मां हंसकर बोली, "त्योहार तो सुबह से मन रहा है बिटिया. वो दान देकर मना रहे है हम दान लेकर मना रहे है.
अब तो मंदिर बंद होने को है, किसी के आने की उम्मीद भी कम ही है. चल, अब उठते हैं, घर चलकर खिचड़ी बनाऊंगी। तुम जी भरकर खाना, खिचड़ी में तोला भर घी भी डालूंगी."
"ए मुन्नी उठ जल्दी, मकर संक्रांति है आज. मंदिर जाना है न…"
"इत्ती सुबह नहाना भी होगा." मुन्नी कुनमुनाई तो मां बोली.
"भगवान के दर्शन करने नहीं जा रहे हैं, दर्शनार्थियों के दर्शन करने के लिए हमें मंदिर के बाहर बैठना है और वहां नहा-धो कर बैठेंगे, तो दान कम मिलेगा. वापस आएं तब नहा लेना."
आठ साल की मुन्नी समझ गई कि श्रद्धालुओं से ढेर सारा दान लेना है, तो बिना नहाए फटे कपड़ो में जाना होगा.
मां की आंखों में चिंता थी कि मांगने वालों की भीड़ में देने वालों की नज़र उस पर कैसे पड़ेगी.
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मुन्नी की आंखों में दान लिए श्रद्धालु घूम गए. किसी के हाथों में अन्न था, तो कोई ऊनी वस्त्र, कंबल लिए खड़ा था, तो कोई तिल-गुड़ के लड्डू.
लड्डू की याद आते ही उसके मुंह मे पानी आ गया और फ़टाफ़ट अपनी फटी पुरानी फ्रॉक पहन कर तैयार हो गई. कुछ ही देर में मां-बेटी मंदिर के किनारे बैठ गई.
श्रद्धालु दिल खोलकर दान कर रहे थे. मुन्नी और उसकी मां के पास दान की काफ़ी चीज़ें इकट्ठी हो गईं.
दान देनेवालों का रेला दिन ढलते कम होने लगा. दान लेनेवाले अब भी सड़क पर आस भरी नज़रों से देख रहे थे.
दोपहर बाद इक्का-दुक्का आते श्रद्धालुओं को देखकर मुन्नी ऊंघने लगी, तो मां बोली, "ए मुन्नी, सो मत जाना, अभी तो घर चलकर तुझे स्नान करना है, फिर मैं गर्मागर्म खिचड़ी बनाऊंगी उसमें घी डालकर तुझे अपने हाथों से खिलाऊंगी."
मुन्नी त्योहार के उत्साह में स्वप्नलोक में गोते लगाते देखने लगी कि स्नान के बाद उसने फूलोंवाली फ्रॉक पहनी है.
घी डली खिचड़ी की सुगंध पूरे घर मे फैली हुई है. सहसा उसकी भूख भड़क उठी. मां ने थाली में परोसी खिचड़ी को फूंक मारकर ठंडा किया और उसके मुंह में डाल दिया.
अचानक मुन्नी को किसी के हंसने की आवाज़ आई, देखा तो एक श्रद्धालु दान लिए खड़ा था.
मां उसे कोहनी से ठेलकर कह रही थी, "मुंह बंदकर अपना और ढंग से दान हाथों में ले."
श्रद्धालु ने उसके छोटे-छोटे फैले हाथों में कच्ची दाल-चावल मिली खिचड़ी रख दी.
मुन्नी कच्ची खिचड़ी को देखकर मायूसी से बोली, "ये कब पकेगी, हम कब त्योहार मनाएंगे?"
मां हंसकर बोली, "त्योहार तो सुबह से मन रहा है बिटिया. वो दान देकर मना रहे है हम दान लेकर मना रहे है.
अब तो मंदिर बंद होने को है, किसी के आने की उम्मीद भी कम ही है. चल, अब उठते हैं, घर चलकर खिचड़ी बनाऊंगी तुम जी भरकर खाना, खिचड़ी में तोला भर घी भी डालूंगी."
दान में मिले घी को माथे से लगाते हुए मुन्नी की मां ने मंदिर के बाहर से ही भगवान को शीष नवाया और दान के सामान को गठरी में बांधने लगी.
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जी भर कर खिचड़ी खाने की बात सुनकर मुन्नी के पेट में चूहे धमाचौकड़ी मचाने लगे. गठरी में सामान बंधता देखकर भूख पर काबू पाते हुये मुन्नी ने भगवान को हाथ जोड़े और आंख मूंद धीमे से बुदबुदाई…मां बाल इच्छा को तुरंत भांप गईं और हौले से बोली, "बिटिया, मकर सक्रांति का त्योहार साल में एक ही बार आता है…और दान भी…"
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