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कहानी- रेजोल्यूशन (Short Story- Resolution)

तभी नए साल के आने की दस्तक होने लगी. बढ़ते ठंड के साथ-साथ लोगों में नए साल का उत्साह भी बढ़ता जा रहा था. लेकिन स्निग्धा के लिए समय ठहर सा गया था. उसके मन में कोई उमंग नहीं थी. कैसा नया साल! जब जीवन पुराने ढर्रे पर ही चल रही हो!..

सर्द शाम का झुटपुटा अंधेरा बाहर धीरे-धीरे अपना पैर पसार रहा था. दूर बस्तियों के घरों से उठता धुंआ पेड़ों के ऊपर जमकर वातावरण को एक अलग ही जादुई एहसास से भर रहे थे. मानो किसी रहस्यमयी उपन्यास का दृश्य उभरता जा रहा हो. 

चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था. इस हाड़ कंपाने वाली सर्दी में कुछेक रोज़ी-रोटी के मारों को छोड़कर भला कौन घर से बाहर निकलना चाहेगा. सभी दुबके से अपने घरों में पड़े थे. 

इस कनकनाहट में एक स्निग्धा के मन में ही कुछ सुलगता रहा था, जो उसके तन-मन को भी सुलगा दे रहा था. बाहर के उन मनोरम दृश्यों से मुंह फेर वह अपने लिए चाय का कप तैयार करने लग गई. 

तभी उसकी नज़र हॉल में टंगी घड़ी पर पड़ी. छह बजने वाले थे. बस कुछ ही देर में विनोद आ जाएंगे. उसके बाद...

बाहर का वो सन्नाटा अपने भयावह रूप में अंदर भी पसर जाएगा. कितनी गर्मियां बीत गई थीं, लेकिन उसके और विनोद के बीच रिश्तों की जमी बर्फ़ पिघल ही नहीं पाई थी. 

क्या यही दिन देखने के लिए उसने अपने माता-पिता के ख़िलाफ़ जाकर विनोद से प्रेम विवाह किया था?. अपने आप पर भुनभुनाते हुए वह पुरानी यादों में खो गई.

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"विनोद, तुम जाकर पापा से बात करो. मुझे हिम्मत नहीं हो रही यह कहने की उनसे." स्निग्धा ने कॉलेज की कैंटीन में विनोद से डबडबाई आंखों से बोल रही थी. विनोद थोड़ी देर गम्भीर बने रहा फिर बोला, "रुको मेरे इंटरव्यू का रिजल्ट आने दो. फिर बात करता हूं, वरना अंकल सोचेंगे कि किस फक्कड़ से उनकी बेटी शादी करने वाली है."

यह सुनकर स्निग्धा के सौम्य चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई थी और मन विनोद के प्रति सम्मान से भर गया था. उसे लगा कि उसकी पसंद कितनी अच्छी है. कितनी गम्भीरता से परिस्थितियों को लेते हैं विनोद. कोई जल्दबाज़ी नहीं. कोई अविश्वास नहीं.

फिर वो पल भी आया जब विनोद अपने इंटरव्यू में पास हो गए. स्निग्धा और विनोद का तो जैसे सपना पूरा हो गया. अब वे एक साथ रहेंगे, यह कल्पना ही उन्हें रोमांचित कर रही थी.

एक दिन सही समय देखकर विनोद ख़ुद स्निग्धा के घर पहुंच गए. घर की बैठक में ही स्निग्धा के पिताजी बैठे थे अख़बारों को पलटते हुए. विनोद ने दरवाज़े पर नॉक कर उनका ध्यान आकृष्ट किया. उन्होंने बैठे हुए उसे अंदर आने का इशारा किया. 

आकर विनोद ने बड़े सभ्य तरीक़े से उन्हें प्रणाम किया. पिताजी ने फिर उसे अपने सामने के सोफे पर बैठने का आदेश दिया.

"और बताओ कौन हो तुम और इधर कैसे आना हुआ?" अख़बारों में नज़र गड़ाए वो विनोद से सवाल किए.

"जी, मैं विनोद... मैं और स्निग्धा एक साथ ही मास्टर्स कर रहे हैं. मैं पढ़ाई के साथ-साथ प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी भी कर रहा था. अभी हाल ही में बैंक मैनेजर की परीक्षा पास की मैंने." विनोद एक सांस में ही सब बोल गया. ऊपर से छिप कर सब कुछ देख रही स्निग्धा मन ही मन उसकी इस अवस्था पर हंस दी.

"अच्छी बात है. लेकिन इसमें मैं क्या करूं?" अस्सी के दशक की फिल्मों के पिता की तरह उन्होंने विनोद से फिर सवाल किया.

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"जी मैं आपकी पुत्री स्निग्धा से विवाह करना चाहता हूं और आपको वचन देता हूं कि मैं उसे हमेशा ख़ुश रखूंगा." विनोद ने अपने मन की बात उनके सामने रख दी. 

उंगलियों को क्रॉस की मुद्रा में रखे विनोद और स्निग्धा पिताजी के फ़ैसले की प्रतीक्षा करने लगे. 

"क्या ज़माना है! बच्चे ख़ुद ही अपने विवाह की बात करते हैं. अपने पिताजी को भेज देना, ताकि आगे की रूपरेखा तय कर सकें हम बूढ़े." इतना कहकर प्यार से विनोद के सिर पर आशीर्वाद भरा हाथ रख दिया उन्होंने.

और फिर वह दिन भी आया जब स्निग्धा दुल्हन बन अपने सपनों के घर आ गई. 

कितने प्यार से उन दोनों ने अपने नीड़ को संवारा था. एक-एक चीज़ ख़रीद कर घर में जमाते रहे. दोनों बहुत ख़ुश थे. एक दूसरे के साथ उन्हें दुनिया की ख़बर नहीं रहती. 

लेकिन कहते हैं न नज़र लगते देर नहीं लगती. उनकी ख़ुशहाल गृहस्थी विनोद के दोस्तों को खटकने लगी. वे बहाने कर-कर विनोद को अपने घर बुलाने लगे. देर रात तक पार्टी, खाना-पीना चलता. शुरू-शुरू में विनोद मना करता रहा, लेकिन उनके चंगुल में वो फंस ही गया. रोज़ देर से आने के कारण स्निग्धा भी चिंतित रहने लगी. उसने विनोद को आगाह भी किया, लेकिन अफ़सोस कि वह उसकी बातों को भी अनसुनी करने लगा. उसकी अच्छाई कहीं खो गई और फिर वही कलह और उनके बीच की गहराती खाई. जीवन मानो निर्जीव और यंत्रवत हो गया. ज़रूरत की चीज़ें कभी विनोद लाते तो कभी स्वयं स्निग्धा. उनके बीच का वो प्रेम कहीं मर सा गया था. 

शुरू-शुरू में स्निग्धा ने अपने प्रेम का वास्ता देकर उसे बदलने की बहुत कोशिश की, लेकिन सब व्यर्थ. कितने अरमानों से उसने घर-गृहस्थी जमाई थी. अब तो जैसे वो भी पत्थर की हो गई थी. चुपचाप, गुमसुम पड़ी रहती. ढूंढ़-ढूंढ़ कर घर के कामों में ख़ुद को व्यस्त रखती.

आते-जाते विनोद की नज़रें जब स्निग्धा की नज़रों से टकरातीं तो वो नज़र झुका कर गुज़र जाता. वो भी अपने को बदलना चाहता था, लेकिन बदल नहीं पा रहा था. उससे भी स्निग्धा की यह दशा देखी नहीं जा रही थी.

तभी नए साल के आने की दस्तक होने लगी. बढ़ते ठंड के साथ-साथ लोगों में नए साल का उत्साह भी बढ़ता जा रहा था. लेकिन स्निग्धा के लिए समय ठहर सा गया था. उसके मन में कोई उमंग नहीं थी. कैसा नया साल! जब जीवन पुराने ढर्रे पर ही चल रही हो!..

उधर विनोद और उसके दोस्तों ने इकत्तीस दिसम्बर की रात नए साल के स्वागत में पार्टी रखी. हर चीज़ का इंतज़ाम किया जाने लगा पार्टी के लिए. सभी लड़के जोश में थे और फिर इकत्तीस दिसम्बर आ गया.

हर जगह नए साल के स्वागत की धूम मची थी. हर कोई अपनी तरफ़ से इसी कोशिश में लगा था कि आज की शाम यादगार बन जाए. 

विनोद और उसके दोस्त एक होटल में जमा हुए. जमकर खाना-पीना हुआ. तेज़ गति के म्यूज़िक सिस्टम में पैर थिरकने लगे. धीरे-धीरे यह थिरकन, उनके डगमगाने में तब्दील होने लगी. लेकिन आज विनोद का मन इन सब में नहीं लग रहा था. किसी उधेड़बुन में खोया हुआ वह चुपचाप बैठा रहा. 

"चलो यार, न्यू ईयर के इस ख़ास मौक़े पर हम सब एक रेजोल्यूशन करते हैं कि हम सब हमेशा साथ रहेंगे. कभी एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ेंगे." मिहिर ने ड्रिंक का घूंट भरते हुए कहा. 

"क्यों विनोद करते हो यह रेजोल्यूशन?" उसने विनोद को टारगेट करते हुए कहा. विनोद मुस्कुरा दिया. 

कहीं अन्तस में उसे स्निग्धा की याद आ रही थी. 

उसका उदास चेहरा उसकी आंखों के आगे घूम रहा था. 

यह वही चेहरा था जिसकी मुस्कान बनाए रखने का उसने स्निग्धा के पिता से वादा किया था. 

विनोद को अपनी ग़लती का एहसास हो रहा था.

"विनोद, तुमने कुछ जवाब नहीं दिया! करते हो रेजोल्यूशन?" मिहिर ने उसे झकझोरते हुए कहा.

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"हां... हां... रेजोल्यूशन तो करना है. कभी साथ नहीं छोड़ने का. लेकिन उसके पहले मुझे कुछ ज़रूरी काम करना है. तुम लोग एंजॉय करो. मैं अभी आता हूं." इतना कहकर विनोद वहां से बेचैनी में निकल गया. जैसे कोई चीज़ छूट रही हो. 

दरवाज़े पर ज़ोर-ज़ोर से खटखटाहट हो रही थी. स्निग्धा कमरे में अनमने बैठी थी. जैसे कुछ होश नहीं हो उसको. दरवाज़े की खटखट से उसकी तंद्रा भंग हुई. वह भागती आई. दरवाज़े खोलने पर देखा विनोद खड़े थे. बेचैन से, परेशान से…

"क्या हुआ? इतने परेशान क्यों हैं? सब ठीक है न?" स्निग्धा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

विनोद ने कुछ जवाब नहीं दिया. बस स्निग्धा के हाथों को अपने हाथों में ले लिया और रुंधे गले से बोला, "ठीक ही तो नहीं था कुछ. अब ठीक करना है."

"मुझे माफ़ कर दो स्निग्धा. मेरी वजह से तुम्हें बहुत तकलीफ़ हुई है. मैं अपने दिए वचन को निभा नहीं सका. तुम्हें ख़ुश नहीं रख सका. फिर भी तुमने हमेशा मेरा ख़्याल रखा."

स्निग्धा चुपचाप सुनती जा रही थी. 

"आज इकत्तीस दिसंबर है. कल से नया साल आ जाएगा. मैं भगवान की क़सम खाकर कहता हूं कि अब मेरी तरफ़ से तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं होगी. मैं एक अच्छा जीवनसाथी बनने की कोशिश करूंगा. यही मेरे लिए नए साल का रेजोल्यूशन है. जिसे मैं हर हाल में निभाने की कोशिश करूंगा."

बाहर पटाखों के शोर के बीच नया साल दस्तक दे रहा था और अंदर प्रेम.

अलका 'सोनी'

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Photo Courtesy: Freepik

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