बॉस को जब भी मौक़ा मिलता वह किसी न किसी बहाने से अवि को अपने केबिन में बुला लेते. थोड़ी देर ऑफिस की बात करने के बाद वे उसकी व्यक्तिगत ज़िंदगी में झांकने की कोशिश करने लगते.
अवि की उदासीनता को विवेक पचा नहीं पा रहे थे. वे चाहते अवि उससे ख़ूब बातें करें. बरसों पुरानी, जो कसक उसके दिल में रह गई थी वे उसे अब पूरा करना चाहते थे. अवि इसके लिए कोई अवसर ही नहीं दे रही थी.
"अवि तुम्हें पता है कल ऑफिस में नए बॉस आ रहे हैं."
"यही बात तुम मुझे सुबह से चार बार बता चुकी हो सृजा."
"फिर भी तुमने एक बार भी मेरी बात पर कोई उत्सुकता नहीं दिखाई. कल उनका ऑफिस में पहले दिन है .जरा ढंग से बन संवरकर आना. पहला इंप्रेशन आख़िरी इंप्रेशन होता है ."
उसकी बात सुन अवि चुप रही. उसे पता था कि वह पलटकर कुछ नहीं बोलेगी, फिर भी अपनी बात कहकर सृजा ने मन हल्का कर लिया.
"तुम इतनी सुंदर हो. अपने आपको संवार कर क्यों नहीं रखती हो?"
"तुम सब जानती हो, फिर भी ऐसी बात पूछ रही हो?"
"समय के साथ सब कुछ ख़त्म नहीं हो जाता अवि. जो पीछे रह जाते हैं, उन्हें तो दुनिया से कदम मिलाकर चलने के लिए अपने आपको बदलना ही पड़ता है."
"बस, अब चुप हो जा. ज़्यादा उपदेश मत दे." अवि बोली, तो वे दोनों मुस्कुरा उठी. सृजा और अवि में आपसी समझ बहुत अच्छी थी. सृजा अपने आपको ज़माने के अनुसार अपडेट रखती. अवि को इससे कोई मतलब न था. पिछले पांच साल से वह इस ऑफिस में काम कर रही थी, लेकिन आज भी यहां के माहौल में अपने को ढाल ना सकी. उसे दुनियादारी से कुछ लेना-देना न था. ऑफिसवाले उसके व्यवहार को लेकर टीका-टिप्पणी करते रहते. वह पलटकर कभी जवाब न देती.
शाम को ऑफिस ख़त्म होने के बाद वह घर आई. उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसके रहन-सहन के तरीक़े से नए बॉस के आने का क्या लेना-देना है? वह जैसी है ठीक है. अपना काम तो बड़ी लगन से करती है. और सच पूछा जाए, तो वह अब श्रृंगार करे भी तो किसके लिए? उसके पति विशाल को गए हुए पूरे छह साल हो गए थे. उनके जाते ही उसकी ज़िंदगी एकदम से बदरंग हो गई. उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि विशाल उसे इतनी जल्दी छोड़कर चले जाएंगे. कितना प्यार करते थे वे उससे. उसकी हालत देखकर उस वक़्त सृजा ने ही उसे सुझाव दिया था.
"अवि, तुम ऑफिस में नौकरी के लिए प्रार्थना पत्र दे दो. हो सकता है बॉस तुम पर रहम कर विशाल की जगह नौकरी पर रख ले. कब तक उसकी याद में ऐसे ही आंखें भिगोती रहोगी."
उसकी बात अवि को ठीक लगी थी और उसने नौकरी के लिए प्रार्थना पत्र दे दिया था. विशाल एक बहुत ही कर्मठ और ईमानदार इंसान थे. ऑफिस में किसी को उनसे शिकायत न थी. उसके पति की सब इज्ज़त करते थे. उसकी वफ़ादारी को देखते हुए बॉस ने अवि को नौकरी दे दी. वह अपने काम से काम रखती. बाकी ऑफिस में क्या हो रहा है यह सारी ख़बरें सृजा ही उसे लाकर देती थी.
उसका बेटा पावस पंद्रह बरस का हो गया था. विशाल अपने पीछे इतना पैसा छोड़ गए थे कि बेटे की परवरिश ठीक से हो सके. उसके सपने को पूरा करने के लिए उसने बेटे को एक अच्छे हॉस्टल में भेज दिया था.
विशाल के जाने के इतने बरस बाद आज उसने अपने आपको दर्पण में बड़े गौर से देखा था. चेहरे पर थोड़ी प्रौढ़ता आ गई थी और बालों में भी हल्की-सी सफ़ेदी, जिसे उसने ढंकने का प्रयास कभी नहीं किया. सृजा के इतना कहने पर उसने विशाल की पसंद की गुलाबी साड़ी बरसों बाद पहनी थी. बालों पर मेंहदी लगाकर उन्हें करीने से बांध लिया था और चेहरे पर हल्का मेकअप कर ऑफिस आ गई. उस पर नज़र पड़ते ही सृजा बोली, "आज बहुत सुंदर लग रही हो." अवि ने उसकी बात सुनकर कुछ नहीं कहा, बस हल्के से मुस्कुरा दी. आज सभी कर्मचारी वक़्त से पहले ऑफिस पहुंच गए थे.
ठीक दस बजे बॉस ऑफिस में आए. सृजा ने आते ही उन्हें फूलों का बुके थमा दिया. सबसे पीछे अवि खड़ी थी. सृजा ने उसका परिचय कराया, तो बदले में एक हल्की-सी मुस्कान के साथ उसने हाथ जोड़ दिए. उसके चेहरे पर नज़र पड़ते ही बॉस विवेक चौंक गए और बोले, "आप यहां?"
अवि ने दिमाग़ पर ज़ोर डाला, तो उसे लगा कि शायद उसने उन्हें पहले कभी देखा है. अवि से कोई उत्तर न पाकर विवेक अपने केबिन की ओर बढ़ गए. औपचारिकताएं समाप्त होने के बाद उन्होंने चपरासी को भेजकर अवि को अपने रूम में बुला लिया.
"मे आई कम इन." कहकर वह कमरे में आ गई.
"आपको यहां देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है मिसेज़ विशाल. आपको याद है मैं भी उसी कॉलोनी में रहता था, जिसमें आप रहते थे. आपके ठीक सामनेवाला घर मेरा था."
अवि ने दिमाग़ पर ज़ोर डाला, तो उसे याद आ गया.
"तब मै आपका नाम तक नहीं जानती थी."
"मैं और विशाल इसी ऑफिस में काम करते थे. विशाल ने कभी आपसे परिचय नहीं कराया. आपको यहां देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है."
"एक रोड एक्सीडेंट में छह साल पहले विशाल हमें छोड़कर चले गए. ऑफिसवालों के अनुरोध पर मुझे यहां नौकरी मिल गई. आपको बॉस की कुर्सी पर देखकर अच्छा लगा."
"इसका मतलब अब आप अकेली रहती हैं."
"परिस्थितियों के आगे किसका बस चला है. मैं जा सकती हूं सर?" अवि ने पूछा, तो विवेक ने उसे जाने की इजाज़त दी. वह उसे देखते ही भूल गए थे आज उनका ऑफिस में पहला दिन है और उन्हें कुछ ज़रूरी मीटिंग लेनी है. अवि अपने केबिन में आ गई. सृजा ने पूछा, "तुम इन्हें जानती हो."
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"वर्षों पहले ये हमारे फ्लैट के ठीक सामने रहते थे."
"यह तो तुम्हारे लिए ख़ुशख़बरी है." सृजा बोली, तो अवि ने पलटकर कोई उत्तर नहीं दिया. पूरा दिन नए बाॅस के आने की गहमागहमी में निकल गया. शाम को घर आकर अवि विवेक के बारे में याद करने लगी. तब कितने दुबले-पतले और शर्मीले हुआ करते थे विवेक.
शायद उसे वह अच्छी लगती थी, इसीलिए जब भी मौक़ा मिलता बालकनी में खड़े होकर उन्हीं के घर की तरफ़ देखा करते. कभी अवि से उसकी नज़र टकरा जाती, तो वह अपनी नज़रें झुका कर झट से कमरे मे घुस जाती.
मीटिंग निपटाने के बाद विवेक घर आए. उनके सामने जवान अवि का ख़ूबसूरत चेहरा घूमने लगा.
'कितनी सुंदर और मासूम थी अवि. उसे भी अवि जैसी पत्नी की चाह थी. उसने विशाल से दोस्ती बढ़ाने की कोशिश भी की थी, लेकिन विशाल ने उसमें कोई रूचि नहीं ली. अवि की सुंदरता ने उस पर ऐसा जादू किया था कि वह विशाल के ऑफिस जाते समय सारे काम छोड़कर उसकी एक झलक देखने बालकनी में आ जाता.
अवि इस बात से अनजान न थी. पड़ोस में रहते राह चलते कभी अवि से उसकी आंखें चार हो जाती, तो अवि हल्की-सी मुस्कान देकर आगे बढ़ जाती. अवि ने कभी उससे बात करने की कोशिश नहीं की.
यहां से ट्रांसफर होने के बाद विवेक बैंगलुरू चले गए. काम के प्रति समर्पण की बदौलत वे लगातार तरक़्क़ी की सीढ़ियां चढ़ रहे थे. कुछ समय बाद साथ काम करनेवाली निकिता से उनकी अच्छी पहचान हो गई. पहचान प्यार में बदली और फिर वे हमेशा के लिए एक दूजे के हो गए.
विवेक अपनी शादीशुदा ज़िंदगी से ख़ुश थे. पति-पत्नी नौकरी करते हुए अपनी ज़िंदगी बड़ी सुकून से गुज़ार रहे थे. आज अचानक ऑफिस में अवि को देखकर विवेक पुरानी यादों में खो गए और उनके सामने मासूम दुबली-पतली, सुंदर-सी अवि का चेहरा साकार हो गया. उसके बर्ताव में उसे ज़्यादा अंतर महसूस नहीं हुआ. नौकरी करने से उसके व्यवहार में खुलापन आ जाता, तो वह उससे भी ज़रूर कुछ पूछती. पुराने परिचय पर ख़ुशी का इज़हार करती. लेकिन उसने उसके बारे में कुछ भी नहीं पूछा और न ही अपनी पहचान को आगे बढ़ाने की कोशिश की.
एक हफ्ते में सब कुछ सामान्य हो गया था. आते जाते जब उनकी नजरें टकरा जाती तो अवि बड़ी शालीनता से कुर्सी से खड़े हो हाथ जोड़ देती.विवेक कभी-कभी अवि को अपने कमरे में बुला लेते.
एक दिन मौक़ा पाकर वे बोले, "तुम यहां अकेली रहती हो. डर नहीं लगता?"
"अब तो आदत हो गई है. शुरू में अजीब-सा लगता था. वक़्त सब कुछ सिखा देता है. मैंने भी वक़्त के साथ समझौता कर लिया है."
"अपनी ओर से तुम कुछ नहीं कहोगी?" विवेक ने पूछा तो अवि अचकचा गई.
"आपका परिवार यही रहता होगा."
"मेरी पत्नी निकिता इसी ऑफिस की रिंग रोड ब्रांच में जॉब करती है. मेरे दो बच्चे हैं, जो शहर के नामी स्कूल में पढ़ते हैं."
"कभी मौक़ा लगे, तो मैडम से ज़रूर मिला दीजिएगा." इससे आगे अवि ने कुछ भी पूछना ठीक नहीं समझा और चुपचाप आकर काम में व्यस्त हो गई. सृजा ने उसको छेड़ने के लिए पूछा, "यार तुझे बॉस अक्सर अपने केबिन में बुला लेते हैं."
"मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता कि कोई मुझे अनावश्यक बुलाए."
"तुम कितनी बेवकूफ़ हो. लोग तो ऐसे संबंधों के लिए तरसते हैं और तुम इसे नकार रही हो."
"मुझे किसी से बेवजह मिलना-जुलना ज़रा भी अच्छा नहीं लगता. मुझे अपना काम ज़्यादा पसंद है." अवि बोली और फिर से अपने काम में व्यस्त हो गई.
बॉस को जब भी मौक़ा मिलता वह किसी न किसी बहाने से अवि को अपने केबिन में बुला लेते. थोड़ी देर ऑफिस की बात करने के बाद वे उसकी व्यक्तिगत ज़िंदगी में झांकने की कोशिश करने लगते.
अवि की उदासीनता को विवेक पचा नहीं पा रहे थे. वे चाहते अवि उससे ख़ूब बातें करें. बरसों पुरानी, जो कसक उसके दिल में रह गई थी वे उसे अब पूरा करना चाहते थे. अवि इसके लिए कोई अवसर ही नहीं दे रही थी.
एक दिन विवेक बोले, "अवि तुम मुझे बहुत पहले से जानती हो. मुझे यहां आए काफ़ी अरसा हो गया. ऑफिस में तो औपचारिक बातें होती हैं. एक दिन मैं तुम्हारे घर आकर तुमसे खुलकर पुरानी बातों को याद करना चाहता हूं."
उनकी बात पर अवि बोली, "मैं भी आपको और निकिताजी को घर पर बुलाने की सोच रही थी."
"तुम तो जानती हो उसे कितना काम रहता है. शाम को बच्चों को भी समय देना होता है. हां, मैं ज़रूर तुम्हारे हाथ की एक कप चाय पीने आना चाहता हूं. बरसों से दिल में इसकी तमन्ना थी."
"जी सर."
"तो फिर शनिवार का दिन पक्का रहा. मैं शाम आठ बजे आपसे मिलने आऊंगा." इतना कहकर विवेक ने एक मुस्कान बिखेरकर बात ख़त्म कर दी.
अवि को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें? वह विवेक से जितना दूर जाने की कोशिश करती, वह किसी न किसी बहाने उसके नज़दीक आने का प्रयास करते. आज तक उसने किसी सहकर्मी को अपने घर नहीं बुलाया था. उसे किसी पराए मर्द का घर आना ज़रा भी पसंद न था. आज बॉस के आग्रह को वह टाल न सकी. अंदर ही अंदर वह बहुत परेशान थी.
शनिवार का दिन आ गया. शाम को ठीक आठ बजे घर की डोरबेल बजी. अवि ने दरवाज़ा खोला, तो ताज़े सुर्ख गुलाबों का बुके लिए विवेक खड़े थे. अवि ने हल्के नीले रंग की साड़ी पहनी हुई थी. उसमें वह बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी. उसने बड़ी गर्मजोशी से मुस्कुराकर उनका स्वागत किया. विवेक ने अवि को बुके थमाते हुए एक हल्की-सी मुस्कान उस पर डाली और इत्मिनान से सोफे पर बैठ गए.
"बहुत दिनों से दिल में तमन्ना थी कि तुमसे खुलकर बातें करूं. ऑफिस में तो ये सब बातें हो नहीं सकती."
"आपने ठीक कहा. आप क्या लेंगे चाय या कॉफी?"
"जो तुम्हें पसंद हो वही ले लूंगा." प्यारभरी नज़र अवि पर डालते हुए विवेक बोले.
"मैं अभी लेकर आती हूं."
"घर पर कोई मदद करनेवाला नहीं है."
"अकेली रहती हूं, इसीलिए बेवजह किसी का घर पर आना मुझे पसंद नहीं है. एक आया काम करती है, वह भी अपना काम निपटाकर चली गई." अवि बोली, तो विवेक ने राहत की सांस ली. वे बड़े सहज होकर चाय और अवि का इंतज़ार कर रहे थे.
कुछ ही देर में पैरों की आहट सुनकर विवेक ने पलट कर देखा. सामने चाय की ट्रे लेकर निकिता आ रही थी. विवेक को तो जैसे सांप सूंघ गया. उन्हें लगा किसी ने उनकी चोरी पकड़ ली हो.
"निकिता तुम यहां?"
"हां अवि, ने बहुत ज़ोर दिया था कि आज शाम मैं यहां आऊं. मैं उसके आग्रह को टाल न सकी."
"तुम अवि को कब से जानती हो?"
"पिछले कुछ दिनों से. अवि ने बताया था वर्षों पहले विशाल और तुम एक ही आफिस में काम करते थे और आज शाम आप यहां आनेवाले हैं."
"मुझे पहले बता देती तो हम साथ ही आ जाते ."
"अवि ने ऐसा करने से मना किया था. वह आपको सरप्राइज़ देना चाहती थी. उसने आपसे अनुरोध किया था कि पत्नी को साथ लेकर आइएगा. आपने उसे मना कर दिया था."
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वे तीनों बैठकर बड़ी देर तक बातें करते रहे. अवि ने खाना बाहर से ऑर्डर कर दिया था. सब ने साथ बैठकर खाना खाया. देर रात गए वे घर लौटे.
दूसरे दिन ऑफिस आते ही विवेक ने सबसे पहले अवि को अपने केबिन में बुलाया. वह सिर झुकाए खड़ी थी. वह जानती थी आज उसे बॉस से बहुत खरी-खोटी सुननी पड़ेगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.
वे बोले, "सॉरी अवि. मुझे माफ़ कर दो."
"किस बात के लिए? ग़लती तो मैंने की थी."
"तुमने कल मुझे फिसलने से बचा लिया. यह बात सच है शादी से पहले तुम मुझे बहुत अच्छी लगती थी. मैं तुम्हें छुप-छुपकर देखा करता था. यहां आकर जब पता चला कि तुम इसी ऑफिस में काम करती हो, तो मेरी वह दबी इच्छा फिर से सिर उठाने लगी. मैं तुमसे एकांत में मिलकर बहुत कुछ कहना चाहता था."
"मेरा अनुमान सही निकला. मैं नहीं चाहती थी कि मेरे कारण किसी की गृहस्थी में बेवजह तनाव हो और मैं अपनी ही नज़रों में गिर जाऊं. आज तक मेरे घर में कभी कोई गैर मर्द नहीं आया. आप मेरे बॉस हैं, तभी मैं आपको आने से मना न कर सकी. आख़िर में मुझे यह रास्ता ठीक लगा."
"सच में तुम्हारी तरह तुम्हारे विचार भी बहुत ऊंचे हैं."
"एक अनुरोध है."
"कहिए."
"आप इस बात का ज़िक्र किसी से न कीजिएगा और इसे यहीं ख़त्म कर दीजिएगा. आपके मेरे बीच में एक ही रिश्ता होना चाहिए. आप मेरे बॉस हैं और मैं आपके ऑफिस की एक साधारण कर्मचारी."
इतना कहकर अवि कमरे से बाहर निकल गई. मन का बोझ उतर जाने से उसने राहत की सांस ली.
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