मैंने कितनी बार तुम्हें कहा है, पर पता नहीं क्यों यहां आकर तुम्हारी बुद्धि पर जैसे विराम-सा लग जाता है. तुम आगे कुछ सोचना ही नहीं चाहती हो. मिली, आख़िर यह फ़ैसला लेना तुम्हारे लिए इतना कठिन क्यों हो रहा है?” रवि के इस प्रश्न पर मैं चुप हो जाती. आख़िर मैं क्या जवाब देती. रवि ने कुछ ग़लत तो नहीं कहा मैं जानती हूं. मैं पढ़ी-लिखी आधुनिक ख़्यालों वाली युवती हूं, पर इस मामले में मेरे विचार रूढ़िवादी क्यों हो जाते हैं?
जन्माष्टमी तो हम हर साल मनाते हैं, परंतु जब वास्तविक रूप में कृष्ण भगवान के जीवन को अपनाने की बारी आती है, उसे आत्मसात् करने की बारी आती है, तब हमारे मन के भीतर तर्क-वितर्क का मायाजाल-सा फैल जाता है. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. शादी के बाद 8 सालों से इस त्योहार पर जब छोटे-से लल्ला को पालने में झुलाती हूं, तो यही प्रार्थना करती हूं कि हमारा घर-आंगन भी इसी भांति किलकारियों से गूंज उठे. जब अपनी सासू मां की आंखों में दादी बनने की चाह देखती हूं तब मन में एक असहाय की चुभन-सी उठती है.
आज भी मेरी सासू मां दादी बनने की आस लगाए कृष्णाष्टमी की तैयारियों में व्यस्त हैं कि इसी भांति एक दिन उनके आंगन में भी छोटा मेहमान ज़रूर आएगा. कितना विश्वास है उन्हें अपनी श्रद्धा पर, पर क्या वो दिन कभी आएगा? क्या सच में इस घर को लल्ला की शरारतें या छोटी-सी गुड़िया की प्यारी-सी हंसी नसीब होगी? मैं अपनी सोच में डूबी थी कि तभी मेरे पति रवि ने झुंझलाकर मुझसे कहा, “क्या सोच रही हो मिली? अरे! तैयार भी नहीं हुई अभी तक? याद नहीं आज फिर डॉक्टर ने हमें बुलाया है?”
“हां रवि, बस मम्मी जी को पूजा की तैयारियों में कुछ मदद कर दूं, फिर चलती हूं.”
“नहीं बेटी, तुम लोग जाओ वह काम ज़्यादा ज़रूरी है. पूजा का सामान मैं ले आऊंगी.” सासू मां ने स्नेह से कहा.
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सच तो यह था कि मैं भी थक गयी थी डॉक्टर के चक्कर लगाते-लगाते. शायद मैं कोई बहाना खोज रही थी, जिससे आज मुझे डॉक्टर के पास न जाना पड़े. यदि मेरी यह हालत है तो रवि की झुंझलाहट तो अपनी जगह बिल्कुल सही है. आख़िर यह सब मेरी ही ज़िद का नतीज़ा है. रवि भी मेरा साथ देते-देते थक चुके हैं और यह झुंझलाहट उसी का परिणाम है. मैं जानती हूं संतान की लालसा लिए मझधार में रहने वाले रवि का मन अब किनारा चाहता है. आख़िर कब तक और किस उम्मीद पर मैं उनके साथ यह खेल खेलूंगी? सच तो यह है कि मेरा मां बनना किसी ईश्वरीय चमत्कार से कम नहीं, तो फिर मैं रवि की बात क्यों नहीं मान रही हूं? आख़िर गोद लेने में इतनी उलझन क्यों? 8 साल हो गए हैं हमारी शादी को. आख़िर किस उम्मीद पर डॉक्टर के चक्कर लगाए जा रही हूं? कोई चमत्कार हो जाए और मेरी गोद भर जाए? इन 8 सालों में हमारे रिश्ते ने भी कई उतार-चढ़ाव देखेे. मेरे भीतर पता नहीं कब हीनभावना ने अपना घर बना लिया. मुझे लगने लगा कि मुझमें ही कोई कमी है या शायद ये मेरे पिछले जन्म के पापों का ही फल है. यह वह समय था जब मेरे माता-पिता, सास-ससुर, पड़ोसी, मित्र, रिश्तेदार सब मुझसे बस यही सवाल करते कि मैं कब ख़ुशखबरी सुनाने वाली हूं, जिस प्रश्न से मैं भागना चाहती मुझसे बार-बार वही प्रश्न दोहराया जाता.
कितनी ही बार मैं झूठी दलील देकर लोगों का मुंह बंद कर देना चाहती कि अभी हमने कुछ प्लान नहीं किया है और तब कुछ लोग मुझे इस निगाह से देखते मानो उन्होंने मेरे मन का चोर पकड़ लिया हो. मुझे ऐसा लगता कि मैं वहां से कहीं भाग जाऊं. मैं अपने कमरे में आकर घंटों रोती रहती और तब रवि मेरा हाथ अपने हाथ में लेते और मुझसे कहते,“मिली, यह तुम्हें क्या हो गया है? मैंने अपने परिवार के ख़िलाफ़ जाकर तुमसे शादी की, क्योंकि मैं जानता था तुम मुझे सबसे अच्छी तरह समझती हो. तुम मुझे हर बुरे वक़्त में संभाल सकती हो. तुम्हारे भीतर कई ऐसे गुण हैं, जिससे मेरे रूढ़िवादी माता-पिता भी तुम्हें अपनाने से अपने आप को रोक न सके. आज घर के सभी लोग तुम्हारी जैसी बहू की आस लगाते हैं, तुम्हारी अच्छाई के आगे सभी ने घुटने टेक दिए. फिर क्या एक बच्चे के न होने की वजह से हमारे बीच कभी कोई दूरी आ सकती है? और यदि तुम्हारी उदासी का कारण बच्चे की कमी ही है, तो उसका भी उपाय है. हम किसी अनाथाश्रम से बच्चा गोद ले सकते हैं. मैंने कितनी बार तुम्हें कहा है, पर पता नहीं क्यों यहां आकर तुम्हारी बुद्धि पर जैसे विराम-सा लग जाता है. तुम आगे कुछ सोचना ही नहीं चाहती हो. मिली, आख़िर यह फ़ैसला लेना तुम्हारे लिए इतना कठिन क्यों हो रहा है?” रवि के इस प्रश्न पर मैं चुप हो जाती. आख़िर मैं क्या जवाब देती. रवि ने कुछ ग़लत तो नहीं कहा मैं जानती हूं. मैं पढ़ी-लिखी आधुनिक ख़्यालों वाली युवती हूं, पर इस मामले में मेरे विचार रूढ़िवादी क्यों हो जाते हैं? क्या सच में हाथी के दांत खाने के कुछ और, दिखाने के कुछ और होते हैं? मुझे कहीं किसी चीज़ का भय तो नहीं? या फिर मेरे भीतर विश्वास की कमी है? सच क्या है मुझे स्पष्ट नहीं पता, परंतु कुछ तो है जो इस फ़ैसले में रुकावट ला रहा है.
मेरे मन में यह क्या तूफ़ान मचा है? मैं किस दिशा में और क्यों बस भागी ही जा रही हूं. तूफ़ान भी कुछ समय बाद थम जाता है, पर मेरे भीतर का तूफ़ान क्यों नहीं थमता?
मेरे मन को स्थिरता क्यों नहीं मिलती? पर कुछ ऐसा ही तूफ़ान तो मांजी के मन में भी आया होगा, जब उनके अपने बेटे ने उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ मेरा हाथ थामा, उनका मन भी इसी प्रकार अस्थिर रहा होगा. अभी कुछ साल पहले ही तो उन्होंने मुझे मन से स्वीकारा और यदि उन्हें यह पता चलेगा कि रवि बच्चा गोद लेना चाहते हैं, वह क्या सोचेंगी? वह बार-बार उपेक्षित महसूस करेंगी, नहीं-नहीं मैं उन्हें बार-बार उपेक्षित महसूस करा कर अपने मन का बोझ और नहीं बढ़ा सकती. दूसरी ओर, क्या मैं ख़ुद इतनी मज़बूत हूं कि किसी दूसरे के बच्चे को अपने सीने से लगा सकूं? क्या मैं उसे स्नेह और ममता दे पाऊंगी जिसकी वह उम्मीद करेगा? यदि मैं ऐसा न कर सकी तो? क्या मेरे माता-पिता उसे अपने नाती-नातिन की तरह प्रेम करेंगे या उसके और मेरी दीदी के बच्चों के बीच भेदभाव किया जायेगा? यदि सब लोगों ने उसे अपना भी लिया तो क्या जब उसे हकीक़त पता चलेगी, वह मानसिक रूप से हमसे दूर तो नहीं चला जाएगा? तब उसके दिल पर क्या बीतेगी? आज के दौर मैं जब अपने बच्चे ही अपने नहीं होते तब किसी और का ख़ून क्या हमारा हो पाएगा? न जाने ऐसे कितने सवाल मेरे मस्तिष्क में बार-बार उठ रहे थे. “अरे मिली, तुम अभी तक यहीं बैठी हो? क्या सोच रही हो मिली? तुम ठीक तो हो ना? तुम्हें यदि डॉक्टर के पास नहीं जाना है तो कोई बात नहीं.” रवि ने मुझसे प्यार से पूछा. मैंने झट से कहा, “रवि मैं आज अनाथाश्रम जाना चाहती हूं. हालांकि अभी तक मैंने कोई फैसला नहीं लिया था. यह बहुत बड़ा निर्णय है रवि, बिना बड़ों के आशीर्वाद के और बिना अपने मन में विश्वास के मैं आगे नहीं बढ़ सकती. पर मैं आज पहला क़दम ज़रूर उठाना चाहूंगी. रवि, यदि मेरे भीतर मातृत्व का एहसास नहीं होगा तो यह उस बच्चे के साथ छल होगा, इसलिए यह क़दम उठाने से पहले मैं अपने आप को परखना चाहती हूं कि किसी दूसरे के बच्चे को सीने से लगाने की शक्ति मुझमें है कि नहीं?”
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“मिली, तुम कितना सोचती हो? लेकिन तुम जो कहना चाहती हो वह ग़लत भी नहीं है. मैं तुम्हारे हर फैसले में तुम्हारे साथ हूं.” रवि ने मेरा हाथ थामते हुए कहा. कुछ ही समय बाद हमारी गाड़ी अनाथाश्रम जाकर रुकी. हम भीतर गए, वहां का माहौल बहुत भिन्न था. ज़िंदगी में पहली बार मैं अनाथाश्रम आई थी. मैंने महसूस किया कि कितनी ही ज़िंदगियां, ज़िंदगी को तरस रही हैं. हम बच्चे के लिए तरस रहे हैं और ये बच्चे माता-पिता के स्नेह के लिए, फिर भी हम इन्हें अपनाने में हिचकते क्यों हैं? जैसे ही मैंने बच्चों के माथे पर प्यार से हाथ फेरा, मैंने महसूस किया कि मातृत्व तो औरत के भीतर है, औरत का अंग है, यह तो अपने आप ही उमड़ पड़ता है. मेरे आंखों से आंसू छलक आए. तभी लगभग 2 वर्ष का एक बालक आकर मुझसे लिपट गया और मां-मां कहता गया. मैंने आंखें मूंदकर उस पल को जीना चाहा, उस एहसास को अपने भीतर समेटना चाहा कि अचानक आश्रम के लोगों ने उसे मुझसे हटाकर अपनी गोद में ले लिया. बाद में मुझे बताया गया कि वह बालक हर औरत को मां कहकर ही बुलाता है और ऐसे ही सारा दिन मां-मां बोलता है. रवि ने मुझसे अब घर चलने को कहा. मैं गाड़ी में चुप रही. रवि ने भी मुझसे कोई बात नहीं की. वे जानते थे कि मेरे अंदर क्या चल रहा है. हम घर पहुंचे. अगले दिन जन्माष्टमी का त्योहार था. मांजी कृष्ण भगवान का पालना सजा रही थीं. मैंने उनसे पूछा, “मां, कृष्ण भगवान को जन्म तो देवकी ने दिया था ना, परंतु पौराणिक कथाओं में कृष्ण की माता के रूप में यशोदा मैया को ही पूजा जाता है, है ना मां? यहां तक कि स्वयं कृष्ण ने सबसे ज़्यादा स्नेह अपनी यशोदा मैया से ही किया. कृष्ण तो जानते थे कि उनकी जन्मदाता कोई और है, परंतु उन्होंने उनका पालन-पोषण करने वाली यशोदा मां से ही सबसे अधिक स्नेह किया और यशोदा ने भी उन पर अपनी ममता न्योछावर कर दी, ऐसा क्यों मां?”
मेरी सासू मां ने हंसकर कहा, “बेटा, वो इसलिए, क्योंकि जन्म देनेवाले से कहीं ज़्यादा बड़ा पालने वाला होता है. जैसे कि स्वयं कृष्णजी के साथ हुआ.”
“मां, यदि यशोदा मैया के जीवन में लल्ला के आगमन से उनका आंगन किलकारियों और शरारतों से गुंजित हो उठा था, तो अपने आंगन में किसी देवकी मां का लल्ला क्यों नहीं आ सकता? मैं उस लल्ले की यशोदा मैया क्यों नहीं बन सकती? यदि मैं यशोदा मैया की तरह अपनी ममता उस पर न्योछावर करूंगी तो वह कृष्णा की तरह मुझसे स्नेह क्यों नहीं रखेगा? मां क्या वक़्त के साथ प्रेम कभी बदला है. यदि वह तब संभव था तो अब क्यों नहीं? मां अब मैं जन्माष्टमी अपने लल्ला के साथ मनाना चाहती हूं, परंतु आप के आशीर्वाद के बिना मैं आगे नहीं बढ़ सकती. हम आज अनाथाश्रम गए थे, डॉक्टर के पास नहीं और वहां मैंने वह महसूस किया जिसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती.” यह कहकर मैं रोने लगी.
रवि वहीं थे. उन्होंने कुछ नहीं कहा. मांजी अभी भी पालने में फूल लगाए जा रही थीं. कुछ समय बाद उन्होंने मेरी तरफ़ देखा, उनकी आंखों से अविरल आंसू बहे जा रहे थे. वो बोलीं, “पिछले जन्म में कौन-से पुण्य किए थे मैंने जो तू मेरे घर लक्ष्मी बन कर आई. तेरे संस्कारों की छांव में क्या कभी कुछ ग़लत हो सकता है? आज तूने यह सब कहकर मेरी आंखें खोल दीं. प्रतिवर्ष मैं कन्हैया जी से यही प्रार्थना करती कि वो मेरे आंगन में कब आएंगे?
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परन्तु मैं यह भूल गई थी कि कन्हैया तो यशोदा के गर्भ से नहीं, बल्कि देवकी के गर्भ से इस पृथ्वी पर आए थे. जा बेटी जा, आज अपने लल्ला को घर लाने की तैयारी कर.” रवि और मैं मां के गले लग गए और तब मैंने जाना कि यदि ईश्वर हमें कोई संकट देते हैं तो साथ ही उसका समाधान भी ज़रूर देते हैं. यह हम पर निर्भर करता है कि हम अपने संकट के समाधान के लिए कौन-सा रास्ता चुनें और जो ़फैसले दिल से लिए जाते हैं वो कभी ग़लत नहीं होते.
- पल्लवी राघव
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