेट जाता. आकार, साकार ताश खेलते. लोचना, अपनी छतों पर मौजूद पड़ोसिनों का योग क्षेम पूछकर मुहल्लादारी सम्पन्न करती. उपकार घूम-घूमकर छत को देखने लगा. कोने में पीपल का पौधा पनप गया था. पीपल प्रतिकूल परिस्थितियों में भी दीवार, दरार कहीं भी प्रस्फुटित हो जाता है. उसने पौधे को उखाड़ दिया. छत से उतर कर लोचना को सूचित किया, ‘’छत पर पीपल था. उखाड़ दिया.‘’
‘’मैं दो-चार पौधे उखाड़ चुकी हूं. इसके बीज पता नहीं कहां, कैसे पहुंच जाते हैं."
उपकार का ध्यान आकार की ओर गया, ‘’आकार, तुम्हारा हेयर कट किसने किया?’’
‘’मां ने. कहती हैं साल-छह महीने सलून न जाना.‘’
दक्षता से किया गया केश कर्तन. परिस्थिति के अनुसार, यह कितना कुछ कर लेती है.
‘’लॉकडाउन में बालों की समस्या का क्या करें? जानता तो लॉकडाउन के पहले हेयर कट करा लेता."
लोचना ने अधिकार से नहीं कहा मैं कर दूंगी. वह अधिकार से नहीं कह सका कर दो, वरना कुछ दिनों में साधू बाबा लगूंगा.
लॉक डाउन का तीसरा सप्ताह…
बाहर जा नहीं सकता. घर में रहना नहीं चहता. उपकार यह करे कि क्या करे ? युक्ता को कॉल किया,
‘’अवसाद में चला जाऊंगा. अकेलापन मुझे विचित्र बना रहा है. मानसिकता स्थिर नहीं है.‘’
युक्ता ने लोकतांत्रिक व्यवहार किया, ‘’हैव पेशेन्स. अकेलापन हमारे जीवन का न्यू नॉर्मल बनता जा रहा है.‘’
’’सम्भव ने कहा या वासवदत्ता ने?’’
‘’मेरा विचार है प्रकृति नाराज़ चल रही है. एक ओर कोरोना ने भयभीत कर रखा है, दूसरी ओर कभी दिल्ली में भूकम्प आ रहा है, कभी गाजियाबाद में. हमारे प्रदेश में अप्रैल माह में बिन मौसम बरसात हो रही है. टिड्डी दल फसल चौपट कर रहे हैं.‘’
यह तो तितली की तरह फड़फड़ा कर, लहरों की तरह मचल कर, नदी की तरह बह कर, बादल की तरह बरस कर प्रस्तुत होती थी. अब लोकतंत्र को मज़बूत कर रही है.
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‘’कोरोना, लॉकडाउन, इम्यूनिटी.. कुछ भली बात करो.‘’
‘’कोरोना ने मेरा नज़रिया बदल दिया है. लोग दर्द में हैं. वासवदत्ता ऐसी भावुक बातें करने लगी है. समझती हूं उसे मेरी ज़रूरत है, पर उसका यहां आना मुश्किल है. सम्भव कठिन ड्यूटी कर रहे हैं. हाई रिस्क पर हैं, लेकिन उन्हें अपनी नहीं मेरी फ़िक्र है. मौक़ा मिलते ही कॉल करते हैं. वीडियो भेजते हैं. एक वीडियो में पुलिसवाले बंद घरों के चबूतरों पर बैठकर घर से लाया खाना खा रहे हैं. ये लोग न चैन से खा पाते हैं, न सो पाते. रात में सोती हूं, तो धड़कन बढ़ी रहती है. क्या पता कब कहां से कैसी बुरी ख़बर आए. डॉक्टर्स को, पुलिस को कोरोना हो रहा है. ये बेचारे उन जगहों पर सेवा दे रहे हैं, जहां जाते हुए लोग डरते हैं.‘’
उपकार व्यग्र हो गया.यह साफ़तौर पर उसके भावों की हत्या कर रही है
‘’तुम्हारा नज़रिया कितना बदल गया है युक्ता.‘’
‘’नन्हें वायरस ने बदल दिया है. हमारी ज़रूरतें कम हैं. इतना तामझाम पता नहीं क्यों जोड़ते हैं? जो अपने हिस्से में आया है, उस पर संतोष करो. जो दूसरे के हिस्से का है उसकी कामना न करो.‘’
दूसरे के हिस्से का मतलब? वह लोचना के हिस्से का है, जिसकी कामना यह त्याग रही है?
‘’अचानक रिश्ते याद आने लगे?’’
‘’मैं भूल रही थी रिश्ते कितने ज़रूरी होते हैं. तुम्हारी तरह मुझे भी लगने लगा था घर में नज़रबंद कर दी गई हूं. सम्भव ने समझाया जिस स्थिति को टाला न जा सके, उस स्थिति का सामना सकारात्मक भाव से करना चाहिए. यदि हम समय को बिताने के भाव से नहीं जीने के भाव से देखें, तो कठिन समय उतना कठिन नहीं लगेगा, जितना वह है. इस दौरान मैंने सम्भव से बहुत सीखा. कठिन ड्यूटी, हाई रिस्क इसके बावजूद उन्होंने मुझे व वासवदत्ता को मानसिक सम्बल दिया. उनका व्यवहार हमेशा अच्छा और स्पष्ट होता है. शायद इसलिए घर और बाहर अपना कर्तव्य आसानी से करते हैं.‘’
एकदम बदले हुये नज़रिए में युक्ता.
एकदम बदले हुए नतीजे में उपकार.
यह करे कि क्या करे? अंतरिक्ष में प्रसन्न उड़ रहा था धरातल पर आ गिरा. प्राणप्यारी की सूरत देखने को व्यग्र है, पर वह समझा रही है कोरोना काल को सकारात्मक भाव से लो. वह चार दिन इससे दूर क्या रहा, सम्भव को लेकर तरल हुई जा रही है. जान पड़ता है सम्भव इसके लिए हमेशा प्रथम रहा है. वह द्वितीय है. दिल बहलाने का सामान.. खानापूर्ति को भरनेवाला.. सटीक शब्द, उफ़! लोचना अभिशाप नहीं है. युक्ता करिश्मा नहीं है. पता न चला समीपता कैसे बनती गई. जैसे एक इन्द्रजाल था, जो लपेटे में ले रहा था. वह देर बाद टीवी रूम से निकला और आंगन में आ गया. देखा आकार अपनी जूठी थाली, कटोरी, चम्मच धो रहा है, ‘’मां, तुम्हारा काम हल्का कर रहा हूं."
लोचना ने वाहवाही दी, ‘’गुड."
"लॉकडाउन ने मुझे विचार दिया बेटों को बेटियों की तरह घरेलू काम सिखाने चाहिए कि वे संकट काल में अपने लिए कुछ पका सकें, अपने कपड़े धो सकें. मेस, होटल बंद हैं. साकार परेशान है. दिन में दो-तीन बार मुझे कॉल करता है. लॉक डाउन ख़त्म होते ही कुछ दिन के लिए उसे बुलाऊंगी."
उपकार ने दो-चार बार साकार को कॉल किया है, पर न उसने अपनी अड़चन बताई, न इसने पूछी. इससे अब कोई कुछ नहीं बताता. एकाएक कहने लगा, ‘’सचमुच! साकार क्या खाता होगा? भूख कैसे सहन करता होगा? लॉकडाउन में शिरकत बंद है, पर मुझे भूख लगती है. बल्कि करने को कुछ नहीं है, इसलिए ध्यान बार-बार खाने की ओर जाता है.‘’
लोचना आंगन से रसोई की ओर जाने लगी,
‘’खाना खा लो. थाली लगा देती हूं.‘’
’’तुम्हारा काम बढ़ गया है. आज से अपने बर्तन, कपड़े धो लूंगा.‘’
’’परेशान हो जाओगे. कर लूंगी."
’’खाली बैठा हूं. समय नहीं बीतता.‘’
’’मेरे पास एक ऐतिहासिक उपन्यास है. पढ़ना चाहो, तो पढ़ लेना.‘’
‘’कहां से मिला?’’
‘’आकार स्कूल लाइब्रेरी से किताबें ला देता है. पढ़कर लौटा देती हूं."
‘’कॉलेज की लाइब्रेरी में बहुत पुस्तके हैं. ले आया करूंगा.‘’
‘’परेशान न होना. आकार ले आता है. खाना खा लो.‘’
’’तुम?’’
‘’काम समेट कर खाऊंगी.‘’
उपकार थाली लेकर टीवी रूम में आ गया. जैसे एक यही शरण बची है. टीवी देखने की इच्छा नहीं है. खाने की इच्छा नहीं है. मन पर बोझ है. एक वक़्त था, जब घर में हुक्मदार बनकर रहता था. अब अवांछित हो गया है. घर में उपस्थित रह कर भी अनुपस्थित-सा रहता है. घर से भागता है. जैसे न गृहस्थी उसकी है, न परिवार उसका है. आकार और लोचना नहीं पूछते आने में देर कैसे हो गई? छोटी-बड़ी किसी बात के लिए उससे नहीं पूछा जाता. लोचना उससे अनुमति या सलाह नहीं लेती. फ़ैसले की सूचना देती है. इसी ठंड में पैकिंग के बाद बताया था आकार के साथ भतीजे के मुंडन में तीन दिन के लिए जा रही है. आकार उससे प्रयोजन नहीं रखता. लोचना ने दूरी बना ली है. साकार दुख-दर्द लोचना को बताता है. इस घर में उसका हक़ ख़त्म किया जा रहा है, बल्कि उसने ख़त्म हो जाने दिया है. उधर प्राणप्यारी सब ख़त्म कर रही है. आगे से पतिव्रता बन कर रहेगी. क्यों? क्योंकि लॉकडाउन ने सिखा दिया है कि व्यवहार अच्छा और स्पष्ट हो, तो कर्तव्य करने में आसानी होती है. लॉकडाउन ने सिखा दिया है, जब हम सच बोलते हैं, बेहतर होते हैं. लॉकडाउन ने और क्या सिखाया? मालूम नहीं. कुछ प्रश्न होते हैं, जिनके जवाब पूरी तरह नहीं मिलते.
लॉक डाउन का आखिरी दिन…
स्थिति स्पष्ट करना होगी. उसने युक्ता को कॉल किया.
‘’नज़रबंदी किसी तरह बीत गई. कॉलेज खुलें, तो बातें-मुलाकातें हों."
युक्ता का स्वर स्थिर है, ‘’सम्भव कहते हैं लॉकडाउन का एक फेज और होना चाहिए."
‘’पागल हो जाऊंगा.‘’
‘’कोरोना को ख़त्म करने के लिए ज़रूरी है.‘’
उपकार ने अधिक बात नहीं की. इच्छा नहीं हुई. मन पर बोझ है.वह बात-मुलाक़ात चाहता है. यह लॉकडाउन का एक फेज और चाहती है, क्योंकि सम्भव ने कहा है. अब यह वही चाहेगी, जो सम्भव कहेगा.
उपकार के सामने एक बड़ा शून्य है.
लगा रात में नींद नहीं आएगी, पर चमत्कार की तरह गहरी नींद आई.
लॉकडाउन इक्कीस दिन के लिए बढ़ा दिया गया.
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