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लघुकथा- मज़ाकिया मनोज (Short Story- Majakiya Manoj)

मनोज के लिए जैसे कुछ हुआ ही न हो, वह इस तरह रहने लगा. अब तो वह पहले से ज़्यादा ख़ुश रहने लगा था. सब को हंसाता. छोटे-छोटे बच्चों से तरह-तरह के मज़ाक करके उनके साथ खेलता. कोई भी मुश्किल काम हंसते-हंसते मज़ाक-मज़ाक में कर डालता. इसलिए कभी-कभी कुछ लोग उसे पागल समझते कि इसमें जैसे किसी से कोई लगाव ही नहीं है, एकदम भावना शून्य है.

पिता के जाने के कुछ ही दिनों बाद मनोज को अकेला छोड़ कर मां भी स्वर्ग सिधार गई थी. पूरे गांव को उसकी इस अचानक हुई मौत का पता नहीं चला. मनोज अकेला पड़ गया था, इस बात का सभी को दुख था. 15 साल का लड़का अकेला कैसे जीवित रहेगा. अकेला पड़ गया यह लड़का अंदर से टूट जाएगा. हर किसी के मन में अलग-अलग विचार घूम रहे थे, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं.

Kahaniya


मनोज के लिए जैसे कुछ हुआ ही न हो, वह इस तरह रहने लगा. अब तो वह पहले से ज़्यादा ख़ुश रहने लगा था. सब को हंसाता. छोटे-छोटे बच्चों से तरह-तरह के मज़ाक करके उनके साथ खेलता. कोई भी मुश्किल काम हंसते-हंसते मज़ाक-मज़ाक में कर डालता. इसलिए कभी-कभी कुछ लोग उसे पागल समझते कि इसमें जैसे किसी से कोई लगाव ही नहीं है, एकदम भावना शून्य है. मां-पिता के खोने का भी दुख नहीं है, बेवकूफ़ की तरह हंसता रहता है. कहा जाता है कि आप अच्छा करो या ख़राब, लोगों के मुंह में लगाम नहीं लगाई जा सकती.
पर कुछ ही दिनों बाद पूरा गांव मनोज को हंसी-मज़ाक के लिए बुलाने लगा. जैसे सभी को उसके हंसी-मज़ाक की आदत-सी पड़ गई थी. कोई शुभ अवसर होता या खेतों में काम हो रहा होता. सभी मनोज को दिल बहलाने के लिए ले जाते. उसकी हंसी-मज़ाक की बातों में कब काम पूरा हो जाता, पता ही न चलता. बदले में मनोज को दो जून का खाना मिल जाता, यही बहुत था.


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गांव के लड़के उसके घर इकट्ठा रहते. मनोज तरह-तरह की बातों से उनका मनोरंजन करता. इसलिए सभी उसे प्रेम से मज़ाकिया मनोज कहने लगे. वह घर में अकेला ही रहता था, इसलिए लोग उसके घर महफ़िल जमाए रहते. मनोज का घर सभी के लिए हंसी-मज़ाक का अड्डा बन गया था. खाली हुए नहीं कि पहुंच जाते अड्डे पर. मां-बाप से खाली हुआ घर हमेशा भराभरा रहता. मनोज सभी का चहेता बन गया था.
किसी को कोई भी तकलीफ़ होती, वह मनोज के घर पहुंच जाता. देखते-देखते मनोज उसकी तकलीफ़ भुला कर हंसा देता. एक दिन अचानक हुए एक्सीडेंट में गांव के प्रधान के बेटे राजू की आंखें चली गईं. काफ़ी प्रयत्न के बाद भी उसके आंखें ठीक नहीं हुईं. उसे जीवनभर अंधेरे में रहना पड़ेगा, यह सोच कर वह गुमसुम रहने लगा. प्रधान उसे मनोज के पास ले आते, वह उसे हंसाता, निराश होने पर समझाता, "यह सब तो भगवान की लीला है, हम सब को बस हंसते रहना है, अपनी भूमिका को अदा करते रहना है."
मनोज की इस बात पर राजू ने कहा, "यह तो जिसे तकलीफ़ होती है, उसे ही पता होता है, बाकी सलाह देना तो आसान है."
"अरे, तुम चिंता मत करो, मैं हूं न."

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"तुम हंसाने के अलावा और क्या कर सकते हो? ज़िंदगी जीने के लिए हंसी-मज़ाक के अलावा भी बहुत कुछ है मनोज."
"पता है." कह कर मनोज हंसता रहा, पर राजू को उसकी यह हंसी समझ में नहीं आई.
एक सप्ताह से मनोज गायब था. किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि हमेशा ख़ुश रहनेवाला, कभी लगता ही नहीं था कि उसे कोई तकलीफ़ है, इस तरह अचानक वह कहां गायब हो गया. सभी ने उसे खोजने की कोशिश की, पर उसका कुछ पता नहीं चला. उसके जाने के बाद हंसी-मज़ाक का अड्डा सूना हो गया. मनोज के बिना उस जगह का कोई महत्व नहीं था, पर उस जगह के मालिक का अता-पता ही नहीं था.
तभी गांववालों को पता चला कि राजू की आंखें ठीक हो गई हैं. अब वह देख सकता है. सभी ख़ुश हो गए. बात ही ख़ुश होनेवाली थी. आते ही वह मनोज की तरह मज़ाक करने लगा, जैसे मनोज ही आ गया हो. उसकी बातों से सभी को मनोज की याद आ गई. मनोज की याद आते ही सब के चेहरे उदास हो गए. सब के मुरझाए चेहरे देख कर राजू ने कहा, "मेरी ये आंखें मनोज की ही हैं. मैं उसकी रंगीन दुनिया को बेरंगी नहीं होने दूंगा. आज से मैं मज़ाकिया मनोज हूं."
किसी की कुछ समझ में नहीं आया. सभी प्रधान की ओर देखने लगे. सभी की उदास देख कर प्रधान ने कहा, "मनोज के मां-बाप को रक्त का कैंसर था और वही कैंसर मनोज को भी हो गया था. यह बात वह जानता था, पर पैसा न होने की वजह से वह इलाज नहीं करा सका. इसलिए अब मात्र उसकी आंखें हम सब के बीच हैं."
यह सुन कर सभी की आंखों से आंसू बहने लगे. अब हंसी-मज़ाक करके हंसानेवाला कोई नहीं था. सभी की ओर ताकते हुए राजू ने कहा, "बहुत हंसने वाला चेहरा ही सबसे अधिक दर्द छुपाए बैठा रहता है."
राजू की इस बात से सभी की आंखों के सामने हंसी-मज़ाक करता हुआ मनोज का चेहरा तैर उठा.

Virendra Bahadur Singh
वीरेन्द्र बहादुर सिंह

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Photo Courtesy: Freepik

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