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कहानी- एक पल (Short Story- Ek Pal)

अपने रूप के घमंड में डूबी वहां बैठी हर औरत दीपा को ऐसे देख रही थी जैसे वह कोई अजूबा हो. और दीपा! उसे तो उसके बेटे ने इस समय इतनी ऊंचाई पर उठा दिया था कि सारा जीवन अपमान में झुलसते हुए वह एक पल जैसे मान-सम्मान और ख़ुशियों का झोंका बन गया. उसका सांवला चेहरा कुंदन की तरह दमक उठा था.

दीपा को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उसे ख़ुश होना चाहिए या दुखी, स्तब्ध-सी बैठी थी वह. थोड़ी देर पहले ही उसकी मम्मी कामिनी उसे यह ख़ुशख़बरी सुनाकर गई थीं कि राधिका देवी ने उसे अपने बड़े बेटे सुनील के लिए पसंद किया है. राधिका देवी बनारस के एक समृद्ध परिवार की मुखिया थीं, जो अपने दोनों बेटों सुनील और अनिल के साथ एक बड़ी-सी कोठी में रहती थीं. राधिका देवी ने कुछ ही दिन पहले दीपा को अपनी सहेली चंद्रिका की बेटी तनु के साथ देखा था और सांवली, साधारण रूप-रंग वाली, धीर-गंभीर, अल्पभाषी दीपा को अच्छी तरह से जान-परख लिया था और तनु से भी अच्छी तरह पूछताछ कर दीपा के घर आ गई थीं.
दीपा के पिता तो थे नहीं, न कोई भाई-बहन थे, इतने बड़े घर-परिवार की मालकिन, कामिनी जैसी प्राइमरी स्कूल की साधारण शिक्षिका के सामने हाथ जोड़कर कह रही थीं, “कामिनीजी, हमें और कुछ नहीं चाहिए. बस, आप हां कर दीजिए, चाहें तो सुनील के चाल-चलन के बारे में पता कर लें. आपकी बेटी इसी शहर में रहेगी आपके सामने.”
“बस, मुझे थोड़ा समय दीजिए, मैं दीपा से बात कर लूं.” कहा था कामिनी ने. समस्या बस यही लग रही थी कि चार महीने पहले ही सुनील की पत्नी दिव्या की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. सुनील और उनका एक वर्षीय बेटा सिद्धार्थ बाल-बाल बच गए थे. अब राधिका को अपने बेटे का घर फिर से बसाने की जल्दी थी. उन्हें कामिनी की आर्थिक स्थिति का अंदाज़ा हो ही गया था. साधारण ढंग की लड़की दबकर रहेगी उनके वैभव में, लड़की सीधी लग रही है, चुपचाप सिद्धार्थ की देखभाल करेगी, यही चलता रहता था राधिका के मन में.
दीपा का एम.ए. अभी पूरा ही हुआ था. इस रिश्ते को लेकर दीपा को कुछ समझ नहीं आ रहा था, शादी होते ही एक बेटे की मां बनने में उसे कोई आपत्ति नहीं थी, इसके पहले जितने भी रिश्ते आए थे, लड़के वालों का दबे-छुपे शब्दों में दहेज मांगने का ढंग उसे चुभता रहा था. उसे अपने साधारण रूप-रंग का भी एहसास था. अब तक कहीं बात नहीं बनी थी और फिर अपनी मम्मी की चिंता देख उसने इस रिश्ते के लिए हामी भर दी. वैसे भी उसकी अपनी पसंद तो कोई थी नहीं. कामिनी को भी आपत्ति का कोई कारण समझ नहीं आया. सुनील की शिक्षा, बिज़नेस, धन किसी में कोई कमी नहीं थी, बेटी रानी की तरह राज करेगी ऐसा रिश्ता देखकर वह ख़ुश थीं. रही सिद्धार्थ की बात तो वो जानती थीं कि दीपा को बच्चों से प्यार है, उसे सिद्धार्थ से लगाव हो ही जाएगा, यह भरोसा तो उन्हें था ही.
विवाह आनन-फानन में तय हो गया था. राधिका देवी, सुनील, अनिल और उसकी ख़ूबसूरत पत्नी मंजू, अनिल से छोटी सुजाता और सुनंदा सब आकर दीपा को हीरे की अंगूठी पहना गए थे. कामिनी, राधिका के बड़प्पन के आगे नतमस्तक होती रही. विवाह एक महीने बाद ही होना था. सबके जाने के बाद दीपा ने कहा, “मां, मुझ जैसे साधारण शक्ल-सूरत की लड़की को कैसे पसंद कर लिया उन्होंने, वे सब कितने गोरे, कितने सुंदर हैं और सिद्धार्थ को सब नौकरों के पास क्यों छोड़ आए थे?”
“वो तो मुझे नहीं पता, लेकिन तू चिंता मत कर, यह सब तो ईश्‍वर की मर्ज़ी से होता है.”
“लेकिन मां, मैं तो उन लोगों के सामने कुछ भी नहीं हूं.”
“क्यों इतना कम समझ रही है अपने आपको बेटा? पढ़ी-लिखी है, कितने अच्छे नैन-नक्श हैं मेरी बेटी के, तू बस अब ख़ुशी से तैयारियां कर बेटा.”
फिर जितना हो सकता था कामिनी ने अपनी बेटी के लिए किया. राधिका देवी बस कुछ ख़ास लोगों के साथ आईं और साधारण रूप से विवाह संपन्न हो गया. दीपा ने बड़ी बहू के रूप में ससुराल में प्रवेश किया. दीपा के दिल में सिद्धार्थ को देखते ही उस छोटी-सी जान के लिए ममता उमड़ पड़ी. सुनील ने पहली रात ही दीपा से कहा, “यह विवाह मां की मर्ज़ी से हुआ है, हमारे तुम्हारे स्टैंडर्ड में जो फ़र्क़ है उसे समझने में तुम्हें थोड़ा समय तो लग ही जाएगा. मैं तो ख़ुद हैरान हो गया था जब मां ने तुम्हें पसंद किया था. मां तो हर चीज़ में अपना स्टैंडर्ड देखती हैं पता नहीं कैसे उन्होंने तुम्हें… ख़ैर, छोड़ो धीरे-धीरे हमारी सोसायटी के कायदे-क़ानून सीख जाओगी.” अवाक् बैठी रही थी दीपा. यह क्या हो गया. उसका दिल अंदर ही अंदर रो पड़ा.


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अगले एक हफ़्ते में ही उसे सबके व्यवहार में एक परायापन लिए दूरी दिखाई देती रही, उसने सोचा क्या यह अमीर-ग़रीब का फ़र्क़ है. वह सबसे घुलने-मिलने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उनके स्तर में जो असमानता थी वह उसे साफ़-साफ़ महसूस होने लगी.
दीपा ने हर समय नौकरों की देखभाल में पलते सिद्धार्थ को अपनी बांहों में लिया, तो उसे अजीब-सा सुकून मिला. सुजाता और सुनंदा अभी बी. कॉम में पढ़ रही थीं. दीपा को एडजस्ट करने में बहुत मेहनत करनी पड़ रही थी. पहली दीवाली पर राधिका देवी ने सुनील से कहा, “कल दीपा को भी शॉपिंग करवा लाना.”
सुजाता ने पूछा, “भाभी, आप क्या ख़रीदेंगी अपने लिए?” दीपा ने बहुत सहज ढंग से कहा, “जो तुम्हारे भैया पसंद करेंगे, ख़रीद लूंगी.” मुंहफट सुनंदा ने कहा, “भैया अभी तक तो गोरी-चिट्टी भाभी के लिए जो भी ख़रीदते थे उन पर जंचता था. आपके लिए तो उन्हें बहुत सोचना पड़ेगा कि क्या ख़रीदा जाए.” अपमान से जल गया दीपा का दिल. आंखें भर आईं. दुख और ज़्यादा तब हुआ जब देखा वहां बैठा घर का हर व्यक्ति इस भद्दे व्यंग्य पर हंस दिया. मन हुआ कि कहे, क्यों लाए हो मुझे इस घर में, क्यों हाथ जोड़कर विवाह का प्रस्ताव रखा था? ले आते कोई गोरी सुंदर लड़की, लेकिन उसके संस्कारों ने उसे कुछ भी कहने से रोके रखा. अब दीपा ज़्यादा से ज़्यादा समय सिद्धार्थ की देख-रेख में बिताने लगी थी.
एक दिन वह अपने कमरे में अकेली उदास बैठी थी. सुनील ने कहा, “उदास क्यों बैठी रहती हो? किसी रानी जैसा जीवन है तुम्हारा, लाइफ एंजॉय करो.” दीपा ने सोचा, रानियां क्या सचमुच सुख से रहती हैं. क़ीमती साड़ी, गहने, नौकर, राजमहल के अलावा नारी को सुखी होने के लिए और क्या चाहिए भला. पर पता नहीं क्यों बचपन से ही रानियों के सुख को लेकर उसके मन में बहुत-सा संदेह रहता था. रानियों से क्या कभी किसी ने उसके मन की ख़ुशी के बारे में पूछा था. सुनील ने टोका, “क्या सोच रही हो?”
“मैं मां से मिल आऊं?”
“मन लगता है वहां तुम्हारा अब?”
“क्यों नहीं लगेगा? मैं समझी नहीं.”
“अरे, यहां इतना आराम है तुम्हें, अब तो तुम्हें यहां के वैभव की आदत पड़ गई होगी.”
इस बात का दीपा ने कोई जवाब नहीं दिया. बस पूछा, “सिद्धार्थ को अपने साथ ले जाऊं?” जवाब में उनके रूम में आती राधिका देवी ने दिया, “नहीं बहू, उस छोटे घर में परेशान हो जाएगा वह.”
“मांजी, थोड़ी देर में तो आ ही जाऊंगी.”
“नहीं नहीं, उसे रहने दो, तुम ड्राइवर और गाड़ी ले जाओ.” दीपा के मन को बहुत कष्ट पहुंचा. वह हर बार यही सोचती कि क्यों इस घर के लिए उसे पसंद किया गया. क्या इसीलिए कि वह इस घर के रौबदाब में दबी रहे. उनके बेटे की ज़रूरत का एक साधन बनी रहे और सिद्धार्थ की देखभाल करती रहे चुपचाप. सिद्धार्थ से तो उसे लगाव हो भी गया था, वह भी उसके आसपास ही मंडराता रहता. अब तो वह उसी के साथ सोने भी लगा था. उस दिन वह अकेली मां से मिल आई. सुनील तो कभी उसके साथ गया भी तो खड़ा-खड़ा हाल-चाल लेता और व्यस्तता का बहाना बना चल देता. अब दीपा चाहती भी नहीं थी कि वह उसके साथ जाए. दामाद की सेवा में जब कामिनी इधर-उधर दौड़ती, तो दीपा बहुत असहज हो जाती. धीरे-धीरे वह अकेली ही आने लगी थी.


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दीपा के दिल को एक बड़ा धक्का लगा जब एक रात सुनील ने दीपा से कहा, “मैं दूसरे बच्चे के मूड में नहीं हूं. बस सिद्धार्थ हमारी एक ही संतान रहेगा. मां भी यही चाहती हैं.”
“पर क्यों?”
“मां कहती हैं दूसरा बच्चा होने पर सिद्धार्थ को सौतेलापन महसूस न हो इसीलिए.”
“सौतेलापन क्यों होगा? मैं तो सिद्धार्थ को अपना बेटा ही समझती हूं.”
“मां कहती हैं ये सब कहने की बातें हैं, फ़र्क़ तो होता ही है.”
“लेकिन मैं मां बनना…” बीच में ही बात काट दी सुनील ने, “बस, सिद्धार्थ की ही मां बनकर रहो न, क्या प्रॉब्लम है?” उसी दिन उसने अपने दिल पर पत्थर रख लिया और चुपचाप यह दर्द पी गई.
दीपा ने दिव्या की फोटो अआलमारी में कई बार देखी थी. बहुत ख़ूबसूरत थी दिव्या. दीपा को लगता कि कहां दिव्या और कहां वो. तीन साल का साथ रहा था सुनील और दिव्या का. उसे इस बात पर हैरानी होती कि सुनील दिव्या की कभी बात नहीं करता था. उसने जब भी सुनील से पूछा था, सुनील ने सपाट स्वर में कहा था, “अब छोड़ो न पुरानी बातें, जो है नहीं उसके बारे में क्या बात करना.” दीपा को अजीब लगा, इतना प्रैक्टिकल होना भी किस काम का. ऐसा नपातुला जवाब. दिव्या के लिए प्यार या ज़रा-सी भी याद महसूस नहीं हुई सुनील की आवाज़ में उसे. शुरू-शुरू में उसे इस बात पर गहरा दुख होता कि काश, वो एक साधारण हैसियत, साधारण रूप-रंग वाले इंसान की पत्नी होती, तो शायद वह ज़्यादा ख़ुश रहती. यहां कदम-कदम पर भौतिक सुविधाएं बिखरी थीं, लेकिन उसका मान-सम्मान इन हाई सोसायटी के लोगों के व्यंग्यबाणों से जलकर स्वाहा हो चुका था. अब उसे अपने मां न बनने का कोई दुख नहीं था. अपनी मां के चेहरे पर दुख की एक परछाई न आने देने के संकल्प ने उसमें बहुत हिम्मत भर दी थी. अपनी मम्मी के बार-बार पूछने पर उसने सुनील की बात बताते हुए कहा था, “कोई बात नहीं मां, सिद्धार्थ ही मेरा बेटा है.”
समय को बीतना ही होता है सो वह बीत रहा था. इंसानों के दुख-दर्द से सरोकार रखना वैसे भी समय का स्वभाव नहीं रहा है. अब सिद्धार्थ में दीपा की जान बसी रहती. सिद्धार्थ ही उसके मातृत्व की प्यास को पूरा करता.
सिद्धार्थ अब पांच साल का हो गया था. नौकरों के होते हुए वह ख़ुद उसका हर काम करती. सिद्धार्थ के लिए खाना बनाने का उसे बहुत शौक था. एक दिन वह सिद्धार्थ के लिए किचन में कुछ बना रही थी, राधिका देवी ने कहा, “क्या तुम हर समय किचन में घुसी रहती हो? तुम मिडल क्लास लोगों की यही समस्या है. अपनी मानसिकता और कल्चर छोड़ना ही नहीं चाहते. अब तुम एक बड़े बिज़नेसमैन की पत्नी हो. तुम्हें उसी हिसाब से रहना चाहिए. नौकर भी क्या सोचते होंगे?” दीपा का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया, दिल भर आया.
राधिका देवी आगे बोलीं, “और एक तो तुम्हारा रंग वैसे ही इतना गहरा है और गैस के सामने खड़ी-खड़ी शक्ल-सूरत ख़राब हो जाएगी. अरे, ऐसे तो न रहो कि लोग तुम्हें सिद्धार्थ की नौकरानी समझें.”
दीपा चुपचाप आंसुओं से भरी अपनी आंखें छुपाते हुए अपने रूम में आ गई. सिद्धार्थ के आने तक वह मुंह हाथ धोकर फ्रेश हो गई. सिद्धार्थ को वह खाना अपने हाथ से खिलाती थी. वह उसे पता नहीं कितनी बातें सुनाता रहा. फिर सिद्धार्थ उसके पास ही लेट गया. दीपा के मन में यही आ रहा था. उसकी मां ने उसे पैसे से अधिक इंसान की, इंसानी रिश्तों की क़द्र करना सिखाया था. बचपन में रोपा गया संस्कारों का पौधा उसके मन में अपनी जड़ें फैला चुका था. इस तथाकथित हाई स्टैंडर्ड लोगों की श्रेणी में शामिल होने के लिए वह कैसे उसे एक झटके से उखाड़ फेंके!
वह सिद्धार्थ को ख़ुद पढ़ाती. सबके कहने पर भी उसने सिद्धार्थ के लिए कोई ट्यूटर नहीं रखा. वह अपनी तरफ़ से उसे बहुत अच्छे संस्कार दे रही थी. उसके स्कूल में जब भी पैरेंट्स मीटिंग का समय आता या तो सुजाता या सुनंदा जातीं. सुनंदा अक्सर कहती, “भाभी, आप रहने ही दो, हम ही चले जाएंगे. आप तो इस घर की लगती ही नहीं. लोग कहीं ग़लत न समझ लें.” दीपा ने इन बातों का कभी जवाब नहीं दिया था. उसका धैर्य और सहनशक्ति कमाल की थीं.
कुछ साल और बीत गए. अनिल की भी दो बेटियां सिद्धि और समृद्धि हो गईं. सुजाता और सुनंदा का भी संपन्न परिवारों में विवाह हो गया.
सिद्धार्थ का व्यक्तित्व निखारने में दीपा ने दिन-रात एक कर दिए थे. वह जानता था दीपा उसकी सगी मां नहीं है, लेकिन दोनों के बीच सगा-सौतेला जैसे शब्द कभी नहीं आया था. समय अपनी रफ़्तार से चलता रहा. सफलता की सीढ़ियां चढ़ता सिद्धार्थ एम.बी.ए. करने के बाद अब बिज़नेस में कदम रखने के लिए तैयार था. उसके लिए रिश्तों की अब लाइन लग गई थी. एक दिन सुजाता और सुनंदा दोनों सपरिवार आई हुई थीं. दोनों के एक-एक बेटा था. राधिका देवी, सुनील, अनिल पूरा परिवार एक जगह जमा था. राधिका देवी अब अस्वस्थ रहने लगी थीं. डिनर के बाद सुजाता ने कहा, “चल बता अब, कैसी लड़की से शादी करेगा? मैं ये फोटो लाई हूं, एक से एक गोरी सुंदर लड़कियां.” कहते हुए सुजाता ने एक नज़र दीपा पर डाली जो चुपचाप एक सोफे पर बैठी हुई थी.
सुनंदा ने कहा, “हां भई, लड़की गोरी और सुंदर हो, आम-सी शक्ल-सूरत होगी, तो पढ़ी-लिखी होकर भी हमारे घर में फिट नहीं बैठेगी. इस घर की तो नौकरानियां भी अच्छी दिखती हैं.” दीपा का छलनी मन इन बातों का अभ्यस्त था. सिद्धार्थ के चेहरे पर एक अनोखी आभा थी. होंठों पर एक निश्छल, सरल-सी मुस्कान, वह अपनी जगह से उठकर खड़ा हुआ. सबकी नज़रें उसकी तरफ़ थीं. सिद्धि-समृद्धि भी बोल उठीं, “हां भैया, जल्दी फाइनल करो लड़की.”
सिद्धार्थ आराम से चलता हुआ दीपा के सोफे के हत्थे पर बैठ गया. बांहें दीपा के गले में डाल दीं. कहने लगा, “मुझे लड़की बिल्कुल मां की तरह चाहिए. यही रूप-रंग, यही स्वभाव, बिल्कुल मां जैसी.” एकदम सन्नाटा छा गया. अपने रूप के घमंड में डूबी वहां बैठी हर औरत दीपा को ऐसे देख रही थी जैसे वह कोई अजूबा हो. और दीपा! उसे तो उसके बेटे ने इस समय इतनी ऊंचाई पर उठा दिया था कि सारा जीवन अपमान में झुलसते हुए वह एक पल जैसे मान-सम्मान और ख़ुशियों का झोंका बन गया. उसका सांवला चेहरा कुंदन की तरह दमक उठा था. आंखों से ख़ुशी के आंसू बहने लगे और उन आंसुओं के साथ उम्रभर की उपेक्षा का एहसास भी बहता चला गया. सिद्धार्थ ने दीपा के आंसू पोंछते हुए घुटने नीचे टिकाते हुए अपना सिर दीपा की गोद में रख दिया. वहां उपस्थित हर व्यक्ति को जैसे सांप सूंघ गया था.

  • पूनम अहमद

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