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कहानी- कवि मिथिलेश कुमार (Short Story- Kavi Mithilesh Kumar)

"आज तक आप यही कहते आए थे कि आपको अपनी कविताओं की किताब छपवाने का कोई शौक नहीं है. फिर अचानक से क्या हो गया? कौन आपकी प्रेरणा बना?"
प्रश्न सुनकर मिथिलेश ने पहले अंजू की तरफ़ देखा और फिर कहा, "आज तक ऐसा कोई मिला ही नहीं था, जिसने मुझसे किताब छपवाने की ज़िद की हो. अब मेरी ज़िन्दगी में ऐसा कोई है, जिसकी बात मैं टाल नहीं सकता."
सबके ज़िद करने पर भी मिथिलेश ने अंजू का नाम नहीं लिया. इस बात के लिए अंजू ने उसे आंखों ही आंखों में शुक्रिया भी कहा.

अंजू एक कॉलेज में इंग्लिश की प्रोफेसर थी. उस दिन जैसे ही वह कॉलेज पहुंची, तो उसने देखा कि सभी झुंड बनाकर किसी के मोबाइल पर कुछ देख रहे हैं. सबको एक साथ इस तरह इंटरेस्ट लेते हुए देखकर उसके मन में भी उत्सुकता जागी. उसने दूर से ही ऊंची आवाज़ करके पूछा, "इतनी दिलचस्पी के साथ क्या देखा जा रहा है?"
उनमें से किसी एक ने जवाब देते हुए कहा, "किसी कवि मिथिलेश कुमार की तस्वीर वायरल हो रही है, देखो कैसे भिखारियों के बीच बैठा है."
मिथिलेश कुमार का नाम सुनते ही अंजू के कान खड़े हो गए. उसने तुरन्त पास जाकर मोबाइल पर वो तस्वीर देखी. तस्वीर देखते ही उसका मुंह खुला का खुला रह गया. मिथिलेश कुमार किसी ज़माने में जाना-माना कवि और पत्रकार हुए करता था. भले ही उसने ज़्यादा नहीं लिखा था, लेकिन जितना लिखा था वो दिल छूनेवाला था.
वायरल होती तस्वीर में वो सड़क किनारे भिखारियों के बीच बैठा दिखाई दे रहा था. साफ़-सुथरे कपड़े पहने थे. बाल सलीके से बने हुए थे. गर्मी होने के बावजूद गले में हरे रंग का मफलर, सिर पर टोपी और पांव में ऊन से बने हुए जूते थे. चेहरे से नज़र आ रहा था जैसे उसे इस बात की कोई ख़बर ही नहीं है कि वो कहां है. अंजू ने तस्वीर के नीचे ख़बर पड़ी, तो उसे मालूम हुआ कि उसकी दिमाग़ी हालत ठीक नहीं है. उसके घरवालों का कहना था कि वो रोज़ सुबह नहा-धोकर घर से निकल जाता है और इस तरह भिखारियों के बीच में जाकर बैठ जाता है. लोग कुछ खाने को दें या पैसे पकड़ाए, तो वो नहीं लेता. कोई नहीं जानता था कि उसे आख़िर चाहिए तो क्या चाहिए.
अंजू ख़बर पड़ते ही बैचैन हो गई. अभी कुछ दिन पहले ही तो उसने मिथिलेश को याद किया था. किताबों की आलमारी ठीक करते हुए एक किताब में अंजू को मिथिलेश की लिखी एक कविता उसका इंतज़ार करते हुए मिली थी, जो ख़ुद मिथिलेश ने अंजू को दी थी. तब से उसका मन यह जानने को मचल रहा था कि अब मिथिलेश कहां है. वह अपने पिता से पूछना चाहती थी, मगर संकोचवश नहीं पूछ पाई. कुछ साल पहले जो भी हुआ था, उसके बाद उसकी कभी हिम्मत ही नहीं हुई, मिथिलेश का ज़िक्र भी अपने मां-पिता के सामने करने की.


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अंजू के पिता एक हिन्दी अख़बार में काम करते थे, वहीं मिथिलेश का आना-जाना था. एक दिन उसके पापा उन्हे घर ले आए और सबसे कहा, "आज से ये हमारी छत पर बनी बरसाती में रहेंगे."
अंजू को उसके अपने घर पर रहने से ज़्यादा इस बात पर ग़ुस्सा आ रहा था कि वो उनकी बरसाती में रहेंगे. ऐसे तो उसका अपना अलग से कमरा था, मगर जब घरवालों से थोड़ा स्पेस चाहिए होता था तो वो इसी बरसाती में आकर कुछ समय बिताती थी. उसे अपने पापा पर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था. उसने अपने पापा से अपनी नाराज़गी दिखाते हुए कहा, "आप ऐसे किसी को भी हमारे घर में रहने कैसे दे सकते हैं."
अंजू के पापा ने उसे चुप करवाते हुए कहा, "मानवता भी कोई चीज़ होती है. उनके पास इस वक़्त रहने को कोई जगह नहीं है."
अंजू को अपने पापा से ये भी पता चला कि मिथिलेश मस्तमौला टाइप का आदमी है. पैसों का ज़्यादा मोह भी नहीं है. जब ज़रूरत होती है, दो-चार आर्टिकल्स इधर-उधर के लिए लिख लेता है या किसी कवि सम्मेलन का हिस्सा बन जाता है. स्वभाव का वो काफ़ी मिलनसार है. इसी वजह से लोग उसे अपने घर में रहने को जगह दे देते थे, पर वह कभी एक साल से ज़्यादा किसी के घर पर रहता नहीं था.
जिस दिन मिथिलेश अपना सामान लेकर आया, अंजू अपने कमरे से बाहर तक नहीं निकली. उस वक़्त मिथिलेश की उम्र कोई पैंतालीस वर्ष के आसपास होगी. अंजू तब कॉलेज में प्रोफेसर बनने की तैयारी कर रही थी.
रात को अंजू के पापा ने मिथिलेश को डिनर के लिए अपने यहां ही बुला लिया. तब मिथिलेश ने अंजू से कहा, "माफ़ करना अंजू, मुझे नहीं पता था कि वो बरसाती तुम्हारे लिए इतना मायने रखती है. पहले पता होता, तो मैं यहां आता ही नहीं."
अंजू को यह सोचकर ही गुस्सा आ रहा था कि उसके पापा ने यह बात भी उसको बता दी.
कुछ दिनों बाद अंजू जब अपनी क्लास से लौट रही थी, तो उसने देखा कि मिथिलेश आसपास के सभी छोटे-छोटे बच्चों को इकट्ठा करके उन्हें एटलस में दुनियाभर की अलग-अलग जगह दिखा रहा था. अंजू को देखते ही मिथिलेश मुस्कुरा दिया. अंजू भी जवाब में मुस्कुराकर चुपचाप अंदर चली गई.
फिर एक दिन अंजू छत पर कपड़े डालने गई. मिथिलेश उस वक़्त घर पर नहीं था. बरसाती का दरवाज़ा खुला हुआ था. उसने उत्सुकतावश अंदर झांककर देखा. कमरे में एक जगह किताबों का ढेर लगा हुआ था. उसके कुछ दूरी पर बहुत सारे अख़बार बंधे पड़े थे. एक तरफ़ एक फोल्डिंग पलंग बिछा हुआ था. एक कपड़ों का सूटकेस था और रसोई के नाम पर एक स्टोव और कुछ बर्तन थे. तभी उसे पीछे से मिथिलेश के खांसने की आवाज़ सुनाई दी. वो उसे देखकर सकपका गई और बहाना बनाते हुए बोली, "वो दरवाज़ा खुला था. किताबें दिखाई दीं, तो बस देखने चली आई."

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अंजू की बात सुनकर मिथिलेश हंसकर बोला, "तुम्हें सफ़ाई देने की कोई ज़रूरत नहीं है. तुम जब चाहो यहां आ सकती हो और जो किताब चाहिए ले सकती हो."
अंजू शुक्रिया कहकर वहां से जाने लगी. मिथिलेश ने उसे रोकते हुए कहा, "देखोगी नहीं, मेरे कलेक्शन में कौन-कौन सी किताबें हैं."
अंजू उसके कहने पर रुक गई. उसने जो बहाना बनाया था, उसे निभाना जो था. अंजू ने देखा कि उसके पास हर तरह की किताबें थीं. अंग्रेज़ी-हिन्दी दोनों में. कुछ प्रतिष्ठित मैगज़ीन्स के स्पेशल एडिशंस भी थे. फ्रैंज काफ्का का एक उपन्यास देखते ही अंजू की आंखों में चमक आ गई. उसने वो उपन्यास उठाते हुए मिथिलेश से कहा, "मेरा बहुत दिनों से मन था इसे पढ़ने का. बहुत ढूंढ़ने पर भी नहीं मिल रहा था."
अंजू की ख़ुशी देखकर मिथिलेश उसे फ्रैंज काफ्का के बारे में बताने लगा. अंजू ने मिथिलेश की जानकारी पर हैरानी जताते हुए पूछा, "आपको इतना सब कैसे पता है?"
"बस यूं समझ लो कि यह सब पता करना ही शौक है मेरा." मिथिलेश ने जवाब दिया.
फिर कुछ दिनों में अंजू यह भी जान गई कि मिथिलेश एक चलता-फिरता एनसाइक्लोपीडिया है. उससे किसी भी विषय पर पूछ लो, उसे उसके बारे में पता होता था. यह उस समय बहुत बड़ी बात हुआ करती थी, जब कंप्यूटर्स घर-घर और गूगल सबके हाथों में नहीं हुआ करता था.
अब वह अक्सर समय मिलने पर क्रोशिया और ऊन लेकर उससे बातें करने छत पर चली जाती थी. उसे क्रोशिया चलाना बहुत पसंद था. वह अंग्रेज़ी का प्रोफेसर बनने के लिए अंग्रेज़ी साहित्य का अध्ययन कर रही थी. इसमें मिथिलेश उसकी काफ़ी मदद कर दिया करता था.
एक दिन उसे बातों बातों में पता चला कि मिथिलेश हफ़्ते में सिर्फ़ एक बार नहाता है, पर कपड़े रोज़ बदलता है. अंजू को यह जानकर बड़ा अचंभा हुआ. उसने मिथिलेश से पूछा, "हफ़्ते में एक बार नहाने के पीछे क्या स्टोरी है?"
मिथिलेश ने उसकी उत्सुकता दूर करते हुए कहा, "अब इसे मेरा अंधविश्वास कह लो या फिर कुछ और. एक बार किसी ने मेरा हाथ देखकर कहा था कि जितना ज़्यादा नहाओगे उतनी ही तुम्हारी लिखने की क्षमता कम होती जाएगी."
यह सुनकर अंजू बहुत हंसी और कहा, "अगर आप जैसे पढ़ने-लिखनेवाले लोग ऐसी बातों पर विश्वास करेंगे, तो समाज को सही दिशा कौन दिखाएगा."
मिथिलेश ने जवाब में कहा, "हमारा काम सही दिशा दिखाना नहीं है. हम जो जैसा है वैसा लोगों के सामने रखते हैं, बगैर उसके साथ छेड़छाड़ किए."
अंजू फिर कुछ नहीं बोली. वह ख़ुद को मिथिलेश की बातों के आकर्षण में बंधता हुआ महसूस कर रही थी.
एक दिन मिथिलेश सिल-बट्टे पर हरे धनिए की चटनी पीस रहा था. बगल में उबले हुए आलू रखे थे और स्टोव पर तवा चढ़ा हुआ था, जो लगभग जल चुका था. अंजू ने ये सब देखते ही उससे पूछा, "आप इस तरह का खाना खाते हैं?"
मिथिलेश ने हां में सिर हिलाते हुए कहा, "जब घर में खाता हूं, तो यही खाता हूं."
फिर अंजू ने कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद पूछा, "आपने शादी क्यों नहीं की?"
मिथिलेश ने तवे पर रोटी डालते हुए कहा, "भला कौन मेरे साथ इस तरह की बंजारोंवाली ज़िन्दगी जीने को तैयार होती?"
अंजू ने उसकी रोटियों की परफेक्ट गोलाई देखते हुए कहा, "ऐसा भी तो हो सकता था कि आप उनकी तरह जीना शुरू कर देते."
"यही तो डर था. मैं ख़ुद को बदलना नहीं चाहता." मिथिलेश ने जवाब दिया.
अंजू जब जाने लगी, तो मिथिलेश ने उससे कहा, "सुनो, मेरे पास एक प्रोग्राम का इन्विटेशन है. मुझे वहां अपनी कुछ कविताएं पढ़कर सुनानी है. तुम्हारा एक फेवरेट राइटर भी आनेवाला है. तुम चाहो तो मेरे साथ चल सकती हो."
अपनी पसंद के राइटर से मिलने का ख़्याल अंजू के दिल में गुदगुदी मचाने लगा. उसने अपने पैरेंट्स से बात की. अंजू की मां को तो वैसे ही उसका मिथिलेश से इतनी नज़दीकियां रखना पसंद नहीं था. उन्होंने प्रोग्राम के बारे में सुनते ही उसे जाने से मना कर दिया, मगर अंजू के ज़िद करने पर उसके पापा ने उसे इजाज़त दे दी.


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वहां जाकर अंजू को बहुत मज़ा आया. उसके लिए लेखकों और कवियों से पर्सनली मिलने का अनुभव बिल्कुल नया था. फिर उसने मिथिलेश को उसकी कविता पढ़ते सुना. पहली बार उसे किसी हिन्दी कविता में इतना जादू महसूस हुआ था. वापिस लौटते हुए उसने मिथिलेश से कहा, "आपको अपनी कविताओं का कलेक्शन पब्लिश करवाना चाहिए."
यह सुनकर मिथिलेश कुछ देर सोच में पड़ गया. फिर उससे बोला, "तुम चाहती हो, तो मैं इस बारे में सोच सकता हूं."
अंजू मिथिलेश की बात सुनकर ख़ुश हो गई और उससे बोली, "इसमें सोचना क्या है? हम इसी वीकेंड पर आपकी सभी कविताओं को अच्छे से टाइप करके उन्हें पब्लिश करवाने के लिए रेडी कर देंगे."
वीकेंड भी आ गया. अंजू मिथिलेश से कंप्यूटर पर टाइप करने की ज़िद करने लगी. मिथिलेश को हाथ से ही लिखना पसंद था. उसे ना तो ठीक से कंप्यूटर चलाना आता था और ना ही सीखने में दिलचस्पी थी, मगर वह अंजू की ज़िद के आगे हार गया. अंजू ने उसे इतना सिखा दिया था कि वो अपनी कविताओं को टाइप कर सके.
किताब की लॉन्चवाले दिन मिथिलेश अच्छे से नहाया और वही शर्ट पहनी, जो अंजू ने उसे तोहफ़े में दी थी. यह उसकी पहली किताब पब्लिश हो जाने पर उसको मिला पहला तोहफ़ा था. लॉन्च में आए हुए मेहमानों में से किसी ने उससे पूछा, "आज तक आप यही कहते आए थे कि आपको अपनी कविताओं की किताब छपवाने का कोई शौक नहीं है. फिर अचानक से क्या हो गया? कौन आपकी प्रेरणा बना?"
प्रश्न सुनकर मिथिलेश ने पहले अंजू की तरफ़ देखा और फिर कहा, "आज तक ऐसा कोई मिला ही नहीं था, जिसने मुझसे किताब छपवाने की ज़िद की हो. अब मेरी ज़िन्दगी में ऐसा कोई है, जिसकी बात मैं टाल नहीं सकता."
सबके ज़िद करने पर भी मिथिलेश ने अंजू का नाम नहीं लिया. इस बात के लिए अंजू ने उसे आंखों ही आंखों में शुक्रिया भी कहा.
कुछ समय बाद ही सर्दियां आ गईं. अंजू ने उसे अपने हाथ से बने क्रोशिए का हरे रंग का एक मफलर, टोपी और घर में पहनने के लिए ऊन के जूते दिए. ये सब चीज़ें देखकर मिथिलेश की आंखों में पानी आ गया. कभी किसी ने उसके बारे में इतना नहीं सोचा था. अंजू ने उसके कमरे का सारा समान भी ठीक से लगा दिया था. वो भी अंजू के लिए कुछ करना चाहता था. बहुत सोचने के बाद उसने तय किया कि वो अंजू को किसी अच्छी जगह लंच पर ले जाएगा. पैसों का इंतज़ाम करने के लिए उसने दो अंग्रेज़ी किताबों के अनुवाद का काम ले लिया. इसके बदले उसे थोड़ा-सा एडवांस मिल गया था. फिर एक दिन उसने अंजू से पूछा, "अंजू, क्या तुम इस वीकेंड पर मेरे साथ लंच पर चलोगी? तुमने इतना कुछ मेरे लिए किया है. मैं ठीक से तुम्हारा शुक्रिया भी नहीं कर पाया."
अंजू ने फौरन हां कर दी. मिथिलेश मन ही मन बहुत ख़ुश हुआ. वो बेसब्री से वीकेंड का इंतज़ार करने लगा.
जब वो दिन आया, तो मिथिलेश सुबह-सुबह ही नहा-धोकर तैयार हो गया. बालों को भी अच्छे से सेट किया. अंजू ने उसे टिप-टॉप देखकर दूर से ही सीटी मारी. अंजू की इस हरकत पर मिथिलेश शरमा गया. जब उसने अंजू से चलने का इशारा किया, तो अंजू ने माफ़ी मांगते हुए कहा, "मुझे अचानक ही किसी ज़रूरी काम से बाहर जाना है. हम फिर कभी लंच पर चलेंगे."
यह सुनकर मिथिलेश मायूस हो गया और अकेले ही घर से बाहर निकल गया.


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उसी दिन शाम को उसने देखा कि अंजू किसी लड़के के साथ है. दोनों को देखकर ही लग रहा था कि वो एक कपल हैं. मिथिलेश को उन्हें इस तरह साथ देखकर अच्छा नहीं लगा. उसे जलन महसूस हुई. वो उनका पीछा करने लगा, लेकिन अंजू की नज़र से वो बच नहीं पाया. इस तरह पकड़े जाने पर उसे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई. वो वापिस घर लौट आया. घर आते ही अंजू भी उससे बात करने छत पर गई और उससे पूछा, "आप मेरा पीछा क्यों कर रहे थे?"
मिथिलेश चुप रहा, क्योंकि उसके पास अंजू के प्रश्न का कोई जवाब नहीं था. पर अंजू नहीं मानी और उसके जवाब के लिए ज़िद पर अड़ी रही. उसकी ज़िद देखकर मिथिलेश ने कहा, "तुम मेरी प्रेरणा हो. तुमसे मिलने के बाद से ही मेरा मन ज़्यादा से ज़्यादा लिखने को करता है. तुम मेरी सब बातें बिना कहे समझ जाती हो और मेरे लिए तुम कितना कुछ करती हो, इसीलिए मुझे तुम्हें किसी और के साथ देखकर अच्छा नहीं लगा."
अंजू उसकी बात सुनकर चौंक गई और कहा, "ये क्या कह रहे हैं आप? आप मेरे लिए बस…"
मिथिलेश ने उसकी बात बीच में ही काटते हुए उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, "मैं जो कह रहा हूं, सच कह रहा हूं। तुम समझ रही हो न, मैं क्या कहने की कोशिश कर रहा हूं?"
इससे पहले अंजू कुछ कहती, अंजू की मां ने मिथिलेश को अंजू का हाथ पकड़े देख लिया और उससे चुपचाप उनका घर छोड़कर चले जाने को कहा. मिथिलेश ने अंजू की तरफ़ देखा. अंजू ने भी उससे मुंह फेर लिया. दो दिन बाद ही मिथिलेश उनका घर छोड़कर चले गए. वो जाते हुए अंजू से कुछ कहना चाहता था, मगर अंजू की मां ने उसे अंजू से मिलने नहीं दिया.
कुछ दिन बाद अंजू को उसका एक ईमेल मिला, मगर अंजू ने उसे नहीं पढ़ा. उसे डर था कि कहीं उसमें कोई ऐसी बात ना लिखी हो, जिसे पढ़कर उसे गिल्ट महसूस होने लगे.
आज जब उसने उसकी भिखारियों के बीच बैठे तस्वीर देखी, तो उसका मन उस बात को जानने को बैचैन होने लगा, जो मिथिलेश ने आख़िरी बार अपनी ईमेल में लिखी थी. उसने तुरन्त उस ईमेल को ढूंढ़ा और पढ़ने लगी.
ईमेल में लिखा था- जानता हूं, मेरी उन सब बातों ने तुम्हें चौंका दिया होगा, मगर इतना जान लो कि मैं जो तुम्हारे लिए महसूस करता हूं, वो प्रेम ज़रूर है, लेकिन उसमें वासना अंशमात्र भी नहीं है. मैं कभी तुम्हें पाना नहीं चाहता था. तुम्हारा होना ही मेरे लिए काफ़ी था, पर मैं जानता हूं तुम ऐसा नहीं सोचती. इसलिए मैं तुम्हारा गुनहगार हूं. अब जब तक तुम मेरे इस ईमेल का जवाब नहीं दोगी, तब तक मैं कुछ नहीं लिखूंगा और रोज़ नहाऊंगा भी. तुम्हारी माफ़ी के इंतज़ार में…
ईमेल पढ़कर अंजू सोचने लगी कि क्या सिर्फ़ वही मेरे बारे में ऐसा सोचते थे? क्या वो उनके प्रति आकर्षित नहीं थी? इसका जवाब ख़ुद से कहने से पहले ही अंजू ने अपने दिमाग़ से यह प्रश्न निकाल दिया.
फिर यह जानते हुए भी कि अब इसका कोई फ़ायदा नहीं, उसने ईमेल के जवाब में 'माफ़ किया ' लिखकर मिथिलेश कुमार को भेज दिया.

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साधना जैन

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