एक स्त्री होकर भी दूसरी स्त्री को जो अतीत में इतने दुख सहकर बाहर आई है, उसे प्यार से वंचित रखा जाए? एक अविवाहित, कम उम्र की लड़की अगर उसकी बहू बनकर घर में आए और वह घर में किसी को भी स्नेह व सम्मान ना दे, तो क्या कर लेगी माधवी... क्या इंसान के गुण व स्वभाव को उम्र और सामाजिक स्थिति के पैमानों पर बांटना उचित है? नहीं, कदापि नहीं!
सिरदर्द होना तो अब आम बात ही थी. यह तो माधवी का आजकल हर महीने का कष्ट बन गया था. पिछले चार महीनों से पीरियड से पहले एक दिन इतना तेज़ सिरदर्द होता है कि पेनकिलर टैबलेट लेने से भी आराम नहीं मिलता. आजकल यह सिरदर्द ही जैसे बताने लगा है कि कल पीरियड होगा.
वैसे स्त्री तन-मन हर स्थिति में स्वयं को संभाल लेना जानती ही है, सो माधवी भी समझ गई कि आज वह कुछ भी कर ले, यह सिरदर्द रात तक रहेगा. फिर कल उसे पीरियड हो जाने पर सिरदर्द भी महीनेभर के लिए गायब रहेगा.
एक दिन माधवी की ख़ास दोस्त नीरजा ने भी उसे बताया था कि मेनोपॉज़ के समय कई तरह के बदलाव होते हैं. उसमें मानसिक व शारीरिक परेशानियां भी होती हैं. वो भी इस स्थिति से गुज़र चुकी है.
पूरा दिन माधवी का ना कुछ खाने का मन करता है, ना कुछ करने का. किसी से बात करने की इच्छा भी नहीं होती. माधवी ने किसी तरह सुबह अपने पति तन्मय और बेटी तन्वी का टिफिन तो बना दिया था, पर ख़ुद ज़रा भी खाने की इच्छा नहीं हुई थी. दोनों ‘आराम कर लो’ कहते हुए ऑफिस चले गए थे. बेटा गौरव ऑफिस की मीटिंग के सिलसिले में कोलकाता गया हुआ है, एक हफ़्ते में आएगा.
दोपहर के दो बज रहे थे, पर माधवी की हिम्मत नहीं हुई कि उठकर किचन तक जाए और अपना खाना ले ले. सिर की नसें फट रही थीं. नाश्ता भी ठीक से नहीं किया था, तो अब पेट खाली था. एसिडिटी हो रही थी. इतने में पास रखा मोबाइल वाइब्रेट होने लगा. उसने फोन साइलेंट पर रखा हुआ था, पर वाइब्रेशन महसूस हुआ. देखा, स्पृहा का फोन था. नहीं, उसे फोन नहीं उठाना है. वही मीठी-मीठी बातें, “मम्मी, आप कैसी हैं? खाना खा लिया है ना... कुछ काम तो नहीं है ना...”
सिर को दुपट्टे में बांधे-बांधे माधवी स्पृहा के बारे में सोचने लगी. उसके बेटे गौरव की गर्लफ्रेंड है स्पृहा. गौरव से पांच साल बड़ी. माधवी को अपने बेटे और इस लड़की की उम्र का यह फ़र्क़ मन ही मन बहुत कचोटता है. उसका मन कई बार झुंझलाहट से भर उठता है और इसका कारण उम्र ही नहीं, स्पृहा का तलाक़शुदा होना भी है.
गौरव को स्पृहा दोस्तों के फंक्शन में मिली थी. गौरव ने बताया है कि स्पृहा घरेलू हिंसा की शिकार भी रही है. इसके पिता की संपत्ति के लालच में इसे ससुराल में ख़ूब मारा-पीटा जाता था. एक दिन वो सब छोड़कर मायके आ गई थी. बहुत लंबे समय डिप्रेशन में रही है. अब थोड़ा सामान्य हुई है.
माधवी जानती है कि गौरव के दिल में स्पृहा के लिए बहुत अधिक प्यार व सहानुभूति है. तन्मय और तन्वी भी स्पृहा को पसंद करते हैं. माधवी ने अपने मुंह से तो कभी कुछ नहीं कहा, पर तलाक़शुदा व उम्र में बड़ी लड़की अपने बेटे के लिए उसे नहीं जंच रही थी. वैसे जब भी स्पृहा घर में आती है, घर चहकने लगता है. वैसे तो माधवी ने अपने बेटे के लिए जैसी लड़की के सपने देखे थे, स्पृहा उन सभी पैमानों पर फिट बैठती है, पर बेटे के लिए उम्र में बड़ी और तलाक़शुदा लड़की के सपने थोड़े ही देखे थे! कौन मां देखती है? देखने में सुंदर, मेहनती, एक्टिव, उच्च शिक्षित, मॉडर्न, बड़ों को सम्मान और छोटों को ख़ूब स्नेह देनेवाली स्पृहा, जब माधवी से बात करती है, तो माधवी भूल जाती है मन की कसक.
स्पृहा की हर बात माधवी मंत्रमुग्ध होकर सुनती है. कितनी ज्ञानभरी बातें करती है. माधवी के पढ़ने के शौक़ को ध्यान में रखते हुए वही तो उन्हें किताबों की दुनिया में ले जाती है. हर बात घर में सबका ध्यान रखते हुए करती है. मजाल है कभी किसी को उसकी कोई बात नागवार गुज़री हो.
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माधवी ने कसमसाकर करवट बदली. भूख तो लगी थी, पर सुबह जो तन्मय और तन्वी के लिए खाना बना था, छोले और आलू गोभी, ज़रा भी खाने का मन नहीं था. बस, खिचड़ी खाने का मन कर रहा है जीरे और हींग से छौंकी गई हल्की-सी सादी पतली खिचड़ी, जैसे मां बनाती थीं.
माधवी की आंखों के कोरों से आंसू ढलक गए. कौन बनाकर देगा अब खिचड़ी? कोई भी तो नहीं... कौन है ऐसा? पिछले महीने भी तो इस सिरदर्द में यही खिचड़ी खाने का मन किया था. सोचा था अगले महीने अपने लिए पहले ही बनाकर रख लेगी, पर कहां अपने लिए अलग से कुछ बनाने की हिम्मत होती है. तबीयत ख़राब होने पर चार चीज़ें तो नहीं बन सकतीं ना. वो वही तो बनाती है, जो सबको खाना होता है.
उसे याद आया कुछ महीने पहले भी सिरदर्द के समय तन्वी घर पर थी. माधवी की खिचड़ी खाने की इच्छा को देखते हुए तन्वी ने कहा था, “मां, खिचड़ी कौन-सी बड़ी चीज़ है. अभी ऑर्डर कर देती हूं. आजकल सब तो मिल जाता है.” माधवी हैरान हुई थी.
“खिचड़ी भी ऑर्डर करोगी अब?”
“हां मां, आज वीकेंड है. मैं तो आराम के मूड में हूं. पापा और गौरव को तो बनाना आता नहीं है. हम अपने लिए कुछ और ऑर्डर कर लेंगे. आपके लिए खिचड़ी, ठीक है?” माधवी ने यूं ही बस सिर हिला दिया था. तीनों के लिए पिज़्ज़ा और उसके लिए खिचड़ी आ गई थी. अच्छी थी, पर मन में कुछ चटक ज़रूर गया था. जब स्पृहा अचानक आ गई थी और बोली थी, “अरे, मुझे फोन क्यों नहीं किया? मैं आकर खिचड़ी बना देती. मां को तो पहले से ही ठीक नहीं लग रहा है, उस पर बाहर की खिचड़ी...” स्पृहा का चेहरा उतर गया था.
तन्वी से कहा था, “मुझे फोन क्यों नहीं किया?”
माधवी ने स्वभाववश बात संभाल ली थी. धीरे-से अकेले में कहा था कि आजकल यह सिरदर्द तो हर महीने पीरियड से एक दिन पहले हो रहा है. यूं ही खिचड़ी खाने का मन हो आता है. बहुत हल्का ही खाने की इच्छा रहती है. कोई बात नहीं, अच्छी थी. खा ली.
माधवी के लिए स्पृहा का इतना चिंता करना भी कुछ ख़ास मायने नहीं रख पाता है. कारण वही कि बेटे के लिए उसी की कोई हमउम्र लड़की होती तो अच्छा रहता. रह-रहकर माधवी का फोन बजता रहा था. हर बार वाइब्रेशन होने पर माधवी ने देखा, स्पृहा ही थी. मन नहीं है बात करने का. नहीं उठाया, पर ऐसी एक नहीं, कई बातें माधवी को लेटे-लेटे याद आ रही थीं, जब स्पृहा ने घर की हर छोटी से छोटी बात की चिंता की थी. कभी माधवी कपड़े सुखाने के लिए बालकनी में होती है, तो चुपचाप उसके हाथ से कपड़े लेकर सुखाने लगती है स्पृहा. कभी किचन में बर्तन पोंछ रही होती है, तो दूसरा कपड़ा लेकर वह भी पोंछने लग जाती है. कभी सबके साथ खा रही होती है, तो बाकी तीनों तो अपनी प्लेट सिंक तक रखकर छुट्टी करते हैं. स्पृहा ही पूरा टेबल साफ़ करवाती है. सब डोंगे, बर्तन वही किचन तक ले जाती है. टेबल साफ़ करती है. कोई और कहां ध्यान देता है इतनी छोटी-छोटी बात पर... माधवी से स्पृहा की एक भी हरकत छुप नहीं पाती है. वह उसे पसंद करती है. प्यार भी करती है, पर उम्र और तलाक़ की बात पर माधवी के मन की सुई अटक जाती है.
वह बस आगे नहीं सोच पाती है. गौरव ने उसे स्पृहा की पूर्व विवाहित जीवन की शारीरिक और मानसिक यंत्रणा के बारे में बताया हुआ है. एक स्त्री होने के नाते उसे पूरी तरह सहानुभूति है स्पृहा के साथ, पर कुछ तो है ना, जो खटकता है माधवी के निश्छल मन को भी.
अचानक डोरबेल बजी. माधवी ने टाइम देखा पौने तीन बज रहे थे. उसने दोपहर से कुछ खाया ही नहीं था अभी तक. दरवाज़ा खोलूं या नहीं... किसी फ्रेंड से मिलने की ना तो इच्छा थी, ना हिम्मत. देखना तो पड़ेगा ही. कहीं कोई कुरियर हो... माधवी बेड से उठी. सिर की नसें जैसे फटने को थीं. आंखें आंसुओं से धुंधला गईं और जैसे ही मुंह से ‘ओह! मां’ निकला रोना आ गया. अब कहां कोई था मायके में... वह अकेली ही तो संतान थी. माता-पिता इस दुनिया से विदा ले ही चुके थे. जाकर दरवाज़ा खोला. मई की गर्मी में पसीने से तरबतर स्पृहा खड़ी थी.
“अरे! तुम? इस समय इतनी धूप में? क्या हुआ? ऑफिस नहीं गई क्या?” तेज़ी से अंदर आते हुए स्पृहा हमेशा की तरह पहले माधवी के गले लगी.
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“आपने फोन नहीं उठाया, तो बड़ी चिंता हुई. व्हाट्सएप पर भी आप सुबह से ऑनलाइन नहीं हैं. पापा, गौरव और तन्वी से भी पूछा, तो उन्होंने बताया कि आज आपको सुबह से सिरदर्द है. मां, आपने कुछ खाया?” माधवी ने ना में सिर हिलाया.
“ओह! मुझे अंदाज़ा था. आपने बताया था ना आपको आजकल भयंकर सिरदर्द हो रहा है.”
फिर अपने बैग से एक टिफिन निकालकर बोली, “यह खाइए आपके लिए खिचड़ी बनाकर लाई हूं.” फिर किचन में जाकर एक प्लेट में खिचड़ी निकाली. फ्रिज से दही भी अपने आप निकाल ली. डाइनिंग टेबल पर रखते हुए बोली, “आइए मां, खिचड़ी खा लीजिए.”
माधवी चेयर पर बैठकर बोली, “तुमने इतनी तकलीफ़ क्यों की? इतनी गर्मी है बाहर.”
“अरे मां, आपकी चिंता हो रही थी. आजकल आप बहुत लो भी महसूस करती रहती हैं ना.” माधवी की आंखें छलछला उठीं. हद से ज़्यादा सिरदर्द और उस पर स्पृहा का स्नेहिल स्वर सुनकर ही दिल भर आया. स्पृहा किचन में गई और एक कटोरी में तेल गर्म करके ले आई. घर की हर चीज़ कहां है, उसे पता है.
माधवी को स्पृहा के हाथ की खिचड़ी इतनी अच्छी लगी थी कि पेट भरकर खा ली, पर मन नहीं भरा था. मां के हाथ जैसा ही स्वाद था खिचड़ी में. यह लड़की तो सब कुछ जानती है. आजकल यही तो मन होता है कि कोई तकलीफ़ में बस इतना कर दे, पर कहां हो पाता है ये सब. तन्वी से मन ही मन उम्मीद करती है माधवी. बेटी है, पर उसका मन ही नहीं होता किचन में कुछ भी करने का. फिर अपना ख़्याल किसी से कहलवाकर थोड़े ही रखा जाता है, कोई ख़ुद रखे तो बात है.
माधवी प्लेट किचन में रखने जाने लगी, तो स्पृहा ने हाथ से ले ली. उसे उठने ही नहीं दिया. उसके सिर पर हाथ रखते हुए बोली, “बस, आप बैठिए मां, मैं ज़रा सिर में तेल लगा देती हूं. आपको आराम मिलेगा.” माधवी स्पृहा के स्नेह के जादू में घिरी वापस चेयर पर बैठ गई.
स्पृहा ने गुनगुना तेल सिर में लगाना शुरू किया. बालों की जड़ों तक हाथों के दबाव से माधवी को इतना आराम मिला कि उसका मन हुआ कि स्पृहा से लिपटकर रो पड़े. उसने अपनी सिसकियों पर काबू रखने की कोशिश की, पर आंसू गालों पर ढुलक ही आए. माधवी नहीं चाहती थी कि स्पृहा जाने कि वह रो रही है, पर जैसे ही उसने धीरे-से अपने आंसुओं को पोंछने के लिए हाथ उठाया, स्पृहा बोल पड़ी, “क्या मां, आप रो रही हैं?” अब माधवी रो ही पड़ी.
“बहुत दर्द है? अभी आराम हो जाएगा मां.”
जैसे-जैसे माधवी के दिल को एक सुकून पहुंच रहा था. उसका दिल चीख-चीखकर जैसे उसे उलाहना दे रहा था कि वह जिन कारणों से अपने दिल में स्पृहा जैसी लड़की के गुणों को नज़रअंदाज़ कर रही थी, क्या वे कारण इतने बड़े हैं?
क्या एक स्त्री होकर भी दूसरी स्त्री को, जो अतीत में इतने दुख सहकर बाहर आई है, प्यार से वंचित रखना ठीक है? एक अविवाहित, कम उम्र की लड़की अगर उसकी बहू बनकर घर में आए और वह घर में किसी को भी स्नेह व सम्मान ना दे, तो क्या कर लेगी माधवी... क्या इंसान के गुण व स्वभाव को उम्र और सामाजिक स्थिति के पैमानों पर बांटना उचित है? नहीं, कदापि नहीं!
माधवी को लगा जैसे उसके सिर से बड़ा बोझ हट गया है. मन फूल-सा हल्का हुआ, तो इस स्पृहा पर ढेर सारा प्यार आ गया. उसने स्पृहा के तेल लगे हाथ चूम लिए और कहा, “बस कर, अब बहुत आराम है.”
“सच मां?” ख़ुशी से स्पृहा की आंखें चमक उठीं. बोली, “अब आपके लिए एक कप चाय बना दूं.”
“मैं बना लूंगी. तुम बैठो. तुम भी पीकर जाना.”
“नहीं, मैं ऑफिस भागती हूं, ज़रूरी काम है कहकर निकली हूं ऑफिस से. आज शाम को बहुत ज़रूरी मीटिंग है. आप अपना ध्यान रखना. बस, आपको देखने ही भागकर आई थी. आपकी तबीयत पता चली थी, तो काम में मन नहीं लग रहा था.” कहते-कहते उसने हाथ धोकर अपना बैग उठाया. बाहर की धूप से बचने के लिए स्कार्फ बांधा और हमेशा की तरह उसके गले लगकर ‘बाय मां’ कहकर झटपट सीढ़ियां उतर गई.
माधवी ने दरवाज़ा बंद किया. वह जैसे किसी और ही दुनिया में पहुंच गई थी, जहां उसके हृदय में स्पृहा के लिए स्नेह ही स्नेह था और कुछ भी नहीं. वह मन ही मन स्पृहा को हमेशा के लिए इस घर में लाने के लिए उसके माता-पिता से मिलने को उत्सुक हो उठी थी.
पूनम अहमद
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