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कहानी- मोक्ष (Short Story- Moksh)

मैं विस्मयकारी दृष्टि से मुक्तिवादी मैडम को देख रहा था. सोच रहा था कि पुराणों की पौराणिक कथाएं कितना अहित कर रही हैं वर्तमान का.
मैडम को भी मुक्ति के जाल में उलझा दिया. मोक्ष न होने के भय से कितना ग्रसित है, जो सच्चाई है, वर्तमान की सच्ची ख़ुशियां है. उन्हें भी दुत्कार रही हैं. उनका आनंद नहीं ले पा रही हैं. परलोक के भय से तिल-तिल कर मर रही हैं, मौत से पहले ही.

आज भी मुलाक़ात जोशी नर्सिंग होम में हुई थी. साथ में कोई नहीं था. हाय, हैलो की औपचारिकता के बाद मैंने पूछा था, "कैसे आना हुआ? किसी से मिलना था या डॉक्टर से परामर्श लेने आई हैं."
"हां! परामर्श लेने आई थी, या समझो बीमारी से निपटकर ही जा रही हूं?"
"क्या बात है" मैंने पूछा.
वो बडी मायूसी से बोली, "अब आशा करना ही व्यर्थ है. शायद मेरे नसीब में ही मोक्ष नहीं है."
निराशा झलक रही थी उसके शब्दों में. साहसी, वाक्पटु और सुंदर चेहरे पर ऐसे भाव थे मानो किसी ने दुखती रग पर उंगली रख दी हो.
आशा न आंतरिक कुंठा है और वे तो रूपों में जीते हैं, हाथी के दांतों की तरह, जो दिखने के और खाने के और होते हैं.
कभी होने वाले तनाव का राज आज मेरे सम्मुख फाश हुआ था. मुझे उनसे ऐसी आशा न थी कि इनकी भी आंतरिक कुंठा है और ये दो रूपों में जीते हैं, हाथी के दांतों की तरह, जो दिखने के और खाने के और होते हैं.
ये दोहरा चरित्र था. ये विस्मय कर देनेवाला रूप था, उस शख़्सियत का, जो नारी थी. सम्मानित अध्यापिका थी और जिन्होंने न जाने कितनी वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में प्रथम रहने का गौरव हासिल किया. जो नारी मुक्ति के संबंध में लंबा-चौड़ा भाषण दे सकती थीं, कई सेमिनारों में, सम्मेलनों में बहस कर सकती थीं. करती भी थीं और कई अलंकारों में सम्मानित होती रहती हैं. दलित, शोषित महिलाओं की संस्थाओं में अग्रणी रहती हैं. सारा शहर उनके नारी मुक्ति के विचारों से प्रभावित था और उनके इस रूप की समाज में काफ़ी प्रतिष्ठा भी थी.

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मिसेज़ मेहता की हर बात में एक ख़ास अंदाज़ था, वो बोलने का हो, समझने का हो, चलने का हो या नाक के ऊपर ऐनक खिसकाने का हो. वाक्पटु थीं, इसलिए आदमी प्रभावित हो जाता और मैं भी शायद उनसे प्रभावित था, क्योंकि मैंने इनका यह रूप नहीं देखा था. जबकि मैं उनका शिष्य रहते हुए आज उनका सहायक हूं.
डॉ. मिसेज़ मेहता राजनीति विभाग में रीडर हैं और मैं अभी प्रवक्ता ही हूं. जिसे दो-तीन वर्ष ही हुए हैं पढ़ाते हुए.
एक ही विभाग में होने के कारण और उनका शिष्य होने के कारण मेहता मैडम और मैं आपस में चर्चा करते ही रहते थे, सामाजिक समस्याओं पर, राजनैतिक समस्याओं पर या शिक्षा से संबंधित.
ख़ास बात यह थी कि मैडम ने आज से पहले ये ज़ाहिर नहीं होने दिया था कि उनके अंदर भी एक मोक्ष का नाग, फन बाये बैठा है और वास्तव में वह दोहरा चरित्र जीती हैं, जीवन रूपी रंगमंच में.
वैसे तो नारी मुक्ति के जोश में मैडम ने प्रेम विवाह भी किया था. मैडम स्वयं सिख थीं और उनके पति हिंदू हैं, जो सेना में कार्यरत हैं. अतः परिवार की ज़िम्मेदारियां मैडम पर ही थीं. मेरी पुत्री शिप्रा का आज जन्मदिन था. घर पर मैंने एक छोटी-सी पार्टी रखी हुई थी, जिसमें शिप्रा के दोस्त, अध्यापक वर्ग और मेरे कुछ ख़ास परिचित थे, उनमें मिसेज मेहता भी थीं.

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मैडम अपनी तीनों पुत्रियों के साथ आई थीं. मैंने उन्हें अपने जाननेवालों से मिलवाया. धीरे-धीरे सभी रस्में निपटने लगीं और मेहमान वर्ग जलपान करने लगा. इसी जलपान के मध्य मैडम के दिमाग़ में कोई प्रश्न उमड़ पड़ा, मेरी पत्नी एवं बच्चे को देखकर.
मैडम पूछ बैठीं मुझसे, "शशांक, तुम्हारी उम्र क्या है?" "३३ वर्ष का पूरा हो जाऊंगा मैडम जुलाई में."
"और तुम्हारी पत्नी की?"
"रजनी को सितंबर में ३३ पूरा होगा."
"तुम दोनों बराबर उम्र के हो. अच्छा, ऐसा महसूस नहीं होता. तुम्हारी रजनी तो अभी २५-२६ से ज़्यादा की नहीं
लगती."
"दरअसल बात ये है मैडम कि वो सदा ख़ुश रहती है, शुरू से ही. उसने मुझसे विवाह तब कर लिया था जब मैंने एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की थी और मैं बेरोज़गार था.
रजनी प्रेस फोटोग्राफ़र है और चित्रकार भी है. उसके
छाया चित्र एवं तैल चित्र सम्मानित हो चुके हैं तथा प्रदर्शनी में अच्छे दामों में बिके हैं, आज भी बिकते हैं." मैंने कहा.
"उसने मुझे महसूस नहीं होने दिया था कि मैं बेरोज़गार हूं. उसे मुझ पर विश्वास था कि मैं ज़रूर सफल हो जाऊंगा."
"अच्छा, तो तुम्हारी बेटी तो ५-६ साल की होगी?" मैडम ने कहा.
"जी हां आज उसकी छठी सालगिरह है."
मैडम बोलीं, "भई लेकिन तुम्हारा बेटा नहीं दिखाई दे रहा है, जो मोक्ष देगा."
"मैडम, शिप्रा ही हमारा बेटा है. हम इसे ही बेटा मानते हैं. यही कारण है कि शिप्रा छह वर्ष की हो चुकी है और हमारी दूसरी संतान नहीं है. फिर देश की जनसंख्या हम युवा लोग नहीं रोकेंगे, तो कौन पहल करेगा, सोचिए जरा." रजनी बोल पड़ी.
मैडम मेरे पास कुछ देर बाद आईं और मुझसे बोलीं, "शशांक, रजनी नासमझ है, पुत्र तो बीज होता है, वंश रूपी फसल का, ये उसे पता नहीं है. मोक्ष, पुत्र की दी हुई अग्नि से होता है अन्यथा भटकते रहो प्रेत योनि में."
न जाने क्या-क्या सुझाव दिए. धर्मग्रंथों की टिप्पणियां, पुराणों की बखिया उधेड़ दी. मुझे लग रहा था कि मैडम अध्यापिका नहीं, बल्कि कोई दाक़ियानूसी, पुराण विश्वासी, पुरातन कर्मकांडी पुरोहित हो, जो अपने यजमान की बुद्धि की शल्य चिकित्सा कर रहा हो.
"पुत्रियां पराया धन होती हैं. एक न एक दिन उन्हें जाना होता है. हम तो उन्हें कर्ज़ मानकर पालते हैं. असली धन तो पुत्र ही होता है, जो मोक्ष देगा.

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मुझे देखो शशांक, ३९ वर्ष की होनेवाली हूं, तीन पुत्रियों की मां हूं. पुत्र नहीं है बस यही कमी है, लेकिन मुझे विश्वास है कि मेरा पुत्र होगा, मुझे मोक्ष मिलेगा.
तुम तो अभी जवान हो, रजनी की भी उम्र है. शशांक सोचो और फिर भला एक पुत्र हो भी जाएगा, तो देश पर कौन-सा असर पड़ रहा है."
मैं विस्मयकारी दृष्टि से मुक्तिवादी मैडम को देख रहा था. सोच रहा था कि पुराणों की पौराणिक कथाएं कितना अहित कर रही हैं वर्तमान का.
मैडम को भी मुक्ति के जाल में उलझा दिया. मोक्ष न होने के भय से कितना ग्रसित है, जो सच्चाई है, वर्तमान की सच्ची ख़ुशियां है. उन्हें भी दुत्कार रही हैं. उनका आनंद नहीं ले पा रही हैं. परलोक के भय से तिल-तिल कर मर रही हैं, मौत से पहले ही.
पुत्र की चाह ने कितना अंधा बना दिया है, मां-बाप को ही यमराज बना दिया है. गर्भ, जहां से जन्म होता है नई कृति का, उसे ही श्मशान बना दिया है.
"पुत्र की चाह एक अनदेखे मोक्ष के लिए? परलोक के लिए? अफ़सोस एक चाह में दूसरे का अंत, मानो वह हाड़-मांस से निर्मित गुड़िया न होकर लाल गर्म लोहे का टुकड़ा हो, जिसे देखते ही जलन पीड़ा का एहसास हो जाए."
मनुष्य कितना संवेदनशील कलाकार है जिसे अपनी ज़िंदा होनेवाली कृति को तोड़ने का अफ़सोस नहीं होता. किन्तु चौराहों पर लगी मूर्ति तोड़ने का ग़म इतना होता है कि वो शहर में दंगे करवा देता है. मैं सोच रहा था.
अब मुझे याद आया, जोशी नर्सिंग होम में मैडम का "बीमारी से निपट कर आ रही हूं" जैसा वक्तव्य कह रहा था कि मैडम भी क़ातिल थीं, जिन्होंने अपने साथ-साथ डॉक्टर को भी क़ातिल बना दिया था. उनके हाथ भी खून से लथपथ करवा डाले थे. ये कैसी मुक्ति की अवधारणा है. नारी ही नारी को निगलने के लिए तत्पर है. इस मुक्ति ने मुझे सोचने के लिए विवश कर दिया था.
पुत्र की चाह में अजन्मे की हत्या, मंदिरों में व्रत-उपवास, मज़ारों और मस्जिदों में दुआ करना. ये कैसी परलोक की सोच है. और वास्तव में परलोक में भगवान पूछें, "भक्त, तू तो अजन्मों का ही क़ातिल है. तू नर्क में सड़." तो क्या होगा? एक की चाह, दूसरे का दमन… नारी मुक्ति की आदर्श काल्पनिक सोच यथार्थ के धरातल पर चोट खा गई. यथार्थ भी कैसा जो अनदेखा है.
असलियत ये है कि आज जो पुत्र किसी की चाह में हत्यारा बन बैठा हो, वही पुरुष बनेगा. दहेज की मांग कर उत्पीड़ित करेगा या शराब पीकर, जुआ खेलकर मानसिक प्रताड़ना देगा. वेश्या बनाने में, बलात्कार करने में योगदान देगा. फिर नारी मुक्तिवादी आंदोलन चलेगा, अग्रणियों को अलंकृत किया जाएगा.
किन्तु इन सबके बाद भी पुरुष मोक्ष देगा. पुत्र रूप में अंतिम अग्नि देगा. मोक्ष में सहायक होगा किसी अनदेखे परलोक में. ये मोक्ष की मृग तृष्णा है परलोक की मरीचिका में.
ये कैसी मुक्ति की चाह है? ऐसे अनेक प्रश्न मेरे मस्तिष्क में उभरते चले गए. जैसे चूल्हे में रोटियां पकाने के बाद तवे की निचली सतह पर जुगनू की तरह चमकते अग्निकण.
ज्ञान द्वारा जिनके पाप धुल गए हैं, वे ईश्वर का ध्यान धरने वाले, तन्मय हुए. उसमें स्थिर रहनेवाले, उसी को सर्वस्व माननेवाले लोग मोक्ष पाते हैं.

- चंद्रवल्लभ 'विवश'

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