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कहानी- झूले हिंडोले (Short Story- Jhoole Hindole)

अटैचमेंट नाम की चीज़ उमेश में नहीं है. जब से शादी हुई, उसने उसके अंदर एक अलग ही एटीट्यूड देखा है. उमेश को वह क़सूरवार ज़्यादा नहीं मानती, क्योंकि जानती है कि उसकी परिस्थितियों ने उसे ऐसा बना दिया है, पर वह उसे कितनी बार समझा चुकी है कि अब सब कुछ बदल चुका है. Hindi Kahani कभी-कभी जब वह बचपन की खट्टी-मीठी यादों का पिटारा खोलकर बैठ जाती, तो उसके मन में जैसे हिलोरें उठने लगतीं. उस समय वह पिटारे में से एक-एक कर भूली-बिसरी स्मृतियों को निकालते हुए इतनी मग्न हो जाती कि आसपास क्या घट रहा है, इसकी सुधबुध ही खो बैठती. उमेश उससे कुछ पूछ रहे होते और वह स्मृतियों के हिंडोले में झूल रही होती. उसे उस समय उमेश की आवाज़ की बजाय बसंती हवा की गुनगुनाहट सुनाई दे रही होती, गौरैयों की चहचहाहट सुनाई दे रही होती, धूप में सूखती अचार-बड़ियां और मां का सेवइयां तोड़ना याद आ रहा होता. भाई का चोटी पकड़कर खींचना और बात न मानने पर जिज्जी का अपने बड़े-बड़े नाख़ूनों को दिखाकर डराना याद आ रहा होता. उन क्षणों में उसे एहसास ही नहीं होता था कि एक मीठी-सी मुस्कान उसके होंठों पर खिल आई है... तंद्रा तब भंग होती, जब उमेश ज़ोर से उसका कंधा झिंझोड़ उसे हिंडोले से नीचे ही गिरा देते. “पुरानी बातों को अब भी क्यों याद करती रहती हो. जो बीत गया, सो बीत गया, लेकिन तुम हो कि न जाने कौन-से काठ-कबाड़ निकालकर उन्हें दोबारा संजोकर रखती रहती हो. सच में, मुझे तो लगता है कि मैंने किसी पढ़ी-लिखी गंवार से शादी की है.” उमेश भड़क उठते. वह घबराकर अपने पिटारे में ताला लगा देती और उसे मन के भीतर ऐसे लपेटकर रख देती मानो ज़रा-सा भी सुराख रह गया, तो उसकी स्मृतियां उसमें से सरक जाएंगी. वह इतनी सावधानी से कभी अपने ज्वेलरी बॉक्स को भी नहीं संभालती थी, जितना कि यादों के पिटारे को. “उमेश, ये मेरी वे यादें हैं, जिन्हें मैंने जीया है. ये काठ-कबाड़ नहीं हैं. मैं यह नहीं कहती कि अतीत की परछाइयों के साथ जिओ, पर वे पल जो गुज़र गए हैं, वे ख़ुशियों से भरे थे. वे बातें, वे घटनाएं, जिनके बारे में सोचते ही होंठों पर हंसी थिरक जाए, उनके बारे में अगर कभी-कभार बात कर ली जाए, तो वे ज़िंदगी में रंग भर देती हैं. वैसे भी किससे बात करूं. न ही तुम्हारे पास मेरे लिए व़क्त है और न ही बच्चों के पास. इसी यादों के पिटारे को जब-तब निकालकर कुछ पल ख़ुश हो लेती हूं. ऐसा लगता है कि उन बीते लम्हों के साथ मैं संवाद कर पा रही हूं.” कहते-कहते वह भावुक हो उठती. “इन भावनाओं के साथ जीने का कोई फ़ायदा नहीं है. बाहर निकलो इन भावनाओं के पिंजरे से हरीतिमा.” उमेश उकताकर उसके पास से उठ जाते. आख़िरकार उस जैसी औरत को झेलना क्या आसान काम था.                                                                                        हर चीज़ को फ़ायदे-नुक़सान से माप-तौलकर देखना उमेश की प्रवृत्ति थी. वह हमेशा जोड़-तोड़ में ही लगा रहता. वह कमाती है, इसलिए वह उसे सह रहा है. जाने-अनजाने इस बात का एहसास उसे वह बरसों से कराता आ रहा है और कहीं वह उसके सिर का ताज बनने की कोशिश न करे, पैरों की जूती ही बनी रहे, इसलिए यह भी जतलाता है कि उसकी कमाई से उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. वह जब चाहे नौकरी छोड़ सकती है. वह उसे रोटी की कमी नहीं होने देगा. यह भी पढ़ेपति-पत्नी के रिश्ते में भी ज़रूरी है शिष्टाचार (Etiquette Tips For Happily Married Couples) हंसने के सिवाय हरीतिमा के पास और कोई विकल्प नहीं है. उमेश के चेहरे पर छाई तिलमिलाहट पर चढ़ी त्योरियां, शायद उसके चेहरे पर हमेशा के लिए फिट हो चुकी थीं और उस समय देखते ही बनती थीं. उसे समझाना बेकार है कि एक पत्नी को पति से रोटी के अतिरिक्त भी कुछ अपेक्षाएं हो सकती हैं. एक पत्नी पति से प्यार और थोड़ा-सा सम्मान चाहती है. कुछ देर उसके पास बैठकर उसके दिल की बातें सुन ले और यह आश्‍वासन दे दे कि मैं तुम्हारे साथ हूं. बस, हरीतिमा ने भी यही चाहा था. उसके पीछे छूटे रिश्तों और स्मृतियों को सहेजे नहीं, लेकिन कम-से-कम मज़ाक भी न उड़ाए. उसका ऐसा चाहना क्या बहुत ज़्यादा एक्सपेक्ट करने के ब्रैकेट में आता है. उमेश अक्सर कहता है, “तुम्हारी उम्मीदें ज़रूरत से ज़्यादा हैं. आगे बढ़ो और ज़िंदगी को बिंदास होकर जिओ. जैसे चल रहा है चलने दो, उसे बदलने की कोशिश मत करो. क्या हमेशा रिश्तों को जीने की बात करती रहती हो. मुझे देखो सालों बीत गए, कभी जाता हूं भोपाल या ग्वालियर अपने भाई-बहनों से मिलने. एंजॉय करो लाइफ को, बाई हुक और बाई क्रुक.” उमेश की समय से दो क़दम आगे चलने की ललक उसे कंपा जाती. कई बार उसे प्रतीत होता है कि उमेश ने अपने चारों ओर असंख्य जाले बुन डाले हैं. वैसे ही जैसे मकड़ी के जाले होते हैं, जिसमें कोई फंस जाए, तो निकलना मुश्किल हो जाता है. विडंबना तो यह है कि उमेश ख़ुद ही अपने बुने जालों में निरंतर फंसते जा रहे हैं. “तुमसे बात करने और यहां तक कि पास आने में डर-सा लगने लगा है.” एक दिन हरीतिमा ने न जाने किस धुन में कह दिया था. सुनते ही उमेश भड़क उठा था, “क्यों? क्या मैं कैक्टस हूं, जिसे छूने से तुम्हारी उंगलियां लहूलुहान हो जाएंगी? समझती क्या हो अपने आपको? हो क्या तुम सिवाय एक सेंटीमेंटल फूल के? जब देखो यादों और रिश्तों में जीती रहती हो. बचपन बीत गया, पर कहती हो वे यादें ठंडी-ठंडी फुहारों की तरह तुम्हें भिगो देती हैं. ठंडी फुहारें... फिल्मी जीवन जीना पसंद करती हो तुम तो...” अटैचमेंट नाम की चीज़ उमेश में नहीं है. जब से शादी हुई, उसने उसके अंदर एक अलग ही एटीट्यूड देखा है. उमेश को वह क़सूरवार ज़्यादा नहीं मानती, क्योंकि जानती है कि उसकी परिस्थितियों ने उसे ऐसा बना दिया है, पर वह उसे कितनी बार समझा चुकी है कि अब सब कुछ बदल चुका है. उसके जीवन में प्यार और भरोसा करनेवाली उसकी पत्नी है, बच्चे हैं, पर उमेश अब भी अपने में ही सिमटा रहता है. मां-पिता के बचपन में ही गुज़र जाने के बाद उमेश ने जो तकली़फें झेलीं और रिश्तेदारों ने भरोसा तोड़ा, उससे उसके अंदर भरी कड़वाहट अभी तक बाहर नहीं निकली है. सबसे छोटा होने पर भी भाई-बहनों ने उसकी परवाह नहीं की. आख़िर उनकी भी अपनी समस्याएं थीं. संघर्षों से लगातार जूझते रहने के कारण सेंटीमेंट्स तो क्या बचते उमेश में, सहजता भी बाक़ी न रही उसमें. हरीतिमा और बच्चों का प्यार व भरोसा पाने के बाद भी उमेश के भीतर जमा आक्रोश आज तक बाहर नहीं निकला है. केंचुल से तो उसे ख़ुद ही बाहर निकलना होगा. हरीतिमा के लाख चाहने या प्रयास करने से क्या होगा. उमेश के जो मन में आता है, उसे सुना देते हैं. बच्चे भी उस समय उसके उफ़नते ग़ुस्से के आगे कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर पाते थे. जानते थे कि कुछ कहा, तो वे भी उस आग में झुलस जाएंगे. सच है कि वह भावुक है, इसीलिए तो आज भी उन तमाम रिश्तों को निभा पा रही है. वह भी उमेश की तरह हमेशा नुकीले पत्थरों पर कदम रखकर चलती, तो कभी भी रिश्तों की राह तय नहीं कर पाती. पीहर हो या ससुराल, हर रिश्ता उसने संभाला हुआ है. जब बच्चे छोटे थे, तो हर जगह उन्हें अपने साथ ले जाती थी, पर अब वे अपनी व्यस्तताओं के कारण कहीं जा नहीं पाते हैं और अब उनकी उम्र भी ऐसी है कि ज़बर्दस्ती नहीं की जा सकती. उमेश को दोस्तों का साथ तो पसंद है, पर रिश्तेदारी में आना-जाना नहीं. चाहे अपने ही भाई-बहन के यहां क्यों न जाना हो. कभी फोन पर भी उनसे बात नहीं करता. और उसके चाहे भाई-बहन हों या अन्य रिश्तेदार, यहां तक कि दूर के मामा-बुआ भी, रिश्तों का सोंधापन अभी भी क़ायम है. कितने महत्वपूर्ण होते हैं ये रिश्ते... उमेश समझते ही नहीं या समझना ही नहीं चाहते. भगवान का शुक्र है कि आज तक उन्हें किसी की ज़रूरत नहीं पड़ी, पर कभी कुछ ऊंच-नीच हो गई, तो ये अपने ही काम आएंगे.      अंकिता और पारित के आपसी प्यार और तक़रार को देखती है, तो सोचती है कि आज एक-दूसरे के बिना न रहनेवाले ये भाई-बहन क्या बड़े होकर अपनी इन खट्टी-मीठी यादों का मज़ाक उड़ाएंगे. क्या ये भी एक दिन अपने इस प्यार और तक़रार को भूल जाएंगे. इनके बीच भी संवेदनहीनता पसर जाएगी और जब अंकिता विवाह कर चली जाएगी, तो अपने भाई के साथ बिताए इन पलों को भूल जाएगी. बचपन की स्मृतियों के हिंडोले में झूलना क्या उसे मूर्खतापूर्ण बात लगेगी या फिर पारित ही अंकिता के नटखटपन, उसे घोड़ा बनाने या राखी पर ज़िद कर मनचाहा उपहार लेना आउटडेटेड होना मानेगा... स्मृतियों पर आख़िर धूल क्यों जमने दी जाती है? क्या ज़रूरत है यह सब तमाशा करने की? “मैं तो तुम्हारी मम्मी के कितने ही चाचा-फूफा को जानता नहीं. कोई पार्टी की ज़रूरत नहीं है, चलेंगे किसी होटल में डिनर करने बस.” उमेश ने भड़कते हुए कहा. उनकी शादी की बीसवीं सालगिरह थी और बच्चे ज़िद कर रहे थे कि एक बड़ा-सा आयोजन किया जाए और इसी बात को लेकर उमेश को घोर आपत्ति थी. यह भी पढ़ेक्या आप भी 2, 11, 20 और 29 को जन्मे हैं, तो आपका रूलिंग नंबर है- 2 (Numerology Number 2: Personality And Characteristics) “नहीं पापा, इस बार तो आपको मानना ही पड़ेगा. इट्स गोइंग टू बी फन.” पारित अड़ गया था. “हां पापा, कितना समय हो गया है आपके फैमिली मेंबर्स से मिले? फेसबुक और व्हाट्सऐप पर चैट करने से मज़ा नहीं आता है. मिलने का मज़ा तो कुछ अलग ही होता है और आप तो ले जाने से रहे हमें उनके यहां.” उमेश की त्योरियां चढ़ गईं. चेहरे पर कठोरता और गहरी हो गई. पर इस बार जैसे बच्चे उसके व्यवहार को सहन करने को तैयार नहीं थे. वैसे भी बच्चे उसे ‘बोर इंसान’ कहा करते थे. अचानक पारित ज़ोर से बोला, “आपकी प्रॉब्लम क्या है पापा? आप ख़ुश क्यों नहीं रह सकते? आपकी वजह से घर का माहौल हमेशा बोझिल रहता है. हमें घर में अपने फ्रेंड्स को बुलाने में डर लगता है. इससे तो अच्छा है कि आप हमारा गला घोंट दो.” सन्नाटा सा छा गया. “ज़्यादा बकवास करने की ज़रूरत नहीं है.” उमेश चिल्लाया. हालांकि उसकी तनी त्योरियां थोड़ी ढीली पड़ गई थीं. “मैंने कह दिया, तो बस यही फाइनल है और बहस नहीं चाहिए मुझे इस विषय पर.” “तो ठीक है, मेरा भी फैसला सुन लीजिए पापा, अब मैं आपके साथ नहीं रहूंगा, चला जाऊंगा कहीं भी...” इतना आक्रोश देखकर उमेश हैरान रह गया. आज तक बच्चों ने कभी उसे उल्टा जवाब नहीं दिया था. “ऐसा क्यों कह रहे हो तुम बेटा, पर मैं भी क्या करूं? मैं ऐसा बन गया हूं.” उमेश की आवाज़ में कंपन महसूस किया हरीतिमा ने. आंखों में नमी थी. “जब 10 साल का था, पैरेंट्स गुज़र गए. बड़े भाई-बहन भी बहुत ज़्यादा बड़े नहीं थे. रिश्तेदारों ने सारी प्रॉपर्टी हड़प ली और हम लोगों को अपने-अपने तरी़के से संघर्ष करना पड़ा. 20 साल का था, जब शहर चला आया. जो काम मिला किया. भाई-बहनों से संपर्क टूट गया और लोगों पर से विश्‍वास तो पहले ही उठ गया था, इसलिए अटैचमेंट जैसी भावना से अपने को दूर कर लिया. बस, कमाने की धुन लग गई, ताकि फिर से रोटी के लिए किसी का मुंह न ताकना पड़े, शायद इसीलिए इतना रूखा हो गया. याद नहीं मैं पिछली बार कब हंसा था.” “पर पापा, अब तो सब बदल गया है. हम आपके साथ हैं, आपसे प्यार करते हैं. फिर कड़वी यादों को भुला क्यों नहीं देते? मम्मी और हम दोनों तो आपके साथ हंसना चाहते हैं, खुलकर जीना चाहते हैं. क्या बहुत ज़्यादा है आपके लिए, यह सब देना...” पारित और अंकिता उमेश के गले लग गए. पहली बार बिना किसी खौफ़ या हिचक के. हरीतिमा ने प्यारभरी नज़रों से उमेश को देखा, मानो कह रही हो, उमेश जी लो आज के सुखों को. उस दिन अपने भाई-बहनों, भतीजों और कजिन्स को देखते ही उमेश के चेहरे पर छाई रहनेवाली तिलमिलाहट और ‘मुझे परवाह नहीं’ वाली परत न जाने कहां गायब हो गई थी. शुरू में झिझका, झुंझलाहट भी थी और औपचारिकता का भाव भी. आसान नहीं था उसके लिए सहज बने रहना, पर पारित और अंकिता उसके साथ खड़े रहे. कुछ समय बाद उमेश के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान तैर गई. सब कुछ मानो क्षणिक था. अपने भाई-बहनों से मिलते ही मानो संवेदनशीलता का कोई झरना बह उठा. आंखें भी नम हो गई थीं. उमेश में भी फीलिंग्स हैं, तो क्या ‘एचीव’ करने की चाह में वे कहीं दफ़न हो गई थीं. अन्य मेहमानों के जाने के बाद देर रात जब वह अपने भाई-बहनों के साथ बैठा, तो यादों के न जाने कितने पिटारे खुल गए. बीती बातों को याद कर वह इतना हंसा कि वह ही नहीं, बच्चे भी उसे हंसता देख हैरान रह गए. अपने बचपन के सुखद पलों को जीने लगा वह. यहां तक कि रिश्तेदारों के बीच मज़ाक की फुलझड़ियां उसने छोड़ीं. छेड़छाड़ और मस्ती के अनेक अनार जलाए, मानो वह बरसों से दबी अपनी भावनाओं को आज खुलकर बाहर लाना चाहता हो. ऐसा लगा, जैसे वह भी स्मृतियों के हिंडोले में झूलने का आनंद ले रहा है. धरती की तपिश जब बारिश की तेज़ बौछारों से बाहर आती है, तो पहले एक गरम एहसास से भर देती है, जो बहुत असहज कर देता है, पर फिर हर तरफ़ मिट्टी की सोंधी सुगंध फैल जाती है. उमेश ने भी जैसे उसी सुगंध को महसूस कर लिया था. कब सुबह हुई, पता ही नहीं चला. स्मृतियों पर जमी धूल कब की साफ़ हो चुकी थी. “हरीतिमा, क्यों न कुछ दिनों के लिए कहीं घूम आएं. बच्चे तो अब अकेले रह सकते हैं. कितना व़क्त हो गया है, तुम्हारे साथ अकेले समय बिताए. एक बार फिर से हमें एक-दूसरे को जानने का मौक़ा मिल जाएगा.” उमेश ने उसका हाथ थामते हुए कहा. उसने हैरानी से उमेश को देखा. न चेहरे पर तिलमिलाहट थी, न ही त्योरियां चढ़ी हुई थीं. आंखों में प्यार और छुअन में सम्मान का एहसास हुआ उसे. जिस संवेदनहीनता ने उनके रिश्ते में दरार और शुष्कता ला दी थी, उसकी जगह उस कोमलता ने ले ली थी, जो रिश्ते को पैनेपन और कंटीला होने से बचाती है. हरीतिमा ने सहमति से सिर हिला दिया. Suman Bajpai    सुमन बाजपेयी

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