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कहानी- परिवार (Short Story- Parivaar)

अचानक विनय को एहसास हुआ कि वह तो बाप है, फिर भी पांच महीने के बेटे से पांच दिन की दूरी उससे सही नहीं जा रही है. लेकिन दीप्ति तो मां है. पांच बरस जिस बेटे को उसने सीने से लगाकर पाला-पोसा, उससे इतने महीनों वह किस तरह अलग रह पाई होगी? सचमुच वह कितना निर्दयी और छोटे दिल का है, जो एक मासूम को उसकी मां से जुदा कर दिया. यदि दीप्ति नन्हें को लेकर हमेशा के लिए चली गई तो? कैसे जी पाएगा वह अपने जान से प्यारे बेटे के बिना और फिर दीप्ति कैसे जी रही होगी अब तक अंकुर के बिना. कितना दर्द सहा होगा उसने. विनय की आंखें भर आईं.

आज दिनभर दुकान पर दीप्ति का मन उचाट-सा रहा. दिमाग़ में उथल-पुथल मची रही. सुबह घर से निकलते समय ही मांजी यानी दीप्ति की सास ने धीमे स्वर में कह दिया था कि बेटी शाम को जल्दी घर आ जाना और उनके जल्दी घर आ जाने का अर्थ वह भली-भांति समझती थी. इसलिए अनमनी-सी रही वह दिनभर. बगलवाली बेला ने भी उसे दो-तीन बार टोका, “क्या बात है दीप्ति? आज इतनी उदास क्यों लग रही हो?”
दीप्ति मुस्कुरा भर दी. पांच बजे बेला और सामनेवाली प्रज्ञा को दुकान का ख़्याल रखने का कहकर घर चली गई. जाते ही अंकुर उसके पैरों से लिपट गया. मांजी ने उसे चाय दी और तैयार होने को कहा. चाय पीकर दीप्ति ने हाथ-मुंह धोया और कपड़े बदल तैयार हो गई. मांजी ने ज़बरदस्ती उसके गले में चेन पहना दी और माथे पर बिंदी लगा दी. नियत समय पर विनय और उसके माता-पिता दीप्ति को देखने आ गए. दीप्ति को तो वे लोग फोटो देखकर ही पसंद कर चुके थे. आज तो एक तरह से बात पक्की कर विवाह का मुहूर्त निकालने आए थे. विनय की माताजी ने शगुन देकर दीप्ति को एक तरह से अपनी बहू बना लिया.
दीप्ति की आंखें भर आईं. ठीक इसी तरह एक दिन मांजी ने शगुन देकर दीपक के लिए उसे स्वीकारा था. तब मन में कितनी उमंगें थीं, नए जीवन में प्रवेश की ख़ुशी थी, नए परिवार के साथ बंधने की प्रसन्नता थी. और आज वही सब दोहराया जा रहा है, लेकिन मन में कोई ख़ुशी व उत्साह नहीं है, उल्टे दुखी और बुझा-बुझा-सा है मन.
रात में अंकुर ने दीप्ति के गले में बांहें डालकर बड़े लाड़ से पूछा, “मम्मी, वो अंकल और दादा-दादी कौन थे?”
“वो तुम्हारे दादाजी के दोस्त और उनका परिवार था बेटा.” दीप्ति ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरकर कहा. अंकुर उससे चिपककर जल्दी ही सो गया, पर दीप्ति को देर रात तक नींद नहीं आई.

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छह साल पहले ही तो दीपक से विवाह हुआ था दीप्ति का. प्यार करनेवाला पति, दिनभर स्नेह बरसानेवाले सास-ससुर पाकर दीप्ति को मानो दोनों जहां की ख़ुशियां मिल गई थीं. बचपन में ही दीप्ति के माता-पिता की मृत्यु हो गई थी. वह मामा-मामी के यहां पली-बढ़ी.  उन्होंने उसे बहुत अच्छे से रखा, फिर भी दीप्ति का मन किसी को मां-पिताजी कहने को तरसता रहता. शादी के बाद दीपक के माता-पिता ने उसे भरपूर प्यार दिया. दीपक उनका इकलौता बेटा था. दीप्ति के रूप में उन्हें बेटी भी मिल गई.
सालभर के अंदर ही अंकुर का जन्म हुआ. दीप्ति और दीपक के प्यार का अंकुर. दीपक बेटी चाहता था, फिर भी वह बेटे के जन्म पर ख़ुश हुआ. उसी ने बहुत लाड़ से उसका नाम अंकुर रखा. अपने नए परिवार में दीप्ति बहुत संतुष्ट और प्रसन्न थी.
सबके प्यार व अंकुर के लालन-पालन में वह अपने बचपन के अभावों और माता-पिता की असमय हुर्ई मृत्यु के हादसे को भूल गई थी. अब जीवन से दीप्ति को कोई शिकायत नहीं थी. हर तरह से सुख, समृद्ध और संतुष्ट थी वह.
लेकिन क्रूर होनी को दीप्ति का यह सुख रास नहीं आया. मामूली से बुख़ार में एक दवाई के रिएक्शन से दीपक की हालत ऐसी बिगड़ी कि मात्र तीन दिनों में ही वह चल बसा. दीप्ति का मस्तिष्क शून्य हो गया. चार दिन पहले का हंसता-खिलखिलाता दीपक यूं अचानक ही चला गया कि आज दुनिया में कहीं उसका नामोनिशान तक बाकी न रहा. दीप्ति की दुनिया उजड़ गई. नन्हें अंकुर का रोना भी उसको सुनाई नहीं देता था. मात्र ढाई साल का ही तो था वह और उसके सिर से पिता का साया उठ गया.
दीपक के माता-पिता ने अपने दिल पर पत्थर रखकर इस हादसे को बर्दाश्त किया और अंकुर व दीप्ति को संभालने में अपना ग़म भुलाने लगे. महीनों बाद दीप्ति थोड़ी संभली और अंकुर की देखभाल में अपना समय काटने लगी. उनके घर के पास ही एक छोटा बाज़ार था, जहां ऊपर वाली मंज़िल पर महिला मार्केट था. वहां बहुत सारी गृहिणियां अपना व्यवसाय चलाती थीं. कोई पार्लर-बुटीक, तो कोई सिलाई-पेंटिंग क्लास. घरेलू काम से निवृत्त होकर औरतें अपनी-अपनी दुकानों पर आ जातीं. सब सहेलियां बैठी रहतीं, आपस में दुख-सुख भी बांट लेतीं और कुछ रचनात्मक काम भी हो जाता. दीप्ति के ससुरजी ने भी उसे वहां एक दुकान दिलवा दी. दीप्ति नियम से अंकुर को स्कूल भेजकर दुकान पर आ जाती. दिनभर ग्राहकों में और आसपास की औरतों से बातें करने में बीत जाता. बेला और प्रज्ञा से तो उसकी अच्छी घनिष्ठता हो गई थी. अब वह फिर से सामान्य होने लगी थी. लेकिन मां और पिताजी को उसके भविष्य की चिंता सताने लगी थी. वे उसके पुनर्विवाह के लिए लड़का ढूंढ़ने लगे. उनकी चिंता भी स्वाभाविक ही थी, क्योंकि वह मात्र छब्बीस साल की ही तो थी अभी. पहाड़-सी ज़िंदगी वह अकेले कैसे काटती?
दीप्ति दोबारा विवाह करने के लिए बिल्कुल तैयार न थी, पर सास-ससुर के तर्कों और याचना के आगे उसे झुकना पड़ा. दो-चार जगह खोज-ख़बर के बाद उन्हें विनय और उसका परिवार बहुत अच्छा लगा.
सारी बातें तय हो गईं. विवाह की तिथि पक्की हो गई. तब एक दिन मां ने बताया कि विनय अंकुर को अपनाने को तैयार नहीं है. दीप्ति पर तो मानो वज्रपात ही हो गया. उस मासूम से तो पिता का प्यार छीन ही लिया क़िस्मत ने, अब मां भी छिन जाएगी.
“मां, मैं यह विवाह नहीं करूंगी. मैं अंकुर से अलग नहीं रह सकती. विनय से कहिए अगर मुझसे विवाह करना है, तो मेेरे अंकुर को भी अपनाना पड़ेगा, वरना इस रिश्ते में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है.” दीप्ति ने साफ़-सपाट शब्दों में कह दिया.
“ऐसा मत बोल बेटी. हम हैं न अंकुर के साथ. सब जगह तुम्हारे विवाह की ख़बर हो चुकी है और मुझे विश्‍वास है कि तुम अपने अच्छे व्यवहार से विनय का मन जीत लोगी, तो एक दिन वह अंकुर को अवश्य अपना लेगा. तब अंकुर को मां-पिता दोनों मिल जाएंगे.” मां ने दीप्ति को समझाया.
बेबस दीप्ति मां के तर्कों के आगे हार गई और उनके गले लगकर रो दी. अंकुर के बारे में सोचकर उसका कलेजा मुंह को आने लगा.
पंद्रह दिन बाद ही एक सादे समारोह में दीप्ति और विनय का विवाह हो गया. कुछ दिन विनय के माता-पिता दोनों के साथ रहे, फिर वापस दिल्ली चले गए. दीप्ति नए घर, नए परिवेश और नए रिश्ते में अपने आपको ढालने का प्रयत्न करने लगी. विनय बहुत समझदार, प्यार करनेवाला और ध्यान रखने वाला जीवनसाथी था. दीप्ति बहुत ख़ुश थी, बस यही बात रह-रहकर उसे कचोटती रहती थी कि काश विनय उसकी ममता की तड़प को भी समझ पाता और अंकुर को भी अपना लेता.
वैसे दीप्ति को इस बात की तसल्ली थी कि विनय उसी शहर में रहता था. उसके ऑफिस जाते ही घर के काम करके वो अपनी दुकान पर चली जाती. स्कूल से अंकुर को भी पिताजी दीप्ति के पास छोड़ जाते. दोपहर भर दीप्ति अंकुर के साथ समय बिता लेती. उसे लाड़-प्यार कर लेती. लेकिन शाम को जब वह वापस घर आने लगती, तब अंकुर रुआंसा होकर उसका पल्लू पकड़ लेता, तब दीप्ति का कलेजा तार-तार हो जाता. बड़ी मुश्किल से वह भरी आंखों से फिर मिलने का वादा कर उससे विदा लेती.
रातभर अंकुर का रोता चेहरा उसके सामने घूमता रहता और वो सो नहीं पाती. कुछ महीने इसी तरह बीत गए. एक दिन दीप्ति को पता चला कि वह मां बननेवाली है. विनय की ख़ुशी का ठिकाना न रहा. वह दीप्ति का हर तरह से ख़्याल रखता. कुछ और महीने बीतने पर दीप्ति का दुकान पर जाना बंद हो गया और अंकुर से मिलने का ज़रिया भी. कभी-कभी मां-पिताजी अंकुर को दीप्ति के घर ले आते, पर रोज़-रोज़ तो यह संभव न था. उसका हृदय विकल रहता.
नियत समय पर दीप्ति ने एक बेटे को जन्म दिया. इस समय विनय के माता-पिता उसके पास आ गए. जब नन्हा तीन महीने का हो गया, तो वे लोग वापस चले गए. अब दीप्ति दिनभर नन्हें के देखभाल में लगी रहती. नन्हें की देखभाल के दौरान उसे हर पल अंकुर का लालन-पालन याद आता और वह तड़प उठती. वह दोपहर में अक्सर नन्हें को सीने से लगाकर अंकुर की याद में रोती रहती. उसके मन में अंकुर के बचपन की स्मृतियां सजीव हो जातीं. वह उसकी मासूमियत भरी बातें सुनने को तरस जाती. जीवनसाथी मिलने और दोबारा मां बनने के बावजूद वो अधूरी थी.
विनय ऑफिस से आकर घंटों नन्हें के साथ खेलता रहता. रात में भी उठकर उसे संभालता. उसे घुमाने ले जाता. नन्हा अब पांच महीने का हो गया था. उसकी किलकारी से घर गूंजता रहता.
नन्हें को वैक्सीन लगवाने के बाद दीप्ति घर लाई, तो उसे बुख़ार हो गया. वह सारा दिन रोता रहता और चिड़चिड़ करता रहता. दीप्ति उसे संभालते-संभालते बहुत थक गई थी.
“विनय अगर आप इजाज़त दें, तो मैं कुछ दिनों के लिए मां के यहां हो आऊं. वहां नन्हें की देखभाल भी ठीक से हो जाएगी.” उसने विनय से पूछा.
“हां, दीप्ति हो आओ. तुम्हें भी थोड़ा आराम मिल जाएगा. बहुत थक गई हो तुम. मेरी चिंता मत करना. ऑफिस का कैंटीन बहुत अच्छा है, मैं वहीं खाना खा लिया करूंगा.”  विनय ने सहर्ष अनुमति दे दी.
दीप्ति ख़ुशी-ख़ुशी नन्हें को लेकर मां के घर आ गई. नन्हें को सारा दिन मां-पिताजी संभाल लेते. दीप्ति पूरा समय अंकुर की देखभाल में बिताती. उसे नहलाना-धुलाना, खाना खिलाना सब वह करती. महीनों बाद अंकुर रातभर उससे लिपटकर सोया. वह उसे नई-नई कहानियां सुनाती. दीप्ति बहुत ख़ुश थी और उसकी ममता भी पूर्ण रूप से संतुष्ट थी.

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दीप्ति के जाने के बाद विनय जब शाम को घर आता, तो घर उसे काटने को दौड़ने लगता. उसे दीप्ति और नन्हें की बहुत याद आ रही थी. देर रात तक वह टीवी देखकर मन बहलाता रहता. रात में सोता, तो उसे नींद में भी लगता कि जैसे नन्हा रो रहा है या कुनमुना रहा है और वह चौंककर जाग जाता. उसे न घर में, न ही ऑफिस में चैन आ रहा था. ऑफिस में उसका मन काम में नहीं लगता और घर का सन्नाटा उसे खल रहा था.
अचानक विनय को एहसास हुआ कि वह तो बाप है, फिर भी पांच महीने के बेटे से पांच दिन की दूरी उससे सही नहीं जा रही है. लेकिन दीप्ति तो मां है. पांच बरस जिस बेटे को उसने सीने से लगाकर पाला-पोसा, उससे इतने महीनों वह किस तरह अलग रह पाई होगी? सचमुच वह कितना निर्दयी और छोटे दिल का है, जो एक मासूम को उसकी मां से जुदा कर दिया. यदि दीप्ति नन्हें को लेकर हमेशा के लिए चली गई तो? कैसे जी पाएगा वह अपने जान से प्यारे बेटे के बिना और फिर दीप्ति कैसे जी रही होगी अब तक अंकुर के बिना. कितना दर्द सहा होगा उसने. विनय की आंखें भर आईं. वह दीप्ति को अपना मान सकता है, तो उससे उत्पन्न अंश को अपना क्यों नहीं मान सकता? कैसे वह इतना छोटे मन का, स्वार्थी हो गया? उसे पश्‍चाताप होने लगा.
अगले ही दिन विनय दीप्ति के घर जा पहुंचा. नन्हें को गोद में लिए दीप्ति अंकुर को मान-मनुहार करके खाना खिला रही थी. उसके चेहरे पर ममत्व की एक अलग ही चमक झिलमिला रही थी. विनय ने उसे इतना प्रसन्न कभी नहीं देखा था. वह मुग्ध होकर दीप्ति को देखता ही रह गया. आज तक उसने एक मां से यह गौरवमयी आंतरिक प्रसन्नता छीन रखी थी. वह ग्लानि से भर उठा.
विनय पर नज़र पड़ते ही दीप्ति का चेहरा बुझ-सा गया और अंकुर ने भी सहमकर उसका आंचल पकड़ लिया. विनय ने मुस्कुराकर अंकुर के सिर पर हाथ फेरा, तो वह दीप्ति से सटकर खड़ा हो गया.
“तुम्हारे बिना घर बहुत सूना-सूना लग रहा है. अब तो नन्हें की तबियत भी ठीक है. चलो, घर चलें.” विनय ने दीप्ति से कहा.
“आप मां को ले जा रहे हैं?” अंकुर की आंखों में आंसू भर आए.
“केवल मां को ही नहीं बेटा, आपको भी घर ले जाने आया हूं. अब से आप भी मां के साथ ही रहेंगे.” विनय ने प्यार से कहा.
“सच अंकल?” अंकुर प्रसन्न हो गया.
“अंकल नहीं, पापा बोलो बेटा. मैं तुम्हारा पापा हूं.” विनय ने उसे गोद में उठाकर प्यार से कहा. दीप्ति आश्‍चर्य से विनय की ओर देख रही थी.
“मुझे माफ़ कर दो दीप्ति. मैं बहुत स्वार्थी था. आज तक मैंने मां-बच्चे को एक-दूसरे से अलग रखा. मैं तुम्हारा अपराधी हूं. नन्हें से अलग होकर मुझे अपने बच्चे से दूर रहने के दर्द का एहसास हुआ. मैं अपने दोनों बेटों को घर ले जाना चाहता हूं. नन्हें के बिना मैं चार रात नहीं रह सका, तुम अंकुर के बिना सालभर तक कैसे रह पाई होगी. बस, अब तुम्हें और तकलीफ़ नहीं दूंगा.” विनय के स्वर में क्षमायाचना थी.
दीप्ति इस अप्रत्याशित ख़ुशी को पाकर रो ही पड़ी.
“मैंने कहा था ना बेटी, एक दिन सब ठीक हो जाएगा.” मां और पिताजी कमरे में आते हुए बोले.
अंकुर विनय के गले से लिपट गया. नन्हें को सीने से लगाए दीप्ति यह दृश्य देखकर भावविभोर हो गई. आज उसे लग रहा था उसका परिवार पूरा हो गया.

Dr. Vinita Rahurikar
डॉ. विनीता राहुरीकर

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