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कहानी- संदूकची का राज़… (Short Story- Sandukchi Ka Raaz…)

एक छोटी-सी संदूकची, जिसे नमिता बचपन से ही दादी से खोलने की ज़िद करती थी, वह कुछ समय पहले दादी ने ही उस कमरे में रख दी थी. बचपन में नमिता उसके बारे में अक्सर उनसे पूछा करती थी, तो दादी उसमें पूजा की किताबें होने की बात कहकर टाल जाती थीं.
"पूजा की किताबें हैं उसमें, तू क्या करेगी… पढ़ाई के दिन है तेरे. जब तू बड़ी होगी तब दिखा दूंगी."

शहर से कुछ दूर हटकर शांत इलाके में बसा एक परिवार. बड़ा सुसंस्कृत और संभ्रांत. परिवार में बुज़ुर्ग दादी, पति-पत्नी और दो बच्चे थे. बड़ी बेटी नमिता, जो विवाह के कई वर्षों बाद इस दंपति को पहली संतान के रूप में प्राप्त हुई थी. वह माता-पिता और दादी सबकी लाडली थी. छोटा भाई भी उसे अथाह प्यार करता था. इन दिनों घर में काफ़ी रौनक़ थी. कुछ ही समय बाद नमिता का विवाह जो होनेवाला था. घर की साफ़-सफ़ाई के दौरान बहुत दिनों बाद दादी के कमरे के बगलवाला उपेक्षित-सा वह कमरा खोला गया, जहां अनुपयुक्त सामान रखा गया था. उपेक्षित इस संदर्भ में कि वहां जाने की किसी को आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी. एक छोटी-सी संदूकची, जिसे नमिता बचपन से ही दादी से खोलने की ज़िद करती थी, वह कुछ समय पहले दादी ने ही उस कमरे में रख दी थी. बचपन में नमिता उसके बारे में अक्सर उनसे पूछा करती थी, तो दादी उसमें पूजा की किताबें होने की बात कहकर टाल जाती थीं.
"पूजा की किताबें हैं उसमें, तू क्या करेगी… पढ़ाई के दिन है तेरे. जब तू बड़ी होगी तब दिखा दूंगी."


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दादी नमिता की सबसे अच्छी सहेली थी. मां से भी ज़्यादा लगाव नमिता को दादी से था.
और आज जब फिर उसने संदूकची देखी, तो वही बचपन वाली ज़िद पकड़ ली, "दादी, अब तो मैं बड़ी हो गई हूं और कुछ समय बाद दूसरे घर चली जाऊंगी. अब तो ये संदूकची दिखा दो ना."
दादी बड़े लाड़ से मुस्कुराते हुए पोती को देखती है. चाबी लाकर संदूकची में लगे छोटे से ताले को खोलती हैं. नमिता बड़े कौतूहल से उन्हें देख रही होती है. संदूकची खुली, तो उसमें सबसे ऊपर एक लाल रंग के रेशमी कपड़े में लिपटी रामायण थी. उसे हटाने पर शादी का लाल जोड़ा, एक मर्दाना अचकन, रेशमी रुमाल और टोपी बड़े ही करीने से रखी गई थी.
दादी ने उसे बताया कि यह दादाजी की निशानी है. उनकी मृत्यु के बाद जब भी उनकी याद आती, तो वह इसे खोलकर जी भर देख लेती थीं और हाथ फेर लेती थीं. ऐसा कर वह उन्हें हमेशा अपने पास महसूस करती थीं. इधर तो कई महीनों से खोला भी नहीं था इसे. कुछ समय पूर्व, दादी के कमरे में रंग-रोगन का काम चल रहा था इसलिए उन्होंने इसे स्टोर में सुरक्षित रख दिया था.
नमिता मंत्रमुग्ध होकर दादी को निहार रही थी.
"अच्छा दादी, तभी आपने मुझे इतनी बार कहने पर भी यह नहीं दिखाया."


"अरे, कहा था ना तुझसे, बड़ी हो जाएगी तो सब दिखा दूंगी. अब तू बड़ी हो गई है, तो दिखा रही हूं." ‌ऐसा कहते हुए उन्होंने संदूक में रखे कपड़ों की तह के नीचे हाथ डालकर कुछ निकाला. ये श्वेत श्याम तस्वीरें थीं. एक दादाजी की अकेली और दूसरी दादी के साथ.
दादी के हाथ से तस्वीरों को लगभग छीनते हुए नमिता बोली, "वाह, इतने हैंडसम थे हमारे दादाजी और आप तो बिल्कुल गुड़िया जैसी. कितनी उम्र रही होगी तब आपकी..?"
"सोलह साल…" ‌
"अरे, दादी सोलह साल में शादी..? आपने ससुराल में ज़िम्मेदारी कैसे संभाल ली..?"
"उस वक़्त लगभग सभी की शादियां इसी उम्र में होती थीं. थोड़ा काम मायके से ही सीख लेते थे, थोड़ा वहां जाकर आ जाता था. कई बार सास बहुत बुरी होती थी. हां, बूढ़ी सास भी होती थी तब तो. वह सास को नियंत्रण में रखती थी और सास बहू को…" कहते हुए दादी ने ठहाका लगाया.
"बूढ़ी सास के तो बड़े मज़े होते होंगे. उन्हें रौब दिखाने के लिए दो-दो बहुएं मिल जाती होंगी."
"हां, घर-घर की बात होती थी. कहीं मर्द इतने तेज होते थे कि औरतें कुछ बोल ही नहीं पाती थी. तू कल्पना भी नहीं कर सकती उस समय की. पांच पास कर लिया, तो शादी. बस कोई-कोई ही मेरी तरह आठवीं कर पाता था."
बस फिर क्या था..? नमिता को इन पुरानी बातों में बहुत आनंद आने लगा. वह सोचने लगी कि उसने पहले यह सब दादी से क्यों नहीं पूछा. उसे लगा कि ये सारी जानकारियां इकट्ठा करके तो वह एक बहुत अच्छा-सा उपन्यास भी लिख सकती है.
जब पुराने ज़माने का ज़िक्र छिड़ा ही था, तो बहुत सारी बातें नमिता ने पूछ डालीं. दादी ने भी उसकी जिज्ञासा को शांत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. नौले से पानी लाने की बात, जानवर पालने की बात और उनके लिए घास काट कर लाने की ढेरों बातें दादी ने उसे बताई. उन्होंने यह भी बताया कि उस ज़माने में घरों में बिजली भी नहीं थी. इक्का-दुक्का घरों में रेडियो होते थे, जो बैटरी से चलाए जाते थे.
इन सबके साथ ही नमिता के मन में एक दूसरा सवाल चल रहा था. वह बीच में ही बोल बैठी, "दादी, आपकी सास यानी मेरी बूढ़ी दादी कैसी थीं..?"


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"बहुत अच्छी थी रे तेरी बूढ़ी दादी. दादा ज़रा तेज़ थे, पर कुछ भी बोलते, तो उन्हें समझाकर शांत करा देती. वे किसी की नहीं सुनते थे, पर दादी की बात हमेशा सुनते थे. गज़ब का तेज था तेरी बूढ़ी दादी के व्यक्तित्व में. पढ़ी-लिखी नहीं थीं, पर व्यावहारिक ज्ञान ज़मानेभर का था. हर बीमारी का इलाज पता था उन्हें. जब तेरे पापा हुए थे, तो उन्होंने मेरी बहुत सेवा की मां बन कर. मेरे खाने-पीने का बहुत ध्यान रखा."
"वाह दादी! आप ख़ुद हो ही इतनी अच्छी." कहकर नमिता उनके गले से लिपट गई.
"दादी, ये बातें अब कंटिन्यू रहेंगी. मुझे आपसे बहुत कुछ और जानना है उस ज़माने के बारे में, आपके बारे में. आज संदूकची भी देख ली." वह खिलखिलाई. दादी की बत रसियों में उसे आनंद आ रहा था. मगर माॅं नाश्ते के लिए आवाज़ दे रही थी.
"चलें, नाश्ते का समय हो रहा है."
"हां, हां, चलते हैं, मगर जिस काम के लिए आज इसे खोला, वह तो अभी किया ही नहीं..?"
नमिता अपलक दादी को देख रही थी. दादी के चेहरे पर फिर एक मधुर मुस्कान खिली और उन्होंने फिर संदूकची के अंदर हाथ डाला. कपड़े की एक छोटी-सी थैली निकालकर उसे खोला. नमिता की आंखें चमक रही थी कि दादी के पिटारे से अब क्या निकल रहा है. ये अष्टधातु के बने दो सुंदर से कंगन थे, जिन पर ख़ूबसूरत मीनाकारी और नक्काशी थी. वह उन्हें दादी के हाथ से छीनने ही वाली थी कि दादी ने अपनी पकड़ मज़बूत की और बोली, "ठहर! अपना हाथ आगे कर."
नमिता ने दोनों हाथ आगे कर दिए. दादी ने एक-एक करके दोनों कंगन उसको पहना दिए.
"अरे, ये तो बिल्कुल फिट है मेरे हाथों में." कहकर नमिता चहक उठी. उसके गोरे हाथों में कंगन इतरा रहे थे. दादी पोती की बलैया लेने लगी. उन्हें अपना ज़माना याद आ गया.
"दादी, ये दादाजी लाए थे क्या आपके लिए..?" उसने शरारत से पूछा.
"हां पगली! और कौन लाएगा..? शादी की पहली वर्षगांठ पर दिए थे ये कंगन उन्होंने मुझे. उनके घरवालों को भी पता ना था. बहुत कम तनख़्वाह थी. माता-पिता और छोटे भाई-बहनों समेत भरा-पूरा परिवार. तिल-तिल बचाकर ख़रीदे थे. मैंने भी सहेजकर रख लिए थे. पहनने पर डर था कि घरवाले पूछते कि इतने पैसे क्यों ख़र्च किए. एक-दो बार उनके साथ घूमने गई थी, बस तभी पहने. वे इतने जतन से लाए थे कि ख़राब हो जाने के डर से ठीक से पहन भी ना पाई." दादी के चेहरे की भाव भंगिमाएं बदलती जा रही थीं।
"दादी, क्या मां-पापा को पता है..?"
"अरे नहीं, ये मैंने तेरी मां को भी नहीं दिखाए. तेरे दादा और मेरे सिवाय केवल तूने ही पहली बार देखे हैं. अब तेरे हाथों में खनकेंगे तो सब को पता चल जाएगा."
"ओह! अब तो आप का राज़ खुल जाएगा."


"खुलने दे, कोई चोरी थोड़े ही की है. जब उर्मिला को बेटी हुई थी, तभी मैंने सोच लिया था कि उसकी शादी पर अपनी ओर से दूंगी और आज वह दिन आ गया."
"दादी, ये तो दादाजी की याद में आपने सहेजे हैं. इन्हें आप अपने ही पास रखिए." अभी तक खिलखिला रही नमिता के शरारती आंखें भीग गईं और उसका कोमल मन अचानक द्रवित हो उठा.
"अरे नहीं बेटा, उनकी याद तो मेरे सीने में पल-पल धड़कती रहती है. उनकी याद ही तो मेरे जीने का सहारा है इतने वर्षों से. इन्हें तू रख."
वह दादी का प्यार भरा आग्रह ठुकरा ना सकी, "दादी, मैं भी इन्हें बहुत सहेज कर रखूंगी. ये मेरा सबसे बड़ा उपहार है."
मां पापा ने नमिता के लिए एक से एक बढ़िया जेवर बनवाए थे, पर दादी के दिए ये कंगन उसके लिए अनमोल थे. इनमें पीढ़ियों का प्यार जो भरा था.

अमृता पांडे

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Photo Courtesy: Freepik

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