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कहानी- प्रतिबद्ध (Short Story- Pratibadh)

उसने चोर दृष्टि से उन्हें देखा. उनकी निष्पाप दृष्टि को देख उसे अपनी भूल का एहसास हुआ. उनके चेहरे पर एक दिव्य मुस्कान थी. उन्होंने अपनी मोहक एवं शांत दृष्टि मयूरी के चेहरे पर टिका कर पूछा, “कैसी हो मयू? परिवार में सभी कुशल-मंगल से हैं?” मयूरी क्षणभर को जड़वत रह गई. उसकी चेतना ने उसका दामन छोड़ दिया. अपनी सुध-बुध बिसरा कर उसने भी उस समंदरी आंखों की गहराई में झांका. उसके मस्तिष्क में जैसे भूचाल-सा आ गया. आंखों में अनेक प्रश्‍न कौंधने लगे. किसी तरह से उसने संयतपूर्वक सजल नेत्रों से कहा, “सभी ठीक हैं.”

सुबह-सुबह ही फोन की घंटी बज उठी. मयूरी ने बेसन सने अपने हाथों को धोकर फोन उठाया.
“हैलो…”
“मयूरी… मैं स्मिता बोल रही हूं… सुबह-सुबह परेशान किया, क्षमा करना… जनकपुरी चलोगी?”
“जनकपुरी… क्यों क्या बात है? मयूर विहार से जनकपुरी जाने में समय भी व्यर्थ में नष्ट होता है… पर बात क्या है?”
“मेरी बुआ के घर एक पहुंचे हुए संत आए हैं, चलकर दर्शन करने में क्या हर्ज़ है?”
“कल स्वतंत्रता दिवस है, सबकी छुट्टी होने से सभी घर में रहेंगे. कल ही चलें तो कैसा रहेगा?”
“क्या बात कह रही है! कल क्या दिल्ली जैसे जगह पर निकलना सुरक्षा की दृष्टि से सही होगा? आतंकवादियों के हमले की आशंका के मद्देनज़र सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी गई है. आज चलो न.”
“इन आतंकवादियों ने तो जीना मुश्किल कर दिया है, ऐसा करो तृषा स्कूल से लौटती ही होगी. जब तक स्कूल में रहती है, चिंकी को मुझे ही संभालना पड़ता है. उसके आते ही चलूंगी.”
“कोई बात नहीं तुम तैयार रहो. मैं तुम्हें पिकअप कर लूंगी.”
फोन रखते ही मयूरी दुविधा में पड़ गई, ‘कौन-सी साड़ी पहनूं? इन संतों के सामने सादगी ही अच्छी.’ उसने एक बादामी रंग की साड़ी निकाली. उसके आंचल से मैच करती कत्थई रंग की बिंदी लगाई. शीशे में ख़ुद को देख मुस्कुरा उठी, ‘कौन कहेगा, मैं दादी बन गई?’
कार का हॉर्न सुन उसने खिड़की से झांका. ज़ेन का द्वार खोल स्मिता अपनी बिखरी लटों को ठीक कर रही थी. बहू तृषा पर गृहस्थी का भार डाल वह स्मिता के साथ कार में जा बैठी.
स्कूल-कॉलेज और दफ़्तर का समय न होने के कारण उन्हें लाल बत्ती पर कहीं रुकना नहीं पड़ा. दोनों सहेलियां कभी किसी साधु-संतों के चक्कर में नहीं पड़ती थीं. पर इस ब्रह्मचारी संत के विषय में इतना कुछ सुन रखा था कि दोनों उनके दर्शनार्थ जनकपुरी जाने को निकल पड़ीं.
“मुझे समझ में नहीं आता कि लोग संन्यास क्यों लेते हैं?” मयूरी ने कुछ सोचते हुए पूछा.
“सीधी-सी बात है मन पर चोट लगी होगी. चोट खाकर ही कोई लेखक, कवि या संन्यासी बन जाता है.” स्मिता ने कार को दाहिनी ओर मोड़ते हुए कहा.
“साधु-संत के दर्शन की बात करते ही सभी पुरुष चिढ़ उठते हैं. मैंने इन्हें फोन पर अपने जाने की सूचना दे दी.” मयूरी ने कहा.
“वे सच्चाई समझते हैं, पर सभी ढोंगी नहीं होते. ये संत पहुंचे हुए हैं सुनकर सोचा मिल ही लूं.” स्मिता अपनी ही बात पर हंस पड़ी.
स्मिता को बुआ द्वार पर ही मिल गई. अंदर कमरे में पूर्ण शांति थी. सामने एक ऊंचे आसन पर स्वामीजी विराजमान थे. स्मिता एवं मयूरी शालीनतापूर्वक पीछे जाकर बैठ गईं. स्वामीजी शांत चित्त से मनोनिग्रह के विषय में बता रहे थे,
“मनोनिग्रह के लिए एकाग्रता संपादन की अपेक्षा मन के कषाय-कल्मषों को धोया, हटाया व सुधारा जाए. अपनी प्रकृति रूखी, स्वार्थी और चिड़चिड़ी न हो, तो सबके साथ सहज सज्जनोचित्त संबंध बने रहेंगे और मित्रता का क्षेत्र सुविस्तृत बनता जाएगा.”
स्वामीजी की बातों से प्रभावित व सहमत स्मिता एवं मयूरी ने एक-दूसरे की आंखों में देखा मानो कह रही हों, ‘हमारा आना सार्थक हुआ.’ दोनों ने फिर स्वामीजी की बातों पर अपना ध्यान केंद्रित किया.
“कुविचारों और दुःस्वभावों से पीछा छुड़ाने के लिए सद्विचारों के संपर्क में निरंतर रहा जाए.”
स्वामीजी की बातों से मयूरी ने अनुमान लगाया कि इनके अध्ययन व चिंतन का क्षेत्र बहुत विस्तृत है. विद्वता का आभास उनके चेहरे से हो रहा था- गौर वर्ण के ललाट पर चंदन व रोली का तिलक, गले में रूद्राक्ष की माला और शरीर पर केसरिया वस्त्र सुशोभित थे. छोटी-छोटी दाढ़ी पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा उनके व्यक्तित्व की शोभा को द्विगुणित कर रहा था.
प्रवचन समाप्त होते ही मयूरी और स्मिता ने श्रद्धापूर्वक संत को नमस्कार किया.
“तू यहीं रुक, मैं प्रसाद बांटने में बुआ के हाथ बंटा कर अभी आई.” मयूरी को वहीं पर छोड़ स्मिता अपनी बुआ की मदद करने चली गई.
अचानक स्वामीजी को जैसे कोई झटका लगा हो. चेहरे पर हर्ष-विषाद की रेखाएं आने-जाने लगीं. गांभीर्य का एक झीना-सा आवरण उनके चारों तरफ़ सिमट आया. मयूरी उनके चेहरे के उतार-चढ़ाव को समझने में पूर्णतया असमर्थ थी. उसे एहसास हुआ कि स्वामीजी की दृष्टि उस पर ही केन्द्रित है. वह असहज हो उठी. उसके दिल ने धिक्कारा, ‘क्यों चली आई वह इस तरह के लोगों का दर्शन करने? नारी पर दृष्टि पड़ते ही इनका सारा पांडित्य तिरोहित हो जाता है.’
उसने चोर दृष्टि से उन्हें देखा. उनकी निष्पाप दृष्टि को देख उसे अपनी भूल का एहसास हुआ. उनके चेहरे पर एक दिव्य मुस्कान थी. उन्होंने अपनी मोहक एवं शांत दृष्टि मयूरी के चेहरे पर टिका कर पूछा, “कैसी हो मयू? परिवार में सभी कुशल-मंगल से हैं?”

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मयूरी क्षणभर को जड़वत रह गई. उसकी चेतना ने उसका दामन छोड़ दिया. अपनी सुध-बुध बिसरा कर उसने भी उस समंदरी आंखों की गहराई में झांका. उसके मस्तिष्क में जैसे भूचाल-सा आ गया. आंखों में अनेक प्रश्‍न कौंधने लगे. किसी तरह से उसने संयतपूर्वक सजल नेत्रों से कहा, “सभी ठीक हैं.”
“सोचा नहीं था कि जीवन की इस प्रौढ़ गोधूली में तुमसे भेंट हो जाएगी. मन पर नियंत्रण रखो मयू… ईश्‍वर जो करता है, अच्छा करता है. ईश्‍वर तुम्हें सुखी रखें.”
स्वामीजी से मिलने कुछ लोग वहां पर आ गए. सबों को बातों में मशगूल देख मयूरी पीछे जाकर बैठ गई. प्रसाद लेकर स्मिता जब आयी तो वह मयूरी को देख घबरा उठी, “क्या बात है मयूरी? तबीयत तो ठीक है?”
“हां, यूं ही ज़रा सिर चकरा गया था.” मयूरी ने टालने के उद्देश्य से कहा. “कितनी बार कहा है ब्लड प्रेशर चेक करवा लो. बत्रा अस्पताल में मेरे अंकल डॉक्टर हैं… चलो तुम्हारा कल चेकअप करवा दूं.”
“अरे नहीं यूं ही…”
“मयूरी जीवन के जिस पड़ाव पर अभी हम हैं, उसमें सतर्कता की बेहद आवश्यकता है अन्यथा वृद्धावस्था भयावह हो जाएगी… अभी से ध्यान रख… मैं तो हमेशा अपना चेकअप कराती हूं. वृद्धावस्था का भय मुझे अभी से खाए जा रहा है.”
कमरे में हलचल बढ़ जाने से उन्होंने दृष्टि फेरी, तो देखा सभी स्वामीजी को विदा करने कमरे से बाहर जा रहे हैं. स्मिता तेज़ी से द्वार की तरफ़ बढ़ गई, पर मयूरी वहीं शिला सदृश बैठी रही. शिष्टाचारवश उसने भी उठने की चेष्टा की, तो दृष्टि उस स्वामी से जा मिली.
स्वामीजी के जाने के बाद सभी उनकी विद्वता का बखान करने में लगे थे. मयूरी ने स्मिता को घर लौटने का अनुरोध किया. मयूरी की अस्वस्थता को देख स्मिता मयूरी को लेकर लौट गई.
मयूरी स्वामीजी की चर्चा में शामिल नहीं होना चाहती थी, पर सभी उनके प्रवचन का सार उससे सुनना चाहते थे. क्या सुनाए वह? उसके जीवन में एक तूफ़ान आ गया था. जिस अपराध को उसने किया ही नहीं, उसी का कहर उस पर टूटा जिसके पश्‍चाताप की ज्वाला में वह आजीवन जलती रही.
रात्रि का दूसरा पहर समाप्त होने को था, पर उसकी आंखों से नींद कोसों दूर थी. हवा का एक तीव्र झोंका आया और अतीत पर जमी गर्द ऊपर उठती गई, जिसने भूली-बिसरी स्मृतियों  को तीक्ष्ण कर दिया. रात की घनी नीरवता में सिमट कर वह अतीत के गलियारे में भटकती अपनी किशोरावस्था में जा पहुंची.
उस वर्ष उसने कॉलेज में दाख़िला लिया था. गर्मी की छुट्टियां होते ही उसे अपने चाचा की शादी में गांव जाना पड़ा. जीवन में पहली बार वह किसी गांव को देख रही थी. गांव के स्वच्छ एवं उन्मुक्त वातावरण में उसने बेहद आनंद का अनुभव किया.
गांव का सामाजिक जीवन आपसी रिश्तों की सुनहरी डोर से बंधा था. हर रिश्ते का एक नाम था. पड़ोस में रहनेवालों को सभी चाचा, ताऊ या मामा कहकर पुकारते, उनमें किसी प्रकार का दुराव-छिपाव नहीं था. बच्चे अपने आंगन में कम पड़ोसी के आंगन में अधिक खेलते थे. जहां भूख लगती, वहीं खा लेते.
मयूरी के दादाजी के निकटतम पड़ोसी थे मधुसूदन दास. दोनों परिवारों में बेहद घनिष्ठता थी. मधुसूदनजी की पत्नी शादी के रस्मो-रिवाज़ को निभाने की वजह से मयूरी के दादाजी के घर पर ही अधिकांश समय बिताती. ब्याह के गहनों को देखते हुए अचानक उसे शहर से आए अपने पुत्र पुष्कर का ध्यान आया. वह हड़बड़ाकर उठ बैठी.
“गहनों को मैं बाद में देखूंगी. अपनी पढ़ाई ख़त्म करके पुष्कर कल ही शहर से वापस आया है. वह भूखा मेरी राह देख रहा होगा.”
“अरे बैठो भी… बार-बार गहनों को निकालना इतना आसान नहीं होता… मयूरी… जा पुष्कर का खाना परोस दे.”
मयूरी दिनभर पुष्कर के बरामदे में सहेलियों के साथ गपशप लड़ाया करती थी.
उस परिवार के सभी सदस्य उसे बेहद स्नेह देते थे. पुष्कर चूंकि पिछली रात ही आया था, इसलिए परिचय नहीं हुआ था. वह स्नान करके तुरंत निकली ही थी कि उसे पुष्कर के घर जाना पड़ा.
पुष्कर अपने कमरे में बैठा किसी पत्रिका के पन्ने पलट रहा था. मयूरी को अचानक देख वह आश्‍चर्यचकित हो उठा. मयूरी साधिकार रसोई में जाकर उसका खाना परोस लाई.
“ताई ने कहा है खाना खा लें. उन्हें आने में देर होगी.” कहती हुई वह फिर रसोई में चली गई.
उसके अप्रतिम सौंदर्य को देख पुष्कर अभिभूत हो उठा. उसने कमरे की खिड़की से रसोई की ओर झांका. अपने खुले लहराते केश को लपेटने में बार-बार असफल होती मयूरी उसे बेहद भोली-सी लगी. दुपट्टे को संभालते उसे कमरे की ओर आता देख पुष्कर अपनी जगह पर पुनः जा बैठा.
“खाना अब तक शुरू नहीं किया न… दाल में घी देना भूल ही गई थी.” उसने कमरे में प्रवेश करते ही कहा.
कटोरे से वह घी निकाल रही थी तभी उसकी दृष्टि पुष्कर से जा टकराई. मुग्ध दृष्टि से उसे अपनी ओर देखते पाकर वह घबरा उठी. घबराहट में अधिक घी छलक कर दाल में जा गिरा.
“वाह! क्या प्रेम है… ख़ूब घी पिलाया जा रहा है पुष्कर भैया को.” पुष्कर की बहन सुमेधा हंस रही थी. तब तक कमरे में ताऊ भी आ गए. मयूरी अप्रस्तुत हो उठी. दुपट्टे को संभालती वह जो भागी तो घर जाकर ही दम लिया.
उस दिन के बाद से उसने मधुसूदनजी के घर की ओर जाना ही छोड़ दिया. विवाहोत्सव में मग्न होकर वह उस घटना को भूल गई.
बारात निकलने की तैयारी ज़ोर-शोर से हो रही थी. मयूरी ने आसमानी ज़रीदार लहंगा पहन रखा था. चाय की ट्रे लेकर आ रही थी कि एक मोहक स्वर उभरा,
“मुझे भी चाय मिलेगी?”
“क्यों नहीं…” चाय बढ़ाते हुए मयूरी ने दृष्टि ऊपर की तो सामने पुष्कर था. वह मयूरी को अपलक निहार रहा था.
“मुझसे ब्याह करोगी?” चाय का कप मयूरी के हाथ से लेकर उसने सीधा प्रश्‍न पूछा.
घबराई मयूरी ट्रे लेकर आगे बढ़ने लगी, तो उसने रास्ता रोक लिया, “मयूरी मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए. प्रथम भेंट में ही मैंने तय कर लिया था कि तुम नहीं तो कोई नहीं. विश्‍वास मानो मेरा, मैं आजीवन कुंआरा रह जाऊंगा.”
देवदूत से दुर्लभ सौंदर्य को देख मयूरी मुग्ध हो उठी. उसके कान गर्म हो उठे, चेहरा लाल हो गया, पर भावनाओं पर नियंत्रण रखकर वह वहां से चली गई.
चाचा के ब्याह के बाद ही मधुसूदनजी उसके विवाह का प्रस्ताव लेकर आए. सभी बेहद ख़ुश हो उठे. मयूरी की आंखों में इंद्रधनुषी सपने जाग उठे.
सारे सपने क्षणभर में ही चूर हो गए जब दादाजी ने कहा कि वह सजातीय होने के बाद भी उपजाति का है, इसलिए यह शादी नहीं हो सकती. उस दिन से दोनों परिवार के संबंधों में दरार-सी पड़ गई.
मयूरी के बीए करते ही उसका ब्याह दिल्ली में कार्यरत एक इंजीनियर से हो गया. मयूरी ब्याह के बाद दिल्ली आ गई. पति उसे बेहद प्यार करते. पहले निहार का जन्म हुआ, फिर सागरिका का.
सागरिका के जन्म के कुछ दिनों बाद ही अचानक उसकी पुष्कर की बहन से कनाट प्लेस में भेंट हो गई. उसके पति भी दिल्ली में ही कार्यरत थे.
“तुम्हारे ब्याह के बाद ही भैया घर छोड़कर चले गए. बहुत खोज की गई, पर उनका पता नहीं चला.” अश्रुपूरित नेत्रों से पुष्कर की बहन ने बताया.

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मयूरी स्तब्ध रह गई. उसके हृदय में एक टीस-सी उठी, “मेरे लिए उसने अपने जीवन की आहुति दे दी. मैं तो अपने संसार में रमी रही, कभी उसकी सुध न ली. संस्कारों से जकड़ी मैं कर भी क्या सकती थी. शादी-ब्याह के फैसले तो परिवार के बुज़ुर्ग करते हैं. हे ईश्‍वर वे कहीं भी रहें, उनके साथ रहना.”
समय ने करवट ली, बच्चे बड़े हो गए. सागरिका ब्याह कर मुंबई अपने पति के पास चली गई और निहार का ब्याह दिल्ली में ही हो गया. अपने जीवन की उलझनों के बीच कभी पुष्कर की याद आने से वह अपराधबोध से भर उठती. उसने पुष्कर से न तो कोई वादा ही किया था और न उसे धोखा ही दिया था, पर उसके घर छोड़ने का कारण तो वही थी. पुष्कर के परिवारवाले भी उसे ही कलंक लगाते होंगे.
वर्षों के लंबे अंतराल के बाद पुष्कर की याद अतीत के गर्भ में दफ़न हो गई थी. आज जब स्मिता की बुआ वगैरह स्वामीजी के जीवन से वैराग्य की कथा सुन रही थी तो वह भी बहुत लगन से सब सुन रही थी. उसे क्या पता था कि जिस स्वामी के दर्शनार्थ वह स्मिता की बुआ के घर जा रही है, वह कोई और नहीं, पुष्कर है. उसके परिवार वालों के कारण ही पुष्कर के हृदय को चोट पहुंची है. अपनी एकांगी प्रेम में असफलता के कारण ही उसे जीवन से वैराग्य हो गया और फिर हताशा में स्वतः ईश्‍वर की ओर रुख कर लिया. चोट खाने के बाद ही तो इंसान ईश्‍वर की शरण में जाता है.
पुष्कर के घर छोड़ने के वर्षों बाद तक वह रात्रि की नीरवता में सोचती, ‘कहीं वह आतंकवादी तो नहीं बन गया?’ घर-द्वार छोड़ने के बाद दिशाहीन व्यक्ति आख़िर जाएगा कहां? ईश्‍वर से वह उसके जीवित रहने की कामना करती. पुष्कर को अगर कुछ हो गया, तो वह स्वयं को आजीवन क्षमा न कर सकेगी. उसे जीवित देख उसने राहत की सांस ली.
पुष्कर के प्रति उसके मन में श्रद्धा के भाव जाग उठे, ‘राग-द्वेष, हर्ष-विषाद से यह इंसान बहुत दूर जा पहुंचा है. गंगा के समान पवित्र हृदय आज आकाश सदृश बृहद हो गया है. हृदय पर एक चोट खाकर इंसान इस तरह महान भी हो सकता है! भस्मीभूत हुए अपने सपनों से आहत उसने वैराग्य की धूनि रमा ली. उमड़ती भावनाओं व आकांक्षाओं को किस तरह उसने हृदय के गहनतम कोने में दफ़नाया होगा? उस क्षण कैसी मर्मांतक पीड़ा की तीव्र अनुभूति उसे हुई होगी.’
उसे महसूस हुआ आज प्रतिबद्ध लहनासिंह अपनी सूबेदारनी के सम्मुख खड़ा हो, सूबेदारनी के कथन का मान रखने के लिए लहनासिंह ने अपनी जान दे दी और पुष्कर ने जो कहा वह अपने जीवन की पूर्णाहूति देकर निभाया. उसे पुष्कर से लहनासिंह जैसी प्रतिबद्धता की आशा न थी. एक कसक के साथ उसका रोम-रोम सिहर उठा.

- लक्ष्मी रानी लाल

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