विवाह के बाद पहला अवसर था, जब सुनील ने मुझसे ऐसा व्यवहार किया था. करवट बदलकर सुनील सो गए, किंतु मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी. मन में विचारों का तांता लगा हुआ था. क्यों सुनील को नयना से इतनी अधिक हमदर्दी है और मेरी भावनाओं की परवाह तक नहीं. कहीं उनका अफेयर तो नहीं चल रहा. नहीं… नहीं… ऐसा सोचना भी पाप है. सुनील मेरे हैं. मुझे उन पर पूरा विश्वास है. कशमकश की स्थिति में सारी रात मैं करवटें बदलती रही.
मम्मी को फोन मिलाने के लिए बढ़े हुए हाथ यकायक रुक गए. क्या कहूंगी मैं उनसे, यही न कि सुनील अब पहलेवाले सुनील नहीं रहे, बदल गए हैं, विश्वासघात कर रहे हैं मेरे साथ… उनके जीवन में… नहीं.. नहीं.. ऐसा मैं कदापि नहीं कह सकती. क्या गुज़रेगी मां-बाप के दिल पर, भाई-भाभी की नज़रों में क्या सम्मान रह जाएगा मेरा. हमारे समाज की यही तो विडम्बना है, लड़की सुखी है, तो सबके सिर आंखों पर होती है और दुखी है, तो सबकी आलोचनाओं का केन्द्रबिन्दु होती है.
कितने प्रयत्नों के बाद विवाह हुआ था मेरा. दो साल तक पापा मैट्रीमोनियल साइट्स की खाक छानते रहे थे. कई जगह बात बनते-बनते रह गई. कभी तो पैसा आड़े आ गया और कभी मेरा सांवला रंग-रुप लड़के को नहीं भाया. आख़िर सुनील मेरी ज़िंदगी में आए, जिन्होंने मेरे रंग-रुप को नहीं मेरी योग्यताओं को परखा और दो-चार मुलाक़ातों के बाद उनका विवाह प्रस्ताव आ गया. ख़ुशी के मारे मेरे पांव नहीं पड़ रहे थे ज़मीन पर.
एक साल कैसे बीत गया पता ही नहीं चला. फिर अचानक ही मेरी ख़ुशियों को किसी की नज़र लग गई. उस दिन को शायद ही मैं कभी भुला पाऊं. उस शाम सुनील ऑफिस से लौटे, तो उनके साथ एक ख़ूबसूरत युवती को देख मैं चौंक उठी थी.
‘‘यह नयना है. दो साल पहले मेरी कंपनी में काम करती थी, फिर विवाह करके लंदन चली गई.’’ सुनील ने उसका परिचय दिया. मैंने मुस्कुराकर नयना का स्वागत किया. चाय पीने और डिनर करने में रात के दस बज गए. मैंने महसूस किया, बातों के दौरान नयना मेरी उपेक्षा कर रही थी, किंतु हो सकता है यह मेरा वहम हो, यह सोचकर मैंने अपने दिमाग़ से यह बात निकाल दी.
रात में सुनील ने बताया, ‘‘नयना काफ़ी परेशान है. उसका डिवोर्स हो रहा है.’’
‘‘डिवोर्स, मगर किसलिए?"
‘‘कोई बड़ी वजह नहीं. बस छोटी-छोटी बातों में आए दिन होनेवाले झगड़ों से तंग आकर दोनों ने अलग होने का फ़ैसला कर लिया. अभी पंद्रह दिन पहले वह लंदन से आई है. उसे जल्द से जल्द अपने लिए नौकरी ढूंढ़नी है साथ ही अपने लिए अलग घर भी लेना है और इन सब कामों में उसे मेरी मदद की आवश्यकता है.’’
‘‘अलग घर क्या मतलब?’’
‘‘नयना के मां-बाप नहीं हैं. भइया-भाभी से उसकी बिल्कुल नहीं बनती, इसलिए वह अलग रहना चाहती है.’’ मैंने एक गहरी सांस ली और सोने का प्रयास करने लगी.
धीरे-धीरे नयना का घर पर आना-जाना बढ़ने लगा. अक्सर शाम को सुनील के ऑफिस से लौटने पर वह आ जाती और रात में डिनर करके वापिस जाती थी. पूरे सप्ताह सुनील व्यस्त रहते और मैं वीकेंड आने की प्रतीक्षा करती. वह दिन सदा ही मेरे लिए स्पेशल होता. कभी मूवी, तो कभी रेस्तरां का प्रोग्राम बनता. कभी गप्पें मारते हुए सुनील मेरे साथ किचन में खाना बनवाते. किंतु अब वह वीकेंड भी मेरा अपना नहीं रहा. वह दिन भी नयना ने अपने नाम कर लिया. हमारा कोई भी प्रोग्राम अब उसके बिना पूरा नहीं होता था. मुझे झुंझलाहट तब होती, जब सुनील भी पूरे जोशोखरोश के साथ उसका स्वागत करते. इन बातों का असर मेरी वैवाहिक ज़िंदगी पर पड़ने लगा.
नयना के साथ मैं पहले दिन से ही सहज नहीं रही. उसकी कौन-सी बात मुझे कचोटती थी, उसका सुनील पर ज़रुरत से ज़्यादा अधिकार जताना या फिर उसका सुनील से बेहद खुला व्यवहार. सुनील हमेशा कहते, "वह परेशान है…" किंतु मुझे उसकी बातों से कभी एहसास नहीं हुआ कि अपने डिवोर्स का उसे किंचित मात्र भी अफ़सोस है. मैंने कई बार सुनील को समझाना चाहा, नयना का इतना आना-जाना ठीक नहीं, किंतु सुनील सदैव मेरी बात हंस कर टालते रहे. मुझे लगने लगा मेरे और सुनील के बीच दूरी आ रही है.
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उस दिन सुनील का बर्थडे था. शाम को हम दोनों पहले पिक्चर फिर डिनर के लिए जानेवाले थे मैं तैयार हुई. गुलाबी रंग की साड़ी पहन मैंने स्वयं को आईने में निहारा तभी पीछे से सुनील ने मुझे अपनी बांहों में ले लिया. अभी उनके होंठों ने मेरी गर्दन का स्पर्श किया ही था कि कॉलबेल बजी. सुनील ने दरवाज़ा खोला.
‘‘हैप्पी बर्थडे.’’ बड़ी अदा से मुस्कुराते हुए नयना ने घर में प्रवेश किया. ‘‘भई तुमने मुझे बताया नहीं था कि आज तुम्हारा बर्थडे है, किंतु मुझे याद था.’’
‘‘कमाल की स्मरणशक्ति है तुम्हारी.’’
‘‘फिर इसी ख़ुशी में पार्टी हो जाए.’’
‘‘हां हां, क्यों नहीं, हम दोनों पिक्चर जा रहे हैं. तुम भी चलो.’’
नयना तुरंत तैयार हो गई. मेरे समस्त उत्साह पर पानी फिर गया. ग़ुस्से और बेबसी के कारण मेरी आंखें छलछला आई. मूवी देखने में फिर मेरा मन नहीं लगा. डिनर के दौरान भी मैं ख़मोश रही. रात में सुनील ने मुझे आलिंग्नबद्ध करना चाहा, तो मैं दूर छिटक गई. वह आश्चर्य से बोले, ‘‘क्या बात है, शाम से देख रहा हूं, तुमने मुंह बना रखा है.’’ मेरे सब्र का पैमाना छलक गया.
‘‘प्लीज़ सुनील, जान कर भी अनजान मत बनो. सहने की भी कोई सीमा होती है. क्यों चली आती है नयना रोज़-रोज़. क्या हम दोनों की कोई प्राइवेसी नहीं है?" सुनील मुझे घूरते हुए बोले, ‘‘आख़िर तुम्हें नयना से इतनी प्रॉब्लम क्यों है? वह मेरी दोस्त है. परेशान है, कुछ पल हम लोगों के साथ गुज़ार लेती है, तो इसमें हर्ज़ क्या है? पढ़ी-लिखी होकर भी तुम्हारी मानसिकता ऐसी होगी, मैं सोच भी नहीं सकता था.’’ मैं आहत हो उठी. विवाह के बाद पहला अवसर था, जब सुनील ने मुझसे ऐसा व्यवहार किया था. करवट बदलकर सुनील सो गए, किंतु मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी. मन में विचारों का तांता लगा हुआ था. क्यों सुनील को नयना से इतनी अधिक हमदर्दी है और मेरी भावनाओं की परवाह तक नहीं. कहीं उनका अफेयर तो नहीं चल रहा. नहीं… नहीं… ऐसा सोचना भी पाप है. सुनील मेरे हैं. मुझे उन पर पूरा विश्वास है. कशमकश की स्थिति में सारी रात मैं करवटें बदलती रही.
अगले दिन संडे था. अभी मैं सोकर उठी ही थी कि मेरठ से सुनील के बड़े भइया-भाभी आ गए. उनके आने से मुझे राहत महसूस हुई. कम से कम अब घर का माहौल तो ठीक हो जाएगा. नाश्ते के दौरान हम लोग गप्पें मार रहे थे. सुनील भी पिछले दिन की कड़वाहट भूल ख़ुश थे,.तभी नयना चली आई. उसे देख भाभी चौंक उठी. आश्चर्यचकित हो बोलीं, ‘‘अरे नयना, तुम तो विवाह करके लंदन चली गई थीं न!" ‘‘हां भाभी किंतु अब वापिस आ गई हूं. मेरा अपने हसबैंड से डिवोर्स हो गया है.’’ नयना ने बेझिझक होकर बताया फिर सुनील की ओर मुखातिब हुई, ‘‘सुनील, तुम मेरे साथ चल रहे हो न या प्रोग्राम कैंसिल.’’
‘‘मैं चल रहा हूं. भइया, आप लोग बातें कीजिए. मुझे नयना के साथ एक ब्रोकर से मिलने जाना है.’’
सुनील नयना के साथ चले गए. मुझे बुरा लगा. इतने दिनों बाद भइया-भाभी आए हैं, सुनील चाहते तो नयना को इंकार कर सकते थे. मैं कॉफी बनाने किचन में आ गई. कॉफी लेकर ड्रॉइंगरूम की ओर बढ़ी, तभी भइया की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी. वह भाभी से पूछ रहे थे, ‘‘यह नयना वही लड़की है न जो सुनील की कंपनी में काम करती थी.’’
‘‘बिल्कुल वही है. सुनील इससे शादी करना चाहता था, किंतु यह एक एनआरआई से शादी करके लंदन चली गई. ख़ैर जो होता है अच्छे के लिए होता है. इतनी तेज-तर्रार लड़कियां रिश्ते निभाना नहीं जानतीं. ईश्वर ने हमारे सुनील को बचा लिया.’’
‘‘प्लीज़ नंदा, ये सब बातें यहां मत करो. कहीं रितु न सुन ले.’’ भइया बोले.
‘‘ठीक है नहीं करुंगी, किंतु तुम सुनील को समझा दो, अब उसका नयना से मिलना-जुलना ठीक नहीं. तुमने शायद देखा नहीं, नयना के आते ही रितु का चेहरा कैसा उतर गया था.’’ नंदा भाभी बोलीं.
‘‘नंदा, सुनील सिर्फ़ नयना की मदद कर रहा है. मैं अपने भाई को अच्छी तरह जानता हूं. वह कभी कोई ग़लत काम नहीं करेगा.’’ भइया-भाभी की बातें सुनकर मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई. दीवार का सहारा न लिया होता, तो चक्कर खाकर गिर पड़ती. हे भगवान सुनील नयना से शादी करना चाहते थे और उन्होंने मुझे बताया तक नहीं. वैवाहिक जीवन की बुनियाद विश्वास पर टिकी होती है. विश्वास ही न रहा तो रिश्ता कैसा? किसी तरह मैंने स्वयं को संभाला और कॉफी लेकर कमरे में आई.
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भइया-भाभी तीन दिन हमारे साथ रहे. इस दौरान मैंने स्वयं को सहज रखने का भरसक प्रयास किया. किंतु उनके जाते ही पीड़ा के अथाह सागर में मैं डूब गई. हर पल दर्द की तीखी लहर शरीर में दौड़ती रहती. दिमाग़ नयना के इर्दगिर्द ही घूमता रहता. सुनील ऑफिस चले जाते और मैं पलंग पर पड़ी विचारों में खोई रहती. नयना से शादी करने की सुनील की इच्छा अधूरी रह गई, किंतु उनके अवचेतन मन में आज भी उसे पाने की इच्छा बरक़रार है. आज भी वह उससे प्यार करते हैं, तभी तो वह उसकी किसी बात से इंकार नहीं करते. मेरी भावनाओं की उपेक्षा कर उससे इतना मिलते-जुलते हैं.
सुनील से रिश्ता पक्का होने पर मेरी सहेली वंदना ने कहा था, ‘‘रितु, बुरा मत मानना, तेरी जगह मैं होती तो इस रिश्ते से इंकार कर देती. पत्नी को हमेशा पति से अधिक ख़ूबसूरत होना चाहिए, तभी पति उससे बंध कर रह सकता है. तुझे पता नही है, आदमियों की फ़ितरत कैसी होती है.’’ उस समय मुझे लगा था वंदना को मेरे भाग्य से ईर्ष्या हो रही है. तभी वह मुझे ऐसी सलाह दे रही है, किंतु आज लग रहा हैै, वंदना की बात सही थी. पुरुष की नज़रों में शारीरिक सौंदर्य ही सब कुछ है. उसके लिए मन की सुंदरता का कोई मोल नहीं, फिर भला सुनील जैसा हैंडसम इंसान मेरे जैसी सांवली रंगत की स्त्री के साथ कहां ख़ुश रह सकता है.
नयना मुझसे अधिक ख़ूबसूरत है, इस बात से दिल में हुक-सी उठी. भीतर चल रहे झंझावत को आख़िर किसे दिखाऊं? मम्मी अक्सर कहा करती थीं पति के दिल का रास्ता उसके पेट से होकर जाता है. पत्नी चाहे तो प्रेम और समर्पण से पति का दिल सहजता से जीत सकती है. किंतु लगता है वक़्त के साथ ये कहावतें भी अपना असर खो चुकी हैं. तभी तो सुनील का दिल मेरे प्यार से अनछुआ ही रह गया.
अगले दिन संडे था. मैं सुबह जल्दी उठी और सुनील को सोता छोड़ कॉलोनी के पार्क में जाकर बैठ गई. मन बेहद उदिग्न था. पिछली सारी रात नींद नहीं आई थी. आख़िर ऐसा कब तक चलेगा. नहीं अब मैं और नहीं सहन कर सकती. क्या मेरा कोई आत्मसम्मान नहीं है. बेशक मैं ख़ूबसूरत नहीं, किंतु मैं योग्य हूं. शादी से पूर्व केंद्रीय विद्यालय में मैथ्स और साइंस पढ़ाती थी. दिल्ली से तबादला हो जाने के कारण मैंने वह नौकरी छोड़ दी. अब मैं पुनः आत्मनिर्भर बनूंगी. किंतु इससे भी पहले सुनील से बात करना बेहद आवश्यक है. मेरी शराफ़त को सुनील मेरी कमज़ोरी समझ बैठे हैं. मैं उन्हें दिखा दूंगी, मैं कमज़ोर नहीं. नयना का साथ उन्हें छोड़ना ही पडे़गा, अन्यथा…
मन ही मन फ़ैसला कर मैं उठी और घर की ओर चल दी. घर के बाहर पहुंच मेरे पांव ठिठक गए. दरवाज़ा खुला था. नयना की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी. धड़कते हृदय से मैं सुनने लगी.
वह बोली, "सुनील, कई दिनों से तुमसे एक बात कहना चाहती थी. मेरे एक ग़लत फ़ैसले ने मुझे तुमसे दूर कर दिया था. किंतु अब मैं अपनी भूल सुधारना चाहती हूं. मैं तुमसे प्यार करती हूं सुनील. तुम्हारे साथ रहना चाहती हूं हमेशा के लिए.’’
‘‘यह क्या बोल रही हो तुम. जानती हो न कि मैं विवाहित हूं.’’ ‘‘जानती हूं सुनील और यह भी जानती हूं कि प्यार तुम मुझसे करते हो. रितु तुम्हारे लायक ही कहां है? पता नहीं उस जैसी साधारण लड़की से तुमने शादी कैसे कर ली? तुम उसके साथ कभी ख़ुश नहीं रह सकते.’’
‘‘अपनी बकवास बंद करो नयना.’’ ग़ुस्से में सुनील चिल्लाए.
‘‘मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि तुम इतना गिर जाओगी. मेरी दोस्ती को मेरा प्रेम समझने लगोगी. ठीक है किसी ज़माने में मैं तुमसे विवाह करना चाहता था, किंतु जब तुमने गौरव से विवाह किया, उस दिन से मैंने तुम्हें अपनी मित्र से अधिक कुछ नहीं समझा. अरे, मैं तो मित्रता के नाते तुम्हारी मदद कर रहा था, किंतु अब मुझे एहसास हो रहा है कि वह मेरी बहुत बड़ी भूल थी. तुम्हारी नज़र में रितु साधारण है, किंतु मेरी नज़र में वह तुम जैसों से कहीं अधिक सुंदर है, क्योंकि उसका मन सुंदर है. वह रिश्ते निभाना जानती है. उसके लिए उसका पति और परिवार सर्वोपरि है, किंतु ये बातें तुम्हारे स्तर से बहुत ऊंची हैं. तुम इन्हें नहीं समझोगी, इसलिए बेहतर होगा यहां से चली जाओ और दोबारा इस घर में कदम मत रखना." कमरे में ख़ामोशी छा गई. पैर पटकते हुए नयना घर से चली गई.
सुनील की बातों से मेरा मन द्रवित हो गया. वह मुझसे इतना प्रेम करते हैं और मैं उनके बारे में क्या-क्या सोच रही थी. इंसान की फ़ितरत भी अजीब होती है. कभी-कभी हम ऐसी समस्या से परेशान होते हैं, जिसका हमारे जीवन में अस्तित्व होता ही नहीं है. अपनी कल्पना में ही हम उसे जन्म देते है. नकारात्मक विचारों का प्रभाव दिलोदिमाग़ पर इस कदर छाया रहता है कि वह समस्या अपने मूर्त रुप में दिखाई देने लगती है. ऐसा ही कुछ मैंने भी किया. अपने सांवले रंग को लेकर मेरे मन में हीनभावना रही होगी, तभी तो सुनील और नयना की मित्रता देख मेरे अंदर असुरक्षा की भावना घर कर गई और अपने मन में मैंने अंर्तद्वन्द पाल लिया. किंतु आज सुनील की बातें सुनकर मेरा आत्मविश्वास इतना बढ़ गया है कि भविष्य में कभी कोई नयना इस विश्वास को डगमगा नहीं पाएगी. अपने और सुनील के बीच की काल्पनिक दूरी को मिटाते हुए मैं अधीरतापूर्वक उनकी ओर बढ़ी. मेरी आंखों से बह रहे आंसुओं को देख सुनील घबरा गए और बोले, ‘‘क्या हुआ रितु, तुम तो वॉक पर गई थीं न. रो क्यों रही हो?’’ मैंने उनकी बात का जवाब नहीं दिया और बेसाख्ता उनसे लिपट गई. सुनील ने कसकर मुझे अपनी बांहों में भर लिया. उनके प्रेम की गहराई में मेरा सारा अंर्तद्वन्द मिट गया था.
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