राहुल अजीब नज़रों से देखते, तो उनसे नज़र चुराने लगती मैं. हालांकि हमारे रिश्ते बिल्कुल साफ़ थे. मैं और राहुल सिर्फ़ पति-पत्नी थे, न इससे कम और न इससे ज़्यादा. मैं और मयंक सिर्फ़ दोस्त थे, न कम न ज़्यादा. समाज हमें ऐसी दोस्ती की इज़ाज़त नही देता शायद… या हमारे अपने पूर्वाग्रह ही हमें किसी अपराधबोध से ग्रसित कर देते हैं. उम्र भी एक बड़ी सच्चाई है. इस उम्र में हमें ऐसी नादानी की इज़ाज़त नही होती.
मन भी एक अजीब शै है. एक अबूझ पहेली, कभी बेतुकी फ़रमाइशों पर मचल उठता है. कभी यूं ही अनजाने खिलखिला उठता है. कभी किसी नन्हीं चिड़िया को पिंजरे में देख यूं उदास हो जाता है मानो इसे ही बंद कर दिया गया हो. कभी अपनों में अजनबी बना रहता और कभी अजनबियों में अपनापन ढूंढ़ लेता है. तो ऐसा ही बेतुका है मन मेरा. न कम का मलाल, न ज़्यादा की उम्मीद, बस यूं ही निर्लिप्त भाव से बंजारा हुआ फिरता है.
लगभग 35 वर्षों के सफ़र में क्या बचा और क्या ख़त्म हो गया?इसका हिसाब रखना बंद कर दिया है अब इसने. हंसते हुए न जाने कितनी बार राहुल बोलते हैं, "हम अलग हैं…" हां, सच ही कहते हैं शायद, एकदम अलग ही तो हैं हम. वो लाइफ में प्रैक्टिकल और मैं इमोशनल, उनके लिए पैसा अहम और मेरे लिए भावनाएं, मैं क्लासिकल संगीत में रुचि रखती और उनके लिए म्यूज़िक मतलब बेकार लोगों का काम, मैं कविता, कहानियों, साहित्य की शौकीन और वो मॉडर्न पार्टीज़ के, मैं प्रकृति की ओट में रहना चाहती, तो एसी से बाहर निकलते ही उनको तकलीफ़ हो जाती.
साथ निकलना भी अब लगभग न के बराबर हो गया है. यूं भी समय कहां है उनके पास और फिर जहां वो ले जाना चाहते वहां मेरा दम घुटता और जहां मैं जाना चाहती वो जगहें उन्हें अपने से कमतर लगतीं. हां, कभी-कभार ऑफिस की पार्टियों में जहां बीवी को ले जाना ज़रूरी होता, बस वहीं हम साथ होते. ज़िंदगी गुज़ारना और ज़िंदगी जीने में बड़ा फ़र्क होता है. ये वही समझ पाते हैं, जो ज़िंदगी गुज़ार रहे होते हैं.
ज़िंदगी बस यूं ही अपनी धुन में चलती जा रही थी और हम दोनों अपनी-अपनी धुन में ज़िंदगी गुज़ार रहे थे. बच्चे छोटे थे जब तक तो एक अनदेखा बंधन था हम दोनों के बीच… बच्चों के बहाने कभी-कभार ज़िंदगी में ज़रा रौनक़ हो जाती, पर रिया की शादी के बाद तो जैसे ज़िंदगी दो अलग धड़ों में बंट गई थी. रोहन एमबीए करने चला गया और राहुल अपने बिज़नेस में व्यस्त हो गए. बच गई मैं, जो ख़ुद अपने साथ अपनी ज़िंदगी जी रही थी. हां, अब राहुल कभी रोकते नही थे अपने मन की करने से, बस उनकी इमेज का ध्यान रखना होता था.
ख़ुश थी शायद… या फिर ख़ुश होने का ढोंग कर रही थी. बहुत सालों तक ख़ुश रहने का नाटक करते-करते यूं भी हो जाता है कि मन को भरोसा होने लगता है कि 'हां ख़ुश हूं मैं'
ख़ैर दौड़ते-भागते ज़िंदगी के पल सालों में कट रहे थे और उम्र की संख्या बढ़ते-बढ़ते जीवन की शाम आने लगी थी.
हर शनिवार की तरह आज भी थिएटर आ गई थी और आदतन सीढ़ियों पर बैठकर यहां-वहां इकट्ठे हुए कलाकारों का रिहर्सल देख रही थी. फाइनल शो से पहले कितने टेक लेने होते हैं इन्हें. क्या ज़िंदगी के सीन भी रिहर्सल के साथ नही हो सकते. एक बार सही न लगे, तो दूसरा टेक जब तक परफेक्शन न आए, तब तक रिहर्सल और फिर फाइनल सीन… सोचते हुए उन्ही में खोई थी कि अचानक एहसास हुआ कि बगल में थोड़ी दूरी पर कोई बैठा है. पलटकर देखा, तो अनायास ही नज़रें मिल गईं. गहरी आंखें, थोड़े लापरवाह बिखरे बाल, और दिल को छू लेनेवाली मुस्कुराहट… बालों से चमकती चांदी कह रही थी कि यही कोई पचास के क़रीब रहा होगा वो.
न जाने क्या था उस व्यक्तित्व में कि नज़रों से उसे तोलती जा रही थी मैं… वैसे मेरी आदत में नही है यूं अजनबियों की पड़ताल करना, पर दिमाग़ जैसे सो गया था और मन वहां से हट ही नही रहा था.
अचानक उसकी आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा, "आपको भी एक्टिंग का शौक है?"
"अं…" मैं अचकचा गई जैसे चोरी पकड़ ली हो किसी ने…
"न… नही मैं लिखती हूं… कुछ नाटक लिखे थे, जिनका मंचन इन बच्चों ने किया, तभी से यहां आने लगी. अब इनके डायलॉग वगैरह लिखने में मदद कर देती हूं और इनके साथ एंजॉय भी करती हूं." "आपको पहले कभी नही देखा यहां." मैंने पूछा.
"नया हूं इस शहर में. मयंक नाम है मेरा. बैंक में सीनियर मैनेजर हूं. एक्टिंग का शौक है, थोड़ा-बहुत गा लेता हूं और कंपोज़ भी कर लेता हूं कभी-कभी… बस अपना शौक ढूंढ़ते यहां आ पहुंचा… सोचा कोई अपने जैसा दोस्त भी मिल जाए शायद यहां…" बोलते हुए वो आंखों में देखते कहीं गहरे उतरता जा रहा था. मैं उन नज़रों से बचने के लिए मैदान में रिहर्सल कर रहे कलाकारों को देखने लगी.
बात बदलते हुए बोली, "आपकी आवाज़ में बेस अच्छा है." वो मुस्कुराते हुए कुछ गुनगुनाने लगा… मुझे लगा जैसे मैं यूं ही बैठी उसकी आवाज़ सुनती रहूं. दिमाग बीच-बीच में कोशिश कर रहा था कि मन को काबू कर ले, पर आज मन किसी के बस में नही था. बातचीत का सिलसिला पता नही कहां-कहां से गुज़रा… यूं किसी अजनबी से मन बांटने का मेरा पहला अनुभव था ये, पर वो अजनबी सा कहां लग रहा था. कितना समय हम दोनों ऐसे ही बातें करते रहे पता ही नही चला. राहुल के फोन से ध्यान आया कि घर पहुंचने का टाइम हो गया था.
अब समय को पंख लग गए थे. मैं और मयंक लगभग रोज़ मिलने लगे. पता नही कितनी बातें करते और बातों में ही मिल कर न जाने कहां-कहां की सैर कर आते. 56 की उम्र में ये नवयुवती-सी बेख़्याली कहां से आ गई थी पता नही. मयंक अकेला था तलाक़शुदा, इसलिए किसी को जवाबदेह नही था और मैं… अब तो राहुल भी नोटिस करने लगे थे. "आजकल तुम बड़ी ख़ुश दिखती हो क्या बात है?" राहुल पूछते तो मैं सकपका जाती मानो कोई चोरी पकड़ ली हो. किसी तरह फिर संभलते हुए कहती, "नही तो…" राहुल कुछ कहते नहीं, पर अविश्वास की हल्की-सी लकीर उनकी आंखों में दिख जाती.
मैं अलग दुनिया में जीने लगी थी मयंक के साथ. हम दोनों कभी किसी नाटक का मंचन करते, कभी हम मिल कर गाते और कभी यूं ही इधर-उधर बातों की कश्ती पर वक़्त के दरिया में सैर कर रहे होते. उम्र में मुझसे छोटा मयंक मुझे समझने लगा था. हमारी पसंद-नापसंद, सोच सब एक जैसी थी. हम घंटों एक-दूसरे के साथ ख़ुश रहते और हमें एक-दूसरे से इससे ज़्यादा कहां कुछ चाहिए था. बस, गहरे बहुत गहरे दोस्त बन गए थे हम. हमारी दोस्ती में कुछ ग़लत नही था, पर फिर भी लगता रहता जैसे कोई ग़लती कर रहे थे हम, शायद ख़ुश रहने की ग़लती.
कभी शतरंज खेला है? शतरंज के खेल में और जीवन के शतरंज में फ़र्क बस इतना सा है कि शतरंज को खिलाड़ी मोहरों से खेलते हैं, पर ज़िंदगी की शतरंज में खिलाड़ी ख़ुद ही मोहरा बन जाते हैं. हमारे जीवन की शतरंज की चाहे-अनचाहे बिसात बिछी ही रहती है और हम सब मोहरे ज़िंदगी के इशारे पर नाचते रहते हैं.
तो बस हमें भी ज़िंदगी अपने इशारों पर नचा रही थी. शतरंज की बिसात बिछ चुकी थी.
राहुल अजीब नज़रों से देखते, तो उनसे नज़र चुराने लगती मैं. हालांकि हमारे रिश्ते बिल्कुल साफ़ थे. मैं और राहुल सिर्फ़ पति-पत्नी थे, न इससे कम और न इससे ज़्यादा. मैं और मयंक सिर्फ़ दोस्त थे, न कम न ज़्यादा. समाज हमें ऐसी दोस्ती की इज़ाज़त नही देता शायद… या हमारे अपने पूर्वाग्रह ही हमें किसी अपराधबोध से ग्रसित कर देते हैं. उम्र भी एक बड़ी सच्चाई है. इस उम्र में हमें ऐसी नादानी की इज़ाज़त नही होती.
हम तीनों मोहरे ज़िंदगी की शतरंज पर अपनी-अपनी चाल चल रहे थे, पर ज़िंदगी आसान कहां होती है. रोहन अपना एमबीए ख़त्म करके वापस आ गया. अब घर पर ज़्यादा समय देने लगी मैं और मयंक से मिलना ना के बराबर हो गया. मन का अपराधबोध अब और बढ़ गया. मयंक फ़ोन करता बार-बार, पर उसे टाल देती. सोच रही थी इतना समझदार है सब पता है उसे, पर क्यों नही समझता… पर क्या मुझे पता था कि आख़िर क्या समझाना चाहती थी मैं मयंक को और अपने मन को. सब इसी तरह चल रहा था. राहुल कुछ बोलते नही थे और रोहन अपने डैड के साथ बिज़नेस में बिज़ी हो गया और रह गई मैं फिर अकेली… मेरे लिए किसी के पास समय नही था. मेरी उदासी दोनों में से किसी को दिखती नही थी.
मेरी ख़ुशी को बार-बार पॉइंट आउट करनेवाले राहुल को मेरी उदासी से कोई फ़र्क नही पड़ता, पर फिर भी मैं एक दोस्त से मिलकर ख़ुश नही हो सकती थी. उदास मन बार-बार मयंक से मिलने को भाग रहा था.
शनिवार था राहुल और रोहन ऑफिस को निकले ही थे कि मयंक का फोन आ गया. बार-बार थिएटर ग्राउंड आने को कह रहा था. मन को काबू नही कर पाई आज. झट तैयार होकर बस निकलने ही वाली थी कि राहुल की कार पोर्च में रुकी. रोहन भी साथ था. मुझे कैब में बैठता देख दोनों थोड़ा हतप्रभ थे.
राहुल मुझे घूरते हुए अंदर चले गए.
रोहन बोला, "डैड के मीटिंगवाले पेपर्स घर पर ही रह गए थे, इसीलिए वापस आए." मैं लपकते हुए राहुल के पीछे चल दी. अंदर रूम में पहुंचते ही राहुल ने मुझे धक्का देते हुए दरवाज़ा बंद कर लिया और घुटी हुई आवाज़ में चीखते हुए बोले, "जवान बेटा सामने है अब तो अपना ये तमाशा बंद कर दो." और दरवाज़ा मेरे मुंह पर ज़ोर से बंद कर चले गए.
उनके शब्द मेरे कानों में पिघलते रहे… देर तक मन दुखाते रहे… सोच रही थी कि अगर उनकी कोई महिला दोस्त उनके साथ घर आ जाती या वो उसके साथ कहीं जाते, उससे बातें करते और ख़ुश हो जाते, तो क्या उसे भी तमाशा ही कहते या कोई और नाम देते.
मन आज बस में नही था मेरे. हमेशा शांत और संतुष्ट रहनेवाला मेरा मन आज बगावत पर उतारू था. हमेशा ज़िंदगी की लय पर चलनेवाला मन जाने क्यों आज ज़िंदगी की चाल को मानने को तैयार नहीं था. राहुल का एक-एक शब्द पिघले सीसे-सा कानों में घुलता रहा. दर्द… नही अब राहुल की किसी बात से दर्द नही होता, पर इन शब्दों में अपमान था और अपमान सहने के लिए मैं तैयार नहीं थी. पूरा दिन बेचैनी में और पूरी रात आंखों में गुज़र गई. ऐसा नही है कि इस तरह की परिस्थिति पहले नही आई कभी, पर हर बार बात ख़त्म करने की गरज से मैं ही राहुल की मान-मनुहार करती कि चलो घर का माहौल ठीक रहे बस… पर इस बार मेरा ऐसा कोई इरादा नही था और राहुल… वो तो कभी गलत होते ही नही, इसलिए मनुहार करना और माफ़ी मांगना तो उनके लिए दूर की कौड़ी रही है हमेशा.
पूरी रात मैं बिखरती रही… सिमटती रही… दिमाग़ में अजीब कोलाहल था. कभी राहुल की बेरुखी याद आती और कभी मयंक का मुस्कुराता-गुनगुनाता चेहरा.
एक दिन थिएटर की सीढ़ियों पर मेरी एक कहानी पढ़ते हुए मयंक बोला था, "एक दिन हम दोनों आपकी कहानी पर लाइव शो करेंगे. आप नायिका और मैं नायक. आप प्ले डायरेक्ट कर लेना और मैं म्यूज़िक कंपोज़ कर लूंगा… अरे, हम दोनों तो मुक़म्मल टीम हैं." बोलकर ज़ोर से हंसा था वो. कितना विश्वास था उसकी आवाज़ में…" "न बाबा ये लाइव शो मेरे बस का नही. मुझे कहां अभिनय आता है मयंक." मैंने बुझी आवाज़ में कहा.
"अरे इतना अच्छा अभिनय तो करतीं हैं आप. आपसे बेहतर अभिनेत्री कहां मिलेगी?" बोलते हुए उसकी गहरी आंखें सीधे मेरी आंखों में झांक रही थीं. मैने झट से नज़रें चुरा लीं मानो उसने कोई चोरी पकड़ ली हो मेरी.
मन ने अपना फ़ैसला ले लिया था. रात की स्याही पर सूरज की सुनहरी रोशनी धीरे-धीरे बांहें फैलाने लगी थी.
राहुल और रोहन के ऑफिस निकलने से पहले ही मैं रसोइए को नाश्ते-खाने की ज़रूरी हिदायतें देकर थिएटर की ओर निकल गई. मयंक को मैसेज पहले ही कर दिया था. मन में विचारों की लंबी श्रृंखला लहरा रही थी. पहले कहानी सेलेक्ट करनी है, फिर डायलॉग्स लिखने हैं और अभिनय की तो भरपूर प्रैक्टिस करनी पड़ेगी. मयंक और मैं दोनों मिलकर सब संभाल लेंगे. बहुत ज़्यादा काम है, पर अब कदम रूकने नही हैं.
फोन की घंटी बजी. राहुल का फोन था.
"हेलो" मैंने बोला, तो उसकी झल्लाती हुई आवाज़ आई, "अरे, सुबह-सुबह बिन बताए कहां चली गई हो यार तुम, मुझे ऑफिस…" "कपड़े वगैरह सब आलमारी से ले लेना और तुम्हारा नाश्ता अशोक भैया दे देंगे." मैंने उसकी बात बीच में ही काटते हुए कहा.
"मुझे थोड़ी देर हो जाएगी. इसी महीने के अंत में मेरा एक लाइव शो है. थिएटर में उसी की प्रैक्टिस करनी है." अपनी बात कहकर फोन काट दिया मैंने. राहुल की बात सुनने का अब मन नही था मेरा.
मन आज बेहद हल्का लग रहा था. अपने मन की जो करने जा रहा था.
- पल्लवी अमित
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