सारी रात मैं सो न सकी. परी की भोली सूरत स्मृतियों में कौंधती रही. उसका वह मासूम-सा सवाल, ‘‘पापा, यह क्या मेरी मम्मी हैं?" रह-रहकर मेरे कानों में गूंज रहा था. मैं भी तो इसी भांति अपनी मां के लिए कलपती थी. मां को खोने की तड़प क्या होती है, इस बात को मुझसे बेहतर भला कौन जान सकता है. इस दर्द के साथ ही तो मैंने अब तक का जीवन जिया है. रात्रि में जब सभी बच्चों को अपनी मां के आंचल का सुरक्षा कवच नसीब होता है, मैं निःसहाय अकेली, बेबस-सी बिस्तर पर करवटें बदलती थी.
अजय और परी तीन दिनों के लिए दिल्ली गए हुए हैं और मैं… मैं आजकल घर में नितान्त अकेली हूं. एकदम तन्हा, किंतु क्या वास्तव में मैं अकेली हूं. नहीं, मेरे साथ मेरे अतीत की स्मृतियां हैं, जो मुझे एक पल के लिए भी तन्हा नहीं छोड़तीं. गुज़रे दिनों के खट्टे-मीठे पल, जो मेरे साथ कभी हंसते हैं, तो कभी आंसू बनकर आंखों से छलक भी जाते हैं. एक धुंधली-सी स्मृति किसी बहुमूल्य धरोहर की भांति मेरी पलकों में कैद है. वह मुझे स्पष्ट दिखाई तो नहीं देती, क्योंकि उस समय मैं महज़ तीन साल की थी. अपनी मां के गले से लिपटे मेरे दो नन्हे हाथ, मेरे गालों को चूमते उनके अधर, उस अस्पष्ट-सी स्मृति को जब-तब जीकर मैं एक गहन सुख की अनुभूति से भर उठती हूं.
न जाने नियति ने मुझे मेरे किन कर्मों की सज़ा दी कि मां का बस इतना ही साथ मेरे हिस्से में आया. एक दिन मैंने मां को ज़मीन पर सोते देखा. मैंने उन्हें हिलाया-डुलाया. रोते-रोते न जाने कितनी आवाज़ें दीं, किंतु वह नहीं उठीं. पापा ने बिलखते हुए बताया, "मां भगवान के पास चली गई हैं."
‘‘मैं तो उनकी हर बात मानती हूं. दूध भी जल्दी पी लेती हूं, फिर वह मुझे छोड़कर क्यों चली गईं?" अक्सर मचलते हुए मैं कहती, ‘‘कहां रहते हैं भगवान? पापा, मुझे भी उनके पास छोड़ आओ न. मुझे मां की बहुत याद आती है.’’ और वह कसकर मुझे अपने सीने से लगा लेते. कुछ समय बाद पापा ने प्यार से गोद में बैठाकर कहा, ‘‘तुम्हारी नई मां आनेवाली हैं.’’
‘‘वह मुझे प्यार करेंगी न पापा.’’
‘‘हां बेटा, वह तुम्हें बहुत प्यार करेंगी.’’
‘‘मैं भी उनका बहुत कहना मानूंगी.’’ मैं अत्यंत उत्साहित थी.
फिर एक नए चेहरे का घर में आगमन, जिसमें मैं सारी ज़िन्दगी मां को तलाशने का प्रयास करती रही. पापा का आश्वासन बस आश्वासन ही रह गया. नई मम्मी का दिल इतना बड़ा नहीं था कि उसमें इतनी छोटी बच्ची की ममता समा सके. लाख प्रयासों के बावजूद पापा बेबस थे. नई मम्मी को आए कुछ माह ही बीते थे. एक रात मैं पापा के पास सोना चाहती थी, किंतु मम्मी मुझे अलग कमरे में सुलाना चाहती थीं. मेरे ज़िद करने पर उन्होंने एक ज़ोरदार तमाचा मेरे गालों पर जड़ दिया. उस पूरी रात मैं इतना रोई कि मुझे तेज बुख़ार हो गया था. उस तमाचे की गूंज कितने ही समय तक मेरे कानों में गूंजती रही थी. मम्मी ने गोद में बैठाकर न कभी मुझे प्यार किया और न अपने सीने से लगाया. मैं जितना उनके नज़दीक जाने का प्रयास करती, उतना ही झिड़ककर वह मुझे दूर कर देतीं. मेरे भाई अंश के जन्म के बाद तो मैं उनकी आंखों में और भी खटकने लगी थी. अतीत के वे लम्हे जीवंत होकर आज भी गाहेबगाहे मेरा हाथ पकड़ मुझे साथ चलने पर विवश कर देते हैं. आज सुबह से ही उनका साथ मुझे उद्वेलित कर रहा है.
पढ़ने का शौक मैंने पापा से विरासत में पाया था. हर ओर से मन हटाकर मैं अधिक से अधिक पढ़ने में व्यस्त रहती थी. बी.टेक करने के पश्चात् एक मल्टीनेशनल कंपनी में मुझे जाॅब मिल गई थी. इन्हीं यादों में विचरते हुए यकायक मेरी नज़र अजय और अपनी फोटो पर पड़ी. मुस्कुराते हुए वह कितने प्यार से मुझे निहार रहे हैं. शायद यह उनकी नज़र का ही जादू है कि अतीत की वे पीड़ादायक स्मृतियां ख़ुद-ब-ख़ुद मुझसे दूर जा रही हैं. उनकी जगह मेरा हाथ थाम लिया है, उन सुनहरे लम्हों ने जिन्होंने मेरे वर्तमान की नींव रखी. उन दिनों की यादें ही मेरे होंठों पर मुस्कुराहट लाने के लिए पर्याप्त होती हैं.
अजय का मैनेजर बनकर मेरे आफिस में आना. एक दिन काम की वजह से आफिस में हुई देरी और फिर उनका कार में मुझे छोड़ने मेरे घर आना. उस दिन के बाद से उनका गाहेबगाहे कभी काम से तो कभी बहाने से मुझे अपने केबिन में बुलाना और इन सबके पश्चात् हमारी परवान चढ़ती दोस्ती. किसी चलचित्र की भांति घटनाएं घट रही थीं. यह सब क्या नियति द्वारा पूर्व निर्धारित था? उन दिनों ऐसा प्रतीत होता था मानो जीवन रुपी आकाश में काले घनघोर मेघों को चीरकर सूर्य की रश्मियां झिलमिलाने लगी हों और फिर जब प्रोजेक्ट के काम से अजय दस दिनों के लिए पूना गए, तब मेरे मन की व्याकुलता और उनसे मिलने की तड़प ने मुझे समझाया कि मेरे मन में उनके प्रेम की कोंपलें फूटने लगी हैं और उनकी सुगन्ध से मेरा जीवन सुवासित हो उठा है. फिर तो प्रकृति के ख़ूबसूरत चटकीले रंगों का अक्स मेरी ज़िन्दगी के बेरंग कैनवास पर उतरने लगा. सोते-जागते हर पल वह मेरे ख़्यालों में छाए रहने लगे.
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अजय पूना से वापस लौट आए थे. उस दिन आफिस से निकलते वक़्त हम दोनों रेस्तरां चले गए थे. क़रीब एक घंटा देर से मैं घर पहुंची, तो पापा को बेचैनी से लाॅन में चहलकदमी करते हुए पाया. अंदर पहुंचते ही मम्मी ग़ुस्से से बिफर पड़ीं, ‘‘लो आ गईं महारानी. पूछो इससे, कहां गुलछर्रे उड़ाकर आ रही है.’’
‘‘बेटा स्वाति…’’
‘‘अजय के साथ काॅफी पीने चली गई थी पापा.’’
‘‘लो सुन लिया, कितनी बेशर्मी से बाप को बता रही है कि वह एक लड़के के साथ थी.’’
‘‘मम्मी, इसमें बेशर्मी क्या है? दीदी और अजय साथ में काम करते हैं. काॅफी पीने चले गए, तो कौन-सी आफ़त आ गई.’’ वहां खड़े अंश ने सदैव की भांति मेरा पक्ष लिया. अक्सर वह मेरे लिए डूबते को तिनके का सहारा साबित होता था.
‘‘तू चुप रह. बड़ा आया दीदी का हिमायती बनकर.’’ मम्मी ने उसे भी झिड़क दिया और पापा को घूरते हुए बोलीं, ‘‘देखो जी, मैंने बहुत बर्दाश्त कर लिया, मगर इस घर की बदनामी बिल्कुल सहन नहीं करुंगी. इससे कहो नौकरी छोड़े और घर बैठे.’’ मेरी आंखें भर आईं. रात में पापा कमरे में आए और भर्राए स्वर में बोले, ‘‘स्वाति बेटे, मैं तेरा गुनहगार हूं तेरी दादी के कहने में आकर इस उम्मीद में फिर से घर बसाया कि तुझे मां का प्यार मिलेगा. मुझे नहीं पता था…’’
‘‘प्लीज़ पापा, दुखी ना होए. क़िस्मत का लिखा कौन मिटा सकता है?" एक गहरी सांस ली पापा ने फिर बोले, ‘‘स्वाति, मैंने तुम्हारे लिए एक लड़का देखा है. इससे पहले कि मैं बात आगे बढ़ाऊ, तुम्हारे मन की थाह पाना चाहता हूं. तुम और अजय सिर्फ़ मित्र हो या…’’ मेरे दिमाग़ को एक झटका-सा लगा. अजय ने मुझे अभी तक प्रपोज़ तो किया ही नहीं था.
‘‘पापा, मैं उनसे बात करके आपको बताउंगी.’’ अगला दिन ऑफिस में बहुत व्यस्तताभरा रहा. अजय से बात नहीं हो पाई. शाम को उन्होंने कहा, ‘‘चलो स्वाति, तुम्हें घर छोड़ दूं.’’
रास्ते में मैंने उन्हें बताया, ‘‘पापा ने मेरे लिए एक लड़का देखा है. वह जल्द से जल्द मेरी शादी कर देना चाहते हैं.’’
अजय गम्भीर हो उठे, ‘‘और तुम क्या चाहती हो?" मेरी खोई-खोई-सी नज़रें उनके चेहरे पर जा टिकीं. होंठ कंपकंपा उठे.
‘‘मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा अजय. मेरे पास किसी का कमिटमेंट भी तो नहीं है, जिसके आधार पर मैं उन्हें रोकूं."
‘‘स्वाति, मैं तुम्हें प्रपोज़ करना चाहता था. जीवनभर के लिए तुम्हारा साथ पाना चाहता था, किंतु मेरी परिस्थितियां इसकी इजाज़त नहीं देतीं.’’
‘‘ऐसी भी क्या विवशता है तुम्हारी?"
‘‘देखना चाहोगी,’’ अजय ने कार अपने घर की ओर मोड़ दी. रास्तेभर शंकाओं के भंवर में डूबते-उतराते मैं ख़ामोश रही. ज्योंहि हम कार से उतरे, घर के लाॅन में अपनी नैनी के साथ खेलती क़रीब तीन वर्षीया मासूम-सी बच्ची दौड़कर क़रीब आई और अजय से लिपट गई. फिर मुझे देख बोली, ‘‘पापा, मम्मी आ गईं क्या?"
अजय झेंप गए फिर गोद में उठाकर उसे चूमते हुए बोले, "बेटा परी, यह आंटी हैं. इन्हें नमस्ते करो.’’ उसने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए फिर शर्माते हुए खेलने भाग गई. मैं हतप्रभ-सी खड़ी रह गई.
‘‘इसे जन्म देने के दो दिन बाद मेरी पत्नी पारुल का स्वर्गवास हो गया था. दो वर्ष तक मेरी मां ने इसे पाला. अब वह बीमार हैं और बड़े भइया के पास रह रही हैं, इसीलिए परी के लिए मुझे नैनी रखनी पड़ी. अब तुम ही बताओ स्वाति, मैं तुमसे किस अधिकार से कहूं कि मेरी बेटी की मां बनना स्वीकार करो. क्या यह मेरी स्वार्थपर्ता नहीं होगी.’’ मुझे समझ नहीं आया कि अजय की बात का क्या जवाब दूं. परिस्थितियां ऐसा मोड़ लेंगी, इसका गुमान भी नहीं था मुझे.
सारी रात मैं सो न सकी. परी की भोली सूरत स्मृतियों में कौंधती रही. उसका वह मासूम-सा सवाल, ‘‘पापा, यह क्या मेरी मम्मी हैं?" रह-रहकर मेरे कानों में गूंज रहा था. मैं भी तो इसी भांति अपनी मां के लिए कलपती थी. मां को खोने की तड़प क्या होती है, इस बात को मुझसे बेहतर भला कौन जान सकता है. इस दर्द के साथ ही तो मैंने अब तक का जीवन जिया है. रात्रि में जब सभी बच्चों को अपनी मां के आंचल का सुरक्षा कवच नसीब होता है, मैं निःसहाय अकेली, बेबस-सी बिस्तर पर करवटें बदलती थी. पानी के बिना रेगिस्तान में गर्म रेत पर भटकता राही भी शायद इतना बेचैन नहीं होता होगा जितना बचपन में मां छिन जाने पर एक बच्चा दर्द से बिलखता है. क्या कुसूर था मेरा और क्या कुसूर है उस छोटी-सी बच्ची का? मैं चाहूं, तो परी का जीवन संवार सकती हूं. परी की आवश्यकता को महसूस कर कल को अजय कहीं अन्यत्र विवाह कर ले, तो क्या गारंटी है कि वह स्त्री परी को उतना ही प्यार देगी, जितना मैं दे सकती हूं. कहीं परी के जीवन में मेरी कहानी की पुनरावृत्ति हुई तो..? इस विचार से मेरा अन्तर्मन तड़प उठा और आंखों से आंसू छलक पड़े. शान्त मन से मैंने हृदय को टटोला, तो मुझे एहसास हुआ, परी से मिलने के पश्चात् मैं अन्यत्र रिश्ता नहीं जोड़ पाऊंगी.
अगली सुबह मैंने पापा को अपने निर्णय के बारे में बताया, तो उन्हें गर्व हो आया अपनी बेटी की परिपक्व सोच पर. और जैसी कि उम्मीद थी, मम्मी ने इस शादी का भरपूर विरोध किया. वह यही कहती रहीं कि लोग क्या कहेंगे, सौतेली मां थी इसीलिए बेटी को एक बेटी के बाप से ब्याह दिया. किंतु मैंने, पापा और अंश ने उनकी किसी प्रतिक्रिया का जवाब नहीं दिया और ख़ामोशी से ब्याह की तैयारियां करते रहे. शादी के पश्चात मैंने परी को अपने ममता के आंचल में यूं समेट लिया कि कभी-कभी तो मुझे भी ध्यान नहीं रहता था कि मैं उसकी दूसरी मां हूं.
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दो वर्ष पश्चात अजय ने दूसरी कंपनी ज्वाॅइन कर ली और हम मुंबई आ गए. मेरा दिल्ली जाना कम ही होता था. अक्सर पापा को ही मैं मुंबई बुला लेती थी. बी. टेक करने के पश्चात् अंश को कंपनी ने न्यूयाॅर्क भेज दिया था. समय धीरे-धीरे पंख लगाकर कब उड़ गया, पता ही नहीं चला. परी अब पन्द्रह वर्ष की हो गई थी. तभी एक दिन दिल्ली से फोन आया कि पापा को हार्टअटैक आया. किसी अनहोनी की आशंका से मैं कांप उठी. मन ही मन ईश्वर से पापा की कुशलता की प्रार्थना करते हुए हम लोग दिल्ली पहुंचे. पापा आईसीयू में थे. मुझसे मिलने की चाहत ही उनकी सांसों की डोर को थामे हुई थी. अस्फुट से कुछ स्वर उनके मुख से निकले, ‘‘स्वाति, तुम्हारी मम्मी…’’ उनकी याचनाभरी दृष्टि मेरे हृदय को तार-तार कर गई. मैं बिलख पड़ी, ‘‘पापा, आप मम्मी की चिन्ता मत कीजिए. बस, जल्दी अच्छे हो जाइए. मैं आपके बिना नहीं रह सकती.’’ अजय और मैंने उनके हाथों को कसकर थाम लिया. इस विश्वासभरे स्पर्श से उनके चेहरे पर राहतभरे भाव आए और फिर उन्होंने आंखें मूंद लीं.
पापा के जाने से मैं टूट गई थी. मेरे जीवन में एक ऐसा शून्य उभर आया था, जिसका भरना नामुमकिन था. जीवनभर मां और पापा दोनों का प्यार उन्हीं से तो मिला था मुझे. अजय और परी मुझे सम्भालने में प्रयासरत थे. अंश भी एक माह की छुट्टी लेकर आया हुआ था. हम सबने परस्पर बात की. मम्मी को मुंबई साथ चलने का आग्रह किया, किंतु उन्होंने इंकार कर दिया. पापा के विछोह का ग़म तो था ही, एक अनचाहे रिश्ते को स्वीकारने में अहं और संकोच भी आड़े आ रहा था. परी के एग्ज़ाम आनेवाले थे, इसलिए हमें मुंबई वापस लौटना पड़ा.
चलते समय अजय बोले, ‘‘मम्मी, आप साथ चलतीं, तो पापा की आत्मा को तो शान्ति मिलती ही, हम भी निश्चिंत रहते. अब आपकी चिन्ता लगी रहेगी.’’ मैं चाहकर भी उनसे कुछ बोल नहीं पाई. अजय को यह बात अच्छी नहीं लगी.
अगली सुबह नाश्ते की टेबल पर वह बोले, ‘‘स्वाति, अपने बचपन की सभी अप्रिय बातों को नियति का खेल समझकर भूल जाओ. अपने जीवन के अभावों की क़ीमत तुम बख़ूबी समझती थीं. शायद इसीलिए तुमने परी पर जी-जान से ममता लुटाई. अब तुम्हारे लिए सबसे महत्वपूर्ण पापा को दिए वचन का पालन करना है.’’
ठीक ही तो कहा उन्होंने, यदि मेरा बचपन तृप्त होता, तो परी की भावनाओं को मैं उतनी शिद्दत से महसूस नहीं कर पाती. अपने जन्मदिन पर परी ने कहा था, ‘‘मैं कितनी लकी हूं कि आप जैसी मां मेरे जीवन में आई.’’ उस पल कितना सुकून मिला था मेरे हृदय को.
उस दिन के बाद से मैं रोज़ मम्मी को फोन करके उनके और अपने बीच के अन्तराल को मिटाने का प्रयास करने लगी. शायद कर्तव्य में शामिल आस्था का ही असर था कि शनैः शनैः अपना संकोच त्यागकर वह मुझसे खुलने लगीं. उनके और मेरे बीच की औपचारिकता समाप्त होने लगी. जल्दी ही वह दिन भी आ गया, जब वह मुंबई आने के लिए सहमत हो गईं. तीन दिन पूर्व अजय और परी उन्हें लेने दिल्ली चले गए.
स्मृतियों के तेज प्रवाह में बहते-बहते कब सुबह से शाम हो गई, मुझे पता भी नहीं चला. लगातार बजती डोरबेल की आवाज़ ने मुझे चेताया. दरवाज़ा खोला, सामने मुस्कुराते हुए अजय और परी के साथ मम्मी खड़ी हैं. मैं आगे बढ़ी. भावविहल हो उन्होंने कसकर मुझे अपने सीने से लगा लिया. वर्षों से दबा हुआ उनकी ममता का स्त्रोत आज पूरे वेग से बह रहा है, जिसमें मेरी समस्त निराशा, वो उदास लम्हे न जाने कहां तिरोहित हो गए हैं. मां की ममता पाकर आज मेरा अन्तर्मन भीग उठा है. हम दोनों की आंखों से अविरल अश्रुधारा बह रही है, जिसमें मुझे पापा का मुस्कुराता अक़्स स्पष्ट नज़र आ रहा है.
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