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कहानी- जीवन संध्या की ओर… (Short Story- Jeevan Sandhya Ki Oor…)

मैं उठकर यूं ही पिताजी के कमरे तक गया. जाने क्यों बस उन्हें देखने का मन हो आया. कमरे में मध्यम रोशनी थी. पिताजी सो रहे थे और विशाल उनके पैर दबा रहा था. चाहे कितना भी व्यस्त क्यों ना हो, बहुत बचपन से विशाल की आदत है सोने से पहले दस-पंद्रह मिनट अपने बाबा के पास बैठकर उनके पैर ज़रूर दबाता है. मैं मन में एक आनंद मिश्रित संतुष्ट अनुभूति लेकर अपने कमरे में वापस आ गया. अपने दिए संस्कार सार्थक लगे मुझे.

मैं पोते को गोद में लिए हुए गैलरी में खड़ा होकर चिड़िया दिखाकर बहला रहा था. हालांकि आजकल आकाश में उड़ता हुआ हवाई जहाज भले दिख जाए, लेकिन चिड़िया दिखाई देना दुर्लभ हो गया है. तब भी इस घर के पीछे पेड़ों का लंबा सा झुरमुट है, जिनमें बहुत से पंछियों के घोसले हैं और दिनभर में कई बार इक्का-दुक्का चिड़िया चहकती हुई पेड़ों की फुनगियों पर फुदकती दिखाई दे जाती है. मैं पेड़ों की फुनगियों पर दृष्टि गड़ाए देखता रहता, जैसे ही कोई पंछी उड़ता मैं तुरंत ईशान को दिखाता, “वह देखो चिड़िया कैसे उड़ी…”
और ईशान ताली बजाकर हंसता, “फुर्र…”
मकान के पीछे विश्‍वविद्यालय की बड़ी सी खाली ज़मीन थी, जिसमें तरह-तरह के पेड़ लगे होने से सुबह-शाम चिड़ियों का अच्छा-ख़ासा कलरव लगा रहता था. सुबह-शाम  दो साल के अपने पोते ईशान को बहलाने के लिए मैं उसे लेकर गैलरी में खड़ा हो जाता और चिड़िया दिखाया करता, ठीक वैसे ही जैसे कभी मेरे पिताजी मेरे बेटे विशाल को बहलाया करते थे.
अचानक ही जैसे मेरी आंखों के सामने 30 बरस का अंतराल सिमट गया और मुझे लगा मेरी जगह मेरे पिताजी खड़े हैं विशाल को गोद में लेकर चिड़िया दिखा कर बहलाते हुए. समय के पंख कितने विशाल होते हैं एक ही क्षण में जैसे 30 वर्षों को नाप लिया उसने. “बाबा… बाबा…” ईशान अचानक नीचे देखकर किलकारी मार हंसने लगा.
मैंने नीचे देखा, पीछे के आंगन में पिताजी तार पर अपने कपड़े फैलाने की चेष्टा कर रहे थे. तार ऊंचा था और उम्र के हिसाब से पिताजी की कमर अब झुकने लगी थी. वे तन कर खड़े होने का भरसक प्रयत्न कर रहे थे, लेकिन हो नहीं पा रहे थे. गर्दन भी झुकने लगी थी. कुर्ते का कोना पकड़ कर उन्होंने उसे तार पर उछाल दिया. कुर्ता तार पर टंग गया. वह अब उसके दोनों कोनों को पकड़कर उसे फैलाने का प्रयत्न करने लगे. मुझे निर्मला पर क्रोध आया कि क्यों नहीं उसने पिताजी के कपड़े लेकर तार पर फैला दिए.
पायजामा फैलाने के बाद उन्होंने कंधे से गीली बनियान उठाई. मैं अब और खड़ा नहीं रह सका. ईशान को लेकर नीचे आया. निर्मला और बहू आन्या नाश्ते की तैयारी कर रही थी. मैंने ईशान को आन्या की गोद में दिया और निर्मला से कहा, “पिताजी से कपड़े तार पर फैलाए नहीं जा रहे, तुमने क्यों नहीं फैला दिए?”

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“मां ने तो बहुत कहा था पिताजी, लेकिन दादाजी मानते ही नहीं. कपड़े भी ख़ुद ही धोते हैं.” उत्तर आन्या ने दिया.
मैं पीछे के आंगन में गया. पिताजी जैसे-तैसे बनियान भी तार पर डाल चुके थे. मुंह पोंछने का नैपकिन उनसे सुखाया नहीं जा रहा था. “लाइए मुझे दीजिए, मैं सुखा देता हूं.” मैंने हाथ आगे बढ़ाया.
“मैं डाल दूंगा. रोज़ ही डालता हूं. आज क्यों नहीं सुखा पाऊंगा?” उन्होंने नैपकिन को कसकर पकड़ लिया.
“अब आज मैं यहां हूं, तो डाल देता हूं तार पर.” मैंने उन्हें इस तरह से कहा कि उनके अहम को ठेस ना लगे. उन्होंने भी मेरी ओर ऐसी दृष्टि से देखते हुए मुझे नैपकिन थमाया मानो मुझे जता देना चाहते हों कि मैं तो सुखा सकता हूं, लेकिन तुम ज़िद कर रहे हो, इसलिए दे रहा हूं, वरना मुझे कोई द़िक्क़त नहीं है.
मैंने कुर्ते और पायजामे की सिलवटें हटाकर ठीक से फैला दिया.
“नैपकिन को ऐसे नहीं, ठीक से फैलाओ… ऐसे आड़ा करके.” उन्होंने हाथ से इशारा करते हुए बताया.
“दिनभर अच्छी धूप रहती है. सूख जाएगा ऐसे भी. हवा भी चल रही है आज तो.”
मैंने कहा.
“इसलिए मैं ख़ुद ही डाल रहा था. तुम सुनते नहीं हो मेरी. मैं रोज़ आड़ा ही फैलाता हूं.” वे ज़िद से बोले.
जाने क्यों मुझे अचानक ही ईशान की याद आ गई. मैंने नैपकिन को उनके कहे अनुसार फैला दिया. उनके चेहरे पर आश्‍वस्ति की और अपनी बात माने जाने की एक संतुष्टि भरी मुस्कुराहट आ गई.


“ऐसे ही सुखाना चाहिए. ऐसे में सब तरफ़ से अच्छी धूप लग जाती है.” वे बोले.
“जी ठीक है. अब से मैं भी ध्यान रखूंगा.” मैंने कहा, तो वे प्रसन्न हो गए.
“आइए.” मैंने उनका हाथ पकड़ने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया. उन्होंने क्षण भर मेरी तरफ़ देखा, फिर दोनों हाथ पीछे कमर पर बांधकर आगे बढ़ गए. आजकल चलते हुए उन्हें अपनी कमर को सहारा देने के लिए दोनों हाथ पीछे बांधने पड़ते थे.
“कपड़े बाबू धो दिया करेगा आपके. आप क्यों धोते हैं? अब ठंडे पानी में इतनी देर हाथ मत रखा करिए.” मैंने उनके पीछे चलते हुए कहा.
“सारी ज़िंदगी मैंने अपने कपड़े ख़ुद ही धोए हैं.” वे बोले.
“तब की बात अलग थी.” मैंने कहा.
“क्यों अब क्या हो गया?” वे तुनक कर बोले.
मैं चुप रह गया. बढ़ती उम्र की बात कहकर मैं उनको बुढ़ापे का एहसास करा कर आहत नहीं करना चाहता था.
निर्मला ने टेबल पर नाश्ता लगा दिया था. आज आलू परांठे बने थे. पिताजी के लिए दलिया और बहुत कम घी में सेंका हुआ परांठा अलग से था. उन्होंने दलिए की कटोरी को बड़ी खीज के साथ देखा. आन्या ईशान को भी दलिया और आलू परांठा खिला रही थी, मगर उसे बस मक्खन की डली ही चाहिए थी. आन्या ने उसे बहुत समझाया और बहलाने का प्रयत्न किया, लेकिन ईशान को मक्खन की डली ही चाहिए थी, वह भी अपने हाथ से ही खानी थी.
आख़िरकार उसने प्लेट में हाथ मार कर मक्खन उठा लिया और किलकारी मारते हुए अपनी उंगलियां चाटने लगा. उसके मुंह पर मक्खन लिपट गया था. आन्या रुमाल से उसका मुंह साफ करने लगी, लेकिन ईशान अपनी करतूत पर ख़ूब खिलखिला रहा था. मैं और निर्मला अपने पोते को देख-देखकर निहाल हो रहे थे वैसे ही जैसे पिताजी और मां विशाल को देखकर होते थे और मैं उन दोनों पर खीज जाता था कि आप विशाल को बिगाड़ देंगे. वैसे ही जैसे विशाल हम पर नाराज़ हो जाता है ईशान की हर ज़िद मानने पर कि आप उसे बिगाड़ देंगे और मैं ठीक पिताजी के वाक्य दोहरा देता हूं, “तू बिगड़ा क्या? तो निश्‍चिंत रह, वह भी नहीं बिगड़ेगा.”
तभी पिताजी ने निर्मला से मक्खन मांगा.
“पिताजी, आपका बीपी हाई रहता है. डॉक्टर ने घी-मक्खन खाने को मना किया है.” निर्मला ने कहा.
“सूखा परांठा नहीं खाया जाता मुझसे.” पिताजी बोले.
“आप दही ले लीजिए.” निर्मला ने दही की कटोरी आगे बढ़ाई. उन्होंने गर्दन हिला कर मना कर दिया.

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मैंने दलिए का डोंगा उठाया, तो उन्होंने हाथ से उसे परे कर दिया, “मक्खन दो.” उन्होंने ज़िद की.
निर्मला ने मेरी तरफ़ प्रश्‍नवाचक दृष्टि से देखा. मैंने आंख के इशारे से उसे कहा कि थोड़ा सा दे दो. उसने एक छोटा टुकड़ा मक्खन का उनकी प्लेट में रख दिया. वह परम संतुष्टि से परांठा खाने लगे. बीच-बीच में वे रुमाल से अपना मुंह साफ़करते जातेे. जाने क्यों मैंने एक बार वात्सल्य से उन्हें देखा और एक बार ईशान को.
नाश्ता ख़त्म होने के बाद पिताजी अपने कमरे में चले गए. वह सुबह जल्दी उठते हैं, तो नाश्ते के बाद ज़रा देर आराम करते हैं. मैं ईशान को टीवी पर कार्टून लगाकर ड्रॉइंगरूम में लेकर बैठ गया.
दूसरे दिन मैंने फिर देखा, पिताजी तार पर कपड़े नहीं फैला पा रहे थे. मैंने नीचे जाकर कपड़े फैला दिए और बाबू से कह दिया कि तार को छह इंच नीचे कर दे, ताकि पिताजी को द़िक्क़त ना हो और उनका आत्मविश्‍वास भी बना रहे कि वह अभी भी तार पर पहले की तरह कपड़े फैला सकते हैं.
शाम को मैं पिताजी और ईशान को लेकर बाहर टहलने निकला. निकलने के पहले मैंने पिताजी से कहा कि छड़ी ले लीजिए, चलने में सहारा रहेगा. आगे सड़क बड़ी
उबड़-खाबड़ है.
“तुम ले लो छड़ी. अपने लिए मुझे सहारे की ज़रूरत नहीं है. अभी मैं चल सकता हूं आराम से.” वे थोड़ा तुनक गए छड़ी की बात पर. आजकल वह हर बात पर तुनक जाते हैं, चाहे मक्खन की बात हो, कपड़े सुखाने की हो या छड़ी की.
आगे सड़क पर गड्ढों को भरने का काम चल रहा था. थोड़ी सड़क दोबारा भी बन रही थी, तो पत्थर-गिट्टी बिखरी पड़ी रहती थी. कहीं पांव के नीचे पत्थर आ जाने से अचानक संतुलन बिगड़ जाए और वह डगमगा ना जाएं,  इसलिए छड़ी लेने को कहा था, ताकि वह ऐसी स्थिति में ख़ुद को संभाल पाएं. लेकिन उन्हें तो छड़ी चाहिए ही नहीं थी. मैंने धीरे से बाबू को इशारा कर दिया साथ चलने का.
सड़क पर आते ही ईशान हाथ छुड़ाकर अलग चलने की ज़िद करने लगा. हाथ पकड़ लेने पर वह पैर पटक कर रोने लगता कि उसे छोड़ दूं.


“दादू का हाथ पकड़ कर चलते हैं बेटा, नहीं तो गिर जाओगे और बाऊ हो जाएगा (चोट लग जाएगी).” मैंने उसे समझाया.
“नई-नई…” उसने मेरे हाथ झटक दिए और प्रसन्नता से किलकारी मारते हुए सड़क पर चलने लग गया, दौड़ने लगा. मैं उसके आसपास चलने लगा कि यदि वह गिरने को हुआ, तो उसे थाम सकू्ं.
“विशाल भी ऐसे ही करता था. मैं उसे पकड़ने जाता, तो वह हाथ छुड़ाकर अकेले चलने की ज़िद करता जैसे बहुत बड़ा हो गया हो.” पिताजी ईशान की ज़िद देखकर मुस्कुराते हुए बोले.
मेरा आधा ध्यान ईशान पर था और आधा पिताजी पर. दोनों ही अपनी ज़िद के चलते मुझे तनाव दे रहे थे. ईशान कभी दोनों हाथ फैला देता, कभी ताली बजाने लगता. डगमगाते कदमों को संतुलित करने के लिए उसके हाथों की भंगिमा भी लगातार बदल रही थी.
पिताजी के हाथ लगातार पीठ पर ही बंधे हुए थे. कभी-कभी अपने होंठों पर आई नमी को वे रुमाल से पोछते और दुबारा हाथ पीठ पर बांध लेते. अचानक पैर के नीचे पत्थर आने के कारण वे डगमगाए. मैंने और बाबू ने उन्हें थाम लिया. क्षण भर स्थिर रहकर उन्होंने हम दोनों के हाथ हटाए और पीठ पर हाथ बांधकर चलने लगे.
थोड़ी ही देर बाद सामनेवाले पेड़ से एक चिड़िया उड़ी. ईशान ने उसे देखने के लिए मुंह ऊपर उठाया और गड्ढे में पैर पड़ जाने के कारण सिर के बल गिरने को हुआ. मैं पीछे ही था, उसे थाम लिया.
“कहा था ना दादू का हाथ पकड़ कर चलो. नहीं तो गिर जाओगे.” मैंने उसका हाथ थाम लिया. इस बार वह चुपचाप मेरा हाथ पकड़ कर साथ चलने लगा. हम यूनिवर्सिटी कैंपस में बच्चों के लिए बने पार्क में पहुंचे. बाबू ईशान को पार्क में झूला झूलाने लगा और मैं पिताजी के पास एक बेंच पर बैठ गया.
मैं इसी यूनिवर्सिटी में बॉटनी का प्रोफेसर था और छह माह पहले ही रिटायर हुआ. विशाल फिज़िक्स का प्रोफेसर है और एक कठिन टॉपिक पर पीएचडी करने के कारण आजकल उसे समय कम ही मिल पाता है परिवार के लिए. लेकिन मैं पूरी निश्‍चिंतता से पिताजी की वृद्धावस्था की देखभाल और ईशान की बाल्यावस्था का आनंद लेता रहता हूं इन दिनों.

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पैदल चलकर आने के कारण पिताजी शायद थक गए थे. उनका मुंह हल्का सा खुला हुआ था. संभवतः वह मुंह से सांस ले रहे थे. होंठों के किनारों पर हल्की सी लार बह आई थी, गाल लटक आए थे, गले पर और चेहरे पर ढेर सारी झुर्रियां थीं. आंखें धुंधली सी लग रही थीं, जांघों पर रखी हथेलियां और उंगलियां गांठदार हो गई थीं.
कितने बूढ़े और अशक्त लग रहे थे पिताजी. मुझे याद आए वह पिता, जो मुझे कंधे पर बिठाकर बस पकड़ने दौड़े जाते थे, जो बाज़ार से वापस आते हुए मुझे कंधे पर बिठाकर सामान से भरे थैले उठाकर आराम से सीढ़ियां चढ़ जाते थे. दादा बनने के बाद भी वह इतने तंदुरुस्त थे कि जिन्हें सब विशाल का ही पिता समझते थे. कब वे इतने बूढ़े और अशक्त हो गए… मेरे दिल में अजीब सा कुछ ऐंठने लगा, गले में कुछ अटक गया. इतने बरस नौकरी की भागदौड़ में कभी मेरा ध्यान ही नहीं गया कि पिता की आयु कितनी बढ़ रही है. अचानक मेरा मन किया कि उनके कंधे पर सिर रख दूं और वह मेरा सिर थपथपा दें, लेकिन मैं उस यूनिवर्सिटी के कैंपस में बैठा था जहां मैं प्रोफेसर था.
मैंने अपना ध्यान ईशान पर लगाने का प्रयत्न किया. आंखें तो उस पर टिक गईं, लेकिन मन पिताजी पर ही लगा रहा. जाने क्यों लग रहा था कि मैं फिर एक बार बच्चा बन जाऊं और पिताजी मुझे कंधे पर बिठाकर बाज़ार से घर ले जाएं. गोद में उठाकर मेरा बस्ता अपने कंधे पर टांग कर स्कूल पहुंचाने जाएं.
जिस पिता ने मुझे उंगली थाम कर चलना सिखाया, उस पिता के कदमों को डगमगाते देखना मन को उदास कर देता है. जिस पिता ने ज़मीन पर सीधा खड़ा होना सिखाया, उस पिता की कमर को झुकते हुए देखना हताश कर देता है. जिन कंधों पर बैठकर मैंने दुनिया देखी, उन्हीं कंधों को अशक्त होते हुए देखना दुखद है. समय क्यों पंख लगाकर उड़ जाता है. समय क्यों पिता को बूढ़ा और अशक्त कर देता है? पिता सदा मज़बूत, दृढ़ और स्वस्थ क्यों नहीं रहते? मेरी आंखें भीग गईं. पिताजी रुमाल से होंठों के किनारे पोंछ रहे थे, मैंने मुंह दूसरी ओर फेरकर शर्ट की बांह से आंखें पोंछ लीं.
रात टीवी देखते हुए मैं सोफे पर पिताजी के पास ही बैठा. आजकल उनके आसपास रहना ही अच्छा लगता था मुझे. अपने बचपन और किशोरावस्था के वे दिन याद आ जाते, जब पिताजी जवान और हट्टे-कट्टे थे. मैंने घड़ी देखने के बहाने एक बार पिताजी की ओर देखा. वे पनीली, धुंधलाई आंखों से टीवी देख रहे थे. ईशान पास ही खेल रहा था. आन्या उसके और पिताजी के लिए दूध ले आई. पिताजी को दूध का ग्लास थमाकर वह ईशान को बहला कर दूध पिलाने लगी.
ईशान कभी हंसने लगता, कभी कुछ बोलने लगता और उसके होंठों के किनारों से दूध बाहर आ जाता. आन्या उसे कुछ भी खिलाते-पिलाते हुए सतत एक रुमाल हाथ में रखती और उसका मुंह पोंछती जाती.
पिताजी भी एक घूंट दूध पीते और मुंह रुमाल से साफ़ करते जाते. उनके जबड़े अब पहले जैसे मज़बूत नहीं रह गए थे. होंठ लटकने लगे थे. मैं ईशान के होंठों से बहते दूध को देखकर एक वात्सल्यपूर्ण अनिर्वचनीय आनंद से भर जाता और उसी समय पिताजी की ठोड़ी पर बह आई दूध की बूंदें मेरे मन को अव्यक्त वेदना से, एक अनजान भय से भर देतीं. आजकल मैं आनंद और वेदना, भय की इन्हीं दो विपरीत मनःस्थितियों के बीच झूलता रहता था.
रात में निर्मला तो सो गई, लेकिन मैं देर तक जागता रहा. जाने क्यों नींद नहीं आ रही थी. मैं पिताजी के बारे में ही सोच रहा था. जब तक पढ़ने में व्यस्त रहा, तब तक कभी यह ध्यान ही नहीं गया कि पिताजी कितने बूढ़े हो गए हैं. मुझे तो पिता यह शब्द ही मज़बूती, ताक़त, दृढ़ता का पर्याय लगता. कभी सोचा ही नहीं कि पिता भी बूढ़े और कमज़ोर हो सकते हैं. जैसे पिता को अपना रिटायर्ड बेटा भी बच्चा ही लगता है, वैसे ही बेटा चाहे रिटायर भी हो जाए, तब भी पिता उसे वही पिता लगते हैं, जो उसे कंधे पर बिठाकर घर लौटते थे.
अभी उसी दिन की तो बात है, ईशान को लेकर मुझे डांट रहे थे, “तुम्हें बच्चों को ठीक से बहलाना भी नहीं आता. बच्चों को संभालने के लिए उनके मनोविज्ञान को समझना पड़ता है. तुम तो कुछ समझते ही नहीं हो, लाओ उसे मुझे दा,े मैं बहलाता हूं उसे.” और सच में ईशान उनकी गोद में जाते ही चुप हो गया था. बेटे से अधिक पोता प्यारा होता है और पोते से अधिक उसका बेटा.
मैं उठकर यूं ही पिताजी के कमरे तक गया. जाने क्यों बस उन्हें देखने का मन हो आया. कमरे में मध्यम रोशनी थी. पिताजी सो रहे थे और विशाल उनके पैर दबा रहा था. चाहे कितना भी व्यस्त क्यों ना हो, बहुत बचपन से विशाल की आदत है. सोने से पहले दस-पंद्रह मिनट अपने बाबा के पास बैठकर उनके पैर ज़रूर दबाता है. मैं मन में एक आनंद मिश्रित संतुष्ट अनुभूति लेकर अपने कमरे में वापस आ गया. अपने दिए संस्कार सार्थक लगे मुझे.
कुछ दिनों बाद एक दिन शाम को मैं ईशान को लेकर गैलरी में खड़ा था. शाम को सभी पंछी घर लौट आते हैं, तो पेड़ों पर और आसमान में पंछियों की अच्छी चहल-पहल रहती है. ईशान पंछियों को देख-देख कर ख़ूब ख़ुश हो रहा था. अचानक मेरा ध्यान नीचे चला गया. आंगन में पिताजी तार पर से अपने सूखे कपड़े निकाल रहे थे. तार चार इंच और नीचे करवा दिया था मैंने, लेकिन अब भी पिताजी के लिए वो ऊंचा पड़ने लगा था.
मेरे सामने पश्‍चिम दिशा में आसमान में सूरज डूब रहा था. ढलते सूरज की ललछौहीं कालिमा में पिताजी भी ढलते से लग रहे थे. दिन के अवसान काल में सूरज ढलने लगता है और जीवन के अवसान काल में पिता ढल रहे थे. सूरज तो आज ढल कर कल पुनः उग आएगा, लेकिन पिता सूरज की तरह नहीं ढलते. वे तो एक दिन ढल ही जाते हैं.
मैं देख रहा था असहाय सा अपने पिता को ढलते हुए और कुछ नहीं कर पा रहा था. मैंने ईशान को कसकर छाती से लगा लिया. मेरी आंखें भर आईं और आंसुओं की नमी के बीच से ढलते पिता की मूरत और धुंधली हो आई.
क्यों ढल जाते हैं पिता, हमेशा क्यों नहीं रहते? किंतु यही प्रकृति का नियम है नए के स्वागत के लिए पुराने को ढल जाना होता है. किसी दिन पिताजी ने अपने पिता को ढलते देखा होगा, एक दिन विशाल अपने पोते को गोद में लेकर मुझे ढलते हुए देखेगा. मैं सीढ़ियां उतर कर नीचे चला आया. तार से पिताजी के कपड़े निकाल दिए और फिर ईशान को गोद में लेकर उनके पास बैठ गया. अपना सिर मैंने बहुत धीरे से उनके कंधों पर रख दिया. वे मुस्कुराते हुए कांपते हाथों से मेरा सिर थपथपाने लगे.

विनीता राहुरीकर

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