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कहानी- प्रेम की पराकाष्ठा (Short Story- Prem Ki Parakashtha)

“शशांक बेटा, मृणाल तुमसे अथाह प्रेम करती थी. ये प्रेम होता ही ऐसा है. जब कोई किसी से आत्मा की गहराई से प्रेम करता है, तो मृत्यु के बाद वो उससे मिलने की आस में भटकता रहता है. उसका सपना था तुम्हें पुरस्कार मिले, इसलिए ही तुमने उसे वहां देखा. उसकी आत्मा तुम्हारे लिए भटक रही है…"

आज जब मुझे आदिवासियों पर लिखे मेरे उपन्यास ‘आदिवासी- एक गुमनाम वर्ग' को सर्वश्रेष्ठ उपन्यास से सम्मानित किया जा रहा था, तो मेरी निगाहें सिर्फ़ मृणाल पर ही टिकी थी. उसकी तालियों की गूंज सीधा मेरे हृदय से टकराकर प्रेम की तान बजा रही थी. उसका सपना था मुझे सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में देखना, बस इसके लिए ही वो बहुत मुश्किल से थोड़ा-सा समय निकाल कर समारोह में आई थी.
'घर पहुंचकर सबसे पहले पिताजी से अपने और मृणाल के विवाह की बात करूंगा. बस, एक बार पिताजी इस रिश्ते के लिए तैयार हो जाएं, फिर मैं अपने प्यार को सदा के लिए अपना बना लूंगा. आज तक उन्होंने मेरी कोई बात नहीं टाली… पर अगर अपने रुतबे के आगे उन्होंने यह रिश्ता नामंज़ूर कर दिया तो.. नहीं नहीं… मुझे पूरा यक़ीन है पिताजी मेरी बात कभी नहीं टालेंगे…' अपने ही विचारों में उलझा कब मैं अतीत की गलियारों में घूमने लगा मुझे इस बात का आभास ही नहीं हुआ.
गांव में पुश्तैनी हवेली के सौदे के सिलसिले में मेरा गांव जाना हुआ. सोंधी मिट्टी की ख़ुशबू, आम से भरे वृक्ष, कलरव करती नदी और हरे-भरे खेत शरीर और हृदय को असीम सुख दे रहे थे. पिताजी ने रामू काका से कह मेरे रहने की व्यवस्था डाक बंगले में कर दी थी. रामू काका पिताजी के सबसे पुराने और भरोसेमंद सेवक थे. उन्होंने मुझे अपनी गोद में खिलाया था, इसलिए मुझ पर वे अत्यंत स्नेह रखते थे. सफ़र की थकावट की वजह से मुझे जल्दी नींद आ गई थी. सुबह मैं बालकनी में खड़ा था कि अचानक मेरी नज़र सामने आम के पेड़ से आम तोड़ती एक लड़की पर पड़ी. उसे देखते ही मैं तो उसे देखता ही रह गया. गोरा रंग, कजरारी आंखें, लंबे-घने केश, कंचन-सी काया… कुल मिलाकर अत्यंत ख़ूबसूरत. मैं तो उसके सम्मोहन के मोहपाश में बंध गया. मैं अपलक उसे निहार रहा था कि “शशांक बेटा, एक घंटे में ठाकुर साब से मुलाक़ात है. आप तैयार हो जाएं." रामू काका की आवाज़ से मेरी तंद्रा भंग हुई. रामू काका गांव में रहते थे, अतः मैंने अपनी जिज्ञासा उन्हीं के समक्ष प्रस्तुत की.
"रामू काका, वो लड़की कौन है?"
"कौन वो, वो मृणाल है. आदिवासी कन्या है. पास के गांव में रहती है."
"कहने को तो वो एक आदिवासी कन्या है, पर अब कहां वो आदिवासियों के कबीले रहे. कुछ गुमनामी में साए में खो गए, तो कुछ समय के साथ परिवर्तित हो गए. मृणाल आदिवासियों के मुखिया की बेटी है. समय के साथ सबकी सोच बदल गई. खानाबदोश कबीलों के कारवां अब कबीले गांव में बदल गए. शिकार छूट गए. खेती आमदनी का ज़रिया बन गया. वक़्त के साथ उनके बच्चे भी पढ़ने-लिखने लगे. मृणाल भी पासवाले शहर में कॉलेज में डॉक्टरी पढ़ती है. बहुत ही प्यारी लड़की है. अच्छा आप जल्दी तैयार हो जाएं." कहकर रामू काका चले गए.
मृणाल के मिलने के लोभ ने मुझे हवेली का सौदा तय नहीं करने दिया. अब मैं अक्सर गांव जाने लगा. धीरे-धीरे वक़्त के साथ मेरी मृणाल के साथ जान-पहचान और मुलाक़ातें हुईं. मुलाक़ातों ने कब प्रेम का रूप ले लिया पता ही नहीं चला.


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हम अक्सर गांव की नदी के किनारे घंटों बैठकर अपने सुनहरे भविष्य के सपने संजोते थे.
किंतु कहीं न कहीं हम दोनों के हृदय में हमारे मिलन का संशय था… वो एक आदिवासी और मैं ज़मींदारों का पुत्र. मुझे यक़ीन था पिताजी हमारी शादी के लिए ज़रूर मान जाएंगे और यही भरोसा मैंने उसे भी दिलवाया.
उसे पता चला की मैं आदिवासियों पर उपन्यास लिख रहा हूं, तो उसने मेरी इसमें हर संभव मदद की. उसका एकमात्र सपना था मुझे सर्वश्रेष्ठ लेखक का पुरस्कार ग्रहण करते देखने का. हमारा प्रेम वक़्त के साथ-साथ और गहरा होता चला गया. मृणाल डॉक्टर बनकर आदिवासियों के लिए एक हॉस्पिटल बनवाना चाहती थी, जिसमें मैंने अपना सम्पूर्ण सहयोग देने का वादा किया. इधर मृणाल अपनी परीक्षाओं में व्यस्त हो गई और मैं अपने उपन्यास में. बस इसी कारण मैं एक महीने से उससे मिल नहीं पाया था, किंतु फोन पर हमारी निरंतर बात होती थी.
जब मैंने उसे अपने सर्वश्रेष्ठ लेखक में चयनित होने के विषय में बताया था, तो उसकी ख़ुशी चरम सीमा पर थी. मैंने जब उससे समारोह में आने को कहा, तो उसने बस थोड़ी देर के लिए आने का वादा किया.
“शशांक, बेटा शशांक…” पिताजी की आवाज़ से मैं वर्तमान में वापस आ गया.
“मुबारक हो शशांक बेटा! आज तुमने मेरा सिर गर्व से ऊंचा कर दिया. मांगों जो मांगना है."
“पिताजी, मैं मृणाल से विवाह करना चाहता हूं.”
“मृणाल..?”
“मैंने आपको पहले भी बताया था न उसके विषय में, जिससे मैं गांव में मिला था. आदिवासी है, पर डॉक्टर है.“
“ओह हां.. हां… याद आया.“
“मैं उससे बहुत प्यार करता हूं पिताजी, बस आपका आशीर्वाद चाहता हूं.“
मेरी बात सुनकर एक पल तो पिताजी जड़वत हो गए थे, किंतु दूसरे ही पल उन्होंने हमारे विवाह पर अपनी स्वीकृति दे दी थी. मारे ख़ुशी से मैं बावरा हुए जा रहा था.
“हेलो मृणाल, मृणाल पिताजी ने हमारे विवाह की स्वीकृति दे दी है. कल मैं गांव पहुंचकर तुम्हारे पिताजी से बात करके सदा के लिए तुम्हें अपना बना लूंगा.”


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“शशांक मेरे जिस्म और आत्मा पर सिर्फ़ तुम्हारा अधिकार है. मैं तुम्हारे आने की प्रतीक्षा वही नदी किनारे करूंगी.“
उसके इस उत्तर ने मुझे थोड़ा हैरान तो किया, पर फिर मैंने सोचा गांव पहुंचकर उसे मना लूंगा.
सुबह कितनी ख़ुशनुमा-सी प्रतीत हो रही थी. ऐसा लग रहा था मानो ये काले-काले मेघ हमारे प्रेम के साक्षी बन रहे हों. ये बारिश हमारे मिलन के गीत गा रही हो.
गांव पहुंचकर मैंने रामू काका से कहा, ”आपको पता है रामू काका पिताजी हमारे विवाह के लिए राज़ी हो गए हैं.“ मेरी बात सुनकर वे अत्यंत हैरान-परेशान हो गए.
“क्या बात है काका? आप कुछ परेशान हैं? कहीं मृणाल का विवाह किसी और के साथ तो नहीं हो गया.“
“बेटा मरे हुए लोगों के भी कभी विवाह होते हैं.“ उनकी बात सुनकर मेरे हाथ से चाय का कप छूट गया.
“मरे हुए… आप कहना क्या चाहते हैं काका?“ उनकी बात सुन कर मैं व्यथित हो गया.
“बेटा, मृणाल की मृत्यु हुए एक महीना हो चुका है."
“मृत्यु… ऐसा कैसे हो सकता है काका, पिछले एक महीने से मैं उससे निरंतर फोन पर बात कर रहा हूं. कल ही तो मैंने उसे समारोह में देखा था. मुझे पुरस्कार ग्रहण करते देख अत्यंत ख़ुश भी थी. और तो और… मैंने उसे फोन करके अपने विवाह की स्वीकृति के विषय में बताया था. उसने कहा था कि वो नदी किनारे मेरी प्रतीक्षा करेगी."
“बेटा, पिछले महीने तुम्हारे पिताजी यहां आए थे. उन्हें एक आदिवासी से तुम्हारा रिश्ता क़तई मंज़ूर न था. उन्होंने मृणाल से मुलाक़ात की थी. उस मुलाक़ात में क्या हुआ… क्या बात हुई किसी को नहीं पता. बस अगले दिन मृणाल की लाश नदी किनारे तैरते हुई मिली थी.“
उनकी बात सुनकर मेरा मस्तिष्क शून्य हो गया. हृदय की धड़कन रुक-सी गई. शरीर का सारा रक्त ठंडा पड़ गया. जो मौसम मुझे सुबह ख़ुशनुमा लग रहा था, अब वही बारिश मुझे शूल की तरह चुभ रही थी.
“तो वो कौन थी, जिससे मैं फोन पर बात करता था और जिसको मैंने कल समारोह में देखा था?.."
मैं अवचेतन हो गया था. यकायक मुझे उसकी बात स्मरण हो गई कि वो नदी किनारे मेरी प्रतीक्षा करेगी. मैंने रामू काका को सारी बात बताई, तो वे बोले, “शशांक बेटा, मृणाल तुमसे अथाह प्रेम करती थी. ये प्रेम होता ही ऐसा है. जब कोई किसी से आत्मा की गहराई से प्रेम करता है, तो मृत्यु के बाद वो उससे मिलने की आस में भटकता रहता है. उसका सपना था तुम्हें पुरस्कार मिले, इसलिए ही तुमने उसे वहां देखा. उसकी आत्मा तुम्हारे लिए भटक रही है. वो नदी पर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही होगी. जाओ बेटा, उससे मिलकर उसे मुक्ति दे दो…“
मैं फटाफट नदी की तरफ़ भागा. वहां मृणाल मेरी प्रतीक्षा कर रही थी. उससे मिलकर मैंने सदा के लिए उसे मुक्त कर दिया. उसकी मुक्ति के साथ ही हमारा प्रेम सदा के लिए अमर हो गया.
पिताजी से इस विषय में मैंने कोई बात नहीं की, पर मृणाल को मैं कभी भूल नहीं पाया. मेरे लिए तो वो आज भी मेरा साया है. अपने जीवन में मैं मृणाल की जगह किसी और की कल्पना भी नहीं कर सकता, अतः मैंने अपना शेष जीवन उसकी यादों के सहारे ही व्यतीत करने का निश्चय किया. शायद मेरी ओर से उसे ये श्रद्धांजलि थी और पिताजी के लिए प्रायश्चित.

कीर्ति जैन
कीर्ति जैन

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