कितने सुखद परिवर्तन थे जीवन के, किंतु स्मरण करते ही वे सारी अनचाही स्मृतियां भी मानस पटल पर उभरने लगतीं, जो दिल में कसक पैदा कर देती थीं. उन्हें विस्मृति से शून्य करने का श्यामली भरसक प्रयास करती. विचारों की दिशा को मोड़ने के हर प्रयत्न के बावजूद फिर वही प्रश्न उसे सोचने पर विवश कर देता कि जीवन की इस प्यार की बाज़ी में वह हारी है या जीती?
सर्दी की गुनगुनी दोपहर रोज़ आंगन की छोटी-सी बगिया में ही कट जाती है. सुधीर दो प्याले कॉफी के बनाकर ले आए. एक प्याला श्यामली को देते हुए कुर्सी खींचकर अख़बार पढ़ने बैठ गए. आजकल नियम सा बन गया है, दोपहर की चाय-कॉफी सुधीर ही बना लेते हैं.
श्यामली ने कॉफी की चुस्कियां लेते हुए सुधीर को निहारा… कैसी शांत, निर्मल समंदर सी शांति पसरी है चेहरे पर… ठीक उसी तरह, जैसे किसी भयंकर तूफ़ान के बाद छा जाती है. बीते कुछ वर्षों में कितना परिवर्तन आ गया है सुधीर के व्यक्तित्व में… व्यवहार में… रिटायरमेंट के बाद ढलती उम्र की नर्मी है या चार दशकों से प्राप्त श्यामली के प्यार की गर्मी, जिससे सुधीर जैसे कठोर, मुंहफट, ज़िद्दी या कहें अड़ियल व्यक्ति का कायाकल्प हो गया, मानो जैसे धरा की गर्मी से कठोर चट्टान पिघलकर लावा बनकर बहने लगी हो.
सचमुच प्रेम में कितनी शक्ति होती है, श्यामली महसूस कर चुकी थी. सुधीर के चट्टान से लावा तक सारे परिवर्तन धीरे-धीरे, एक-एक कर उसके सम्मुख ही तो हुए थे.
कितने सुखद परिवर्तन थे जीवन के, किंतु स्मरण करते ही वे सारी अनचाही स्मृतियां भी मानस पटल पर उभरने लगतीं, जो दिल में कसक पैदा कर देती थीं. उन्हें विस्मृति से शून्य करने का श्यामली भरसक प्रयास करती. विचारों की दिशा को मोड़ने के हर प्रयत्न के बावजूद फिर वही प्रश्न उसे सोचने पर विवश कर देता कि जीवन की इस प्यार की बाज़ी में वह हारी है या जीती?
उत्तर ढूंढ़ने के लिए श्यामली आंखें मूंदकर जीवन के पिछले चार दशकों का हिसाब-किताब जांचने लगी…
कितनी ज़िद पर अड़कर सुधीर ने उससे विवाह किया था. घरवाले सुधीर के अड़ियल स्वभाव से परिचित थे. जो ठान लिया, सो करके रहेंगे. अम्मा-बाबूजी के विरोध में सुधीर ने भी अन्यत्र कहीं विवाह न करने का अनशन छेड़ दिया था. हार कर श्यामली से विवाह की अनुमति देनी पड़ी थी उन्हें.
श्यामली भी ख़ुश थी… पूरे आठ वर्ष तक वह भी तो इंतज़ार करती रही थी इस दिन का. विवाह के बाद दोनों ने दिल्ली में अपने छोटे से फ्लैट में घरौंदा बसाया. सुधीर तो हर वक़्त ख़ुशी के मारे हवा में तैरते रहते. बहुराष्ट्रीय कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर, अच्छी तनख़्वाह, मनपसंद पत्नी, मनचाहा सब कुछ तो पा लिया था. अपनी बात मनवा लेने का गुरूर व जीत का एक नशा सा सवार था सुधीर पर.
सेलीब्रेट करने का बहाना कहें या अतिरिक्त ख़ुशी का इज़हार… सुधीर अपने दोस्तों के साथ रोज़ ही पार्टियां करने लगे थे. एक पैग से जो पार्टी की शुरुआत हुई, तो धीरे-धीरे तीन-चार और फिर एक से दो बोतल तक बढ़ती चली गई.
श्यामली का धैर्य टूटा, तो उसने रोक-टोक शुरू कर दी. सुधीर के स्वभाव में मानना कब था… केवल मनवाना ही था. श्यामली भी तो अब प्रेमिका से पत्नी बन चुकी थी. प्रेमिका की बात तो मानी जा सकती थी, पर पत्नी की बात मान लेने से तो पति जोरू का ग़ुलाम कहलाता है न.
सुधीर ठन जाता था… श्यामली भी कड़वाहट उगलती थी… आख़िर स्थिति तो बिगड़नी ही थी.
एक रात श्यामली ने भी ग़ुस्से में आकर गटगट एक ग्लास व्हिस्की चढ़ा ली. तबीयत बिगड़ने पर सुधीर भी घबरा गए, पर पिघले नहीं, बल्कि श्यामली के होश आते ही बिगड़ पड़े.
“अच्छा तरीक़ा अपनाया तुमने पति की शराब छुड़वाने का… बाबूजी ने सही कहा था कि इस लड़की से शादी करेगा तो जीवनभर पछताएगा.”
सुनकर श्यामली का दिल तार-तार हो गया, ‘तो क्या सुधीर पछता रहे हैं मुझसे शादी करके?’
हताश-विवश श्यामली ने फिर तो चुप्पी साध ली थी. मन ही मन तय कर लिया था कि स्थिति को भगवान भरोसे छोड़कर चुप रहेगी. केवल अपने कर्त्तव्यों को निभाएगी. विधाता ने जो सुख-दुख भाग्य में जोड़े हैं, उन्हें स्वीकार कर लेगी.
श्यामली की चुप्पी भी सुधीर के लिए असहनीय थी. श्यामली का चुप रहकर सहनशीलता का परिचय देना व निष्ठा से अपने कर्त्तव्यों की पूर्ति करना एक तरह से सुधीर को उसके समक्ष बौना साबित कर देता था. श्यामली उन्हें पत्नी कम, प्रतिद्वंद्वी ज़्यादा नज़र आने लगी थी. उसे मानसिक आघात पहुंचाकर शायद अपने मन के झूठे अहम् को तृप्त करना चाहते थे सुधीर या शायद श्यामली की सहनशीलता को चुनौती देना चाहते थे, ताकि वह विरोध करे और सुधीर उस पर शब्दों के प्रहार से अपनी भड़ास निकाल सकें.
पता नहीं हठ था, जुनून था या किसी मनोरोग का नतीज़ा… श्यामली को निरंतर मानसिक कष्ट पहुंचाने का एक क्रम-सा शुरू कर दिया था सुधीर ने.
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वह रात याद कर आज भी श्यामली का रक्तचाप तेज़ हो जाता है. सुधीर ह़फ़्तेभर के टूर से लौटकर आए थे. हर रोज़ की तरह उन्होंने तीन-चार पैग चढ़ाए व खाना खाकर बिस्तर पर पसरते ही यंत्रवत श्यामली को अपनी ओर खींचा और कहने लगे, “इस बार हमारा बॉस रेड लाइट एरिया की सैर कर आया… रसिक क़िस्म का इंसान है. बता रहा था, इस बार नेपाली लड़की मिली थी… बड़ी चिकनी होती हैं नेपाली लड़कियां…”
प्रेम करने का यह कैसा तरीक़ा है… न प्रेमालाप, न वाणी का माधुर्य… उस पर इतनी घृणास्पद बातें कितनी बेतकल्लुफ़ी से कर लेते हैं सुधीर! श्यामली का मन कसैला हो गया. फिर भी प्रतिक्रिया स्वरूप वह चुप ही रही.
पर उसी रात जब अंतरंग क्षणों के दौरान सुधीर बोल उठे, “कुछ भी कहो यार. बीवी आख़िर बीवी होती है…. जो मज़ा बीवी के साथ है, वह किसी और के साथ नहीं… क्यों?” मानो जवाब में श्यामली की स्वीकृति चाहते हों.
क्षणभर के लिए श्यामली के दिल की धड़कन कहीं खो-सी गई… तो क्या सुधीर भी नेपाली लड़की के साथ?.. छीः छीः… यह वह क्या सोच रही है?
…तो फिर क्यों कहा सुधीर ने ऐसा? यह तुलना किस आधार पर की गई? क्या केवल मेरे मन को कष्ट पहुंचाने के लिए? जीवनभर ये प्रश्न श्यामली के विचारों को मथते ही रहे.
सच-झूठ की कशमकश के साथ बात उस रात के साथ ही दब गई. फिर न श्यामली इस मुद्दे को उठा पाई, न ही सुधीर ने कभी चर्चा की, पर फांस तो श्यामली के दिल में कहीं फंस कर रह गई थी.
आए दिन सुधीर कोई न कोई मन को विचलित कर देनेवाली बात श्यामली के समक्ष कर देते. उसे मानसिक पीड़ा पहुंचाकर एक अजीब सा संतोष का भाव उभर आता था सुधीर के चेहरे पर. शायद मनोरोग का केस है, यह मानकर श्यामली हर बात सुन लेती, सह लेती व भूलने का प्रयास करती थी.
सुधीर द्वारा दिए जाने वाली मानसिक यंत्रणाओं के बावजूद श्यामली सुधीर की इच्छानुसार स्वयं को निर्विवाद रूप से हर रात उसे सौंप देती, जबकि वह अच्छी तरह से महसूस कर रही थी कि सुधीर के लिए वह एक ज़रूरत की वस्तु भर रह गई है. एक ऐसा उपकरण, जिसका वह अपनी इच्छा व आवश्यकतानुसार अधिकारिक रूप से इस्तेमाल कर एक ओर सरका देते हैं.
परंतु फिर भी श्यामली सुधीर के स्पर्श मात्र से अपने सारे कष्ट बिसरा देती थी व उनके यांत्रिक प्रेम में भी संवेदनाओं व भावनाओं के अंश ढूंढ़ने का प्रयत्न करती थी. उसे आशा थी कि यह निर्जीव रिश्ता एक न एक दिन अवश्य स्पंदित होगा.
कई बार जब सुधीर के मित्र घर पर आते, तो मज़ाक में श्यामली से कहते, “भाभीजी, सुधीर की लगाम ज़रा कस के रखिए. आपने कुछ ज़्यादा ही ढील दे रखी है.” और साथ ही सुधीर को देख व्यंग्यात्मक मुस्कुराहटों का आदान-प्रदान उनके बीच हो जाता था.
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ऐसे मौक़े पर असहज हो जाती थी श्यामली. अपरोक्ष रूप से सबके बीच स्वयं को अपमानित महसूस करती, परंतु मामले को तूल देने की बजाय केवल मुस्कुराकर रह जाती. बाद में एकांत में घंटों उन बातों का ओर-छोर ढूंढ़ने का प्रयास करती कि बाहर ऐसा क्या करते होंगे सुधीर, जो उनके दोस्तों ने ऐसा व्यंग्य किया?
सुधीर से इसका स्पष्टीकरण उसने कभी नहीं मांगा. पता नहीं, चुप रहने की क़सम रोक देती थी या यह आशंका कि यदि सुधीर ने सचमुच खड़े-खड़े शब्दों में अनचाहा व्यक्तव्य स्पष्ट कर दिया तो?
अभी तो दिल को यह कह कर समझा लेती है कि ये सब मन का भ्रम है, परंतु यदि कुछ अमान्य सा स्पष्ट हो गया तब क्या करेगी वह? विरोध करेगी, बवाल मचाएगी या भूख हड़ताल करेगी? इनमें से किसी भी बात का सुधीर पर असर नहीं होगा, यह वह अच्छी तरह से जानती थी. आख़िर चुप रहना ही श्यामली ने ठीक समझा.
जीवन एक ढर्रे पर चल पड़ता है, तो सुख की तरह दुख भोगने की भी आदत सी पड़ जाती है. बिना प्रतिकार के एक लंबा अरसा यूं ही गुज़ार दिया था श्यामली ने. इस बीच सुमीत-अमित के जन्म-परवरिश में ही छोटी-छोटी ख़ुशियां ढूंढ़कर जीना सीख लिया था.
लेकिन सुधीर के स्वभाव में रत्तीभर भी परिवर्तन नहीं आया था. श्यामली जितना उनके क्रियाकलापों को नज़रअंदाज़ करने की कोशिश करती, उतना ही वे एक न एक आपत्तिजनक घटना से उसे विचलित करने की कोशिश करते.
उस शाम सुधीर घर में अपना कोई ऑफिस का काम कर रहे थे. उन्होंने श्यामली से कहा, “ज़रा मेरा पर्स उठाना, उसमें देखो कोई शर्मा का कार्ड होगा, वह देना ज़रा…” श्यामली ने पर्स उठाकर बिना खोले ही सुधीर को पकड़ा दिया.
सुधीर ने अकस्मात श्यामली की कलाई खींचकर उसे अपने पास सोफे पर बैठाया व स्वयं पर्स खोलकर कार्ड ढूंढ़ने का उपक्रम करने लगे. साथ ही पर्स में से एक कंडोम का पैक निकालकर श्यामली की गोद में डाल दिया. अनपेक्षित स्थिति से श्यामली की सांसों की गति तेज़ हो गई. हृदय गहरे में कहीं डूबता सा महसूस हुआ. इसकी ज़रूरत तो वर्षों पूर्व पीछे छूट गई थी. अपनी मनोदशा को छिपाकर आवाज़ के कंपन पर काबू पाने की चेष्टा करते हुए सहजता प्रदर्शित कर वह बोली, “यह क्या?”
“अरे बॉस दिखा रहा था… मेरे पास रह गया… जाओ फेंक दो.” बेफ़िक्री से सुधीर बोले.
बॉस ने ये क्यों दिखाया होगा सुधीर को? और बॉस इन बातों पर सुधीर से क्यों चर्चा करते होंगे? एक साथ कई अनुत्तरित प्रश्न श्यामली को घेरने लगे.
सारे प्रश्नों के उत्तर श्यामली स्वयं ही बना लेती थी. ‘हो सकता है केवल मुझे आहत करने के लिए ही सुधीर ने यह नाटक किया हो. यदि उनके मन में खोट होता, तो वे अवश्य हड़बड़ाते, मुझे इतनी सहजता से नहीं बताते.
फिर वही तसल्ली… वही स्वयं का स्वयं को दिलासा… और उन्हीं विचारों के साथ बात आई-गई हो गई. शेष रह गई टीस, जो अक्सर टीवी या किताबों में कंडोम का विज्ञापन देखते ही उभर आती.
वैवाहिक जीवन के पच्चीस वर्ष यूं ही सरक गए थे. अमित ने कंप्यूटर इंजीनियरिंग कर अमेरिका में नौकरी पा ली थी. सुमीत कानपुर में हॉस्टल में रहकर अपनी इंजीनियरिंग पूरी कर रहा था. घर में केवल सुधीर व श्यामली रह गए थे.
बच्चे साथ थे तो ख़ुश होने के कई मौक़े ढूंढ़ लेती थी श्यामली, पर अब तो जैसे सुख-दुख का लेखा-जोखा रखना भी उसने छोड़ दिया था. जो हो रहा है सब ठीक ही है, मान कर जीना ही है. परंतु ‘घूरे के दिन भी फिरते हैं’ वाली कहावत भी तो चरितार्थ होनी थी. इसी तरह वह घटना श्यामली के जीवन का टर्निंग पॉइंट साबित हुई थी.
सुधीर उस रोज़ देर रात ऑफिस से लौटे थे. पीकर तो वह आए ही थे, घर पर भी उन्होंने ज़रूरत से ज़्यादा पी ली. व्यवहार में बेचैनी व चेहरे पर तनाव था. श्यामली शांत चित्त से यथावत खाना गर्म कर टेबल पर लगा रही थी. श्यामली की चुप्पी और शांति सुधीर को मौक़ा ही नहीं देती थी कि वह किसी बात पर उखड़े व अपने मन की भड़ास निकाल सकें.
खाने के दौरान अचानक सुधीर बिफर पड़े, “इतनी ठंडी दाल… लो तुम्हीं खा लो…” के साथ ही उन्होंने दाल की प्लेट उठाकर श्यामली के मुंह पर दे मारी. श्यामली स्तब्ध रह गई थी. बीते वैवाहिक काल में सुधीर ने चाहे कितने ही मानसिक कष्ट क्यों न दिए हों, पर इतनी ओछी और विध्वंसक हरकत उन्होंने कभी नहीं की थी और न ही श्यामली ने कभी उसकी कल्पना की थी.
सुधीर लड़खड़ाते हुए जाकर अपने बिस्तर पर गिर गए. श्यामली सारी रात रोती रही. वह समझ नहीं पा रही थी कि कहां चूक गई है? क्या हर वक़्त चुप रहकर सहनशीलता दिखाकर उसने भूल की है? सुधीर जान गए हैं कि वह आवाज़ नहीं उठाएगी, मुंह नहीं खोलेगी, शायद इसीलिए उनका हौसला इतना बढ़ गया, वरना क्या ऐसा संभव था? मेरे समर्पण का ऐसा प्रतिफल?
कष्टदायी बातों को हर संभव भुलाने का प्रयास ही तो करती रही है श्यामली, पर क्या यह अपमान भी चुपचाप सह ले? यदि दोनों बेटों की उपस्थिति में इस अपमान का घूंट पीना पड़ता तो वह जीते जी धरती में समा जाना पसंद करती. रोते-रोते न जाने कब श्यामली की आंख लग गई.
सुबह यथावत सुधीर को चाय देकर श्यामली अपने कार्यों में लग गई. सोच रही थी कि कहने को प्रेम-विवाह किया है, पर जीवनभर सुधीर के निश्छल प्रेम के लिए तरसती ही रही है वह. प्रेम तो इंसान को कितना सहज व नरम बना देता है. पर सुधीर का प्रेम हमेशा वर्चस्व जमाने की कोशिश में ही होता था. हर वक़्त उनका अहंकार प्रेम पर हावी रहता था.
बच्चों व सुधीर के प्रति श्यामली की पूरी निष्ठा थी तभी तो अपने अंतस् के दर्द को उसने कभी कर्त्तव्यों पर हावी नहीं होने दिया. इसीलिए शायद सुधीर के रात के व्यवहार के बावजूद वह तन्मयता से टेबल पर उनका नाश्ता लगाने में जुटी थी.
सुधीर ने बिना कुछ कहे-सुने चुपचाप नाश्ता किया व ऑफिस जाते-जाते कुछ रुक कर श्यामली के पास आए और बिना किसी भूमिका के बोले, “कल रात मुझसे भूल हो गई थी, सॉरी.” और एक झटके के साथ बाहर निकल गए.
जीवन में यह पहला अवसर था जब सुधीर के मुंह से ‘सॉरी’ जैसे शब्द निकले थे. श्यामली एक ही क्षण में जीवनभर के कष्ट भूल गई थी. वही क्षण शायद सही अर्थों में श्यामली के नवजीवन की शुरुआत का बिंदु था.
पूरा दिन ख़ुशी और उमंग के मारे श्यामली पगलाती रही. सुधीर के लौटने की प्रतीक्षा में पल-पल भारी पड़ रहे थे. उनके ऑफिस से लौटने का इतनी व्यग्रता से इंतज़ार पहले कभी नहीं किया था उसने.
रात गए जब आंखें मूंदकर सुधीर बेचैनी से सोने का प्रयास कर रहे थे, तो श्यामली ने हौले से सुधीर के माथे पर हथेली रखते हुए पूछा, “क्या बात है, नींद नहीं आ रही है?”
बिना किसी प्रत्युत्तर के सुधीर ने श्यामली की हथेली अपने हाथों में ले ली और बोले, “मुझे माफ़ कर देना श्यामली.”
“किसलिए?”
“बहुत सारी बातों के लिए… उन सभी ग़लतियों के लिए, जो मैं जीवनभर जान-बूझकर करता रहा.”
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कौन-सी ग़लतियां- यह जानने की हिम्मत श्यामली में नहीं थी. अधिक स्पष्टीकरण से लाभ भी क्या था? परंतु आज ग़लतियों को स्वीकार कर सुधीर का माफ़ी मांगना अपरोक्ष रूप से यह स्पष्ट कर गया कि जीवनभर जिन्हें वह भ्रम मानकर मन को तसल्ली देती रही, वे भ्रम नहीं सत्य थे. जीवन में भावनात्मक रूप से स्वयं को इतना कंगाल कभी महसूस नहीं किया था श्यामली ने. मन-मस्तिष्क पर बड़ी कठिनाई से काबू पाकर चुप्पी साधे वह सुधीर को ध्यान से देखती रही.
सुधीर का यह हारा हुआ रूप भी तो वह पहली बार देख रही थी. श्यामली की हथेली को अपने हाथों में कसकर दबाए आंखें मूंदे चुपचाप निश्चेत लेटे हुए थे सुधीर. अपनी ग़लतियों को स्वीकार कर शायद भार मुक्त हुए थे. सुधीर की बंद आंखों की पोरों पर जमा आंसू की बूंदों को देख श्यामली का हृदय भर आया.
“भूल जाओ सब कुछ…” श्यामली ने हौले से कहा, “और मैं भी भूल जाऊंगी… बस अब तो ठीक है?” कितनी आसानी से हल कर दिया था विषमताओं को श्यामली ने. जीवन की जिन उलझनों को सुलझाना मुश्किल हो, उन्हें भुलाना ही शायद एकमात्र हल है.
उस रात श्यामली ने सुधीर के स्पर्श में जो अपनत्व का एहसास महसूस किया, वह बीते कई वर्षों में उसकी भोग्या बनी रहने में भी नहीं किया था. रातभर वह सुधीर के पास ऐसे दुबकी रही जैसे किसी खोए हुए बच्चे को कई वर्षों बाद बिछड़ा साया मिल गया हो.
सारी स्थितियां अप्रत्याशित रूप से श्यामली के पक्ष में हो गई थीं. सेवानिवृत्ति के पश्चात् तो जैसे सुधीर ने श्यामली का स्थान ले लिया था. जिस शिद्दत से श्यामली ने जीवनभर सुधीर को सहा व झेला था, शायद उन सबकी भरपाई वह कर डालना चाहते थे.
“कॉफी को क्या शर्बत बनाकर पिओगी?” सुधीर की आवाज़ से श्यामली वर्तमान में लौट आई. कप हाथ में धरे-धरे ही कॉफी ठंडी हो गई थी. एक घूंट में कॉफी गटककर वह कमरे में आ गई. जब भी वह अपनी जीत को जी भर कर महसूस कर ख़ुश होना चाहती, अनायास ही वे सारे क्षण याद आ जाते जो उसे हार-जीत के प्रश्न पर अटका देते थे.
श्यामली ने अपनी पसंद की कैसेट टेप में डालकर बटन दबाया और गीत की ये पंक्तियां गूंजने लगीं ‘…ए सनम तेरे बारे में कुछ सोचकर अपने बारे में कुछ सोचना जुर्म है…’
सच ही तो है, प्रेम के बहीखाते में देने का ही तो हिसाब रखा जाता है, पाने का नहीं. इसीलिए शायद प्यार में सब कुछ हार जाना भी बड़ी जीत होती है. यही सोचकर श्यामली अपने मन को तसल्ली देने लगी.
- स्निग्धा श्रीवास्तव
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