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बच्चों की पहली पाठशाला- दादी-नानी (What can you learn from your grand Parents?)

 
Bachcho ki pahli pathshala
दादी-नानी के बिना हमारा बचपन ही अधूरा है. जहां एक ओर वे हमारे परिवार-संस्कारों की नींव हैं, वहीं दूसरी ओर वे ऐसे विशाल छायादार वृक्ष हैं, जो आकाश की कड़ी धूप से बचाते भी हैं और प्रेम की बारिश में भिगोते भी हैं. दादा-दादी के चेहरे की झुर्रियों में अनुभवों का ख़ज़ाना छिपा है और हर बचपन को इसकी बहुत ज़रूरत है.
अच्छी नानी, प्यारी नानी रूसा-रूसी छोड़ दे, जल्दी से इक पैसा दे दे, तू कंजूसी छोड़ दे... क्यों याद आ गया न आपको आपका बचपन? ज़रूर याद आया होगा. दादी-नानी नाम ही ऐसे हैं. इनसे आपके बचपन की हर छोटी-बड़ी यादें जुड़ी होती हैं. दादा-दादी और नाना-नानी के बिना बचपन अधूरा-सा लगता है. उनकी सुनाई हुई कहानियों में जीवन के सबक मिलते हैं. उनके साथ खेले गए खेलों में जीवन जीने की कला छिपी होती है. याद करें, ख़ुद छड़ी का सहारा लेकर चलनेवाले दादाजी ने कई बार आपको खेलते समय गिरने से बचाया होगा. कई बार दादी-नानी ने अपनी बूढ़ी कमज़ोर आंखों से आपको कहानियां पढ़कर सुनाई होंगी. पाश्‍चात्य संस्कृति में चाहे इस रिश्ते को जनरेशन गैप के नज़रिए से देखा जाता हो, पर हमारे समाज में दादी-नानी को बच्चों की पहली पाठशाला माना जाता है. दादी-नानी संस्कारों की खान होती हैं. ये लोग एक माध्यम होते हैं, जो सशक्त तरी़के से वर्तमान और भविष्य को थामे हुए हैं. जैसे-जैसे समय बदलता गया, इस रिश्ते में भी बदलाव आते गए. दादी-नानी नाम के इस वृक्ष के मायने भी बदलने लगे. अगर देखा जाए, तो इस वृक्ष की घनी छांव के बिना जीना मुश्किल है, पर आज ऐसे कई बच्चे हैं, जो दादा-दादी या नाना-नानी के बिना अपना बचपन बिता रहे हैं. इस मीठे से रिश्ते की मिठास से अनभिज्ञ हैं. इसका कारण कई तरह के सामाजिक बदलाव हैं. संयुक्त परिवार टूटे, फिर एकल परिवार आए और आज एकल परिवार भी बहुत कम देखने को मिलते हैं, क्योंकि आजकल न्युक्लियर फैमिली का चलन है अर्थात् ऐसा परिवार, जिसमें स़िर्फ पैरेंट्स और बच्चे ही होते हैं.
क्या सीखते हैं बच्चे दादी-नानी से?
जानकार मानते हैं कि बच्चे देखकर सीखते हैं, ख़ासकर बात जब जीवन के सबक की हो, जो किसी क़िताब में नहीं मिलता. आप एक पल के लिए ख़ुद ही सोचकर देखें कि आप को भगवान के सामने हाथ जोड़ने की आदत किससे लगी? आपको बड़ों का सम्मान और छोटों से प्यार करने की सीख किसने दी? आपने रिश्तों के मायने और उनकी गरिमा के बारे में किससे सीख ली? आपको रीति-रिवाज़ों और अपनी संस्कृति का ज्ञान कहां से मिला?... आपको एक ही उत्तर मिलेगा और वह है आपके दादा-दादी या नाना-नानी से. इन सबके अलावा दादा-दादी और नाना-नानी परिवार को पूर्णता का एहसास कराते हैं.
आख़िर क्यों ज़रूरी है दादी-नानी का रिश्ता हमारे बच्चों के लिए? इस रिश्ते की परिभाषा क्या है? आइए जानते हैं.
  • 57 वर्षीय पुष्पक सिंह देसाई बताते हैं कि दादा-दादी और पोते-पोतियों का रिश्ता चर्चा का विषय न होकर अनुभूति का विषय है, क्योंकि इसे स़िर्फ महसूस किया जा सकता है. यह सच है कि बच्चे अपने पैरेंट्स की बजाय अपने ग्रैंड पैरेंट्स के ज़्यादा क़रीब होते हैं. मैं ख़ुद अपने दादाजी को सारी बातें सबसे पहले बताता था. आज मैं ख़ुद दादा भी हूं और नाना भी. अपने पोती और नाती की ख़ुशी के लिए मैं सब कुछ करता हूं. मुझे ऐसा लगता है कि ग्रैंड पैरेंट्स होना बहुत ही ज़िम्मेदारी का काम होता है. उनका काम बच्चों को प्यार देना या उनकी हर अच्छी-बुरी इच्छाओं को पूरा करना ही नहीं है. इससे बच्चे बिगड़ जाएंगे. वे बच्चों का साथ तभी दें, जब वे सही हों. उन्हें बताएं कि क्या सही है और क्या ग़लत. उन्हें अनुशासित करें. बच्चे खाली स्लेट के समान हैं. उस पर क्या लिखना है, यह आपको तय करना है.
  • सरोज अग्रवाल अपनी भावनाओं को कुछ यूं व्यक्त करती हैं, “मेरी एक प्यारी-सी पोती है. मेरे ख़्याल से दादा-दादी हमारे घर-परिवार व संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं और हमेशा रहेंगे. बच्चे बैठाकर सिखाने से नहीं सीखते. वे वैसा ही आचरण करते हैं, जैसा बड़ों को करते हुए देखते हैं. आप उन चीज़ों की अपेक्षा बच्चों से नहीं कर सकते, जो आप ख़ुद नहीं करते और यह बात दादा-दादी बहुत अच्छे से जानते हैं. यह रिश्ता बहुत ही प्यारा और अनमोल होता है. बच्चे के लिए भी और दादा-दादी के लिए भी. वे अपने पोते-पोतियों में एक बार फिर अपना बचपन देखते हैं और अपने बचपन को फिर से एक बार जीते हैं. आज जाने-अनजाने इस रिश्ते में कई सारे बदलाव और कुछ दूरियां भी आई हैं, जिसका सीधा असर बच्चों के बचपन और भविष्य में उनके व्यक्तित्व पर पड़ रहा है. कहीं न कहीं वे अकेले भी होते जा रहे हैं.”
  • मनोवैज्ञानिक रमेश आहूजा के अनुसार, आज बच्चों को कई तरह के एक्सपोज़र मिल रहे हैं, पर उस एक्सपोज़र का उपयोग किस तरह किया जाए, इसके लिए उनके पास मॉरल नॉलेज मतलब नैतिक ज्ञान नहीं है. तभी कभी-कभी बच्चे भटक जाते हैं. यह ज्ञान या तो उन्हें पैरेंट्स से मिलता है या फिर इसके सबसे अच्छे स्रोत हैं हमारे बुज़ुर्ग. इन दो पीढ़ियों का तालमेल काफ़ी अच्छा होता है. बच्चे बुज़ुर्गों की बातें काफ़ी जल्दी समझ भी जाते हैं. इसका कारण है बुज़ुर्गों का अनुभव. साथ ही देखा जाए, तो हर उम्रदराज़ व्यक्ति में कहीं न कहीं एक बच्चा छुपा होता है. एक भरे-पूरे परिवार में रहनेवाला बच्चा ज़्यादा आत्मविश्‍वासी और भावनाओं के स्तर पर संतुलित रहता है.
कैसी है आज की दादी-नानी की पाठशाला?
  • समय से अछूता कुछ भी नहीं है और आगे वही बढ़ पाया है, जो समय के साथ ख़ुद को बदल पाया है. आज दादी-नानी की कहानियां तक इंटरनेट पर उपलब्ध हैं, पर मज़ा तो तब है, जब दादी या नानी ख़ुद गोद में बिठाकर ये कहानियां सुनाएं.
  • यह जनरेशन गैप जैसी चीज़ें कुछ नहीं होती हैं. यह गैप बच्चे नहीं बनाते, यह हमारी बनाई हुई हैं. यदि आज कहीं पर भी दादा-दादी और पोते-पोतियों का रिश्ता इस समस्या से ग्रस्त है, तो इसके लिए काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार हम ही हैं, क्योंकि हम बड़े हैं. बच्चों से ऐसी अपेक्षाएं रखना ही ग़लत है.
  • आप यदि दादा-दादी होने के नाम पर संस्कारों और विचारों की पूरी गठरी बच्चों के सिर पर रख देंगे, तो वे उसे उतारकर फेंक देंगे. आज की पीढ़ी की तुलना हम अपने समय से नहीं कर सकते. आज बच्चे अत्याधुनिक जानकारियों से लैस हैं. उस हिसाब से आज दादा-दादी को भी ख़ुद को बदलना पड़ेगा. किसी भी उम्र के बच्चे अपने ऊपर थोपी गई चीज़ों को ग्रहण नहीं करते. ग्रैंड पैरेंट्स को किसी चीज़ को उन्हें समझाने के लिए पहले ख़ुद उनकी उम्र का बनना पड़ेगा. फिर आप खेल-खेल में और उनकी भाषा में उन्हें अपनी बातें बताएं, वे ज़रूर समझ जाएंगे.
  • आज के बच्चों में रीज़निंग पावर ज़बरदस्त है. वे हर चीज़ का कारण बताते भी हैं और आपसे भी जानना चाहते हैं. यदि आप बच्चे को कहेंगे कि ये काम मत करो, तो वह नहीं मानेगा, पर अगर आप उसे ऐसा कहने के पीछे का कारण समझा पाएं, तो वह ज़रूर मानेगा. हमें बच्चों को अपने विचार वैसे ही परोसने पड़ेंगे, जैसे वे ग्रहण करना चाहते हैं.
  • बच्चों की अच्छी परवरिश या तो पैरेंट्स कर सकते हैं या उनकी अनुपस्थिति में ग्रैंड पैरेंट्स. आज माता-पिता दोनों ही वर्किंग हैं, ऐसे में बच्चों को नौकरानी या आया के हवाले करके जाना या किसी क्रेच में रखना उनकी मजबूरी है. पर अगर घर में दादा-दादी या नाना-नानी हैं, तो पैरेंट्स की अनुपस्थिति में भी उनको प्रेम और अपनेपन की कोई कमी नहीं होगी, जो उनके बचपन से अकेलेपन को दूर करेगा और उनमें आत्मविश्‍वास भी जगाएगा. आज दादा-दादी की ज़िम्मेदारी स़िर्फ कहानियां सुनाने तक ही सीमित नहीं रह गई है.
- विजया कठाले निबंधे

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