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कहानी- मेकअप (Short Story- Makeup)

Kahani मेकअप की पारंगतता इसी में है कि दोष छुप जाएं और गुण उभरकर आएं. चेहरे पर मेकअप की कला से एक स्त्री किसी को भी कुछ समय के लिए दीवाना बना सकती है. पर ग़लतियों और कमज़ोरियों पर मेकअप करके उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए अपना बना सकती है. पति-पत्नी के संबंध मधुर बनाए रखने में तो यह गुर विशेष काम आता है. बेटी के संग बातचीत में तल्लीन वसुधाजी का ध्यान दीवारघड़ी की ओर गया, तो वे चौंकीं, “उठ, अब थोड़ा बाल वगैरह ठीक कर ले.” “क्यों?” मां का मंतव्य समझकर श्रुति का मूड उखड़ गया था. “अरे क्यों क्या? प्रेज़ेंटेबल बने रहने का ज़माना है. देख मैं भी तैयार होती हूं.” कहते हुए वसुधाजी उठकर अपने कपड़े-बाल आदि ठीक करने लगीं. “रहने दो. आपको ज़रूरत नहीं है बनने-संवरने की. भगवान ने आपको खुले हाथों से रंग और रूप दिया है. मेकअप की परतें चढ़ाने की आवश्यकता तो मुझे है.” श्रुति बुझे मन से दर्पण के सामने जाकर बाल संवारने लगी थी. “लो, भगवान ने इतनी सांवली सूरत मोहिनी मूरत बनाया है, फिर भी रोना रोए जा रही है. अरे, आजकल तो ज़माना ही डस्की ब्यूटी का है. हीरोइन्स को देखा नहीं?” अपने प्रयास में वसुधाजी सफल रहीं. श्रुति के चेहरे पर मुस्कराहट आ गई थी. वसुधाजी उत्साहित हो उठीं. “और किसने कहा कि मुझे मेकअप की आवश्यकता नहीं है? मैं तो बचपन से ही मेकअप करती आ रही हूं. अरे, मेकअप तो हम स्त्रियों का जन्मसिद्ध अधिकार है. बल्कि जन्मसिद्ध स्वभाव कहना अधिक उपयुक्त होगा.” श्रुति के चेहरे पर नासमझी के भाव देख वे आगे बोलीं, “औरतें स़िर्फ चेहरे पर मेकअप नहीं करतीं, बल्कि घर, परिवार, पति, बच्चे सभी की ग़लतियों और कमज़ोरियों पर मेकअप करती रहती हैं. जब मैं छोटी थी, तो अक्सर छोटे भाई की ग़लतियों पर मेकअप करती थी. वह बहुत शैतान था. उससे दादाजी का चश्मा टूट गया, तो वह खेलने के बाद घर लौटने को राज़ी ही नहीं हुआ. मैं उसे समझा-बुझाकर घर लाई. झूठ बोला कि चश्मा मुझसे टूट गया. हालांकि किसी को विश्‍वास नहीं हुआ, पर हल्की डांट-डपट के बाद मामला शांत हो गया. मुझे संतोष था कि मैंने भाई को बचा लिया.” “ऐसा तो मैंने भी किया है. आपको याद है गुल्लू का बर्थडे था. हम मॉल गए थे. वहां गुल्लू को 6000 के जूते पसंद आ गए थे. आपने दिलाने से इंकार कर दिया था..” “हां... हां! बाद में वो तेरे साथ जाकर सस्ते वाले जूते लेकर आया था.” वसुधाजी को याद आ गया. “नहीं, वे 6000 वाले ही थे. मैंने अपने स्कॉलरशिप के पैसे उसमें जोड़कर दिलवाए थे.” “क्या? ख़ैर छोड़ो! मैं यही तो कह रही हूं कि मेकअप करना स्त्रियों का जन्मजात स्वभाव है... मैं पढ़ाई में आरंभ से ही अच्छी थी और तेरे मीकू मामा बस ठीकठाक. अच्छे नंबर आने के कारण मुझे बाहर के अच्छे कॉलेजों में प्रवेश मिल रहा था. लेकिन वहां की पढ़ाई महंगी थी. मां-पापा को बेटी को दूसरे शहर भेजने की हिचकिचाहट भी थी. बेटे को डोनेशन से प्रवेश दिलाना होगा. इस संभावना के मद्देनज़र पैसे भी जमा करने थे, इसलिए मुझे अपने ही शहर के सामान्य कॉलेज में प्रवेश दिलवा दिया गया. मैंने उनकी मजबूरी समझी और यह कहकर कि मुझे तो वैसे ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करनी है, उनकी मजबूरी को सबसे ढांपे रखा. यह भी पढ़े: कितना जानते हैं आप सेक्सुअल हैरेसमेंट के बारे में? (How Aware Are You About Sexual Harassment?) यही नहीं, प्रतियोगी परीक्षा में सफल होकर उनकी इज्ज़त बढ़ाई भी. उस व़क्त उनके चेहरे पर शर्मिंदगी, कृतज्ञता और गर्व के मिले-जुले भाव देख मुझे एहसास हुआ कि ये सब मैं उन्हें खरी-खोटी सुनाकर नहीं पा सकती थी. उनकी ग़लती या मजबूरी पर मेकअप करके मैं उनकी नज़रों में ऊंचा उठ गई थी. जब शादी होकर ससुराल आई, तो दोनों घरों के आर्थिक स्तर में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ पाया, पर मैंने कभी मायके की तंगी ज़ाहिर नहीं होने दी. विभिन्न अवसरों पर मायके से आनेवाले उपहार, मिठाई आदि मैं अपने स्तर पर ही ससुराल भिजवाती रही. इस तरह दोनों परिवारों में स्नेह-सौहार्द बना रहा. वे जब भी कहीं परस्पर मिलते, आत्मीयता से मिलते. बेटी, कोई भी संबंध तोड़ने में एक सेकंड लगता है, पर जोड़ने में बरसों लग जाते हैं. फिर मेरी गोद में तू आ गई. एक तो दोनों परिवारों की बेटे की अपेक्षा, फिर तेरा दबा रूप-रंग! सच कहूं एकबारगी तो मेरा भी जी धक से रह गया था, पर फिर सोचा अपनी कोखजायी संतान का यदि मैं ही आदर नहीं करूंगी, तो दूसरा कौन करेगा? बस, ऐसा सोचना था कि छाती से ममता का सोता-सा फूट पड़ा. मैंने तुझे सीने से लगाकर ख़ूब ख़ुशी और संतोष ज़ाहिर किया. मेरी प्रसन्नता देख औरों के चेहरों पर भी मुस्कान आ गई और सबने तुझे सीने से लगा लिया था. तेरे लालन-पालन में मैंने अतिरिक्त सतर्कता बरती. चुन-चुनकर तेरे लिए खिलते रंग के आकर्षक परिधान ख़रीदकर लाती. तुझे अच्छा खिलाती-पिलाती. शहर के सबसे महंगे कॉन्वेंट स्कूल में तुझे दाख़िला दिलवाया. यदि कोई दबे स्वर में भी कह देता कि काश बेटी रंग-रूप में मां पर गई होती, तो मैं तिलमिला उठती थी.” “यह तो मुझसे कहीं ज़्यादा स्मार्ट और आकर्षक है. बिल्कुल मॉडल जेैसे तीखे नैन-नक्श हैं. उस पर इतना तेज़ दिमाग़! इसके लिए तो लड़कों की लाइन लग जाएगी. और देख वही हुआ. अपने सहपाठी आकाश को तू इतना भा गई कि उसने ख़ुद आगे बढ़कर तेरा हाथ मांग लिया.” वसुधाजी ने गर्व से बेटी की ओर ताका, तो पाया उनकी बातें सुनते हुए वह कहीं खो-सी गई है. शायद आकाश के साथ अपने कॉलेेज के दिन याद कर रही है. काश दोनों के बीच सब कुछ पहले जैसा ही हो. जिस आशंका के मारे वे भागी-भागी यहां चली आई हैं, वह निर्मूल निकले. पिछले कुछ समय से वसुधाजी महसूस कर रही थीं कि फोन पर वार्ता के दौरान श्रुति उखड़ी-उखड़ी रहने लगी थी. किसी बात का ढंग से जवाब नहीं देती थी. ज़्यादा कुरेदो, तो झुंझला जाती थी. उन्होंने आकाश से अलग से बात करने की सोची, पर कर नहीं पाईं. मन में धंसा संदेह का कांटा जब गहरी टीस देने लगा, तो आख़िरकार एक दिन वे उनके पास आ ही पहुंचीं. दोनों ही उन्हें अचानक आया देख चौंक उठे थे. “अर्चना डिलीवरी के लिए मायके गई हुई है. उसके लौटने पर बच्चे का काम बढ़ जाएगा. तब मेरा निकलना संभव नहीं हो पाएगा, इसलिए सोचा तुम लोगों के पास अभी रह आऊं.” “अच्छा किया आपने.” कहकर आकाश तो निकल लिया था. पर श्रुति आश्‍वस्त नहीं हो पा रही थी. “भैया के खाने का क्या होगा?” “वह ऑफिस मेस में खा लेेगा. तू उसकी चिंता छोड़. यह तूने अपना और घर का क्या हाल बना रखा है? सब ठीक तो है?” “हं..हां, ठीक है. मुझे क्या हुआ है?” श्रुति हड़बड़ा गई थी. “नहीं, फोन पर भी तू खुलकर बात नहीं करती. मुझे लगा कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है.” “क्या मां कुछ भी सोच लेती हो? बस थोड़ा ऑफिस में वर्कलोड ज़्यादा हो जाता है, तो चिड़चिड़ापन आ जाता है.” श्रुति नज़रें चुराने लगी, तो वसुधाजी ने वार्ता को वहीं विराम दे दिया था. वे तो भूल ही गई थीं कि श्रुति भी तो एक स्त्री है. मेकअप का स्वाभाविक गुण तो उसमें भी होगा. मेकअप की परतों के पीछे छुपे सच को जानने, सुलझाने के लिए उन्हें धैर्य रखना होगा. श्रुति भी समझ रही थी कि मां को उसके दर्द का अंदेशा हो गया है, पर वह ख़ुद आगे होकर मां को कैसे बताए कि उसके और आकाश के बीच इन तीन सालों में काफ़ी कुछ बदल गया है. आकाश अब लगभग रोज़ ही ऑफिस से देरी से लौटने लगा है. न उसे पहले जितना व़क्त देता है, न प्यार. श्रुति को तो यह भी आशंका है कि वह किसी और लड़की के चक्कर में तो नहीं है. मां की ज़िंदगी में वैसे ही कितनी परेशानियां हैं. एक तो पापा का असामयिक देहावसान, फिर भाभी का व्यवहार भी उनके प्रति कुछ ख़ास अच्छा नहीं है. हालांकि मां ने कभी कुछ नहीं बताया. वे तो हर व़क्त भाभी के व्यवहार पर लीपापोती करती रहती हैं, ताकि श्रुति परेशान न हो. पर वह सब समझती है. नहीं, वह मां पर और चिंता का बोझ नहीं लादेगी. अपनी समस्या वह आप ही सुलझा लेगी. वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर स्वाभिमानी स्त्री है. जल्द ही वह आकाश से दो टूक बात कर अलग हो जाएगी. वह तो मां के अचानक आ जाने से उसकी योजना धरी रह गई थी. मां के सम्मुख अब तो वह आकाश के साथ भी अच्छे से पेश आने लगी थी. यह भी पढ़े: सोशल मीडिया रिलेशन: अधूरे रिश्ते… बढ़ती दूरियां… (Impact Of Social Media On Relationships) वसुधाजी को आए 10 दिन होने को थे. श्रुति ने ग़ौर किया कि आकाश न केवल व़क्त पर घर आने लगा था, वरन उससे हंस-हंसकर बातें भी करने लगा था. काम में भी हाथ बंटाने लगा था. काश मां कुछ दिन और रुक जाएं. काश मां कभी जाएं ही नहीं. यह भ्रम हमेशा बना ही रहे कि आकाश अब भी मुझसे प्यार करता है... नहीं, अब मां चली जाएं, ताकि वह इस मरीचिका से बाहर आकर आकाश से अलग होने के अपने निर्णय को क्रियान्वित कर सके. वसुधाजी बेटी के चेहरे पर आते उतार-चढ़ावों को ग़ौर से देख रही थीं. पर नारीजनित मेकअप की परतें इतनी गहरी थीं कि मन के सही-सही भाव का कयास लगाना दुश्कर प्रतीत हो रहा था. डोरबेल बजी, तो दोनों की तंद्रा भंग हुई. श्रुति ने जल्दी-जल्दी चेहरे के मेकअप को अंतिम टच दिया और जाकर दरवाज़ा खोल दिया. आकाश की प्रशंसा भरी नज़रें श्रुति के चेहरे पर जम-सी गई थीं. नवयौवना की तरह शरमाकर झेंपते हुए श्रुति ने अंदर आने के लिए रास्ता दे दिया. अपने व्यवहार पर वह ख़ुद अचंभित थी. “आज चाय-नाश्ता मैं तैयार करती हूं.” कहते हुए वसुधाजी रसोई में चली गई थीं. “मैं फ्रेश होकर आता हूं, तब तक तुम भी चेंज कर लो. मूवी देखने चल रहे हैं. डिनर भी बाहर ही करेंगे.” श्रुति के जवाब की प्रतीक्षा किए बिना आकाश बाथरूम में घुस गया, तो श्रुति के पास चेंज करने के अलावा कोई विकल्प शेष न रहा. वसुधाजी चाय-नाश्ता लेकर लौटीं, तो श्रुति को दूसरी ड्रेस में तैयार देख बोल उठीं, “अरे, आज कहीं बाहर जाने की तैयारी है?” श्रुति झेंप गई. बाहर आते आकाश ने जवाब दिया, “आप भी चलिए न मम्मीजी. मूवी के बाद डिनर भी बाहर ही करने का प्लान है.” “हां मां, चलिए न.” श्रुति ने आग्रह किया. “नहीं, मैं तो घर पर ही पसंदीदा सीरियल देखूंगी. खाना भी हल्का ही लूंगी दलिया वगैरह. तुम लोग हो आओ.” श्रुति समझ गई पति-पत्नी को क़रीब लाने का यह मां का एक और मेकअप है, वरना क्या वह नहीं जानती कि मां को मूवी देखना और बाहर खाना कितना पसंद है! आकाश का रोमांटिक मूड और छलकता प्यार भी इशारा कर रहा था कि वह अकेले में कुछ कहना चाहता है. श्रुति ओैर आग्रह किए बिना निकल ली. वसुधाजी के चेहरे पर मुस्कुराहट दौड़ गई. मूवी से लौटते समय आकाश ने एक शोरूम के बाहर कार रोकी तो श्रुति चौंकी. “अरसा हो गया तुम्हारे लिए कोई तोहफा नहीं लिया. चलो, सुंदर-सी ड्रेस सिलेक्ट करो.” श्रुति के लिए एक महंगी और ख़ूबसूरत सी डे्रस लेने के बाद आकाश ने वसुधाजी के लिए भी एक साड़ी ख़रीदवाई. श्रुति उसके चेहरे पर आते पश्‍चाताप और कृतज्ञता के मिले-जुले भाव देख प्रभावित थी. रेस्तरां में भी उसने श्रुति की पसंदीदा फिश ऑर्डर की. श्रुति मन ही मन दस दिन पहले की और आज की स्थिति की तुलना कर रही थी. जब वह आकाश को खरी-खरी सुनाकर उससे अलग होने का सोच रही थी. वो तो अचानक मां आ गईं. उसे बिगड़े हुए हालात पर मेकअप करना पड़ा. और सारा परिदृश्य ही बदल गया. श्रुति के कानों में मां के शब्द गूंज रहे थे. “बेटी, हर लड़की मेकअप का गुर मां के पेट से सीखकर आती है. हम चेहरे का मेकअप परफेक्ट कब मानते हैं, जब वो चेहरे के साथ इतना एकसार हो जाए कि लगे ही नहीं कि मेकअप किया गया है. एक स्त्री को अपने घर, परिवार, दोस्तों की ग़लतियों और कमज़ोरियों पर भी इस तरह मेकअप करना चाहिए कि सामनेवाले को एहसास न हो कि उसे ज़लील किया जा रहा है या उस पर कोई एहसान लादा जा रहा है. मेकअप की पारंगतता इसी में है कि दोष छुप जाएं और गुण उभरकर आएं. चेहरे पर मेकअप की कला से एक स्त्री किसी को भी कुछ समय के लिए दीवाना बना सकती है. पर ग़लतियों और कमज़ोरियों पर मेकअप करके उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए अपना बना सकती है. पति-पत्नी के संबंध मधुर बनाए रखने में तो यह गुर विशेष काम आता है. पति-पत्नी का संबंध दांत और जिह्वा की तरह होता है. एक सख्त और स्थिर है, तो दूसरी कोमल और चपल. पति कभी-कभी पत्नी पर अंकुश लगाता है, पर दांतों की तरह उसे आगोश में छुपाता भी है. दांत के बीच जब कुछ फंस जाता है, तो जिह्वा को झट पता चल जाता है और वह तुरंत उसे निकालने पहुंच जाती है और तब तक प्रयत्नरत और बेचैन रहती है, जब तक वह कचरा निकल नहीं जाता. कैसे भी हालात हों, दोनों अपना काम करते हमेशा साथ बने रहते हैं. मुंह के अंदर क्या चल रहा है, दोनों न चाहें तब तक बाहर किसी को पता भी नहीं चल पाता.” ख़्यालों में खोई खाना खाती श्रुति को ध्यान ही नहीं रहा कब एक कांटा गले में अटक गया. वह बुरी तरह खांसने लगी. बौखलाया-सा आकाश कभी उसकी पीठ सहला रहा था, तो कभी पानी पिला रहा था. श्रुति के सामान्य होने तक उसकी सांस अटकी ही रही. आसपास के लोग भी उठकर मदद को आ गए थे. “तुमने तो मुझे डरा ही दिया था. मैं बहुत शर्मिंदा हूं, पिछले कुछ समय से मैं तुम्हारे प्रति काफ़ी लापरवाह हो गया था, पर आज अचानक तुम्हें इस हालत में देखा, तो एक अनजाने डर से सिहर-सा गया. उस नन्हीं बच्ची को देख रही हो?” अपने ख़्यालों में गुम श्रुति ने ध्यान ही नहीं दिया था कि एक नन्हीं बच्ची अपनी अठखेलियों से जाने कब से लोगों का ध्यान आकृष्ट किए हुए थी. “... मैं सोच रहा था हमें भी अब एक बच्चा प्लान...” ‘धत्’ शर्म से श्रुति के गाल सुर्ख़ हो उठे थे मानो किसी ने उन पर ढेर सारा रूज़ लगा दिया हो. Sangeeta Mathur    संगीता माथुर

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