ख़ुशी और उत्तेजना से उसकी आंखें भर आईं. जल्दी से वह दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी. दरवाज़ा खोलते हुए वह इसी उधेड़बुन में पड़ी रही कि कैसे मिलेगी वह अभिषेक से? क्या कहेगा वह? क्या वह उसे माफ़ कर पाएगी?
ज्यों ही आकांक्षा ने खिड़की खोली, हवा का एक सर्द झोंका उसकी बेफ़िक्र लटों को और भी बिखरा गया. हल्की बूंदाबांदी हो रही थी. दूर आम के पत्ते रह-रह कर यूं थिरक रहे थे, मानो उन पर टप टप पड़ती पानी की बूंदें उनसे अठखेलियां कर रही हों. ऊंचे ऊंचे यूकेलिप्टस के पेड़ समाज की उन ऊंची-ऊंची दीवारों की याद दिला रहे थे, जिनमें क़ैद हमारा जीवन अपना सब कुछ खोने पर मजबूर हो जाता है.
आकांक्षा देर तक उन पेड़ों की ऊंचाइयां निहारती रही और न जाने कब यूकेलिप्टस की ऊंचाइयां नापते-नापते उसका वर्तमान, उसका साथ छोड़ उड़ने लगा, ऊपर... और ऊपर जहां अतीत की तमाम यादें, स्मृति आसमान पर बादलों की तरह मंडरा रही थीं. किससे कहे, किससे शिकायत करे, किससे फ़रियाद करे अतीत की उन कडुवाहटों की. आख़िर एक-दो नाम तो थे नहीं जिनका हिसाब मांग सके वह ज़माने से. जब मनुष्य कुछ नहीं कर पाता तब बेबसी के दो आंसू अवश्य उसकी आंखों से ढुलक पड़ते हैं. गीली आंखों को आंचल से पोंछ, बेजान सी आकर बिस्तर पर पसर गई वह. एक सर्द झोंका फिर कमरे में आया और आकांक्षा के शरीर में झुरझुरी सी पैदा हो गई. अपने आप को कम्बल में लपेटे वह कुछ क्षण लेटी रही. यादों के नश्तर तन्हाइयों में कितनी तीखी चुभन देते हैं यहां वुमन्स हॉस्टल में आकर ही जाना था उसने.
अतीत से पीछा छुड़ाने के लिए आकांक्षा एक पत्रिका उठाकर उसमें ध्यान बंटाने की कोशिश करने लगी, पर यादें कहां इतनी आसानी से पीछा छोड़ने वाली थीं. उसे रह-रह कर अभिषेक और अनामिका की याद आ रही थी. उसके भाई-बहन, जिन्हें उसने अपने आप से भी बढ़कर चाहा है, जिनके जीवन को उज्ज्वल बनाने के लिए उसने अपने भविष्य को नज़रअंदाज़ कर दिया. उसे आज भी अच्छी तरह याद हैं अपने सुनहरे दिनों की बातें, सत्रह वर्ष की उम्र थी उसकी, जब अमित उसके जीवन में आया था. मां-बाप के स्नेह-दुलार, भाई-बहन के साथ हंसते-खेलते जीवन में अमित का प्यार एक नयी बहार लेकर आया. दिन पंख लगाकर उड़ रहे थे. अचानक एक दिन एक दुर्घटना में आकांक्षा के पिता का देहान्त हो गया.
पिता के देहांत के साथ ही आकांक्षा के सारे हसीन सपने भी बिखर गए. मां ने रोते-रोते एक दिन उसका हाथ थामते हुए कहा था, "अब तो तू ही हमारी खेवनहार है बेटी. पिता की मौत के बाद उनकी ज़िम्मेदारी तेरे ही कंधों पर है. कुछ कर बेटी, नहीं तो तेरे भाई-बहन..." मां की हिचकियों के बीच आगे के शब्द अवरुद्ध हो गए थे.
जीवन निर्वाह का प्रश्न सामने मुंह बाए खड़ा था. आकांक्षा बी.ए. की पढ़ाई अधूरी छोड़, नौकरी की तलाश में जुट गई. थोड़े ही दिनों बाद विश्वेश्वर दयाल जी की सहायता से उसे अपने पिता के ही दफ्तर में काम मिल गया. विश्वेश्वर जी उसके पिता के मित्र थे और उसके विभागाध्यक्ष भी. वे उसकी हर काम में मदद करते.
छोटी बहन अनामिका उस समय दसवीं कक्षा में थी और अभिषेक आठवीं में. आकांक्षा की हमेशा यही कोशिश रहती कि वह अपने भाई-बहनों को पिता की कमी महसूस न होने दे. अनामिका और अभिषेक की फ़रमाइशों को पूरा करने की भरसक
कोशिश करती. अपनी व्यस्तता और ज़िम्मेदारियों के बीच उसे अमित से मिलने की फ़ुर्सत ही नहीं मिलती थी. अमित ही कभी-कभी उसके घर आता-जाता रहता. नौकरी मिलते ही अमित आकांक्षा पर विवाह के लिए ज़ोर डालने लगा, पर आकांक्षा अपने कर्तव्यबोध से जकड़ी रही. मां ने दबी ज़ुबान में उससे विवाह करने को कहा, किंतु जब आकांक्षा उनसे पूछती कि उसके जाने के बाद घर का क्या होगा? तो मां ख़ामोश रह जाती, आकांक्षा के बार-बार इन्कार करने पर विक्षुब्ध अमित ने अंततः एक दिन अपने मां-बाप की पसंद की लड़की से ब्याह रचा लिया.
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आकांक्षा उस दिन खूब रोयी थी, पर किससे कहती अपने दर्दे-दिल की दास्तान. वक़्त के हाथों मजबूर, कोई भी उसका दुख हल्का नहीं कर सकता था. धीरे-धीरे अपने काम में व्यस्त होकर वह स्वयं ही अपने ग़म को भूलने का प्रयास करने लगी.
आकांक्षा के काम से उसके विभागाध्यक्ष बहुत प्रसन्न थे, इसीलिए उन्होंने सलाह दी कि प्राइवेट तौर पर वह अपनी पढ़ाई जारी रखे, ताकि भविष्य में प्रमोशन की हक़दार हो सके. धीरे-धीरे आकांक्षा ने बी.ए. फिर एम.ए. की पढ़ाई पूरी कर ली.
अमित को भूलने में असमर्थ आकांक्षा ग़म के आंसुओं को चुपचाप पीती रही. उम्र धीरे-धीरे आगे खिसकती रही और जीवन की धारा ख़ामोशी से बहती रही, न कोई आवेग, न उत्साह. पिता की ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के लिए जीवन की हर ख़ुशी का उसने बलिदान कर दिया था.
बेटी की हालत मां से छुपी न थी, पति की मौत का ग़म और बेटी की ज़िंदगी की बिखरी हालत दोनों के भार से मां की आंखें प्रायः नम ही रहतीं. आकांक्षा बार-बार उन्हें समझाती, "मां हम सब वक़्त के हाथों की कठपुतली हैं. तुम क्यों चिंता करती हो? इसमें तुम्हारा क्या दोष है?"
चिंता चिता समान है. एक दिन बिना कुछ कहआकांक्षा की मां भी स्वर्ग सिधार गई. मां की मौत के बाद आकांक्षा और भी अकेली हो गई. अब तो उसका दुख समझनेवाला भी कोई न था.
अनामिका अपनी पढ़ाई और सहेलियों में व्यस्त रहती और अभिषेक अपनी पढ़ाई और दोस्तों में. परंतु आकांक्षा को इस बात का सुकून रहता कि दोनों ही पढ़ाई में होनहार हैं और उसकी बहुत इज्ज़त करते हैं.
आकांक्षा की ख़ुशी का ठिकाना न रहा जब इंटर पास होते ही अभिषेक का चयन मेडिकल में हो गया. मेडिकल की महंगी पढ़ाई के ख़र्चे को पूरा करने के लिए उसने तीन-चार ट्यूशन भी कर लिए. अपने सारे ग़म को भूल अक्सर आकांक्षा उस सुखद दिन की कल्पना करने लगती जब अभिषेक डॉक्टर बन जाएगा.
अभिषेक जब तक घर में था तब तक आकांक्षा को अनामिका की फ़िक्र नहीं रहती थी, पर अभिषेक के जाने के बाद उसने छोटी बहन पर ध्यान देना शुरू कर दिया. एक दिन आकांक्षा को अनामिका के कमरे से कई प्रेम पत्र मिले, जिससे पता चला कि अनामिका अपने ही कॉलेज के किसी व्याख्याता सुनील से प्रेम करती है. पूछने पर अनामिका ने इसे स्वीकार भी किया और स्पष्ट बता दिया कि वे दोनों शादी करना चाहते हैं. आकांक्षा सुनील के घरवालों से मिली और बिना किसी हील-हुज्जत के शादी संपन्न हो गई. अनामिका को विदा करते समय आकांक्षा का दिल दर्द से फटा जा रहा था, पर साथ ही अपने दायित्व को सफलतापूर्वक निभाने का संतोष भी था उसे.
आकांक्षा के हर कार्य में उसके विभागाध्यक्ष विश्वेश्वर दयाल बहुत मदद करते थे, इसीलिए जब भी उसका दिल पारिवारिक परेशानियों से घबराता, तो वह विश्वेश्वर जी के पास चली जाती. उनसे सलाह मांगती, राय लेती. उनकी बातों से उसे बड़ी राहत मिलती, जैसे वह कुछ क्षण के लिए अपने पिता की छत्र-छाया में आ बैठी हो.
विश्वेश्वर जी भी घर में अकेले ही रहते थे. उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो चुका था. एक ही बेटा था जो एम.टेक की पढ़ाई कर रहा था. नौकर ही उनके घर का कर्ता-धर्ता था, पर आकांक्षा जब भी जाती, घर को अपने ढंग से सजा-संवार देती. विश्वेश्वर जी भी उसे बेटी सा स्नेह देते.
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छुट्टी वाले दिन कभी किसी कारणवश आकांक्षा उनके घर न जा पाती, तो उन्हें घर सूना सूना सा लगता. परन्तु इस बार जबसे उनका बेटा कुणाल अपनी पढ़ाई पूरी कर यहां रहने आया था, आकांक्षा को वहां जाना अच्छा नहीं लगता था. कुणाल जब-तब उससे बात करने की कोशिश करता और आकांक्षा कोई-न-कोई बहाना बना कर वहां से चल देती. उसे डर था कि कहीं उसके सूने दिल पर फिर से अरमानों के फूल न खिलने लगें.
धीरे-धीरे उसने विश्वेश्वर जी के घर जाना ही छोड़ दिया. वह जब भी घर न आने का कारण पूछते, आकांक्षा काम का बहाना बना कर टाल जाती. समय अपनी गति से चलता रहा और देखते-ही-देखते आकांक्षा तीस की उम्र पार कर गई.
"आकांक्षा... ऐ आकांक्षा, खाना नहीं खाना क्या आज...?" सुरेखा की आवाज़ सुनकर आकांक्षा की तन्द्रा भंग हुई. वह झट से उठ बैठी. घड़ी की तरफ़ नज़र दौड़ाने से पता चला कि डेढ़ बज चुके हैं.
"चल..." पैर में चप्पल डालती हुई बेमन से वह सुरेखा के साथ चल पड़ी. जानती थी 'न' कहने पर आसानी से मुक्ति नहीं मिलने वाली सुरेखा से. बहुत अपनी लगती है वह, कितना ख़्याल रखती है उसका.
खाना खाकर आकांक्षा पुनः अपने कमरे में लौट आई. सुरेखा को अपने लोकल गार्जियन प्रकाश श्रीवास्तव के घर जाना था. उसके दूर के रिश्तेदार लगते हैं प्रकाश जी, परन्तु सगी बेटी की तरह मानते हैं उसे. एक इतवार भी अगर सुरेखा उनके घर न जाए, तो वे स्वयं आकर उसे लिवा जाते हैं.
कितनी भाग्यशाली है सुरेखा. घर से दूर रहकर भी अपनों का स्नेह पा लेती है और एक मैं... भाई-बहन के इसी शहर में रहते हुए भी यहां वुमन्स हॉस्टल में पड़ी हूं.
आकांक्षा को पुनः अनामिका और अभिषेक की याद सताने लगी. ब्याह रचा कर अनामिका पूरी तरह अपने घर की हो गई थी. उसे फ़ुर्सत ही नहीं मिलती थी अपनी दीदी से मिलने की... और अभिषेक..?
मेडिकल की पढ़ाई पूरी करते ही अभिषेक ने अपनी पसंद की लड़की सोनल से ब्याह रचा लिया था. सोनल ने आते ही घर में आधिपत्य जमा लिया और अपने ही घर में आकांक्षा बेगानी हो गई. बात-बात पर सोनल उस पर ताने मारती. उसे तिरस्कृत करती. परन्तु अभिषेक की ख़ुशी के लिए वह चुपचाप उसकी कटु लांछनाओं को सहती रही. वह नहीं चाहती थी कि उसकी वजह से नवदम्पति में कोई कटुता आए, लेकिन उस दिन... २१ नवम्बर का वह दिन आज पुनः जीवन्त हो उठा, जिस दिन आकांक्षा का प्रमोशन हुआ था.
प्रमोशन लेटर पकड़ाते हुए विश्वेश्वर जी ने कहा था, "बधाई हो आकांक्षा, आज से तुम इस सेक्शन की इंचार्ज हो."
प्रमोशन लेटर लेकर वह ख़ुशी से फूली न समाई, "सर ये सब आपकी मेहरबानी है..." कृतज्ञ नज़रों से उसने विश्वेश्वर जी की ओर देखा.
"अच्छा सर, अब चलती हूं. आपकी यह कृपा कभी नहीं भूल पाऊंगी." चलते-चलते एक बार फिर उसने कृतज्ञता प्रकट की,
"अरे नहीं. यह सब तुम्हारी मेहनत और योग्यता का फल है." विश्वेश्वर जी ने उसका कंधा थपथपाया.
अपनी इस पदोन्नति पर आकांक्षा की आंखें ख़ुशी से नम हो गईं. उस ख़ुशी को अपनों के संग बांटने के लिए उतावली सी होने लगी वह. यह ख़बर सबसे पहले वह अपने भाई-भाभी को देना चाहती थी. जी चाह रहा था कि दौड़ कर अपने भाई से लिपट जाए. हंगामा करे, ख़ुशियां मनाए. परंतु हमेशा से बंधा मन इतनी जल्दी कहां खुल पाता है.
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तेज-तेज कदमों से वह बस स्टैन्ड की तरफ़ चल पड़ी. तभी उसे याद आया कि ख़ुशी के इन क्षणों में खाली हाथ घर जाना ठीक नहीं.
क्या लूं..? सोचते हुए याद आया कि सोनल को रसगुल्ले पसन्द हैं और अभिषेक को बेसन के लड्डू. पास ही मिठाई की दुकान से मिठाई ख़रीद, उसने घर के लिए बस पकड़ी.
"सोनल... अभिषेक... कहां हो तुम लोग?" हर्षातिरेक से आकांक्षा की आवाज़ स्वतः तेज हो गई थी.
"क्या है दीदी..? आते ही चिल्लाना क्यों शुरू कर दिया?" हाथ में चाय का प्याला लिए अभिषेक अपने कमरे से बाहर निकला.
अभिषेक का ठंडा स्वर सुनकर आकांक्षा की सारी ख़ुशी सर्द हो गई.
"बात यह है कि... आज मेरा प्रमोशन हुआ है, लो मिठाई खाओ..." मिठाई का पैकेट उसने ज्यों ही आगे बढ़ाया, अभि के पीछे आ खड़ी हुई सोनल ने उसे अर्थपूर्ण नज़रों से घूरा.
"प्रमोशन तो होना ही था. दिन-रात बॉस की सेवा में जुटी जो रहती हो. प्रमोशन तुम्हारा नहीं तो और किसका होगा?"
सोनल की कटाक्ष सुनकर वह स्तब्ध रह गई. जड़... विमूढ़, धम्म से वह कुर्सी पर बैठ गई. "ऑफिस के बहाने रात-दिन रंगरेलियां मनाती फिरती है. घर के कामकाज से कोई मतलब नहीं. कब तक करेगा कोई इनकी चाकरी?" बड़बड़ाती हुई सोनल अपने कमरे में चली गई.
आकांक्षा की सारी ख़ुशी पल भर में ही बिखर गई थी. ग़लती न होते हुए भी यह गुनहगार हो गई थी. उसके दिल में शोले भड़क उठे थे. सोनल के लिए नहीं अभिषेक के लिए. यह कैसे चुप है..? क्या इसके पास मेरे लिए एक शब्द भी नहीं? सोनल ने इतना बड़ा आरोप लगाया और वह ख़ामोश रहा. भूल गया मेरे त्याग को..? वह तो जानता है, क्या कुछ नहीं किया मैंने इस घर के लिए. सत्रह साल की उम्र से ही तिल तिल जली हूं मैं. सभी की इच्छाओं को पूरी करने के लिए अपनी कई अभिलाषाओं का गला घोंट दिया था मैंने. मेरे त्याग और तपस्या का यह सिला मिला है मुझे. क्या उसे भी मेरे चरित्र पर संदेह होने लगा है? आख़िर मेरे अपमान को कैसे बर्दाश्त कर गया वह?
आकांक्षा की आंखों से एक बार फिर बड़ी तेजी से आंसू निकल आए.
"सोनल, ओ सोनल... कहां है तू...?" मोना की आवाज़ सुनते ही आकांक्षा ने अपने आंसू पोंछ लिए.
"दीदी, सोनल कहां है?" सोनल की सहेली मोना उसके पास आ गई. आकांक्षा ने सोनल के कमरे की तरफ़ इशारा किया और स्वयं उठ खड़ी हुई. सूनी नज़रों से उसने आसमान की तरफ़ देखा. शाम गहराने लगी थी. सुस्त व थके कदमों से वह अपने कमरे में आ गई और निष्प्राण से रास्ते भर वह यही सोच रही थी- क्या बहन का रिश्ता इतना हल्का होता है कि शादी होते ही भाई उसे फूंक मार कर उड़ा दे?
शरीर को उसने बिस्तर पर छोड़ दिया.
तभी मोना की आवाज़ उसके कानों में आई, "दीदी आज इतनी उदास क्यों हैं?"
"अरे! सब चोंचले हैं उसके." आकांक्षा को सुनाने के लिए ही सोनल ने अपनी आवाज़ तेज कर दी. "दिनभर रंगरेलियां मनाती फिरती है और घर आकर मुझ पर रौब गांठना चाहती है."
"क्यों... क्या हुआ?"
"होना क्या था..? अपने बॉस के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिरती है. मोहल्ले भर में हमें बदनाम कर रखा है और समझाने पर लड़ने को उतारू हो जाती है. आख़िर हम भाई-भाभी हैं उसके. इज्ज़त की दो रोटी तो दे ही सकते हैं, पर हमारी बात माने तब ना..."
आकांक्षा के कानों में जैसे पिघला हुआ गर्म शीशा डाल दिया हो किसी ने. आवेश में तमतमाकर हांफते हुए वह सोनल के कमरे में जा घुसी. "सोनला तुम्हें शर्म नहीं आती मेरे बारे में ऐसी बातें करने में. तुम मेरे चरित्र पर लांछन लगा रही हो..." ग़ुस्से में कांपते हुए आकांक्षा चीख पड़ी.
"चरित्र पर लांछन... इंह... जिसका कोई चरित्र ही न हो उस पर लांछन कैसा?" सोनल आज आकांक्षा को जलील करने पर उतारू हो गई थी.
चटाक! चटाक!.. आकांक्षा के आवेश से कांपते हाथ रुक न सके,
सोनल दहाड़े मार-मारकर रोने लगी. अड़ोस-पड़ोस के लोग इकट्ठे होने लगे और आकांक्षा... सूटकेस में जल्दी-जल्दी कपड़े डालते हुए सोच रही थी. अब वह यहां नहीं रह सकती. बहुत कुछ सहती रही आज तक... सोनल की मनमानी को भी उसकी नादानी समझकर माफ़ करती रही. पर आज... उफ़! मेरे चरित्र पर लांछन लगाया उसने. यह नहीं बर्दाश्त कर पाऊंगी मैं... उसकी वर्षों की तपस्या, तिनके-तिनके जोड़ कर बनाया गया नीड़, पल भर में ही बिखर गया था और वह तेज कदमों से बाहर निकल आई थी.
सड़क पर आते ही 'कहां जाए वह?' यह समस्या आ खड़ी हुई. 'अनामिका? नहीं...' उसकी सुखी गृहस्थी में अपने पैर रखने की हिम्मत नहीं कर पाई वह. ऑटो पर बैठकर उसने विश्वेश्वर जी के घर का पता बता दिया. रास्ते भर वह यही सोच रही थी, क्या बहन का रिश्ता इतना हल्का होता है कि शादी होते ही भाई उसे फूंक मार कर उड़ा दे?
वह रात विश्वेश्वर जी के यहां बिता कर दूसरे ही दिन उसने अपने लिए सुरक्षित जगह तलाश ली. वर्किंग वुमन्स हॉस्टल में आसानी से उसे एक कमरा मिल गया था. परंतु यहां आकर भी चैन न था उसे.
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उसे विश्वास था कि अभिषेक उसे यहां कभी नहीं रहने देगा. अवश्य आएगा उसे लेने, आख़िर कब तक भुला पाएगा वह अपनी दीदी को. सोनल से अपमानित होने के बाद आकांक्षा उस घर में वापस जाना नहीं चाहती थी, पर एक अनजानी चाहत भी थी मन में, अभिषेक के आने की, उसे मनाकर घर ले जाने की. हर आहट पर उसका दिल धड़क उठता... कहीं अभिषेक तो नहीं..? आज भी दिल के किसी कोने में उसे अभिषेक का ही इंतज़ार था. निराशा की थपकियों से वह जल्द ही नींद के आगोश में समा गई.
"खट... खट... खट..." किसी ने बाहर से दरवाज़ा खटखटाया था. आकांक्षा चौंककर उठ गई. कौन होगा? कहीं अभिषेक तो नहीं? ज़रूर वही होगा. आख़िर वह आ ही गया, कब तक छोड़ सकता है मुझे यहां अकेला..?"
ख़ुशी और उत्तेजना से उसकी आंखें भर आईं. जल्दी से वह दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी. दरवाज़ा खोलते हुए वह इसी उधेड़बुन में पड़ी रही कि कैसे मिलेगी वह अभिषेक से? क्या कहेगा वह? क्या वह उसे माफ़ कर पाएगी? लेकिन दरवाज़ा खोलने पर सामने विश्वेश्वर जी खड़े थे.
"सर आप... आप यहां कैसे?" आकांक्षा विस्मय से उनकी तरफ़ देख रही थी.
"बैठने के लिए नहीं कहोगी?" विश्वेश्वर जी ने मुस्कुराते हुए कहा.
"हां, हां, बैठिए ना..." आकांक्षा ने पास ही रखी कुर्सी को सामने बढ़ा दिया.
"क्या सोच रही हो...? आश्चर्य हुआ मुझे देखकर?" आकांक्षा की तरफ़ देखकर विश्वेश्वर जी ने पूछा.
"हां, पहली बार आप यहां आए हैं, शायद इसीलिए. सोच रही हूं, रोज़ ही तो दफ़्तर में हम मिलते हैं, कुछ काम था तो आपने बताया क्यों नहीं?"
"क्यों? मेरा यहां आना अच्छा नहीं लगा तुम्हें?"
"ऐसी बात नहीं सर..."
"देखो आकांक्षा, आज मैं दफ़्तर के काम से नहीं आया हूं, अपने व्यक्तिगत काम से आया हूं. इन्कार मत करना."
"इन्कार... और आपके काम से? कैसी बात करते हैं आप. आपके किसी काम आऊं, यह तो मेरे लिए ख़ुशी की बात है."
वे आकांक्षा को थोड़ी देर देखते रहे, फिर बोले, "वर्षों से तुम्हें देखता आ रहा हूं. सालों साथ रही हो मेरे, अतः बार-बार परखने का मौक़ा भी मिला है. मुझे तुम्हारे जैसी ही बहू की तलाश थी. मेरे बेटे से शादी करना चाहोगी? तुम तो जानती ही हो उसे. इंजीनियर है और अच्छी-ख़ासी नौकरी भी है."
"लेकिन?" एकाएक इस प्रस्ताव को सुनकर आकांक्षा असमंजस में पड़ गई.
"जो तुम पूछने वाली हो, वह प्रश्न में जान गया हूं आकांक्षा. मेरे बेटे ने जब से तुम्हें देखा है, तब से वह तुम्हें पसंद करता है. तुम्हारे बारे में सब कुछ जानने के बाद बस उसे इंतज़ार था तो तुम्हारी ज़िम्मेदारियां पूर्ण होने का. आज उसी ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है." विश्वेश्वर जी ने अपनी बात पूरी की.
इस रहस्योद्घाटन से आकांक्षा अचंभित रह गई. उसकी भावनाएं आंखों के रास्ते बह निकलीं. वह सिसकते हुए विश्वेश्वर जी के सीने से लग गई.
उन्होंने अपनी उंगलियों से उसके आंसू पोंछते हुए कहा, "नहीं आकांक्षा, नहीं, बहुत बहा चुकी तुम इन आंखों से आंसू. अब तुम्हारे मुस्कुराने के दिन हैं. चलो जल्दी से मुस्कुराओ... हां, एक... दो... तीन..."
आकांक्षा ने मुस्कुराने की कोशिश की और कुछ सोच कर विश्वेश्वर जी के पैर छू लिए.
- संध्या द्विवेदी
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