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कहानी- हम और तुम (Short Story- Hum Aur Tum)

आख़िर उसे किस क़सूर की सज़ा मिल रही है. उसकी कोई फ्रेंड भी नहीं थी, जिससे वह अपना दर्द कह सकती. रवि के ऑफिस जाने के पश्चात् वह इंटरनेट खोल कर बैठ जाती थी. इंटरनेट पर ही उसकी मुलाक़ात संजय से हुई और वह उसका अच्छा नेट फ्रेंड बन गया था. श्रुति की भांति उसकी भी साहित्य में रुचि थी. जब मन अशांत होता, तो अक्सर वह संजय से मन की बात कह देती थी.

श्रुति ने तैयार होकर स्वयं को आईने में निहारा. शाम के छह बज रहे थे. उसका और रवि का आज पिक्चर देखने का प्रोग्राम था. आज बहुत दिनों बाद उसने रवि से पिक्चर देखने का आग्रह किया था, जिसे रवि ने बिना किसी ना-नुकुर के मान भी लिया था. इससे पहले जब भी श्रुति ने बाहर घूमने की इच्छा व्यक्त की, रवि ने सदैव कोई न कोई बहाना बनाया था. इसी कारण आज श्रुति प्रसन्न थी. किंतु ज्यों ज्यों समय बीत रहा था, उसका मन बेचैन हो रहा था. सात बजते-बजते श्रुति का मन क्रोध से भर उठा, लेकिन क्या फ़ायदा? यह कोई पहला अवसर नहीं था जब रवि ने उसकी ख़ुशियों का गला घोंटा था. वह तो पहले दिन से ही ऐसा करता आया था. अनायास ही उसकी आंखों में आंसू छलछला आए. हद्वय की वेदना काव्य की चंद पंक्तियों के रुप में काग़ज़ पर उतर आई. श्रुति ने सोचा, क्यों न वह इन पंक्तियों को संजय को पढ़वाए. उसने तुरंत इंटरनेट खोला. संयोग से उसे संजय ऑनलाइन मिल गया. उसने वे पंक्तियां संजय को लिख भेजीं. संजय का मन उन्हें पढ़कर अभिभूत हो उठा. उस दिन चैटिंग के दौरान श्रुति ने जाना, उसकी भांति संजय भी अकेला और दुखी था. इससे पहले कि श्रुति उसके दुख का कारण पूछती, संजय ने उससे विदा ले ली. थोड़ी देर बाद कॉलबेल बजी. उसने दरवाज़ा खोला. रवि को आया देख वह अपने कमरे में आ गई.
‘‘पूछोगी नहीं, आने में देर क्यों हुई?" रवि ने उसके पीछे आते हुए कहा.
"इसमें पूछने की कौन सी बात है, हमेशा की भांति ऑफिस में आवश्यक काम आ गया होगा.’’ श्रुति तल्खी से बोली. रात में वह कमरे में आई, तो देखा, रवि निश्चिंत होकर सो रहा था. उसने उसे मनाने का तनिक भी प्रयास नहीं किया था. उसने लेटे-लेटे गौर से रवि को देखा. नितांत अपना होते हुए भी वह उसका अपना नहीं था. कहने को उसके विवाह को सिर्फ़ चार माह बीते थे, किंतु ये चार माह उसे एक युग के समान लगे थे. सतरंगी सपनों से बोझिल पलकें और हृदय कंवल पर झिलमिलाते ओस कण लिए जब वह पहली रात रवि के सानिध्य में आई थी, तो उसकी तटस्थता और बेरुखी के कठोर धरातल से टकराकर सतरंगी स्वप्न चूर-चूर हो गए थे. मरुभूमि पर गिरकर ओस कण सूख गए थे. वह चाहती थी कि पूछे रवि से, क्यों वह इतना बुझा-बुझा और नीरस रहता है, पर संकोचवश कुछ भी न पूछ सकी.


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नवविवाहित जोड़े की तरह न हंसी-ठिठोली, न मान-मनुहार और न घूमना-फिरना. मात्र पति धर्म की औपचारिकता ही पूरी करता रहा रवि उसके साथ. कुछ दिनों बाद उसकी ननद अनु आई थी. उससे इतना पता चला था कि रवि बहुत मुश्किल से इस विवाह के लिए राजी हुआ था. रवि और श्रुति के पिता मित्र थे. श्रुति के शांत स्वभाव और घर के कामकाज में निपुण होने के कारण वह उसे काफ़ी पसन्द करते थे और अपने घर की बहू बनाना चाहते थे. उन्होंने रवि से उसकी राय पूछी, तो रवि ने इंकार करते हुए कहा था, "नहीं पापा, मुझे ऐसी घरेलू लड़की से शादी नहीं करनी है. इस आधुनिक युग में जिसकी पहचान ही रसोई हो.’’
‘‘तुम कहना क्या चाहते हो, श्रुति पढ़ी-लिखी नहीं है? साहबजादे एमए करने के पश्चात् उसने इसी साल जर्नलिज़्म में डिप्लोमा किया है.’’
‘‘किया होगा पापा, किंतु लगती वह एकदम घरेलू है. साथ ही रंग भी उसका सांवला है. पापा मैं ऐसी लड़की से विवाह करना चाहता हूं, जो ख़ूबसूरत और स्मार्ट हो. मेरे सर्किल में भलीभांति मूव कर सके. जिसमें कुछ अलग हट कर हो, जो उसके व्यक्तित्व की पहचान हो.’’ ‘‘बेटा, श्रुति और उसका परिवार हमारा देखाभाला है. वह हमारे परिवार में आसानी से घुलमिल जाएगी और तुम्हारे अनुरुप ढल भी जाएगी,’’ रवि की मम्मी ने समझाया था.
घरवालों के अत्यधिक ज़ोर देने पर रवि ने विवाह तो कर लिया था, किंतु वह अभी तक मन से श्रुति को स्वीकार नहीं कर पाया था. इसी कारण वह उसके साथ कहीं आता-जाता भी नहीं था. श्रुति रवि को प्रसन्न रखने का, अपनी ओर आकर्षित करने का भरसक प्रयास करती, किंतु उसके सारे प्रयास विफल थे. वह नहीं समझ पा रही थी आख़िर उसे किस क़सूर की सज़ा मिल रही है. उसकी कोई फ्रेंड भी नहीं थी, जिससे वह अपना दर्द कह सकती. रवि के ऑफिस जाने के पश्चात् वह इंटरनेट खोल कर बैठ जाती थी. इंटरनेट पर ही उसकी मुलाक़ात संजय से हुई और वह उसका अच्छा नेट फ्रेंड बन गया था. श्रुति की भांति उसकी भी साहित्य में रुचि थी. जब मन अशांत होता, तो अक्सर वह संजय से मन की बात कह देती थी. अपनी लिखी रचनाएं भी वह उसे पढ़वाती. संजय द्वारा प्रोत्साहित होकर श्रुति वे रचनाएं विभिन्न पत्रिकाओं में भेजने लगी थी. अभी हाल ही में उसकी पहली कहानी देश की जानी-मानी पत्रिका में छपी थी, किंतु
उसने रवि को इस बारे में कभी कुछ नहीं बताया. रवि की व्यस्त ज़िन्दगी में उसके लिए कोई जगह नहीं थी.
एक दिन रवि के घनिष्ट मित्र प्रशान्त ने रवि से कहा, ‘‘यार, तू इतनी देर तक ऑफिस में बैठा काम करता रहता है और श्रुति घर में प्रतीक्षा करती रहती है. कुछ तो उसकी भावनाओं का ख़्याल कर.’’ रवि ने एक ठंडी सांस भरी, ‘‘क्या ख़्याल करुं, जबरन थोपे हुए रिश्ते ज़िन्दगी पर एक बड़ा बोझ होते हैं प्रशान्त, जिन्हें निभाने में कितनी घुटन होती है, इसका एहसास तुम्हें नहीं हो सकता. तुम्हें जीवन में सब कुछ मिला दोस्त, जिससे प्यार करते थे विवाह भी उसी से हुआ किंतु मुझे क्या मिला? ज़िन्दगी की सबसे बड़ी बाजी हार गया मैं.’’ प्रशान्त बोला, ‘‘मैं जानता हूं, तुमने जीवन में चोट खाई है, किंतु परिस्थितियों से समझौता करने में ही भलाई है. जो नहीं मिला, उसका अफ़सोस करने से बेहतर है जो कुछ हमारे पास है, उसी में सुख तलाशा जाए.’’
‘‘श्रुति में ऐसा कुछ भी नहीं, जो मुझे उसके साथ बांध सके. आजकल पढ़ी-लिखी लड़कियां घर के कामकाज तक ही सीमित नहीं होतीं. उनमें दूसरे गुण भी होते हैं, जो उनका व्यक्तित्व निखारते हैं.’’
‘‘तुम कैसे कह सकते हो कि श्रुति में कोई गुण नहीं. तुम उससे मतलब ही कितना रखते हो. रवि, सच तो यह है कि तुम श्रुति में चारु को तलाश रहे हो, इसलिए उसके गुण देखना ही नहीं चाहते.’’ प्रशान्त चला गया, किंतु रवि को बेचैन कर गया. उसने कार स्टार्ट की और घर की ओर चल पड़ा. उसके हाथ स्टीयरिंग घुमा रहे थे, किंतु दिमाग़ में विचारों का झंझावत चल रहा था. रह-रहकर गुज़रे पल याद आ रहे थे. उन दिनों वह एमबीए कर रहा था. एक दिन वह कार से पापा के ऑफिस जा रहा था. रातभर तेज बारिश होने के कारण सड़क पर जगह-जगह पानी था. ज्यों ही उसकी कार ने दाई ओर टर्न लिया, उसे एक तेज चीख सुनाई दी. रवि ने घबराकर ब्रेक लगा दिए. सड़क के किनारे एक लड़की खड़ी आग्नेय नेत्रों से उसे घूर रही थी, ‘‘सड़क को क्या अपने बाप की जागीर समझ रखा है? गाड़ी देखकर नहीं चला सकते. आंखें हैं या बटन. सारे कपड़े ख़राब कर दिए.’’ ‘‘ओह, आई एम वेरी सॉरी.’’
‘‘सॉरी माई फुट.’’ लड़की ने मुंह बिचकाया. रवि ऑफिस पहुंचा. जैसे ही वह पापा के केबिन में घुसा, आश्चर्यचकित रह गया. सामने वही लड़की खड़ी पापा से बातें कर रही थी. उसे देख वह बोली, ‘‘ओह, तुम यहां भी आ गए. सर, यही है वह स्टुपिड, जिसने मेरे कपड़े ख़राब कर दिए.’’
‘‘यह स्टुपिड मेरा बेटा है, अब तुम अपना काम करो.’’ सकपकाई-सी वह बाहर चली गई. रवि जब बाहर निकला, उसके समीप आकर वह बोली, ‘‘सॉरी, मुझे पता नहीं था, आप सर के…’’
‘‘कोई बात नहीं. मुझे रवि कहते हैं.’’
‘‘मैं चारु, आपकी कम्पनी में टाइपिस्ट हूं,’’ मुस्कुराते हुए उसने रवि से हाथ मिलाया. रवि को उसकी यह बेबाक़ी भा गई. पहली नज़र में ही उसे वह अच्छी लगी थी. अब वह अक्सर ऑफिस आकर चारु से मिलने लगा था. धीरे-धीरे रवि और चारु का प्रेम परवान चढ़ने लगा. मुलाक़ातों का सिलसिला इतना बढ़ा कि बात रवि के पापा के कानों तक पहुंची.
उन्होंने कहा, "सुना है, आजकल तुम चारु के साथ घूमते-फिरते हो. देखो बेटा, चारु अच्छी लड़की नहीं है. तुमसे पहले भी ऑफिस के कई लड़कों के साथ उसका नाम जुड़ चुका है.’’
‘‘पापा, लोग तो किसी के बारे में कुछ भी कहते हैं. मैं लोगों की परवाह नहीं करता. मैं चारु से प्यार करता हूं और उसी से शादी करुंगा.’’ पापा का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा था. दृढ़ स्वर में वह बोले थे, ‘‘देखो, यह करियर बनाने का समय है. अपने पैरों पर खड़े हो जाओ, फिर शादी की बात करना.’’ रवि ने पापा की बात पर ध्यान नहीं दिया. किंतु कुछ दिनों बाद चारु ने शहर के एक बड़े बिज़नेसमैन के बेटे से शादी कर ली. रवि का दिल टूट गया. उसे चारु से बेवफ़ाई की उम्मीद नहीं थी. एमबीए करने के बाद उसे मुंबई में नौकरी मिली. दो साल बाद पापा ने जबरन श्रुति से उसका विवाह कर दिया. सोचते-सोचते घर आ गया.
घर में प्रशान्त और उसकी पत्नी को देख वह हैरान हो उठा. ‘‘तुम लोग यूं अचानक? आज कोई ख़ास बात है क्या?"
‘‘किस दुनिया में खोए रहते हैं भइया, आज श्रुति का जन्मदिन है.’’ रवि ख़ामोश रहा, किंतु प्रशान्त के जाते ही श्रुति पर बरस पड़ा, ‘‘मुझे सुबह नहीं बता सकती थीं, आज तुम्हारा जन्मदिन है. दूसरों के सामने अपमानित करके क्या साबित करना चाहती हो, मैं तुम्हारी उपेक्षा करता हूं. तुम पर ज़ुल्म करता हूं." श्रुति चुपचाप वहां से चली गई.
उस रात वह सोचती रही, क्या उसकी सादगी, उसका सांवला रंग उसके लिए अभिशाप है? क्या उसे पति का प्यार कभी नसीब नहीं होगा? रवि सुंदर पत्नी चाहता था, तो उसने मां-बाप की इच्छा के आगे घुटने क्यों टेके? क्या सारी ज़िन्दगी उसे घुट-घुटकर जीना होगा? नहीं, उसे जॉब करनी चाहिए. संजय कई बार उसे जॉब करने की सलाह दे चुका था. अगले दिन दोपहर में श्रुति संजय के साथ चैटिंग करने बैठी, तो उसने कहा, ‘‘संजय, क्या तुम जॉब दिलवाने में मेरी मदद कर सकते हो?"
‘‘तुम चिन्ता मत करो. अपनी कंपनी में ही तुम्हें लगवा दूंगा. कल शाम तुम मुझे चायनीज़ रेस्तरां में मिलो, किंतु मैं तुम्हें पहचानूंगा कैसे?"
"मैं गुलाबी सूट पहनकर आऊंगी.’’ श्रुति बोली.


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अगले दिन चायनीज़ रेस्तरां पहुंचने पर श्रुति का मन घबरा रहा था, किंतु जॉब की ख़ातिर उसे संजय से मिलना ही था. संजय ने बताया था, हॉल में वह पांच नम्बर की टेबल पर बैठा होगा.
श्रुति करीब पहुंचकर बोली, ‘‘हैलो.’’ चेयर पर बैठा व्यक्ति जैसे ही मुड़ा, उसे देख श्रुति चिहुंक उठी, ‘‘रवि तुम.’’ अचरज से रवि की आंखें फैल गई. कठोर स्वर में वह बोला, ‘‘श्रुति, तुम यहां क्यों आई हो?"
"मैं जॉब के सिलसिले में अपने नेट फ्रेंड से मिलने आई हूं,’’ घबराहट में वह बोली. प्रशान्त, जो रवि के साथ वहां आया था. श्रुति की बात सुनकर बोला, ‘‘भाभी, क्या आप अपने नाम से चैटिंग करती हैं?" ‘‘नहीं, सुरभि के नाम से.’’
‘‘क्या?" रवि का मुंह खुला रह गया.
"तुम्हारे उस नेट फ्रेंड का नाम क्या है?"
‘‘संजय.’’ श्रुति के बोलते ही प्रशान्त खिलखिलाकर हंस पड़ा.
"भाभी, कुछ समझीं आप, आपका रवि ही आपका नेट फ्रेंड संजय है. जिस तरह आप नाम बदलकर चैटिंग करती रही, उसी तरह रवि भी संजय के नाम से आपसे चैटिंग करता रहा. यह भी ख़ूब रही, अनजाने में ही सही, तुम दोनों ने एक-दूसरे से अपने दिल की बात तो कही.’’ प्रशान्त ने सबके लिए मंचूरियन ऑर्डर करके कहा, ‘‘चैटिंग के माध्यम से तुम दोनों एक-दूसरे को समझे. रवि, तुमने सुरभि को कभी नहीं देखा था, किंतु तुम उसकी साहित्यिक प्रतिभा से प्रभावित थे. विवाह के बाद तुमने श्रुति पर ध्यान दिया होता, तो तुम्हें ये गुण पहले ही दिखाई दे जाते और श्रुति तुम्हें भी पता चल गया न कि तुम्हारा पति इतना नीरस नहीं.’’ कुछ देर बाद दोनों घर लौटे. घर आकर दोनों ख़ामोश थे. रवि को लग रहा था, उसने श्रुति को उपेक्षित करके कितनी बड़ी भूल की. उसका अवचेतन मन आज तक श्रुति में चारु को तलाश रहा था, किंतु आज उसकी नज़रों में सुन्दरता की परिभाषा बदल चुकी थी. उसने गौर से श्रुति की तरफ़ देखा. गुलाबी सूट में उसका सांवला रुप और भी निखर गया था. चैटिंग के माध्यम से उसने श्रुति के मन की थाह पा ली थी. उसके विचार कितने सुलझे हुए थे. सोच कितनी परिपक्व थी. अब तक वह सोचता था, कितना पाषाण हृदय होगा वह व्यक्ति, जो इतनी अच्छी लड़की की उपेक्षा करता था. अब यह जानकर कि वह पाषाण व्यक्ति वह स्वयं था, उसे स्वयं पर ग्लानि हो रही थी.
रात में रवि कमरे में आया. श्रुति एक पत्रिका के पन्ने पलट रही थी. मन की भावनाओं पर काबू पाते हुए वह बोला, ‘‘श्रुति, मैं तुम्हें बहुत सीधी-सादी समझता था. तुम्हें पता नहीं था कि मैं ही संजय हूं. विवाहित होते हुए भी एक अनजान लड़के से चैटिंग करके अपने मन का हाल कहती रहीं. यहां तक कि उससे रेस्तरां में मिलने भी चल दीं.’’ श्रुति का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा. वह बोली, ‘‘बस रवि, बहुत हो चुका. अब मैं और सहन नहीं कर सकती. तुम भी तो विवाहित हो तुम्हें भी पता नहीं था, मैं सुरुभि हूं, फिर तुम क्यों चैटिंग करते रहे? क्या सिर्फ़ इसलिए कि तुम पुरुष हो, तुम्हारे लिए सब सही है और मैं औरत हूं, इसलिए मेरे लिए सब ग़लत.
नहीं रवि, मैं कल ही तुम्हारे पापा-मम्मी से पूछूंगी, तुमसे विवाह करवाकर उन्होंने मेरी ज़िन्दगी क्यों ख़राब की.’’ अचानक रवि मुस्कुरा दिया. स्नेह से श्रुति के हाथ थामकर बोला, ‘‘श्रुति, मुझे माफ़ कर दो. मैं यही देखना चाहता था, इतने गुणों के अलावा तुममें फाइटिंग स्पिरिट है या नहीं, जो हर लड़की में होनी चाहिए.’’ श्रुति आश्चर्य से रवि को देखने लगी. रवि ने श्रुति को गले से लगा लिया. श्रुति की आंखों में सतरंगी स्वप्न झिलमिला उठे. कल तक वह रवि से कितनी दूर थी और आज कितनी पास आ गई थी.

Renu Mandal
रेनू मंडल

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