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कहानी- कशमकश (Short Story- Kashmakash)

"क्या हो गया है मुझे अलका? मुझे तुम्हारी आंखों में मां दिखाई पड़ती हैं. मैं क्या करूं? अब वह सब नहीं हो सकता, कभी नहीं हो सकता." कहते-कहते अनिल रो पड़ा. उसकी उत्तेजना शांत हो चुकी थी.

शारदा अलका जैसी बहू पाकर धन्य हो गई. यह शायद उसके पिछले जन्मों का पुण्यफल था, जो आज के नए ज़माने में उसे अलका जैसी बहू मिली. बहू क्या थी साक्षात लक्ष्मी! पहले दिन से ही घर का पूरा कामकाज ऐसे संभाल लिया, जैसे कोई पुरानी पुरखिन हो. नौकर-चाकर सब थे, लेकिन बहू रानी सबसे पहले पांच बजे उठ कर नहा-धोकर फ्रेश हो जाती. अपने सामने पूरे बंगले की सफ़ाई कराती, बगीचे में पौधों को पानी देती और जैसे ही सात बजते, डाइनिंग टेबल पर नाश्ता पहुंचा देती.

शारदा देवी का परिवार बहुत छोटा सा था. दो लड़के अनिल और सुनील. अनिल बड़ा था और कॉलेज में प्रोफेसर हो गया था. सुनील अभी बी.ए. में पढ़ रहा था. एक लड़की थी लता. उसने इसी वर्ष एम.ए. किया था और अब रिसर्च की तैयारी कर रही थी. शारदा के पति सेठ रतनलाल का बहुत पहले ही देहांत हो गया था. लेकिन वे अपने मरने के बाद इतनी धन-सम्पत्ति छोड़ गए थे कि घर में कभी किसी को किसी चीज़ का अभाव महसूस नहीं हुआ.

अलका सामान्य घर की थी, लेकिन शालीनता, विनम्रता और सद् व्यवहार से उसने ससुराल में सभी का मन मोह लिया. एक तरफ़ वह अपनी सास शारदा के साथ प्रतिदिन नियमित रूप से मन्दिर जाती. उन्हें भजन सुनाती और उनके पास घंटे-दो घंटे बैठ कर उनकी सेवा करती थी, तो दूसरी ओर अनिल को भी उसने कभी शिकायत का मौक़ा नहीं दिया. अनिल के आने के पहले वह हलका-सा श्रृंगार करती, सलीके से कपड़े पहनती और उसकी प्रतीक्षा करती. अनिल कॉलेज से लौटते समय उसे हमेशा दरवाज़े पर प्रसन्न मुद्रा में खड़े पाता था. कभी-कभी वह उसके साथ सिनेमा या होटल भी जाती, लेकिन शारदा की अनुमति लेकर सुनील और अलका तो उस पर जान देते थे और दिनभर भाभी-भाभी करते रहते थे.

अलका ने अभी बीस बसन्त पूरे नहीं किए थे. उसका गोरा, इकहरा शरीर और तीखे नयन-नक्श बड़े सुन्दर और लुभावने थे. अनिल तो पहली रात ही मर मिटा था अलका पर.

अलका की झील सी गहरी बड़ी-बड़ी आंखों में विशेष आकर्षण था. सुहागरात को अनिल बड़ी देर तक इन्हीं आंखों में खोया रहा था.

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अलका के लिए सुहागरात का हर पल अविस्मरणीय था. दोपहर के बारह बजे वह ससुराल पहुंची थी. शारदा, लता और घर के तमाम सगे सम्बन्धियों ने उसका ज़ोरदार स्वागत किया था. दिनभर नाच-गाना होता रहा. तरह-तरह की रस्में पूरी की गईं. इस सब में रात के ग्यारह बज गए. लम्बी यात्रा और दिन भर के कामों में वह बुरी तरह थक गई थी. फिर भी उसने थोड़ा-बहुत साज-श्रृंगार किया और अपने कमरे में पहुंची.

उसकी सहेलियों उसे पहुंचाने आई थीं. यह अनिल का कमरा था, जहां ख़ुशबूदार फूलों से सजा डबलबेड पड़ा था. अलका को बिस्तर पर लेटते ही नींद आ गई. रात एक बजे दरवाज़ा बन्द होने की आवाज़ से उसकी नींद टूटी. अनिल को शायद दोस्तों से अब फ़ुर्सत मिल पाई थी. अलका संभल कर बैठ गई .आज उसके जीवन की अनोखी रात थी सुहागरात!

अनिल ने दरवाज़े भीतर से बन्द किए और धीरे-धीरे चलता हुआ पलंग पर आ बैठा. अलका छुई-मुई बनी बैठी थी. दोनों बड़ी देर तक बातें करते रहे. अलका को बड़ा भला लगा. उसे लगा जैसे अनिल उन आदमियों से अलग है, जो औरत को मात्र वासना पूर्ति का साधन मानते हैं. अचानक अनिल की दृष्टि अलका से टकराई अलका ने अपने देवता के दर्शन करने के लिए थोड़ा-सा घूंघट ऊपर सरका लिया था.

अनिल को अलका सर्वांग सुन्दरी लगी, लेकिन उसकी आंखों में न जाने कैसा आकर्षण था कि वह उन्हें देखता ही रह गया.

"अलका, तुम सुन्दर हो, तुम बहुत सुन्दर हो, लेकिन तुम्हारी आंखें? ऐसी आंखें मैंने जीवन में कभी नहीं देखीं, जी करता है, इन्हें देखता ही रहूं." अनिल उसकी आंखों में डूब चुका था.

बड़ी देर तक अनिल अलका की गोद में पड़ा-पड़ा उसकी आंखों में खोया रहा. फिर उठा और लाइट ऑफ करके आ गया, दो घंटे को नींद के बाद अलका को बड़ा आराम मिला था. उसने अपने शरीर पर रेंगता हुआ अनिल का हाथ बड़े प्यार से पकड़ा और अपने गालों पर रख लिया. अनिल अभी भी उसके रूप का गुणगान कर रहा था. अचानक अनिल एक झटके के साथ उठा और लाइट ऑन कर दी.

अलका घबराकर उठ बैठी. उसने अपने अस्त व्यस्त कपड़ों को ठीक किया और अनिल को घूरने लगी.

"माफ़ करना अलका, तुम्हारी आंखों से मन भरा नहीं. ये इतनी सुन्दर है. इतनी सुन्दर है कि लगता है आज की रात मैं इन्हें देखते-देखते ही गुज़ार दूंगा." अनिल शायराना अन्दाज़ में बोला और पहले की तरह अलका की गोद में सिर रख कर उसकी आंखों में डूब गया.

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"अलका!"

"जी."

"अलका, मुझे ख़ूबसूरत आंखों से बहुत प्यार है. मैं चाहता था कि मेरी पत्नी चाहे कैसी भी हो. उसकी आंखें बहुत ख़ूबसूरत हों. सुन्दर आंखों को देखते ही मेरे मन में न जाने कैसा होने लगता है. ईश्वर ने मेरी सुन ली. उसने मुझे ऐसी पत्नी दी, जिसकी आंखें मेरी कल्पना से भी अधिक सुन्दर है. अपनी आंखों को संभाल कर रखना अलका."

इस तरह सारी रा‌त अनिल ने अलका की आंखों में गुज़ार दी. दूसरे दिन घर में कुछ शान्ति थी. सभी मेहमान जा चुके थे. अलका ने अनिल को सोता हुआ छोड़ा और साढ़े पांच बजे नहा-धो कर तैयार हो गयी. छह बजे जब शारदा की नींद खुली तो पूरे घर की सफ़ाई हो चुकी थी और बहू रानी बगीचे में पानी दे रही थी. शारदा को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. उन्होंने ईश्वर को धन्यवाद दिया और नित्यकर्मों से निवृत्त हो कर मन्दिर के लिए तैयार हो गईं. जब से सेठ रतनलाल का देहान्त हुआ, शारदा ने नियमित मन्दिर जाना आरम्भ कर दिया था. वे भगवान के दर्शन के बाद ही अन्न ग्रहण करती थीं.

शारदा पूजा की थाली लिए गेट के बाहर निकली और जैसे ही वे गेट बन्द करने के लिए मुड़ीं तो देखती ही रह गईं. अलका एक सादी साड़ी सीधे पल्ले में पहने पूजा का थाल लिए चली आ रही थी. सास-बहू दोनों ने एक साथ मन्दिर जाकर भगवान के दर्शन किए और धर्म-कर्म की बातें करती हुई घर लौटीं. अलका की धार्मिक वृत्ति ने शारदा का मन मोह लिया था. इसके बाद तो सास-बहू दोनों हमेशा ही साथ मन्दिर जाती और खाली समय पर घर में गपशप करतीं.

अलका के व्यवहार से अनिल भी बहुत ख़ुश था. उसने दूसरे दिन अलका से पिछली रात के व्यवहार के लिए क्षमा मांगी तथा किसी पहाड़ी पर्यटन स्थाल पर हनीमून मनाने का सुझाव रखा, लेकिन अलका शारदा को अकेले छोड़ कर जाने के लिए तैयार नहीं थी. उसने अनिल को अपनी बात इतने प्यार से समझायी कि उसका अलका के प्रति आदर भाव और भी बढ़ गया.

अलका और अनिल दो शरीर एक जान थे. शारदा, सुनील और लता भी नई भाभी से ख़ुश थे.

धीरे-धीरे तीन वर्ष बीत गए. इस बीच अलका ने फूल से सुन्दर दो बच्चों को जन्म दिया. दोनों लड़के थे आकाश और अभिषेक. सबसे अधिक ख़ुशी शारदा को थी. अब वह दादी बन गई थी और उसका सारा समय उन्हीं दोनों के साथ बीतने लगा था. दोनों बच्चे शारदा को इतने प्यारे थे कि वह कभी-कभी उनके चक्कर में मन्दिर जाना भी भूल जाती थी.

एक दिन बगीचे में पौधों को पानी देते समय अचानक अलका का पैर फिसल गया. उसके सिर में इतनी चोट आई कि वह आठ दिन बेहोश पड़ी रही. इस समय अनिल और शारदा पूरे समय अस्पताल में रहे. आठवें दिन अलका को होश आया. लेकिन होश आते ही अलका चीख पड़ी, "कोई है? कोई है? मुझे क्या हो गया?.. मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा... मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा..."

अनिल और शारदा घबरा उठे. एक डॉक्टर भी निकट खड़ा था. उसने तुरन्त आई स्पेशलिस्ट डॉ. वर्मा को बुलवाया. अनिल, अलका को सांत्वना दे रहा था और शारदा दोनों हाथ जोड़े भगवान से अलका की ख़ुशहाली के लिए प्रार्थना कर रही थी.

डॉ. वर्मा बड़ी देर तक आंखों का निरीक्षण करते रहे, फिर एक ओर चुपचाप सिर झुका कर खड़े हो गए.

"क्या बात है डॉक्टर? क्या हो गया अलका की आंखों को?"

अनिल की आवाज़ कांप रही थी.

"सिर की भीतरी चोट के कारण आंखों की रोशनी हमेशा-हमेशा के लिए चली गई है. इसका अब कोई इलाज नहीं है. हां, यदि कोई अपनी आंखें दान करे तो यह फिर से देख सकती हैं." इतना कह कर डॉक्टर वर्मा आगे बढ़ गए.

"नहीं नहीं... ऐसा नहीं हो सकता. मैं अंधी लाचार होकर कैसे जिऊंगी? डॉक्टर... डॉक्टर, आप कहां हो? मैं ऐसी ज़िन्दगी नहीं जीना चाहती. आप मेरी आंखो की रोशनी नहीं वापस ला सकते तो कोई ऐसी दवा दे दीजिए कि मैं मर जाऊं. मैं किसी पर बोझ बन कर नहीं जीना चाहती." अलका फफक-फफक कर रो पड़ी.

"कैसी बात करती है पगली? तू हम पर बोझ है? अरे, तू तो हम सब की आंखों को ज्योति है, और फिर अभी हुआ क्या है? मैं तुम्हारा इलाज दिल्ली, बम्बई के बड़े-बड़े डॉक्टरों से कराऊंगा और तुम्हारी आंखें ठीक हो जाएंगी." अनिल अलका के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे ढांढ़स बंधाने लगा.

"बेटी, मैंने तुझे कभी बहू नहीं समझा. अगर तू ऐसी बातें करेगी तो. इस बूढ़ी सास पर क्या बीतेगी? कभी सोचा है? अगर मेरी बेटी अंधी हो जाती तो क्या मुझ पर बोझ बन जाती? फिर कभी तूने अपने मुंह से ऐसी बात निकाली तो ..." शारदा की आवाज़ दुख के कारण घुट कर रह गई. उनकी आंखों से निकले आंसू अलका के माथे पर गिर रहे थे.

"अरे मांजी? आप रो रही हैं? मुझ अंधी, अपाहिज़ के लिए रो रही हैं? अब मेरी ज़िन्दगी में बचा ही क्या है?"

अलका की बात अधूरी रह गई.

"चुप हो जा बेटी, ऐसा मत बोल. तेरी यह हालत देख कर मेरे प्राण मुंह को आ रहे हैं. हे भगवान! मेरी ज़िन्दगी ले ले, लेकिन मेरी अलका की आंखें ठीक कर दें. अगर मैंने सच्चे हृदय से तेरी पूजा..." अचानक शारदा देवी लड़खड़ाईं और ज़मीन पर गिर पड़ीं.

अनिल ने सुनील और लता की सहायता से मां को उठाया और पास के पलंग पर लिटाया. डॉ. वर्मा और दूसरे डॉक्टर पास के कमरों में मरीज़ों का निरीक्षण कर रहे थे. अलका के कमरे में शोरगुल सुन कर वे दौड़े चले आए.

शारदा को हार्टअटैक हुआ था. डॉक्टरों ने उन्हें तुरन्त इन्टेसिव केयर यूनिट में पहुंचाया, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ. अन्तिम समय पर उन्हें एक मिनट के लिए होश आया, "डॉक्टर-डॉक्टर, आपने कहा था कि यदि कोई अपनी आंखों का दान करे तो मेरी बहू को रोशनी मिल सकती है. डॉक्टर, मैं अपनी आंखें अपनी बहू को देती हूं. मेरी बहू को...." इसके आगे की बात अधूरी छोड़ कर शारदा ने आंखें बन्द कर लीं.

तभी अनिल के कुछ मित्र आ गए. उन्होंने सब को सांत्वना दी. आंखें अलका को देने थे. शारदा की अन्तिम इच्छा भी यही थी.

लगभग एक घण्टे के ऑपरेशन के बाद शारदा की आंखें निकाल कर अलका को लगा दी गईं. पन्द्रह दिन अलका की आंखों पर पट्टी बंधी रही.

इस बीच उसे अस्पताल में ही रहना पड़ा, सोलहवे दिन अनिल उसे घर ले आया.

शारदा के न रहने के कारण घर का वातावरण बड़ा भारी था.

अलका फिर से सब कुछ देखने लायक हो गई थी, लेकिन अब वह पहले की तरह चहकने वाली अलका नहीं रह गई थी. वह सारा दिन सिर झुकाए घर का काम करती और रात बारह बजे चुपचाप जा कर सो जाती. अगले दिन फिर वही दिनचर्या.

धीरे-धारे एक महीना बीत गया.

समय बड़े से बड़े घाव को भर देता है. लता और सुनील कॉलेज जाने लगे थे. लता ने पीएचडी का इरादा छोड़कर एम.फिल में रेगुलर एडमिशन ले लिया था. अनिल ने एक महीने की छुट्टियां ली थीं. अब वह भी कॉलेज जाने लगा था.

अलका दिनभर घर में रहती थी. अकेली और उदास. शारदा की मौत का सबसे अधिक दुख उसे ही था. न जाने क्यों वह अपने को अपराधी सा अनुभव करने लगी थी. उसे बार-बार लगता था कि उसी के कारण शारदा को हार्टअटैक हुआ था. वह जब कभी भी अकेली होती तो उसकी आंखों से टप टप आंसू गिरने लगते. अनिल ने उसे समझाने का बहुत प्रयास किया, किन्तु व्यर्थ.

इसी तरह मई का महीना आ गया. कॉलेज दो महीने के लिए बन्द हो गाए थे. अतः अनिल ने अलका के साथ नैनीताल जाने का प्रोग्राम बनाया. उसका विश्वास था कि सुन्दर मौसम और हरी-भरी वादियों में अलका का मन हल्का हो जाएगा. अलका ने पहले तो नैनीताल जाने से इन्कार कर दिया, लेकिन लता और सुनील के बार-बार समझाने और अनिल के ज़िद करने पर वह तैयार हो गई.

अनिल ने नैनीताल पहुंच कर एक अच्छे से होटल में पूरे एक महीने के लिए कमरा लिया. वहां के प्राकृतिक सौन्दर्य और ठंडे मौसम से दोनों को बड़ा आराम मिला. दोनों दिनभर इधर-उधर घूमते, साइड सीन्स देखने जाते या झील में नौका विहार का आनन्द लेते और रात में थक कर सो जाते.

एक सप्ताह बीत गया.

एक दिन न जाने क्या सोच कर अलका ने कहीं भी न जाने का निश्चय किया. उसने दुल्हन की तरह श्रृंगार किया और सज-संवर कर तैयार हो गई.

अनिल बहुत ख़ुश था. आज उसे बहुत दिनों बाद अलका के चेहरे पर मुस्कुराहट देखने को मिली थी. शाम को अलका का दुल्हन की तरह सजना उसे और भी भला लगा. वह लगभग सात बजे होटल से निकला और कुछ देर तक झील के किनारे अकेले ही घूमता रहा. वह अलका के बारे में सोच रहा था. आज अलका दुल्हन की तरह क्यों सजी है? उसने श्रृंगार क्यों किया? सोचते-सोचते उसके होंठों पर मुस्कुराहट आ गई. डेढ़ महीने से उसने अलका का स्पर्श नहीं किया था.

अनिल ने लौटते वक़्त एक वेणी ख़रीदी और बैरे से डिनर के लिए मना करते हुए कमरे में आ गया. रात का अंधेरा धीरे-धीरे बढ़ रहा था.

अलका ने अपने साथ कमरे को भी करीने से सजा दिया था. बेड से सेन्ट की ख़ुशबू आ रही थी.

अनिल ने अपने हाथों से फूलों की वेणी अलका के जूड़े में लगाई और उसे सीने से लगा लिया.

अलका ने अपना पूरा बोझ अनिल पर डाल दिया.

अनिल की सांसें तेज़ होती जा रही थी. उसने दरवाज़ा भीतर से बन्द किया. कमरे की लाइट ऑफ की और अलका की कमर में हाथ डाले उसे पलंग पर ले आया. कमरे में इस समय छोटा सा नाइट लैम्प जल रहा था.

"अलका..." अनिल ने धीर से पुकारा.

"जी" अलका अनिल के और निकट आ गई.

"अलका, आज तुम बहुत सुन्दर लग रही हो, बिल्कुल नई-नवेली दुल्हन की तरह. जी चाहता है. कि...." अनिल ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी और अलका के बालों में उंगलियां फिराने लगा.

"अनिल, तुम किसी पहाड़ पर हनीमून मनाना चाहते थे. मैंने आज तुम्हारे लिए ही श्रृंगार किया है. यही समझ लो कि आज हमारी सुहागरात है." अलका के दिल की धड़कनें तेज हुई जा रही थीं.

"हां अलका, लग रहा है कि आज हमारी सुहागरात है. मैं आज तुम्हें इतना प्यार करूंगा, इतना प्यार करूंगा कि तुम जीवनभर भूल नहीं पाओगी..." कहते हुए दोनों आलिंगन बद्ध हुए.

"अनिल", अलका ने धीरे से पुकारा.

"अलका..." उत्तेजना में डूबा अनिल का स्वर उभरा.

"अनिल, मुझे प्यार करो, बहुत प्यार करो, मैं तुम्हारे प्यार के लिए बहुत दिनों से तड़प रही हूं. आज मुझे इतना प्यार करो, इतना प्यार करो कि मैं जीवनभर न भुला सकूं." अलका ने अनिल को अपने और निकट कर लिया.

"अलका, मेरी रानी, मैं तुम्हें आज इतना प्यार करूंगा कि तुम..." कहते हुए अपने दोनों हाथों में अनिल ने अलका का मुंह ले कर चूम लिया. अचानक अनिल की दृष्टि अलका की आंखों पर पड़ी.

"नहीं... नहीं... नहीं..." चीखता हुआ अनिल खड़ा हो गया.

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"क्या हुआ अनिल? तुम अलग क्यों हो गए? मेरे पास आओ अनिल, मेरे पास आओ अनिल. मुझे प्यार करो." अलका की समझ में नहीं आ था कि अनिल को क्या हो गया?

"कुछ नहीं अलका, कुछ नहीं..." कहते हुए अनिल फिर से अलका के पास आ कर लेट गया. उसका चेहरा अलका के सीने पर टिका था.

अलका ने बड़े प्यार से अनिल का सिर उठाया और उसके होंठ चूम लिए. अचानक फिर अनिल की दृष्टि अलका की आंखों पर पड़ी और वह पहले की तरह नहीं नहीं नहीं... कहता हुआ दूर हो गया.

"क्या हो गया है मुझे अलका? मुझे तुम्हारी आंखों में मां दिखाई पड़ती है. मैं क्या करूं? अब वह सब नहीं हो सकता, कभी नहीं हो सकता." कहते-कहते अनिल रो पड़ा. उसकी उत्तेजना शान्त हो चुकी थी.

अलका ने उठ कर अनिल का सिर अपनी गोद में रख लिया, अनिल अभी भी छोटे बच्चे के समान सिसक रहा था.

- प्रो.पी. आर. शुक्ल

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