"मरुभूमि में शीतल जल के कुंड की मोहक मरीचिका जिस प्रकार प्यासे यात्री को भ्रमित करती है, उसी तरह…" और अपनी बात अधूरी छोडकर कमलिनी ने रंजन की ओर देखा. रंजन ने मायूसी भरे नेत्रों से उसकी बात का समर्थन किया.
आख़िर क्या पाता है रंजन उसे इस तरह पिंच करके? कभी वह उसके सामने अपने ऑफिस की सहकर्मी लीना की स्मार्टनेस की चर्चा करता है, कभी पड़ोस की रतना भाभी की गौरवर्णी सुडौल देह की तारीफ़... अगर कभी वो भी रंजन के सामने किसी परपुरुष की तारीफ़ करे तो?
ढेर सारी सब्ज़ी काट चुकने के बाद कमलिनी ने अपनी ताई सास से अपने घर लौटने की अनुमति मांगी. टी.वी. देखने में व्यस्त, उसकी ताई सास सविता उसके उतावलेपन पर हंस कर बोली, "अरी बेटी, अभी-अभी तुम आई हो, थोडी देर और बैठो ना. आज तुम्हारे साथ रंजन नहीं आया? भई, शादी-ब्याह के मामले में अपने लोग ही तो आते हैं. आजकल के ज़माने में इन नौकरों, हलवाइयों व टेंट वालों का क्या भरोसा?"
कमलिनी ने हमेशा अपनी ताई सास को अपने में ही गुमसुम व मितभाषी पाया है. उनके मुख से ये सब बातें सुनकर उसे अच्छा लगा. अपने स्वर में विनम्रता का पुट लाते हुए उसने अपनी विवशता ज़ाहिर की, "बच्चे आजकल तो पढ़ाई में बिल्कुल ध्यान नहीं दे रहे हैं. इसीलिए हम दोनों में से एक को, उन पर निगरानी रखनी पड़ती है. फिर बच्चों की परीक्षाएं भी शुरू होने वाली हैं, इसीलिए उनको पढ़ाना भी पड़ता है." ताईजी ने कमलिनी से सहानुभूति जताने के अंदाज़ में कहा, "हां, ये बात तो सही है. तुम ठहरी नौकरीपेशा औरत, ऊपर से तुम्हारी मदद के लिए कोई फुल टाइम या पार्ट टाइम नौकर भी नहीं है. बच्चों के लिए टयूशन रखना भी तुम्हारी हैसियत से बाहर है. घर की सभी ज़िम्मेदारियां तो तुम्हें ही निभानी पड़ती हैं. इन मर्दों का क्या है, बस, बीवी के हाथ घर ख़र्च का पैसा रखा और हो गए निश्चिंत."
डाइनिंग टेबल पर ताईजी की बड़ी बहू माधुरी अपने बेटे बिट्टू को खिलाने में व्यस्त थी, पर बच्चे को शायद सब चीज़ें बेकार लग रही थी, क्योंकि अचानक कमलिनी व ताई के कानों में बिट्टू के चिल्लाने की आवाज़ आई, "दादी, ओ दादी, मम्मी मुझे ज़बरदस्ती यह घास-पात खिला रही है. मुझे नहीं खाना पालक पनीर, मुझे चाऊमिन और बर्गर ही चाहिए, वो भी अभी, वरना..."
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इस वरना के अंजाम से माधुरी व ताई तो अच्छी तरह से परिचित थी, परंतु कमलिनी अनभिज्ञ थी. उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से ताई की तरफ़ देखा तो वह कमलिनी के कानों में बुदबुदाई, "बेटी, अभी कोई नौकर भी खाली नहीं है. मैं इस धूप में तेरे ताऊजी को बाज़ार कैसे भेजू? तू ही जल्दी से जाकर रंजन को हमारे यहां भेज दे. उसी से बिट्टू के लिए किसी रेस्टोरेंट से चीज़ें मंगवा दूंगी, वरना बेटी, यह नालायक ऐसी तबाही मचाएगा कि कुछ मत पूछ."
ताईजी ने अपने बेटे जय के बचपन के क़िस्से सुनाने प्रारंभ किए, कुछ देर सुनने के पश्चात् कमलिनी चुपचाप वहां से खिसक ली. अपने घर लौटते वक़्त कमलिनी सोच रही थी कि विजय के विवाह के समय ताऊ-ताई में अचानक परिवर्तन आने की क्या वजह है? इससे पहले तो ताऊजी हमसे सीधे मुंह बात तक नहीं करते थे, परन्तु इन दिनों... क्या पता, मुझे ही कुछ ग़लतफ़हमी हुई होगी. चलो, अच्छा ही है. आज रंजन घर पर है, वरना बिट्टू ताई के नाक में दम कर देता. बेचारी ताईजी भी रंजन के द्वारा किए गए कामों का हर किसी से ज़िक्र करती है. दस बार एहसान मानती हैं. घर पहुंचते ही कमलिनी ने रंजन को ताईजी का फ़रमान सुनाया तो वह उल्टे कमलिनी पर ही झल्ला पड़ा, "बेवकूफ़ औरत, छुट्टी के दिन भी मुझे चैन नहीं लेने देती. क्या ज़रूरत थी हरिश्चन्द्र की औलाद बनने की, कोई बहाना नहीं बना सकती थी वहां?"

कमलिनी पर कुढ़ता हुआ रंजन तैयार होने लगा. कमलिनी दोपहर के भोजन की तैयारी में जुट गई. रंजन जाते-जाते कमलिनी से कह गया कि वह आज उसके लिए खाना नहीं बनाए. ताईजी ने बुलाया तो ज़रूर ताईजी उसे माधवी के हाथों का बना स्वादिष्ट खाना खिलाकर ही छोड़ेगी. इतना कहकर वह तो बेफ़िक्री से बाहर निकल पड़ा, परन्तु कमलिनी आक्रोश से भर उठी.
आख़िर क्या पाता है रंजन उसे इस तरह पिंच करके? कभी वह उसके सामने अपने ऑफिस सहकर्मी लीना की स्मार्टनेस की चर्चा करता है, कभी पड़ोस की रत्ना भाभी की गौरवणी सुडौल देह की तारीफ़, कभी ताईजी की अक्लमंदी की तो कभी अपने चचेरे भाई अजय की बीवी माधवी के पकवानों की तारीफ़.
अगर कभी वो भी रंजन के सामने किसी परपुरुष की तारीफ़ करे तो? इसका परिणाम तो उसको अच्छी तरह मालूम है, इसीलिए वह इन सब बातों को तूल नहीं देती, पर क्या इससे रंजन पर कोई अच्छा प्रभाव पड़ा? यह प्रश्न अक्सर कमलिनी को परेशान करता रहता है. तभी अचानक मेघा की आवाज़ सुनकर वह चौंकी.
मेघा चिल्ला रही थी, "मम्मी, जल्दी आओ, भैया को चोट लगी है."
कमलिनी ने झट से स्टोव से पतीली उतार कर स्टोव बुझा दिया. लहुलुहान मुकुल को लेकर वह पास की डिस्पेन्सरी से मरहम पट्टी कराके लौटी, तो काफ़ी समय बीत चुका था. कमलिनी ने झटपट स्टोव को जलाकर, अधपकी सब्ज़ी के भगोने को उस पर चढ़ाकर आटा गूंधना प्रारम्भ किया. रोटियां बना चुकने के बाद कमलिनी ने
बच्चों को भोजन परोस दिया. जब स्वयं के लिए भोजन थाली में परोस रही थी तभी पसीने से लथपथ रंजन उसके सामने आ खड़ा हुआ. रंजन को इस हालत में देखकर कमलिनी कुछ पूछने ही वाली थी कि रंजन बोल उठा, "कुछ खाने को दो, बड़ी भूख लगी है." रंजन के मुंह से ये बातें सुनकर कमलिनी अचरज से भर उठी.
"पर तुम तो कह रहे थे कि खाना बनाने की कोई ज़रूरत नहीं है. उन लोगों ने तुम्हें इतनी देर रोके रखा और खाने को भी नहीं पूछा?"
थका-हारा व अभिमान से भरा रंजन कमलिनी पर गुर्रा उठा, "खाना देना हो तो दो, फ़ालतू की पूछताछ से मेरा दिमाग़ ख़राब मत करो."
रंजन को बौराया देखकर कमलिनी सकुचा गई, अपने लिए परोसी गई थाली रंजन के पास रखकर उससे खाना खाने का अनुरोध करके, कमलिनी बच्चों को सुलाने चली गई. रंजन खाना खाने लगा, उधर बच्चों के पास लेटी कमलिनी सोचने लगी, 'अपने बेटों के बराबर मानने वाली ताईजी ने रंजन को इतनी देर तक खाली पेट काम में लगाए रखा. रंजन की जगह क्या वे अपने बेटों को इस तरह से भूखा रख पाती?'
यकायक उसे रंजन पर ही ग़ुस्सा आने लगा. जब देखो अमीर रिश्तेदारों की ताबेदारी, चाहे कोई बुलाए या न बुलाए, रंजन अमीर व प्रतिष्ठित रिश्तेदारों के घर जाने का कोई मौक़ा नहीं चूकता. अपने समान हैसियत वालों से कोई मजबूरी की वजह से ही मिलता-जुलता है. कमलिनी से भी रंजन ऐसे ही व्यवहार की आशा रखता है. कितनी ही बार इस विषय को लेकर कमलिनी और रंजन में झगड़ा हो चुका है.
आज तक कमलिनी, रंजन की इस मानेवृत्ति को सही तरह समझकर, उसका निदान नहीं कर सकी. रंजन से वह कितनी बार अनुरोध कर चुकी है कि हमें अपने बराबर की हैसियत के लोगों की भावना की कद्र करनी चाहिए. उनको अपने अमीर रिश्तेदारों के क़िस्से सुनाने से कोई फ़ायदा नहीं. परन्तु रंजन कमलिनी की इन सच बातों पर कभी ग़ौर नहीं फरमाता. कमलिनी जानती है, हर बार जब भी रंजन उसे और बच्चों को किसी अमीर जान-पहचान वाले या रिश्तेवार के यहां शादी-ब्याह में ले जाता है तो हमेशा कमलिनी के कानों में कोई न कोई असहनीय बात सुनाई पड़ जाती है.

कई बार तो किसी के घर के नौकर-चाकर तक उनको देखकर आपस में कह उठते हैं, "लो आ गए, मखमल के टाट को पैबन्द."
"अरे ये बाबू हैं किसी दफ़्तर में और इनकी जोरू मास्टरनी है. और-और हमारे मालिक की हैसियत तो देखो, कहां गंगू, कहां राजा भोज."
कमलिनी विक्षोभ से करवट-दर-करवट बदलती रही. कुछ देर बाद सो गई. जब वह सोकर उठी तो रंजन ताई के घर जा चुका था. रात को जब वह लौटा तो उसके चेहरे पर प्रसन्नता की छाया देखकर कमलिनी को भी अच्छा लगा.
"देखो, आज से तीन दिन बाद हमें जय की बारात में शामिल होने के लिए दिल्ली जाना है. उसके ससुराल वाले सभी बारातियों के आने-जाने की व्यवस्था ट्रेन के एयरकण्डीशन वाले चेयरकार में कर रहे हैं. दिल्ली पहुंचने पर बारातियों के ठहरने व खाने-पीने की व्यवस्था एक थ्री स्टार होटल में की गई है. कुछ भी हो, हमें भी इस शादी में शामिल होना है. और हां, तुम फटाफट मुझे कुछ रुपए दे दो."
कमलिनी ने पूछा, "क्यो? रुपयों की अचानक ज़रूरत कैसे पड़ गई? इमरजेंसी के बचाए रुपयों में मैं हाथ नहीं डालूंगी."
रंजन उसकी नादानी पर तरस खाता हुआ बोला, "अरी पगली, इतने बड़े घर में जय का रिश्ता हुआ है और इधर ताऊजी भी कुछ कम रोबदाब वाले नहीं है. पूरा शहर ताऊजी की हैसियत से वाक़िफ है. ऐसे में मामूली कपड़े पहनकर अपनी तौहीन करवानी है क्या?"
ऐसे अवसरों पर रंजन के दिखाने की प्रवृत्ति से कमलिनी उकता गई. झूठी शान बघारने के चक्कर में वह अपने घर का बजट बिगाड़ने के कतई पक्ष में नहीं थी, सो सपाट स्वर में उसने उत्तर दिया.
"मेरे पास इतने रुपए हैं ही नहीं कि उसमें हम सभी के कपड़े ख़रीदे जा सकें. अगर तुम रुपयों का इंतज़ाम कर सकते हो, तो मैं बच्चों को लेकर शादी में शामिल होऊंगी, वरना तुम अकेले ही यह शादी अटेंड कर लेना. हम औरतों को तो सभी पार्टियों में नए गहने-कपड़े की ही चिंता बनी रहती है."
कमलिनी के मुंह से औरतों के विषय में यह सब बातें सुन कर रंजन का पुरुषोचित अक्षम् संतुष्टि का अनुभव करने लगा. वह कुछ देर सोचने के पश्चात् ख़ुशामद भरे स्वर में बोला, "प्लीज़, तुम्हीं कोई रास्ता सुझाओ. टाइम बहुत कम है. हम सभी के कपड़े भी तो ख़रीदने हैं."
कमलिनी रंजन की चापलूसी से अप्रभावित होने के अंदाज़ में कहने लगी, "अब इस वक़्त मैं इतने सारे रुपयों का इंतज़ाम कैसे करूं? आप ही अपने किसी रिश्तेदार या दोस्त से रुपए उधार ले लीजिएगा."
कमलिनी की बात सुनकर रंजन तुरन्त घर से बाहर हो गया. कुछ ही घंटों बाद वह अपने ताऊजी के घर से निराश होकर लौटा तो उसका उतरा हुआ मुंह देखकर कमलिनी द्रवित हो उठी. उसे चुप देखकर रंजन स्वयं ही कहने लगा, "कमलिनी, मेरी तो क़िस्मत ही ख़राब है. ताऊजी के घर जाकर मैंने, जिससे भी रुपयों की बात छेड़ी, वही मुझसे किनारा कर गया. अजीब मुसीबत है. देखो, तुम मुझे कोई अपना सोने का कंगन या हार लाकर दो. उसे गिरवी रखकर अभी मैं रुपयों का इंतज़ाम करता हूं."
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रंजन की बात सुनकर कमलिनी का पारा चढ़ गया. वह मन ही मन सुलगने लगी. इन्हीं पैसों से अमीर, पर मन के गरीब रिश्तेदारों की तारीफ़ का कोई मौक़ा नहीं छोड़ता रंजन. उसके किस रिश्तेदार ने कौन सी गाड़ी कितने में ख़रीदी? किसने अपने बेटे की शादी में कितना दहेज लिया? कौन सा रिश्तेदार विदेश जा रहा है? किसकी अरेंज मैरिज हुई और किसकी लव मैरिज हुई? इन सब बातों की इतनी सटीक जानकारी रंजन को रहती है कि कभी-कभी संबंधित व्यक्ति भी उसके इस ज्ञान को देखकर हैरानी में पड़ जाते हैं. पर यही रंजन घर की अधिकांश ज़िम्मेदारियों से किस कदर अनभिज्ञ बना रहता है, यह कमलिनी को ही पता है. कमलिनी को इस क़दर विचारों में खोया देखकर रंजन बिफर पड़ा.
"आख़िर हुआ क्या? अगर तुम्हारा गहने देने का मन नहीं है तो मत दो. मैं पहले से ही जानता था कि मायके से मिले ये दो-चार गहने तुम्हारे प्राण है. तुम्हें गहने नहीं देने सिर्फ़ जय के हैं तो मत दो. मैं अपनी घड़ी व सोने की अंगूठी बेचकर अपने नए जूते, नई पेंट व शर्ट का इंतज़ाम कर लूंगा."
कहकर रंजन बच्चों के साथ बैठकर टी.वी. देखने लगा. कमलिनी निरुत्तर होकर अपने रोज़मर्रा के काम में जुट गई. रात्रि को खाना खाते वक़्त रंजन का मुंह फूला ही रहा. मां-पिता के बीच चल रही तनातनी से बच्चे भी चुपचाप खाना खाकर सोने चले गए.
तीसरे दिन जब जय की बारात दिल्ली जाने वाली थी तो रंजन का उत्साह देखते ही बनता था. कमलिनी व बच्चे हैरत से उसकी तैयारी देख रहे थे. इन सब बातों से बेख़बर रंजन अपने कपडे सूटकेस में रख रहा था. नए ख़रीदे गए काले जूते पहनकर उसने पुराने जूतों को बड़ी बेदर्दी से खाट के नीचे सरका दिया. तभी दरवाज़े पर दस्तक सुनाई दी. कमलिनी ने लपककर दरवाज़ा खोला तो सामने देखा, ताऊजी खड़े हैं.
ताऊजी ने रंजन को खड़े-खड़े आवाज़ दी. अपना नाम सुनकर रंजन हड़बड़ाकर ताऊजी के पास पहुंच कर कहने लगा, "ताऊ, प्लीज़ जस्ट ए मिनट, मैं तैयार हूं. बस जूते के तस्मे बांध लूं और सूटकेस बंद कर दूं. वैसे दिल्ली जाने वाली गाड़ी छूटने में तो अभी काफ़ी समय है. आप कार स्टार्ट करिए, मैं अभी..."
ताऊजी बीच में ही उसकी बात काट कर मिठास भरे स्वर में कहने लगे, "हां बेटा, गाड़ी छूटने में टाइम है. तभी तो तुम्हारे पास आ सका हूं. बेटा, तुमसे एक बात कहनी है. जय की शादी में अगर तुम्हें जाना ही है तो अपना प्रबंध ख़ुद कर लेना. जय के ससुर ने सिर्फ़ इक्कीस बारातियों का ही इंतज़ाम करने की सूचना भिजवाई है."
"पर ताईजी ने मुझे कल तक यह बात नहीं बताई थी. वे तो मुझे बाल-बच्चों को लेकर बारात में शामिल होने को कह रही थी. मैने तो इस वास्ते नए कपड़े भी ख़रीद लिए और ऑफिस से छुट्टी भी ले ली. अगर मुझे पहले पता होता..."
रंजन की बात सुनकर अचानक ताऊजी का चेहरा तमतमा उठा. वे गुर्राकर बोले, "अब कुल इक्कीस टिकटों में हम किस-किस को वहां ले जाएं? फिर हमारी वहां कुछ प्रेस्टीज रहनी चाहिए. इन इक्कीस लोगों में सिर्फ़ जय के क़रीबी दोस्त व हमारे परिचित, प्रतिष्ठित डॉक्टर्स, डिप्टी कलेक्टर और बिज़नेसमैन ही शामिल है."
रंजन ताऊजी की बातें सुनकर मायूसी से भर गया. क्षीण स्वर में उसने प्रतिवाद किया,
"पर ताऊजी, ताईजी तो कह रही..."

"क्या ताईजी ताईजी लगा रखी है? घर उसका है या मेरा. ये तैयारियां क्या तुमने मुझसे पूछ कर की थी? जबकि शादी में जाने को तो हमारा रसोइया व माली भी तैयार है. क्या मैं उन्हें भी ले जाऊं? तुम्हारी ताईजी तो बेवकूफ़ हैं, पर तुम तो समझदार हो, फिर..."
अपनी बात अधूरी छोड़कर ही ताऊजी ने अपनी कार स्टार्ट करनी प्रारंभ की. जब कार स्टार्ट हुई तो उसके साइलेन्सर से काला गाढ़ा धुआं आसपास के वातावरण में फैल गया. कमलिनी ने रंजन की ओर देखा, तो उसे लगा कि मानो ताऊजी रंजन के तन-मन पर अपमान की गहरी कालिमा छोड़कर चले गए.
रंजन को वास्तविकता का सामना, इतनी जल्दी करना पड़ेगा, यह कमलिनी की कल्पना से बाहर था.
"मरुभूमि में शीतल जल के कुंड की मोहक मरीचिका जिस प्रकार प्यासे यात्री को भ्रमित करती है, उसी तरह..." और अपनी बात अधूरी छोडकर कमलिनी ने रंजन की ओर देखा. रंजन ने मायूसी भरे नेत्रों से उसकी बात का समर्थन किया. यह देखकर कमलिनी रंजन के प्रति अपने मनोभावों को दबाकर रसोईघर में नाश्ता तैयार करने के वास्ते चली गई.
- पूर्णिमा
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