यह सुनकर मैं अवाक रह गया. यद्यपि मैं भाभी व नेहा के भविष्य की चिंता में घुला जा रहा था, किंतु मैंने स्वप्र में भी यह समाधान न सोचा था.
आज फिर नेहा के उसो प्रश्न ने अंतर्मन को बेध कर रख दिया, "चाचा, आप पापा को लेने कब जाएंगे?" काश, नन्हीं सी जान को वास्तविकता का बोध होता. यह मासूमियत भी कितनी निर्दोष थी. पांच वर्षीया नेहा, जीवन का वह भयावह अंत जान ही न पाई, जिसे मृत्यु कहते हैं. मैं भी कहां जानता था, भैया को तिल-तिल कर मरते न देखा होता. तो भला मैं भी क्या जानता कि मृत्यु के क्रूर पंजे कितने घातक होते हैं, जो केवल एक प्राणी को लेकर ही नहीं चले जाते, वरन् उसके पीछे रह जाने वाले परिवार के सदस्यों को भी जीवित ही नर्क में झोंक देते हैं.
भैया तो बर्फ़ सी ठंडी मृत्यु का आलिंगन कर गहरी पीड़ा से मुक्त हो गए, पर निरुपाय माता-पिता, जीवन-मृत्यु की त्रासदी से अनभिज्ञ नेहा और वैधव्य की श्वेत चादर ओढ़े हुए पत्नी को चिरवियोग की त्रासदी सौंप गए. भैया-भाभी का प्रेम विवाह हुआ था और दुर्भाग्य ने दोनों बार मुझे ही उनके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका सौंपी गई थी.
भैया के प्रेम का भी मैं ही साक्षी था. मुझे अबोध जान वे निर्भय भाव से प्रेमपत्रों का आदान-प्रदान करवाया करते थे. अंत में मैं ही उनकी पल-पल निकट आती मृत्यु का भी साथी बना. मां और भाभी तो अंत तक न जान सकी थीं कि उन्हें कैंसर था.अंत तक उन्हें आशा बनी रही कि भैया स्वस्थ हो कर अस्पताल से लौट आएंगे. पूजा-पाठ, मंदिर-दरगाह कुछ भी तो नहीं छोड़ा गया. भाभी ही क्यों, घर के सभी सदस्य किसी-न-किसी चमत्कार की आशा में जी रहे थे.
मिर्ज़ापुर रहने वाले मौसेरे भाई गोपाल को किसी ने बताया कि अख़बार में कैंसर के शर्तिया इलाज के विषय में कोई लेख निकला है. गोपाल भैया उसी क्षण से वो समाचार पत्र खोजने लगे. चार घंटे के अथक परिश्रम के पश्चात् पांच माह पूर्व प्रकाशित वह इच्छित लेख मिला लेख में चिकित्सक का केवल नाम भर था. लेख की कटिंग लेकर भैया उसी क्षण टैक्सी से लखनऊ रवाना हो गए. सीधे अख़बार के दफ़्तर पहुंचे. डॉक्टर का पता मांगा. संयोग से डॉक्टर लखनऊ के ही थे. तुरंत उनसे मिले. समस्त रिपोर्ट देख कर उनके मुख पर नैराश्य छा गया. संभवतः आगत मूत्यु का एहसास वे कर चुके थे, किन्तु सांत्वना के लिए उन्होंने एक दवा दे दी. गोपाल भैया दवा लेकर यथाशीघ्र अस्पताल पहुंचे, किन्तु तब तक जीवन-मृत्यु से जूझते भैया कोमा में जा चुके थे. सब हाथ मल कर रह गए.
अपूर्व भैया की मृत्यु से दो दिन पूर्व पापा ने मां से कहा था, "अब कुछ नहीं हो सकता, शान्ति के लिए पाठ करो." प्रत्युत्तर में मां बौखला कर गरज पड़ीं, "शर्म नहीं आती जवान बेटे के लिए ऐसा कहते?"
पापा ने अपराधी की भांति गर्दन झुका ली. क्लांत स्वर में बोले, "अपूर्व की मां, जो रिश्ता तुम्हारा उससे है, वही मेरा भी है. पर जो सत्य है, उसका सामना करो."
मां छटपटाई, गला आवेग से रुंध गया, "ऐसा अशुभ न कहो, ईश्वर इतना अन्यायी नहीं है. वह हमें इतना बड़ा दुख न देगा." मां अब भी आशान्वित थीं, किन्तु पापा के मुख पर अंकित मृत्यु की स्याही एकदम स्पष्ट थी.
अपूर्व भैया को यदा-कदा पेट में भयंकर पीड़ा होती थी, जिसे गैस से उत्पन्न दर्द मान कर भैया दर्द निवारक गोली खा लिया करते थे. यूं भी भैया बड़े लापरवाह जीव थे.
मां कहतीं, "डॉक्टर को दिखा क्यों नहीं लेता? पेट में अक्सर ही दर्द उठता है." प्रत्युत्तर में भैया विनोद से कहते, "डॉक्टर तो बस रोग बताकर पैसा एठेंगे, मुझे कुछ नहीं हुआ. सभी को कभी-कभी पेटदर्द होता ही है. तुम चिन्ता न करो, मैं मरने वाला नहीं."
मां बड़बड़ाते हुए वहां से हट जातीं. भैया बड़े हंसमुख थे. एक बच्ची के पिता बन जाने के पश्चात भी उनका स्वभावगत बचपना कायम था. प्रतिपल हंसते-मुस्कुराते, भाभी को छेड़ते-हंसाते रुलाते रहते थे.
नेहा का घोड़ा बन कर सारे घर में राउंड लगाते. भैया के लाड़-प्यार ने नेहा को इतना बिगाड़ दिया था कि भैया को बैंक से लौटते ही वह घोड़ा बना कर ही दम लेती. मां के डांटने पर दहाड़ मार कर रोती. फिर प्रारम्भ होता पिता-पुत्री का रूठने-मनाने का लंबा सिलसिला, जिससे भाभी बहुधा चिढ़ जातीं.
कितना ख़ुशहाल घर था हमारा. दुख की परछाई तक न थी. भैया बैंक में प्रबंधक थे. उनका बैंक शहर से दूर था, अतः वे शीघ्र घर से निकल जाते और रास्ते में पड़ने वाले मित्रों-संबंधियों को खटखटा आते. छुट्टी के दिन घर में उत्सव की सी धूम मची रहती. तमाम लोग घेरे रहते. मां और भाभी सारे दिन अतिथियों की आवभगत में व्यस्त रहतीं.
वही पेट दर्द धीरे-धीरे बढ़ता गया. जांच करवाने से पता चला कि पित्ताशय में पथरी है. भैया सुन कर हंस पड़े, "अब पेट के अन्दर भी कंकड़-पत्थर होने लगे. कहीं हीरा न निकले." यथासमय ऑपरेशन हुआ, हीरा तो क्या, हां पथरी में मवाद पड़ जाने से वह साधारण पथरी कैंसर में परिवर्तित हो चुकी थी. तुरंत लखनऊ के संजय गांधी इन्स्टीट्यूट में भर्ती करवाया गया, किन्तु तब तक बड़ी देर हो चुकी थी. मृत्यु को धोखा देने का प्रयास ज़ारी रहा. हम दवा-दुआ के ज़ोर से मृत्यु को जितने दिन टाल सकते थे, टालने का प्रयास करने लगे.
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अपूर्व भैया को अपनी बीमारी की गम्भीरता का एहसास तक न था. वे अस्पताल के वातानुकूलित प्राइवेट कमरे में ख़ूब प्रसन्न थे. मिलने आने वालों से हंस-हंस कर बातें करते. डॉक्टरों से मज़ाक करते. हम सब भी उनके समक्ष सामान्य बने रहते. मां और भाभी को तो कुछ पता ही न था.
क्षण-प्रतिक्षण काल उनकी ओर बढ़ रहा था. हम सब निरुपाय हो क्षीण होती सांसों को गिन रहे थे. जीवन के प्रति सांसों का अनुबंध कितना क्षणिक है, यह तभी मैं जान पाया, डॉक्टर ने स्पष्ट बता दिया था कि अब कुछ ही दिन शेष हैं, पर मन अब भी सत्य को स्वीकार नहीं रहा था. किसी ने बताया कि आलमबाग के आगे चमत्कारी बाबा रहते हैं, उनके प्रसाद से मुर्दे भी जी उठते हैं. आधी रात को भाग कर वहां भी पहुंचे. बाबा ने भैया की कुण्डली देखी. वे विचार में डूब गए. पापा की आशान्वित पनियाई आंखों से वे आंख न मिला सके. जवान बेटे के अब कुछ ही दिन शेष रह गए है, यह उस औधेड़ बाबा के मुख से भी न निकल सका. निःशब्द एक चुटकी राख थमा वे समाधि में लीन हो गए.
पसीने से तर हथेली में भींचे पापा हांफते हुए अस्पताल पहुंचे. राख जब अपूर्व भैया के मस्तक पर लगाई तो सदा हंसते रहने वाले भैया फूट-फूट कर रोने लगे. कट्टर नास्तिक-वैज्ञानिक पापा के समस्त तर्क युवा पुत्र को मृत्यु की गोद में जाते देख तिरोहित हो चुके थे.
जिसने जीवनभर ढोंग, आडम्बरों की भर्त्सना की, उसी ने आज पुत्र के जीवन के लिए उनके द्वार पर झोली फैलाई. भैया अपनी पीड़ा से कम पापा के दुख से अधिक व्याकुल थे.
हमारा परिवार अभिजात्य वर्ग का बुद्धिजीवी परिवार था. मां स्वयं विदुषी थीं, भाभी विज्ञान की शोध छात्रा थीं, घर में अंधविश्वास न था. किन्तु भैया की बीमारी ने समस्त बुद्धि विवेक का अपहरण कर लिया. मां व भाभी निरक्षर की भांति जो जैसा बताता, करतीं. मृत्यु को टालने के लिए घर में महा मृत्युंजय जाप निरंतर हो रहा था,
पर मृत्यु को कोई कब तक छल सका है. अपूर्व भैया की किडनी ने काम करना बंद कर दिया. प्रति सप्ताह उन्हें डायलिसिस पर रखा जाने लगा. मृत्यु के दो दिन पूर्व डॉक्टरों ने स्पष्ट बता दिया कि किडनी का आकार अब काफ़ी बड़ा हो गया है, यदि अब उन्हें डायलिसिस पर रखा गया तो रक्त चढ़ते ही किडनी फट जाएगी. तब खून की भयंकर उल्टियां होंगी और रोगी उल्टी करते-करते मर जाएगा और यदि डायलिसिस नहीं दिया गया तो रक्त में यूरिया की मात्रा निरंतर बढ़ती जाएगी और मृत्यु हो जाएगी.
एक ओर कुआं तो दूसरी ओर खाई. दोनों ओर मृत्यु अपने डरावने पंजे फैलाए, घात लगाए बैठी थी. रक्त वमन करते देखना होगा या फिर दर्द से छटपटाते, कोमा में जाते देखना होगा, तीसरा विकल्प न था. काश, हमारे वश में इच्छामृत्यु की सुविधा होती. जब मृत्यु अवश्यंभावी है, कम-से-कम तब तो मनुष्य मृत्यु का शांतिपूर्वक आलिंगन कर पाता, किन्तु यहां तो ऐसा भी अपने हाथ में न था.
अंत में डॉक्टरों से विचार-विमर्श के उपरान्त, डायलिसिस न देने का निश्चय किया गया. देखते ही देखते अपूर्व भैया रक्तपीड़ा से तड़पने लगे. ज्यों-ज्यों रक्त में यूरिया की मात्रा बढ़ती जाती, हालत बिगड़ती जाती. हम सब विवश काठ बने देखते रहे. शोक विह्वल भाभी के मुख पर आगत वैधव्य की करुण कथा अंकित थी. माता-पिता स्तब्ध खड़े रह गए, भैया कोमा की स्थिति में चले गए. अब न तड़प थी, न छटपटाहट, निश्चल पड़ी देह डॉक्टरों के मतानुसार जीवित थी, जिसमे आती-जाती श्वासों के अतिरिक्त जीवन का कोई लक्षण न था.
दो घंटे के पश्चात् भैया सांसों के बन्धन से भी मुक्त हो गए. भैया तो मुक्ति पा गए, किंतु शेष रह गए हम पांच प्राणी. मृत्यु से भी घातक वेदना को सहन करने के लिए.
क्षण-क्षण मूर्छित होती मां और भाभी को संभालते मुझे रोने का भी अवकाश न था. वृद्ध पिता के अशक्त कन्धों पर युवा पुत्र की अर्थी निकली.
२६ वर्षीया भाभी के माथे पर वैधव्य की अमिट राख मल दी गई. समस्त त्रासदी से अनभिज्ञ नन्हीं नेहा अब भी पिता के स्वास्थ्य के लिए ईश्वर से याचना करती, जिसे सहृदय प्रतिवेशी भैया का शव घर आते ही अपने घर उठा ले गए थे और जो अब तक इसी भ्रम में थी कि उसके पिता अस्पताल में हैं.
वह दिन में कई बार मुझसे कहती, "चाचा आप मुझे पापा के पास ले चलिए. अब वे ठीक हो गए होंगे, उन्हें घर लाइए."
"हां बेटा, हम चलेंगे...", आगे के शब्द गले में ही अवरुद्ध हो जाते. मैं नेहा को अंक में समेट कर सामान्य दिखने का असफल अभिनय करता.
एक-एक दिन घिसट-घिसट कर सरक रहा था. घर के प्रत्येक सदस्य के मुख पर मानो मृत्यु अपनी काली परछाई छोड़ गई थी. शोक संवेदना प्रगट करने आए मित्र प्रतिवेशी अनजाने ही स्मृति की राख में दबी दुखद चिंगारी को हवा दे जाते. हृदय का घाव हरा हो जाता. भाभी संज्ञाशून्य हो जातीं, मां पथरा जातीं. पिताजी अन्दर ही अन्दर घुटते रहते.
यह शोक समय के मरहम से भरने वाला न था. प्रतिदिन खाने की मेज पर उनका खाली कोना उनके न रहने की पुष्टि करता. कोई भी ठीक से न खा पाता.
नेहा समझदार होते ही स्वयं के अनाथ होने का सत्य जान जाएगी. भाभी की पहाड़ सी ज़िन्दगी, बिन पतवार की नाव की भांति मंझधार में डूब जाएगी. हम सब भाभी को सामान्य रखने का प्रयत्न करते, पर निष्फल रहते.
भाभी को भैया के बैंक में नौकरी मिल गई. घर से बाहर निकलने से उनका कुछ ध्यान बंटने लगा. नेहा पूर्ववत स्कूल जाने लगी. भाभी उसकी पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त रहने लगीं.
कुछ माह पश्चात् भाभी के माता-पिता ने उन्हें अपने साथ ले जाना चाहा, किन्तु भाभी ने दृढ़ शब्दों में इन्कार कर दिया, "पुत्र के न रहने पर जिन सास-ससुर ने मुझे सम्बन्ध दिया, उनका घर मैं कदापि नहीं छोडूंगी. अब ये ही मेरे माता-पिता है और मैं ही इनका अपूर्व हूं." शोकाकुल माता-पिता, पुत्री के उत्तर से अवश्य आहत हुए, किन्तु मन ही मन उन्होंने उसके विचारों की सराहना भी की. कुछ माह व्यतीत होते ही मां ने एकांत जुटते ही मुझे घेरा, "अनुज अब तुम ही इस घर के अपूर्व हो. हमारे शास्त्रों में भी युवा विधवा भाभी से देवर का विवाह मान्य है. यदि तुम साहस कर अपनी भाभी से विवाह कर सको तो नेहा अनाथ होने से बच सकती है."
यह सुनकर मैं अवाक रह गया. यद्यपि मैं भाभी व नेहा के भविष्य की चिंता में घुला जा रहा था, किंतु मैंने स्वप्र में भी यह समाधान न सोचा था. हर बार यही विचार मन में आता था कि किसी योग्य वर से भाभी का विवाह करके उनका जीवन संवार दूंगा. यही बात जब मां के समक्ष रखी तो वे शान्त स्वर में बोलीं, "मैंने भी पहले ऐसा ही सोचा था, किन्तु क्या कोई भी अनजान पुरुष नेहा को पिता का प्यार दे सकेगा?"
"नेहा को हम अपने पास रख लेंगे."
"तब वह माता-पिता दोनों को खोकर एकदम ही अनाथ हो जाएगी." मां के स्वर में विवशता थी.
तभी भाभी वहां आ गई और वह प्रसंग वहीं का वहीं रह गया. सारी रात मैं अपने मन को मथता रहा.
भाभी मेरी समव्यस्क थीं, किंतु सामान्य हास्य-विनोद के अतिरिक्त हमारे बीच शालीन शिष्ट संबन्ध थे. देवर-भाभी वाली गहन आत्मीयता के स्थान पर कमोबेश भाई-बहन वाला सरल सहयोगी भाव अधिक था.
भाभी मुझसे मित्रवत व्यवहार करती थीं. उनके प्रति मेरे मन में प्रेम से अधिक श्रद्धा थी, इसीलिए वे मुझे भाभी नहीं, अपितु बहन सी निश्छल लगती थीं. उनका स्नेह परजाई जैसा कम मां जाई जैसा अधिक था. मेरे अवगुणों पर बहन की भांति पर्दा डालना, पापा के क्रोध के समक्ष ढाल बन जाना, भैया से छुपा कर रुपया-पैसा देना.
मुझे आज भी वह दिन याद है, जब मोहल्ले के लड़ाई-झगड़े में मैं भी शामिल था. बात पुलिस तक पहुंच गई थी. मेरा भी नाम रिपोर्ट में था, किंतु भाभी ने अपने पुलिस अधिकारी भाई के सहयोग से मुझे साफ़ बचा लिया. किसी को कानोंकान खबर न हुई, अन्यथा मेरा करियर, मेरा भविष्य सब मिट्टी में मिल चुका होता.
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जितना मन मथता, उतनी ही भावनाओं की शल्य चिकित्सा होती और सत्य उजागर होता. भाभी के प्रति हृदय के हर कोने में श्रद्धा थी, प्रेम व स्नेह था, किंतु कामना, वासना लेशमात्र न थी. वह पूजनीय थीं, भोग्या नहीं. उनका सौन्दर्य देवी मात्र का सौन्दर्य था, अंकशायिनी प्रेयसी का नहीं. किन्तु विधाता ने मुझे इस चक्रव्यूह में ला खड़ा किया है.
नेहा के भविष्य का प्रश्न मुंह बाए खड़ा है, जिसका एकमात्र व्यावहारिक समाधान वही था, जो मां ने सुझाया था. पर उसके लिए, मेरा मानस किसी भी तरह तैयार न था.
क्या विवाह ही एकमात्र समाधान है? क्या मैं नेहा को गोद लेकर आजीवन अविवाहित नहीं रह सकता? क्या भैया की अंतिम निशानी के लिए हम यह कुर्बानी नहीं दे सकते? प्रश्नों से घबरा कर आंखें बन्द कर लेता हूं.
अंत में सदा की भांति मुझे भाभी के समक्ष ही अपना हृदय खोलना पड़ा. भाभी ने विचार करने के लिए एक सप्ताह का समय मांगा. इस बीच में ऊहापोह में रहा, पर एक दिन स्वयं ही भाभी ने दृढ़ शब्दों में कहा, "अनुज, कुछ समस्याओं के समाधान बहुत सरल व मन मुताबिक़ नहीं होते. यद्यपि मेरे मन में भी वही भाव तुम्हारे प्रति हैं, जैसे तुम्हारे मेरे प्रति हैं. मैं भी किसी प्रकार अपने मन को नहीं समझा पा रही हूं, किन्तु इस घर में बने रहने के लिए मैं मांजी का निर्णय भी स्वीकार कर लूंगी. नेहा के भविष्य के लिए तुम्हें ही उसके पिता की भूमिका का निर्वाह करना चाहिए. सामाजिक मर्यादा के पालन, माता-पिता की ख़ुशी व नेहा के लिए, हमें इतना त्याग करना ही पड़ेगा.
तुम्हारे प्रति मेरे मन में मित्रवत् भाव हैं. तुम्हें पति के रूप में स्वीकार करना मेरे लिए कठिन है. फिर भी मैं तुम्हारे नाम की बिंदी लगाने को तैयार हूं. तुम भी मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार कर लो. फिर हम मित्रवत् रहने के लिए स्वतंत्र रहेंगे. आगे की बातें हम भविष्य के हाथों सौंप देंगे वह जो भी निर्णय करेगा, हम स्वीकार कर लेंगे."
मुझे लगा कि भाभी के विचार कितने स्पष्ट हैं. वे कितनी साहसी व समझादार हैं. बिना लाग लपेट के उन्होंने सत्य को स्वीकार कर लिया, जबकि मैं उधेड़बुन में लगा रहा. इसी को विरक्ति कहते हैं. संसार में रहते हुए सांसारिक, सामाजिक नियमों का पालन करते हुए सर्वथा निर्लिप्त रहना ही साधुता है. भाभी मुझसे कहीं अधिक सक्षम, सामर्थ्यवान व उदार हैं. वे मेरी तरह विचलित नहीं होतीं, स्थिति से पलायन नहीं करतीं, सत्य को देखने, समझने की शक्ति है, तो काम वासना में डूबे बिना दांपत्य का निर्वाह हो सकता है. ऐसा तो मैंने कभी सोचा भी न था, पर यह कैसा सुंदर-सरल समाधान था.
सादे समारोह में हमारा विवाह हो गया. भाभी पूर्ववत् अपने शोध में व्यस्त हो गईं और मैं अपनी नौकरी में. नेहा सत्य जानकर विचलित नहीं हुई, क्योंकि शायद यही एकमात्र व्यावहारिक समाधान था.
- शोभा मेहरोत्रा
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