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कहानी- एक पवित्र पाप (Short Story- Ek Pavitra Paap)

“ये कहो अगर मैं इस बार प्रेम ऋतु में न आया होता तो…” मेघ ने फिर वसुधा का चेहरा अपने सीने से उठाकर दोनों हाथों में लेते हुए उसकी आंखों में शरारत से झांका.
“तुम ही तो बताती थीं संस्कृत के प्रेम ग्रंथों में बारिश को प्रेम ऋतु कहा गया है… और तुमने एक बार कहा था कि बारिश में झूला झूलते नायक-नायिका का प्रेम वर्णन सुनाओगी. अगर मैं बेल का पेड़ लगाकर उस पर झूला डाल दूं तो…” वसुधा के गाल सुर्ख हो गए.

मेघ आया है. पंद्रह साल बाद मेघ को देखेगी. तापसी वसुधा का दिल रह-रहकर तेज़ी से धड़कने लगता. अभी नौकरों से उसे अटेंड करने को कह ही दिया है. कल मिल लेगी उससे, पर क्या एक तपस्विनी की तरह मिल सकेगी? उसे देखकर निगाहें स्थिर रह सकेंगी? मगर मिलना ही क्यों है? वैरागी माता बन चुकी है वो. मेघ अपने काम से आया है. काम पूरा होने पर चला जाएगा. उसने सुना है पास के जंगल का बड़ा हिस्सा किसी वनदेवी के मंदिर की स्थापना के लिए कटनेवाला है. मेघ उसे काटे जाने से रोकने का नोटिस लेकर आया है. अपने देश में मंदिर बनने से रोकना आसान काम नहीं. कुछ समय लग सकता है.
ठीक है, गेस्ट हाउस खुलवा ही दिया है. हां, यही ठीक रहेगा. पर नहीं, दिल के किसी कोने में टीस-सी, ऐंठन-सी उठती गई. इतने सालों बाद मेघ आया और वो मिलेगी भी नहीं? ये कैसे हो सकता है? हवा की सांय-सांय घाटी में घुसकर गोल चक्कर लगाती रोमांचक स्वर बिखेर रही थी. वसुधा को लग रहा था वो स्वर उसके अपने द्वंद्व की प्रतिध्वनि हैं. हां, ये झंझावात उसके मन के भीतर का ही था. तभी तो वो दिल थामकर बैठी थी कि जो खिड़की मेघ के कमरे की खिड़की की ओर खुलती है, उसकी सिटकिनी टूट न जाए. पर मन ही मन चाह रही थी कि वो सिटकिनी टूट जाए. तभी हवा ने ज़ोर लगाया और सिटकिनी टूट गई. खिड़की धड़ाक से खुल गई और जैसा कि वसुधा का अनुमान था मेघ आवाज़ सुनकर खिड़की पर आ गया और वसुधा के लिए उसकी सम्मोहक निगाहों से निगाहें हटाना असंभव हो गया.
अंबर के सीने पर जमे अनुरागी बादल व्याकुल धरती की प्यास को समझ रहे थे. मौक़ा मिलते ही बूंदें बनकर धरती की ओर लपके और उनका समर्पण पाकर धरती महक उठी. उस सोंधी ख़ुशबू की मिठास वसुधा के तन-मन से होती हुई आत्मा को सहलाने लगी. उसकी उमंगें थिरक उठीं, मन नाच उठा. मन में पंद्रह साल पहले बोला गया मेघ का प्यारा-सा वाक्य गीत बनकर गुनगुनाने लगा, “ईश्वर की भी यही इच्छा है. जोड़ियां वही तो बनाता है. शायद इसीलिए हमारे नाम भी एक-दूसरे के पूरक हैं. मेघ और वसुधा का जीवन हमेशा से एक-दूसरे में समा जाने में ही सफल हुआ है.”
यूं तो हर साल ये बारिश उसके दिल के किसी कोने में दफ़न प्रेम की राख में आतिश होने का संकेत देतीं ज़रूर थीं और इस बार तो मेघ प्रत्यक्ष था… दोनों के लिए एक-दूसरे की मूक निगाहों के सम्मोहन से निकलना असंभव हो गया. जाने कितनी देर उनकी निगाहें एक-दूसरे में खोई रहीं और उनके बीच पसरी ख़ामोशी ने जाने कितना कुछ बोल डाला.
वसुधा के दिल की धड़कन तेज़ होती जा रही थी. यादों से मन बहला लेने में कोई ख़तरा नहीं था, पर वास्तव में… नहीं, नहीं, अब उसे अपने दिल के दरवाज़े खोलने का कोई अधिकार नहीं बचा है. वसुधा आत्मग्लानि और नैसर्गिक चाहतों के अधिकार के द्वंद्व में लिपटी खिड़की पर बैठी रही. बारिश अब तिरछी होकर बरसने लगी थी और वसुधा उसमें सराबोर अपने ही उहापोह में खोई थी. तभी एक सरसराहट-सी हुई और ध्वनि की ओर देखते ही वसुधा की चीख निकल गई. मेघ भी अचकचा गया, पर उसे दौड़कर वसुधा के कमरे में आते समय नहीं लगा.
“सांप…” भय से कांपती वसुधा के मुंह से इतना ही निकला.
“बस? अरी बुद्धू, सांप कोई खिड़की से चढ़कर अंदर थोड़े ही घुस आएगा. खामखा डरा दिया.” उसकी सम्मोहक मुस्कान से वसुधा का बुना कवच चरमरा गया. वो एकटक मेघ को देख रही थी. अपने पुराने आत्मीय अंदाज़ में बोले गए एक वाक्य ने सायास बांधी कृत्रिम तटस्थता चकनाचूर कर दी. बाहर बादल फिर अंबर के सीने पर जमने लगे थे. वो जमते जा रहे थे… जमते ही जा रहे थे…


एक क्षण को लगा बाहर बारिश बिल्कुल रुक गई है. वसुधा अब मेघ के चेहरे के आते-जाते भावों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी. सहसा वसुधा को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा याद आई और उसने पूरी ताकत बटोरकर ख़ुद को जबरन अपने कवच में दोबारा ठूंस लिया.
“मैं बहुत आगे निकल आई हूं, मेघ…” वसुधा ने निगाहें नीची कर लीं और उसका स्वर दयनीय हो गया.
मेघ थोड़ा आगे बढ़कर उसके ठीक सामने आकर बैठ गया और उसकी आंखों में झांककर बोला, “कहां निकल गई हो तुम? मुझे तो वहीं दिख रही हो, जहां आज से पंद्रह बरस पहले खड़ी थीं.” दोबारा वही आत्मीयता सुनी तो फिर पलकें उठाईं. उसकी आंखों में वही पंद्रह साल पुराना सम्मोहन था. वही आश्वासन, वही अपनापन, प्रेम की वही पराकाष्ठा. सम्मोहित-सी वसुधा ने मेघ का हाथ थाम लिया. टीन की छत पर बारिश की बड़ी हल्की बूंदों की आवाज़ ऐसे आने लगी थी जैसे पायल रुनझुन कर रही हो. उसकी सांसें धौंकनी बन गईं… लगा बाहर चंचल बूंदों ने मिट्टी की मेड़े तोड़नी शुरू कर दी हो और गीली मिट्टी बह निकली हो.

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“कितनी सुंदर थी ज़िंदगी…"
“हमारे घरौंदे… गुड्डे-गुड़िया…”
“और साइकिल की सवारी… तुम्हारा मेरी साइकिल पर आगे बैठकर दोनों हाथ फैला देना और मेरा घबराकर तुम्हें डांटना…”
“और तुम्हारा पहली बारिश पर मेरे घर आकर बेसन के पकौड़े खाने की ज़िद पकड़ना…”
“और तुम्हारा नखरे दिखाना फिर मेरे लिए पकौड़े बनाकर लाना…”
“तुम्हें पता है मेघ, उस दिन मैंने धानी लंहगा-चुन्नी और चूड़ियां पहनी थीं, तो तुम्हारी मां ने मेरे हाथों में मेंहदी लगाई थी और मेरा हाथ चूम लिया था.”
“तुम्हें मेंहदी लगवाने का, दुल्हन बनने का जितना शौक था, मम्मी को उससे भी बढ़कर तुम्हें दुल्हन के रूप में देखने का.”
“और तुम्हें प्रशासनिक अधिकारी बनने का जितना शौक था पापा को उससे बढ़कर तुम्हें उस पद पर देखने का.” बोलते-बोलते दोनों थम से गए.
बारिश का शोर अचानक ऐसा बढ़ गया जैसे सैलाब आ गया हो. लगता था अंबर के सीने पर जमे बादल सारी वर्जनाएं तोड़ बैठे थे. वे बरस पड़े थे और अब जहां जगह मिलती, बरसते ही जा रहे थे. वसुधा के मन ने भी सारी वर्जनाएं तोड़ दीं. वो मेघ के सीने से लगकर रोई तो रोती ही गई… रोती ही गई… जैसे मन के कोने में दफ़न सारी पीड़ाओं की समाधियां टूट गई हों और बौराई आत्माएं पूरी संसृति में चक्कर काटने लगी हों. जैसे बारिश ने अकाल से तपी कोरी धरती पर इतना जल बरसाया हो कि धरती का रोम-रोम स्निग्ध हो गया हो. वो रोती जा रही थी और टूटे-फूटे स्वरों में बोलती जा रही थी, “काश! उस दुर्घटना ने हमसे हमारे माता-पिता न छीने होते…”
“तुम्हें पता है मेघ, मैं कभी दीक्षा नहीं लेना चाहती थी. ये चाचाजी का छल था. जब तक मेरे समझ में आता, बहुत देर हो चुकी थी. संस्कृत में श्लोक बोलना मेरी नैसर्गिक प्रतिभा थी. तुम तो जानते ही हो, पापा मुझे संस्कृत का प्राध्यापक बनाना चाहते थे. शुरू में जब उनकी मृत्यु के बाद हम तीनो भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी चाचाजी पर आ पड़ी, तो हम बहुत सहम गए थे. तुम भी सदमे में थे. ऐसे में मेरे श्लोक और प्रवचन के कुछ वीडियो, जो पापा शौक में बनाते थे, वायरल हो गए और चाचाजी को आमदनी का ज़रिया मिल गया…”
मेघ ने अपने सीने से लगी वसुधा पर अपनी बांहों का घेरा कस दिया. कुछ देर वसुधा को सहेजता-समेटता रहा फिर उसका चेहरा अपने हाथों में ले लिया. उसके अंगूठे वसुधा के आंसू पोंछ रहे थे, “सब जानता हूं. शुरू में तुमने ये सब अपने भाई-बहन की परवरिश के लिए किया. तुमने अपनी प्रतिभा का अच्छा और सही इस्तेमाल किया, पर उनके आत्मनिर्भर होने के बाद तुमने… तुम्हें अचानक संन्यास की कैसे सूझ गई?”


“मैंने कुछ नहीं किया था. तुम तो जानते ही हो कि मेरे चाचाजी कितने आलसी और निठल्ले थे. ये उनकी चालाकी थी. मैं सोचती रही कि मेरे भाई-बहन के आत्मनिर्भर होते ही मैं मुक्त हो जाऊंगी और वो नियोजित तरीके से मेरी छवि एक तपस्विनी के रूप बनाते गए. इससे मेरे चैनल का आर्थिक फ़ायदा बढ़ता गया. उनका पूरा परिवार ही इस पर आश्रित हो गया. मेरे प्रवचनो की कमाई भी वही हैंडिल करते. मुझे पैसों का तो कोई मोह था नहीं. उनका व्यहवार इतना अच्छा रहा कि मैं कभी उनकी योजनाएं समझ नहीं पाई. धीरे-धीरे उन्होंने मेरी दीक्षा का सारा इंतज़ाम कर लिया और ये प्रचारित भी कर दिया. मैं तुम्हें संदेश भेजना चाहती थी. मैं घुट रही थी… मेरा मन हाथों में मेहंदी रचाने का कर रहा था और मेरे हाथों में कलावा बांधा जा रहा था…”
“जब मुझे पता चला, तो मैं आया तो था. तब तुम मुझसे मिली क्यों नहीं? मुझसे कुछ कहा क्यों नहीं?”
“मैं अचानक मिली इतनी प्रतिष्ठा और आदर-सम्मान से पहले चकित और… और फिर अभिभूत… फिर जड़-सी हो गई थी.” वसुधा ने फिर अपना सिर मेघ के सीने पर रख दिया.
“जब तक मैं कुछ समझती, अपने द्वंद्व से निकलकर तुमसे कुछ कहने का साहस जुटाती, तुम चले गए. इस बार भी अगर चाचाजी सपरिवार घूमने न गए होते, तो हमारी एकांत मुलाक़ात न होती तो…”


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“ये कहो अगर मैं इस बार प्रेम ऋतु में न आया होता तो…” मेघ ने फिर वसुधा का चेहरा अपने सीने से उठाकर दोनों हाथों में लेते हुए उसकी आंखों में शरारत से झांका.
“तुम ही तो बताती थीं संस्कृत के प्रेम ग्रंथों में बारिश को प्रेम ऋतु कहा गया है… और तुमने एक बार कहा था कि बारिश में झूला झूलते नायक-नायिका का प्रेम वर्णन सुनाओगी. अगर मैं बेल का पेड़ लगाकर उस पर झूला डाल दूं तो…” वसुधा के गाल सुर्ख हो गए. “तुम्हारा लगाया बेल का पेड़ बड़ा हो गया है.”
“और इस बार यहां आने पर जब तुम्हारे चाचा के सपरिवार बाहर होने की ख़बर मिली, तो मैंने उस पर झूला भी डलवा दिया है. सोच कर आया था कि अबकी तुमसे…”
“अबकी मुझसे क्या?”
“अबकी तुमसे झूले पर संग झूलने को कहूंगा.” मेघ का स्वर मादक हो गया.
वसुधा सम्मोहित-सी लॉन में जाकर खड़ी हो गई. अपने दोनों हाथ फैला दिए और बादलों का समर्पण महसूस करने लगी. बादल अपनी धरती पर खुलकर बरस रहे थे. निर्द्वंद्व… अलमस्त… मेघ ने भी अपनी प्रियतमा की प्यासी देह पर चुंबनों की बारिश की झड़ी लगा दी. कुछ देर बाद मेघ ने उसे अपनी बांहों में उठा लिया और उसके प्रिय झूले पर लिटा दिया. धरती की दूब पलाश के फूलों संग उलझी थी. हवा में मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू के साथ चंपा और मोगरा की सुगंध एकाकार हो रही थीं. बादल और धरती एक-दूसरे में समाते जा रहे थे. ये सारे एकीकरण मेघ और वसुधा को उद्दीप्त करते गए. पैंतीस की उम्र में एक बार फिर वसुधा षोडशी हो गई. प्रणय की प्यारी-सी अनुभूति से उसका पूरा तन-मन आह्लादित हो गया. उसने यंत्रवत-सी अपनी बांहें इजाज़त की मुद्रा में फैला दीं. चंचल शीतल मलय पवन ने इस इजाज़त की भाषा को सबसे पहले समझा, वो आंचल अपने संग उड़ा ले गई. वसुधा ने उसे समेटने की कोशिश न करके प्रेम इजाज़त पर मुहर लगाई, तो मेघ ने अपने तपते अधर वसुधा के प्यासे अधरों पर रख दिए.


झूले की चरमराहट राग सुनाती रही, चंपा, मोगरा, रातरानी की सुगंधे ताल देती रहीं, बारिश की बूदें थिरकती रहीं और मेघ के आकुल चुंबन वसुधा की व्याकुल प्यास बुझाते रहे. आलिंगन कसता गया, वर्जनाएं बिखरती गईं, प्रणय यात्रा पहले वसन, फिर शरीर के आवरण को पार कर मन की गुफा से होते हुए आत्मा की पावन मूर्ति तक जा पहुंची. दरस-परस और सानिध्य के आनंद शिखर पर मेघ बरसता रहा… बरसता रहा… वसुधा भीगती रही… भीगती रही… एकाकार होने के बाद भी… सदियों बाद ऐसी बारिश बरसी थी. सारी रात समझ नहीं आया कहां बादल थे और कहां धरती. समझ आता भी कैसे? वो एकाकार हो चुके थे.
नींद खुली, तो बादल छंटकर छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट चुके थे. चमकीली धूप उनसे आंख-मिचौली खेल रही थी, पर हवा में ठंडक थी.
वसुधा कुछ सोचती-समझती इससे पहले सामने चाचा-चाची खड़े दिखे. उनकी अनुभवी आंखों से कुछ छिप न सका. चाची बड़े प्यार से वसुधा के सिरहाने बैठ गईं और अपनी यात्रा का वृत्तांत सुनाने लगीं. चाचा कहीं चले गए. लौटकर आए और बोले, "मेघ आया था क्या? सब बता रहे हैं वापस चला गया. जाने क्यों हमसे मिलकर नहीं गया." वसुधा अवाक्‌ रह गई. चाची उसे यक़ीन दिलाने का प्रयास करने लग़ीं कि उससे जो ‘पाप’ हुआ है उसका ‘प्रायश्चित’ एक यज्ञ से करा लिया जाएगा. उसके मान-सम्मान और प्रतिष्ठा को कोई आंच नहीं आएगी. वसुधा की आंखें डबडबा आईं.
“किस बात का प्रायश्चित?” तभी मेघ का स्थिर स्वर सुनाई दिया. “वसुधा एक तापसी है…” चाचा के तमतमाए स्वर को मेघ के ओजस्वी वाक्य ने काट दिया, “तापसी है नहीं, बनाई गई है. वो भी इंसान है और उसे भी इंसानो की तरह जीने का हक़ है.”
“तुम कहां चले गए थे?” वसुधा डबडबाई आंखों और रुंधे गले से बोली.
“सॉरी वसुधा, मुझे पता चला कि वो लालची लोग, जो वनदेवी का मंदिर बनाने के बहाने जंगल हड़पना चाहते थे; सुबह होने से पहले अपना काम शुरू करनेवाले हैं. मैं जल्दी में निकल गया.” मेघ ने स्नेहसिक्त वाणी में वसुधा से कहा. फिर उसके चाचा की ओर मुखातिब हो गया, “लेकिन अब चिंता की कोई बात नहीं.” उसके स्वर में व्यंग्य का पुट स्पष्ट था.
"जंगल के पेड़-पौधे, हज़ारों जीव-जंतु हमारी तरह जीवित प्राणी हैं. बेचारे किसी से कुछ लेते नहीं, केवल देते ही हैं. फिर भी हम इंसानो का लालच उन्हें इतना निचोड़ लेना चाहता है कि उनसे उनकी ज़िंदगी ही छीन लेता है. देवी का मंदिर बनाने के बहाने सैकड़ों पेड़ काटकर बेच लेने का और जानवरों की स्मगलिंग का षड़यंत्र था, पर अब हमारी संस्था के प्रयत्नों से गांववालों ने सब समझ लिया है. क़ानूनी रोक भी लग गई है और स्वयं आगे आए वन प्रहरी भी नियुक्त हो गए हैं.”
चाचाजी सब समझ रहे थे. वो तिलमिला गए. “क्या? गांव वाले मंदिर न बनने के लिए मान गए? उनकी आस्था…”
“हां, वो समझ गए हैं प्राणवान जंगल को कटवाकर मूर्ति की स्थापना करना वैसे ही है जैसे किसी जीते-जागते इंसान को दीवारों में चुनवा दिया जाए. वो लालची नहीं हैं. वो किसी लोभ या हवस के कारण मंदिर नहीं बनवा रहे थे. उन्हें तो चंद स्वार्थी लोगों की लालसा ने बरगलाया था.” चाचाजी सब समझ गए थे. वो एक तिलमिलाई दृष्टि दोनों पर डालकर कमरे से निकल गए. उनके पीछे चाची भी चली गईं.
“लेकिन पाप तो मुझसे हुआ है.” सब कुछ सुन और समझकर भी वसुधा की आत्मग्लानि दूर नहीं हुई थी. उसके स्वर में क्षोभ की भर्राहट थी.


“तुमसे कोई पाप नहीं हुआ है वसुधा.” मेघ ने फिर एक बार उसका चेहरा अपने हाथों में लेकर उसकी आंखों में झांका.
“तुमने उस शरीर की मांग को पूरा किया है, जिसे विधाता ने बनाया है. तुम इंसान हो और वही किया, जो एक इंसान का अधिकार है. फिर भी अगर ये पाप है, तो ये पाप हमने मिलकर किया है. अगर प्रायश्चित करना ही है, तो हमें मिलकर करना होगा और वो प्रायश्चित एक बंधन का हवन होगा, मुक्ति का नहीं. शरीर मन और आत्मा की प्यास एक साथ बुझाने के लिए बने प्रेम के बंधन को हमारे शास्त्रों में विवाह का नाम दिया गया है. आओ हम इस बंधन में बंध जाएं और इस प्रेम ऋतु का धन्यवाद करें."

भावना प्रकाश

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